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क्या चीन इस चुनौती के समय अपनी तरफ़ से कोशिश करते हुए अमेरिका- यूरोप गठबंधन और रूस के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभा सकता है?
यूक्रेन संघर्ष का परिणाम: यूरोप – अमेरिका और चीन!
ये लेख हमारी सीरीज़, द यूक्रेन क्राइसिस: कॉज़ ऐंड कोर्स ऑफ़ द कॉनफ्लिक्ट का एक हिस्सा है.
अगर यूक्रेन में बदले हुए हालात के दौरान चीन, रूस और अमेरिका -यूरोप गठबंधन के साथ अपने रिश्तों में संतुलन नहीं बना सका, तो उसे बहुत नुक़सान हो सकता है. इस संकट के दौरान चीन की तरफ़ से जो इशारे मिले हैं, वो अस्पष्ट और भ्रम में डालने वाले हैं. इसीलिए अब सवाल इस बात पर उठ रहे हैं कि चीन को इस संकट के बारे में क्या पता था और कब से मालूम था? इसके बावजूद, अब चीन ये कह रहा है कि वो दोनों पक्षों के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभाने के लिए तैयार है. मगर सवाल ये है कि क्या चीन के पास ऐसी विश्वसनीयता है कि वो एक मध्यस्थ की भूमिका निभा सके.
चीन ने यूक्रेन में रूस की सैन्य कार्रवाई को ‘हमला’ कहने से परहेज़ किया और जिस वक़्त रूस के टैंक यूक्रेन में मौत और तबाही के गोले बरसा रहे थे, उस वक़्त चीन ने कहा कि इस संकट से निपटने का एक ही रास्ता है और वो कूटनीति है.
यूक्रेन में युद्ध शुरू होने के बाद चीन ने संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता की अहमियत पर ज़ोर दिया. मगर इसके साथ ही साथ उसने इस संकट के लिए अमेरिका और नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गेनाइज़ेशन (NATO) को ज़िम्मेदार भी ठहराया. चीन ने यूक्रेन में रूस की सैन्य कार्रवाई को ‘हमला’ कहने से परहेज़ किया और जिस वक़्त रूस के टैंक यूक्रेन में मौत और तबाही के गोले बरसा रहे थे, उस वक़्त चीन ने कहा कि इस संकट से निपटने का एक ही रास्ता है और वो कूटनीति है. नेटो पर आरोप लगाने के अपवाद को छोड़ दें, तो यूक्रेन युद्ध को लेकर भारत का रुख़ भी चीन के जैसा ही रहा है. हालांकि, फ़र्क़ ये है कि चीन की तुलना में भारत के रुख़ का कोई ख़ास असर नहीं पड़ने वाला है.
अमेरिका के साथ अपने रिश्तों में चुनौतियों का सामना करते हुए चीन, यूरोपीय संघ को एक ऐसे सामरिक अवसर के तौर पर देखता रहा है, जिसने सुरक्षा के मुद्दों से ज़्यादा आर्थिक संबंधों को तरज़ीह दी है. हालांकि, आज यूरोप में एक बड़े संकट के चलते पंद्रह लाख से ज़्यादा शरणार्थी पैदा कर दिए हैं, और सुरक्षा के मुद्दे पर पूरे पश्चिमी जगत को एकजुट कर दिया है. बड़ा सवाल ये है कि जब 4 फ़रवरी को चीन ने रूस के साथ साझा बयान जारी किया था, तो क्या उसे यूक्रेन के बारे में रूस की योजना की पहले से ख़बर थी. द न्यूयॉर्क टाइम्स ने एक ख़ुफ़िया रिपोर्ट के हवाले से संकेत दिया है कि चीन के अधिकारियों ने रूस से कहा था कि वो बीजिंग में शीतकालीन ओलंपिक खेल पूरे होने तक यूक्रेन में अपना अभियान न शुरू करे.
बीजिंग में शीतकालीन ओलंपिक खेलों के उद्घाटन वाले दिन चीन और रूस ने जो साझा बयान जारी किया था, उसमें कहा था ये विश्व व्यवस्था में ‘नए युग’ की शुरुआत है, जहां पर ‘दोनों देशों के दोस्ताना संबंध की कोई सीमा नहीं’ होगी. साझा बयान में ज़ोर देकर कहा गया था कि अब ‘दोनों देशों के बीच ऐसा कोई भी क्षेत्र नहीं है, जहां पर रिश्ते मज़बूत बनाने की ‘मनाही’ हो’. रूस ने ताइवान के मसले पर चीन के रुख़ का समर्थन करने का एलान किया और चीन ने नेटो के और विस्तार पर रोक लगाने की रूस की मांग में सुर मिलाया और यूक्रेन को लेकर रूस द्वारा मांगी जा रही सुरक्षा संबंधी गारंटी के मुद्दे पर समर्थन जताया.
