Author : Abhijit Singh

Published on Jul 21, 2023 Updated 0 Hours ago
रक्षा टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में अमेरिका-भारत सहयोग: कितना वास्तविक, कितनी कल्पना

प्रधानमंत्री मोदी की अमेरिका की पहली आधिकारिक राजकीय यात्रा ने भारत के रणनीतिक समुदाय में स्पष्ट रूप से उत्साह पैदा किया है. इस दौरे को अमेरिका-भारत रिश्तों में एक अहम मोड़ और व्यापक द्विपक्षीय रणनीतिक संबंधों में एक परिवर्तनकारी पल के तौर पर देखा जा रहा है. अमेरिकी संसद के संयुक्त सत्र में प्रधानमंत्री का संबोधन कई भारतीयों के लिए गौरव का क्षण था. अनेक लोगों ने इसे वैश्विक मंच पर भारत के उभार की पुष्टि क़रार दिया है. 

महंगे और भारी-भरकम रक्षा ठेकों (ख़ासतौर से भारत में जेट इंजनों के निर्माण के सौदे) ने सबसे ज़्यादा उत्साह पैदा किया है. 21 जून को GE एयरोस्पेस ने एक घोषणा के ज़रिए हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (HAL) के साथ एक समझौता ज्ञापन (MoU) पर हस्ताक्षर किए जाने की पुष्टि की. इसके तहत भारतीय वायु सेना के लिए भारत में F414 जेट इंजन का सह-उत्पादन किया जाएगा. भारत और अमेरिका ने 31 सशस्त्र US MQ-9B सी गार्जियन (प्रीडेटर) ड्रोन की ख़रीद को लेकर भी एक समझौता किया. अमेरिकी कंपनी जनरल एटॉमिक्स 3 अरब अमेरिकी डॉलर की लागत से इनका निर्माण करेगी. 

ये कामयाबियां हफ़्तों और महीनों के तालमेल और योजना-निर्माण का परिणाम हैं. मई 2022 में भारत और अमेरिका ने अहम और उभरती हुई प्रौद्योगिकी (iCET) साझा करने से जुड़ी पहल की घोषणा की थी. तब से भारतीय और अमेरिकी अधिकारी एक परिचालन ढांचा विकसित करने, उसे सुधारने और उसमें ज़रूरी संशोधन करने के लिए कड़ी मेहनत कर रहे हैं. 

ये कामयाबियां हफ़्तों और महीनों के तालमेल और योजना-निर्माण का परिणाम हैं. मई 2022 में भारत और अमेरिका ने अहम और उभरती हुई प्रौद्योगिकी (iCET) साझा करने से जुड़ी पहल की घोषणा की थी. तब से भारतीय और अमेरिकी अधिकारी एक परिचालन ढांचा विकसित करने, उसे सुधारने और उसमें ज़रूरी संशोधन करने के लिए कड़ी मेहनत कर रहे हैं. प्रधानमंत्री मोदी के अमेरिका दौरे से पहले नई दिल्ली की अपनी यात्रा के दौरान अमेरिकी रक्षा मंत्री लॉयड ऑस्टिन ने सैन्य प्लेटफॉर्मों और हार्डवेयर के सह-उत्पादन और सह-विकास के लिए विस्तारित रक्षा-औद्योगिक सहयोग के अवसरों पर चर्चा की थी. प्रधानमंत्री मोदी की ऐतिहासिक अमेरिका यात्रा से चंद दिनों पहले भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल और उनके अमेरिकी समकक्ष जेक सुलिवन ने अत्याधुनिक टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में तालमेल बढ़ाने को लेकर एक रोडमैप से पर्दा उठाया था. इसके तहत महत्वपूर्ण क्षेत्रों में सहयोग को गहरा करने के लिए नियामक बाधाओं के निपटारे पर ज़ोर दिया गया. इनमें सेमीकंडक्टर्स, अगली पीढ़ी का दूरसंचार, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) और रक्षा जैसे क्षेत्र शामिल हैं. 

हालांकि इन क़वायदों के बाद भी भारत-अमेरिका रक्षा संबंधों में तमाम तरह की अड़चनें बरक़रार हैं. अतीत में रक्षा प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में सहयोग को लेकर अमेरिका और भारत अलग-अलग उद्देश्यों से प्रेरित जान पड़ते थे. एक ओर भारतीय प्रक्रियाओं में कम लागत पर उच्च प्रौद्योगिकियों को प्राथमिकता जाती रही, वहीं अमेरिकी प्रणाली ने अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा को ख़तरे में डालने वाली और दोहरे उपयोग वाली टेक्नोलॉजी के निर्यात को सीमित करने पर ध्यान केंद्रित कर रखा था. आज, रक्षा टेक्नोलॉजी क्षेत्र में एक साथ मिलकर और अधिक काम करने की साझा इच्छा के बावजूद दोनों पक्षों की अनिवार्यताएं काफी हद तक अतीत के समान ही बनी हुई हैं. भारत अब भी बजटीय दबावों का सामना कर रहा है, जबकि अमेरिकी कंपनियां अब भी अपने स्वामित्व वाली प्रौद्योगिकियों को चीन और रूस द्वारा चुराए जाने से रोकने की जद्दोजहद में लगी हैं. 

हाल के दिनों में सकारात्मक विकास (ख़ासतौर से F-414 इंजन के संयुक्त निर्माण का सौदा) के बावजूद अमेरिका से दोहरे उपयोग वाली टेक्नोलॉजियों के निर्यात की सीमाएं ऊंची बनी हुई हैं. ख़ास बात ये है कि जेट इंजन के संयुक्त निर्माण से जुड़े समझौता पत्र (MoU) में महत्वपूर्ण प्रौद्योगिकियों के हस्तांतरण से जुड़ी विशिष्टताओं पर बहुत कम स्पष्टता है. अमेरिकी वाणिज्य विभाग अहम टेक्नोलॉजियों के हस्तांतरण से जुड़ी सभी क़वायदों का नियंत्रण करता है. इंटरनेशनल ट्रैफिक इन आर्म्स रेगुलेशंस (ITAR) के माध्यम से इस काम को अंजाम दिया जाता है. बताया जाता है कि ये संस्था अब भी F414 के लिए एक पैकेज तैयार करने और उसे अनुमोदित करने की प्रक्रिया में है. कुछ लोगों का विचार है कि GE द्वारा पूरी प्रौद्योगिकी हस्तांतरित करने या सौदे का ब्योरा जारी किए जाने के भी आसार नहीं हैं. वाणिज्यिक ठेके को अंतिम रूप दिए जाने तक ऐसी क़वायद किए जाने की उम्मीद ना के बराबर है. 

भारत की ज़रूरत

MQ-9 (सी गार्जियन/प्रीडेटर) ड्रोन की बिक्री के साथ भी कई सवाल जुड़े हैं. 3 अरब अमेरिकी डॉलर की क़ीमत वाला यह सौदा महंगा है. ये ड्रोन हवा और सतह की निगरानी क्षमता से बस कुछ ही ज़्यादा क्षमता मुहैया करते हैं. ख़ासतौर से इस तथ्य की रोशनी में देखने पर सौदा ख़र्चीला लगता है. इस विश्लेषक ने हाल के एक पत्र में बताया है कि पनडुब्बी की टोह लगाने और पनडुब्बी-रोधी युद्धकला में मानवरहित हवाई वाहनों की सीमाएं हैं. समुद्र की स्थितियों, सेंसर प्लेटफ़ॉर्म की गति, और भू-चुंबकीय और भू-वैज्ञानिक शोर, चुंबकीय और इलेक्ट्रो-ऑप्टिकल सेंसर को ज़बरदस्त रूप से प्रभावित करते हैं. इससे गहराई में गोता लगाने वाली पनडुब्बियों का पता लगाने से जुड़े ड्रोन्स की क्षमता कम हो जाती है. अपनी बढ़ी हुई सहन-शक्ति और अनेक पेलोड पैकेजों के बावजूद सी गार्जियन एक बड़ा, धीमी गति से चलने वाला और संघर्षपूर्ण वातावरण में असुरक्षित ड्रोन है. भारतीय नौसेना को युद्ध की स्थिति के लिए परमाणु पनडुब्बियों और पानी के नीचे मानव रहित ड्रोन की आवश्यकता है, लेकिन ये प्रौद्योगिकियां उपलब्ध नहीं हैं. अपने लेज़र-निर्देशित बमों और हेल-फायर मिसाइलों से लैस ‘प्रीडेटर’ ड्रोन्स चीन और पाकिस्तान के साथ लगी भारतीय सीमाओं पर घुसपैठ को रोकने में अधिक सक्षम मालूम होते हैं. वैसे तो ये ड्रोन्स अनुकूल वातावरणों में कामयाब रहते हैं, लेकिन यहां भी यह स्पष्ट नहीं है कि ज़्यादा संघर्षपूर्ण और पेचीदा हवाई क्षेत्रों में इन प्लेटफॉर्मों को कैसे काम पर लगाया जाएगा. 