चीन के विदेश मंत्री ने मिंस्क II समझौतों की ओर लौटने की अपील की, जो उनके मुताबिक़ आगे की राह दिखा सकता है. वैंग यी ने ये भी कहा कि ‘रूस की सुरक्षा संबंधी वाजिब चिंताओं का सम्मान करते हुए उन्हें गंभीरता से लिया जाना चाहिए’.
ये बयान 1950 के दशक के बाद दोनों देशों के बीच सबसे नज़दीकी संबंध होने का सबूत है. यहां ध्यान देने वाली बात ये है कि चीन ने 2008 में जॉर्जिया में युद्ध और 2014 में यूक्रेन पर रूस के हमले का समर्थन नहीं किया था और उसने अब तक क्रीमिया पर रूस के क़ब्ज़े को मान्यता नहीं दी है. वैसे तो चीन और रूस के साझा बयान का निशाना अमेरिका था. मगर, इस बयान से यूरोपीय संघ भी ख़ुश नहीं हुआ था. यूक्रेन पर रूस के हमले से पहले, 18 फ़रवरी को म्यूनिख सिक्योरिटी कॉन्फ्रेंस में यूरोपीय आयोग की अध्यक्ष, उर्सुला वॉन डेर लेयेन ने रूस और चीन के साझा बयान पर हमला किया था और कहा था कि दोनों देशों के ‘नए युग’ मतलब ऐसा लगता है कि जहां पर ताक़तवर की दादागीरी चलेगी और जहां पर ‘आत्मनिर्णय के अधिकार के बजाय डराने धमकाने को तरज़ीह’ दी जाएगी.
हालांकि, इसी सम्मेलन में चीन के विदेश मंत्री वैंग यी का बयान सुनने में काफ़ी तार्किक लगा था. वैंग यी ने संप्रभुता, आज़ादी और सभी देशों की क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान और उनकी रक्षा किए जाने पर बल देने के साथ साथ पूरब में नेटो के विस्तार पर लगाम लगाने की ज़रूरत पर भी ज़ोर दिया था. चीन के विदेश मंत्री ने मिंस्क II समझौतों की ओर लौटने की अपील की, जो उनके मुताबिक़ आगे की राह दिखा सकता है. वैंग यी ने ये भी कहा कि ‘रूस की सुरक्षा संबंधी वाजिब चिंताओं का सम्मान करते हुए उन्हें गंभीरता से लिया जाना चाहिए’. हालांकि, जैसे ही रूस ने यूक्रेन पर हमला किया तो उसके बाद से ही चीन के बयानों और संकेतों में भ्रम की स्थिति दिखने लगी थी. चीन ने सभी देशों की ‘संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता’ के सम्मान को समर्थन देने की बात दोहराई और यूक्रेन पर रूस के हमले की अनदेखी करते हुए कूटनीति और वार्ताओं की अहमियत पर ज़ोर दिया.
25 फ़रवरी को रूस के हमले, जिसे चीन ने ‘विशेष सैन्य अभियान’ कहा था, के बाद चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने पुतिन से बात की और कहा कि, ‘चीन सभी मसलों को बातचीत के ज़रिए हल करने का समर्थन करता है.’ शी जिनपिंग ने ‘शीत युद्ध वाली मानसिकता का त्याग करने’ और ‘सभी पक्षों की सुरक्षा संबंधी वाजिब चिंताओं’ का सम्मान करने की अपील भी की. जिनपिंग ने कहा कि चीन का रवैया हमेशा से ही बुनियादी तौर पर ‘सभी देशों की संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान करने और संयुक्त राष्ट्र के चार्टर का पालन’ करने का रहा है. इसके अगले ही दिन चीन ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के उस प्रस्ताव से ख़ुद को अलग कर लिया था, जिसमें रूस के क़दमों की आलोचना की गई थी. चीन के विशेष प्रतिनिधि ने अपने देश के गैरहाज़िर रहने पर ये सफ़ाई दी कि वो इस जटिल मसले को बहुत सावधानी से हल करना चाहता है, जिससे हालात और न बिगड़ जाएं. चीन के विशेष प्रतिनिधि ने उस रटे रटाए नुस्खे को भी दोहराया कि, ‘सभी देशों की संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान किया जाना चाहिए.’