अपनी बढ़ी हुई सहन-शक्ति और अनेक पेलोड पैकेजों के बावजूद सी गार्जियन एक बड़ा, धीमी गति से चलने वाला और संघर्षपूर्ण वातावरण में असुरक्षित ड्रोन है. भारतीय नौसेना को युद्ध की स्थिति के लिए परमाणु पनडुब्बियों और पानी के नीचे मानव रहित ड्रोन की आवश्यकता है, लेकिन ये प्रौद्योगिकियां उपलब्ध नहीं हैं.

महत्वपूर्ण बात यह है कि MQ-9 ड्रोन की ख़रीद अमेरिकी सरकार के विदेशी सैन्य बिक्री (FMS) कार्यक्रम के तहत हो रही है. इस कार्यक्रम के अंतर्गत मित्र देशों को उपकरण और प्लेटफॉर्म की बिक्री से जुड़ी क़वायदों में तेज़ी लाई जाती है. हालांकि ज़रूरी नहीं है कि इसके ज़रिए महत्वपूर्ण जानकारी साझा करने की सुविधा भी दी जाए! कार्यक्रम के तहत किए गए अधिग्रहणों के नतीजतन शायद ही कभी प्रौद्योगिकी का हस्तांतरण हुआ हो. दरअसल, अमेरिकी सरकार से अमेरिकी रक्षा कंपनियों की ओर से काम करने की उम्मीद नहीं की जाती. इन्हीं कंपनियों के पास इन उपकरणों के बौद्धिक संपदा अधिकार होते हैं. ये कंपनियां अपनी इन बेशक़ीमती परिसंपत्तियों को लेकर बेहद बचावकारी होती हैं. वो तब तक इनको ख़ुद से अलग नहीं करती जब तक किसी विदेशी भागीदार के साथ वाणिज्यिक समझौते के चलते ऐसा करने की ज़रूरत ना खड़ी हो. ये दलील दी जा सकती है कि iCET के बाद अमेरिकी निर्यात नियंत्रण में विनियामक बदलाव से टेक्नोलॉजी के हस्तांतरण में आसानी होगी. फिर भी अमेरिकी रक्षा कंपनियां सिर्फ़ अपने शेयरधारकों के प्रति जवाबदेह रहती हैं. ये इकाइयों मोटे तौर पर वाणिज्य-केंद्रित प्रेरणाओं से संचालित होती हैं. आख़िरकार अमेरिकी रक्षा कंपनियां उन्हीं तकनीकों का हस्तांतरण करेंगी जिनका ख़र्च भारत वहन कर सकेगा. 

इसी प्रकार, F-414 सौदे को लेकर भी सवाल बने हुए हैं. भारतीय दृष्टिकोण से अहम मुद्दा ये नहीं है कि क्या अमेरिका पहले की तुलना में अधिक टेक्नोलॉजी की पेशकश करेगा. रक्षा टेक्नोलॉजी और व्यापार पहल (DTTI) की नाकामियों के लिए संशोधन करने की अमेरिकी इच्छा ज़ाहिर है. ख़ास तौर से जेट इंजन विकसित करने के लिए अमेरिका-भारत संयुक्त परियोजना को 2019 में अचानक ख़त्म करने की घटना इन विफलताओं में प्रमुख है. सवाल ये है कि क्या इस बार प्रौद्योगिकी के हस्तांतरण में जेट इंजन का मुख्य कारक शामिल होगा. रक्षा बिक्री मानदंडों को आसान बनाने के बाइडेन प्रशासन के प्रयास, भले ही सराहनीय हैं, लेकिन HAL को हॉट टरबाइन तकनीक का हस्तांतरण करने को लेकर GE को रज़ामंद करने के हिसाब से ये शायद पर्याप्त साबित ना हो. 