यूक्रेन पर हमले के तीन दिनों के बाद जर्मनी के चांसलर ओलाफ़ शाल्ट्स ने ऐलान किया कि उनका देश अपने रक्षा ख़र्च में बड़ा इज़ाफ़ा करते हुए GDP के दो प्रतिशत से ज़्यादा रक़म इसके लिए ख़र्च करेगा.
इसी बीच एक और ख़बर आई जिसके गंभीर नतीजे हो सकते थे. अमेरिकी राजनयिकों ने रूस का हमला रोकने के लिए चीन के कूटनीतिज्ञों से कई बार बातचीत की और यहां तक कि खुफिया रिपोर्टें भी साझा कीं. लेकिन, तनाव को कम करना तो दूर, चीन ने अमेरिका की खुफिया रिपोर्ट रूस से साझा कर लीं.
पिछले कई दशकों से अमेरिका अकेले ही यूरोप की सुरक्षा का बोझ उठा रहा है. अमेरिका बार बार अपने नेटो सहयोगी देशों से अपील करता रहा है कि वो अपने रक्षा ख़र्च को बढ़ाएं और रक्षा के मुद्दे को और गंभीरता से लें. यूक्रेन ने यूरोपीय देशों के नज़रिए में बदलाव लाने का काम किया है. ये बात सच है कि इस संकट से अमेरिका और यूरोपीय संघ के सामरिक संबंध और मज़बूत हुए हैं. ख़ास तौर से तब और जब एक बार फिर से यूरोपीय देश अपनी सुरक्षा के लिए मुख्य रूप से अमेरिका पर निर्भर हो गए हैं.
यूक्रेन युद्ध की वजह से यूरोपीय देशों के नज़रिए में जो सबसे बड़ा बदलाव आया है, वो शायद जर्मनी के रुख़ का है. पिछले कई दशकों से जर्मनी ने जो रवैया अपनाया था, वो अन्य देशों के साथ आर्थिक संबंधों को तरज़ीह देने का था. लेकिन, यूक्रेन पर हमले के तीन दिनों के बाद जर्मनी के चांसलर ओलाफ़ शाल्ट्स ने ऐलान किया कि उनका देश अपने रक्षा ख़र्च में बड़ा इज़ाफ़ा करते हुए GDP के दो प्रतिशत से ज़्यादा रक़म इसके लिए ख़र्च करेगा. वर्ष 2021 में जर्मनी ने रक्षा पर 43 अरब यूरो की रक़म ख़र्च की थी, जो GDP का 1.53 फ़ीसद थी. इसके अलावा रक्षा ख़र्च के लिए 100 अरब यूरो की रक़म का प्रावधान किया गया था. नेटो के अन्य देश जैसे कि फ्रांस, नीदरलैंड और बेल्जियम ने भी अपने अपने रक्षा व्यय बढ़ाने का वादा किया है. यूरोप के ग़ैर नेटो सदस्य जैसे कि स्वीडन और फिनलैंड ने भी एलान किया है कि वो अपने रक्षा ख़र्च में इज़ाफ़ा करेंगे.
7 मार्च को जब चीन ने रूस के साथ मज़बूत रिश्तों की बात दोहराई, तो उसके विदेश मंत्री वैंग यी ने कहा कि चीन दोनों देशों के बीच अमन बहाली के लिए ‘ज़रूरी होने पर मध्यस्थ की भूमिका निभाने को तैयार’ है. वैंग यी ने ये भी कहा कि चीन, यूक्रेन को मानवीय मदद भेजने जा रहा है. ये इस बात का साफ़ संकेत था कि चीन इस युद्ध में यूक्रेन की तरफ़ से कड़े मुक़ाबले के चलते, रूस का समर्थन करने के अपने रुख़ पर नए सिरे से लेकर विचार कर रहा है. अब ये तो आने वाला समय ही बताएगा कि यूक्रेन का संकट, चीन के लिए ख़तरा है या बड़ा मौक़ा. जैसे जैसे रूस पर लगे प्रतिबंधों का असर हो रहा है, वैसे वैसे चीन के लिए आगे की राह मुश्किल होती जा रही है. यूक्रेन के हालात से होने वाले नुक़सान से ख़ुद को बचा पाना चीन के लिए मुश्किल होगा. इसीलिए हो सकता है कि चीन दोनों देशों के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभाने की कोशिश करे. अगर वो इसमें कामयाब हो जाता है तो एक वैश्विक शक्ति के रूप में चीन की हैसियत में ज़बरदस्त इज़ाफ़ा होगा, और ऐसा करके चीन, यूरोप के साथ अपने बिगड़े हुए रिश्तों को सुधार भी सकता है.