साझेदारी की संभावनाएँ

बहरहाल, ऊपर जिन बातों का ज़िक्र किया गया है उनका उद्देश्य प्रौद्योगिकी साझा करने को लेकर भारत-अमेरिकी समझौतों के महत्व को कम करना नहीं है. द्विपक्षीय रक्षा प्रौद्योगिकी सहभागिता को बरक़रार रखने वाली संरचनात्मक वजहें स्पष्ट और दमदार हैं. इन क़वायदों का लक्ष्य हिंद-प्रशांत में चीनी विस्तारवाद का विरोध करना है, जहां अमेरिका और भारत प्रमुख किरदार हैं. रणनीतिक रूप से चीन को रोकने और हतोत्साहित करने के लिए भारत और अमेरिका द्वारा उपकरणों की तलाश करना उचित जान पड़ता है. भारत के साथ अनुकूलित कूटनीति के ज़रिए जुड़ाव बनाने के अमेरिकी प्रयास भी समझ में आते हैं. भू-राजनीतिक अदायगियों से परे अमेरिका द्वारा भारत को गले लगाने की क़वायद भारतीय सशस्त्र बलों को रूसी हथियारों के आयात से दूर करने की इच्छा से प्रेरित है. हालांकि रणनीतिक मोर्चे पर अमेरिका की ओर से नज़र आने वाली परोपकारिता (कम से कम आंशिक रूप से) अमेरिकी कंपनियों द्वारा भारतीय वायु सेना के लिए लड़ाकू विमानों और वाहक-जनित युद्धक विमानों के विनिर्माण के लिए भारतीय निविदाएं जीतने की संभावनाओं पर आधारित है. ये संजीदा करने वाले हालात हैं. 

भारत के साथ अनुकूलित कूटनीति के ज़रिए जुड़ाव बनाने के अमेरिकी प्रयास भी समझ में आते हैं. भू-राजनीतिक अदायगियों से परे अमेरिका द्वारा भारत को गले लगाने की क़वायद भारतीय सशस्त्र बलों को रूसी हथियारों के आयात से दूर करने की इच्छा से प्रेरित है.

ऐसे में रक्षा टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में अमेरिका-भारत साझेदारी की संभावनाओं की सीमाओं की पहचान करना समझदारी भरी क़वायद होगी. जैसा कि एडमिरल अरुण प्रकाश ने हाल ही में टिप्पणी की थी, भारत में फ़ैसले लेने वाले तंत्र को इस वास्तविकता पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए कि कोई भी राज्यसत्ता या निगम, स्वेच्छा से बेशक़ीमती टेक्नोलॉजी साझा नहीं करता है. जब तक निविदा ब्योरे पर सावधानीपूर्वक वार्ताएं नहीं की जाती, तबतक विदेशी निगम ‘लाइसेंस प्राप्त उत्पादन’ को प्रौद्योगिकी हस्तांतरण के रूप में ग़लत तरीके से पेश करते रहेंगे. वैसे तो अमेरिका के साथ गहरे सामरिक तालमेल के अनगिनत फ़ायदे हैं. इसके बावजूद भारत को ये पता होना चाहिए कि अमेरिका के साथ सहयोग की राजनीतिक और वित्तीय लागत अब भी ऊंची बनी हुई है. अमेरिकी सरज़मी पर मोदी के जलवे का जश्न निश्चित रूप से मनाया जाना चाहिए, लेकिन भारतीय अधिकारियों और विशेषज्ञों को यथार्थवाद के पुट के साथ अपने उमंग को क़ाबू में रखना चाहिए.


अभिजीत सिंह ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में सामुद्रिक नीति कार्यक्रम के प्रमुख हैं. 

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