चीन ने उत्तर कोरिया, दक्षिण कोरिया और जापान के बीच मध्यस्थता करने में न तो दिलचस्पी दिखाई है और न ही उसकी भूमिका असरदार रही है. चीन ने तो अपने पड़ोस में ही इस विवाद के समाधान की ज़िम्मेदारी अमेरिका के भरोसे छोड़ रखी है.
पिछले शुक्रवार को यूरोपीय संघ के विदेश नीति के प्रमुख जोसेप बॉरेल ने कहा था कि यूक्रेन और रूस के बीच शांति वार्ता में चीन को मध्यस्थता करनी चाहिए. क्योंकि पश्चिमी देश अब ऐसा नहीं कर सकते हैं. हालांकि, चीन के विदेश मंत्री वैंग यी ने अमेरिका के विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकेन के साथ टेलीफ़ोन पर वार्ता के दौरान इस प्रस्ताव को तुरंत ही ये कहकर ख़ारिज कर दिया कि रूस और यूक्रेन को आपस में ‘सीधी बातचीत’ करनी चाहिए. इसके बाद भी ये सवाल बना हुआ है कि क्या चीन, दोनों देशों के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभा सकता है, क्योंकि रूस के साथ उसके ‘रिश्तों की कोई सीमा नहीं’ है. वैसे चीन ने शीतकालीन ओलंपिक तक युद्ध टालने वाली ख़बर को ग़लत बताया है. चीन की मध्यस्था वाले दांव के काम न करने की एक वजह ये भी है कि उसके लिए पुतिन की बड़ी बड़ी मांगें पूरी कर पाना मुश्किल होगा क्योंकि, पुतिन का मक़सद यूक्रेन का पूरी तरह से ख़ात्मा या फिर उसका बंटवारा करना है. यूक्रेन के लिए ऐसी मांगों को स्वीकार कर पाना सिरे से नामुमकिन है.
आख़िर में एक और बड़ा सवाल ये है कि क्या चीन को इस संकट से वाक़ई कोई फ़र्क़ पड़ता है? चीन ने उत्तर कोरिया, दक्षिण कोरिया और जापान के बीच मध्यस्थता करने में न तो दिलचस्पी दिखाई है और न ही उसकी भूमिका असरदार रही है. चीन ने तो अपने पड़ोस में ही इस विवाद के समाधान की ज़िम्मेदारी अमेरिका के भरोसे छोड़ रखी है. हो सकता है कि चीन को ये लग रहा हो कि पुतिन का यूक्रेन के संकट में फंस जाना उनके लिए कोई बुरी बात नहीं है. तब तो रूस उनके ऊपर और भी बुरी तरह निर्भर हो जाएगा और तब हो सकता है कि चीन को तेल और गैस के साथ साथ रूस से और भी सामान सस्ती दरों पर मिल जाएं. अगर हम दोनों देशों के संबंध को मिली नई मज़बूती के नज़रिए से देखें, तो हो सकता है कि नए प्रतिबंधों के बुरे असर से बचाने के लिए चीन, कहीं रूस की मदद न करे.
इस युद्ध का चीन पर जो एक सीधा प्रभाव पड़ने वाला है, वो है चीन और यूरोप के बीच रेल यातायात में बाधा. चीन और यूरोपीय देशों के बीच हर दिन 40 ट्रेनें चलती हैं, जो चीन के 180 शहरों को यूरोप के 23 देशों से जोड़ती हैं. रेलवे के ज़रिए होने वाले इस यातायात के ज़रिए दोनों पक्षों के बीच 75 अरब डॉलर का कारोबार होता है. इस ट्रैफिक का एक बड़ा हिस्सा अभी भी यूक्रेन से नहीं जाता और बेलारूस से पोलैंड होते हुए गुज़रता है. हालांकि, इस माध्यम से व्यापार करने वालों के लिए आगे चलकर तब कई मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है, जब रूस की रेलवे पर लगे आर्थिक प्रतिबंध लागू हो जाएंगे. सच तो ये है कि चीन द्वारा नेटो और अमेरिका की लगातार आलोचना से पूर्वी और मध्य यूरोप के देशों के साथ उसके दोस्ताना संबंधों पर असर पड़ा है. चीन ने अपनी 17+1 की पहल के ज़रिए इन देशों से दोस्ती बढ़ाई थी. कुल मिलाकर यूरोप की जिस सामरिक स्वायत्तता का चीन लंबे समय से समर्थन करता रहा है, वो गुज़रे हुए समय की बात हो जाएगा.
तो, अगर मौजूदा हालात में चीन कोई क़दम नहीं उठाता है, तो उसे नुक़सान उठाना पड़ सकता है. अमेरिका हो या यूरोप, दोनों की आम जनता का ये मानना है कि चीन के बयानों और क़दमों से ही रूस को ये हिमाकत करने की हिम्मत मिली है. हो सकता है कि अभी इस मसले पर चीन का रवैया डांवाडोल बना रहे. लेकिन, यूक्रेन पर रूस के हमले का मुख्य असर तो पहले ही दिख रहा है. इस युद्ध ने यूरोपीय संघ और अमेरिका की सामरिक साझेदारी में नई जान डाल दी है. इस महीने की शुरुआत में उर्सुला वॉन डेर लेयेन ने कहा था कि, ‘पिछले छह दिनों में यूरोप की सुरक्षा और रक्षा में जितने बदलाव आए हैं, उतने तो पिछले दो दशकों में भी नहीं आए हैं.’
रूस के साथ अमेरिका और यूरोपीय संघ के रिश्ते टूटने का अमेरिका और चीन के बीच तनातनी से कहीं ज़्यादा गहरा असर हो रहा है. हालांकि अगर इस वक़्त चीन, रूस के साथ ही जुड़े रहने का फ़ैसला करता है, तो अमेरिका और यूरोपीय संघ दोनों देशों के दुश्मन के तौर पर बर्ताव करने लगेंगे.
अभी जो स्थिति है, उसमें अमेरिका के साथ चीन के रिश्ते अभी तनातनी भरे ही हैं. ऊपर जिन हालात का ज़िक्र किया गया है, उनसे दोनों देशों के संबंध में कोई सुधार नहीं आया है. बल्कि सच तो ये है कि मध्यम अवधि में चीन के मक़सदों को लेकर अमेरिका का शक और बढ़ ही गया है. रूस के साथ अमेरिका और यूरोपीय संघ के रिश्ते टूटने का अमेरिका और चीन के बीच तनातनी से कहीं ज़्यादा गहरा असर हो रहा है. हालांकि अगर इस वक़्त चीन, रूस के साथ ही जुड़े रहने का फ़ैसला करता है, तो अमेरिका और यूरोपीय संघ दोनों देशों के दुश्मन के तौर पर बर्ताव करने लगेंगे.
रूस और चीन दोनों ही अब यूरोप का सामना करेंगे, जो न केवल घनी आबादी वाला इलाक़ा है बल्कि अमीर भी है और बड़ी तेज़ी से अपनी सैन्य ताक़त में इज़ाफ़ा भी कर सकता है. सबसे अहम बात ये है कि अब यूरोप ऐसा करने के लिए प्रतिबद्ध भी नज़र आ रहा है. वैसे तो पुतिन की हरकतों ने पहले ही यूरोपीय संघ और अमेरिका के रिश्तों को मज़बूती देने का काम किया है. लेकिन, इसका असर हमें हिंद प्रशांत क्षेत्र में भी देखने को मिल सकता है, क्योंकि यूरोपीय संघ और इसके फ्रांस और जर्मनी जैसे सदस्य देशों ने हिंद प्रशांत में और बड़ी भूमिका निभाने की इच्छा जताई है. ब्रिटेन भी ऐसा कहता रहा है. हां, ये तर्क भी दिया जा सकता है कि यूरोपीय देश अपनी सुरक्षा को मज़बूत करने के लिए क़दम उठा रहे हैं. लेकिन, इससे अगले चार से पांच वर्षों में अमेरिका के पास ये मौक़ा होगा कि वो हिंद प्रशांत क्षेत्र पर उससे ज़्यादा तवज्जो दे सके, जितनी वो अब तक नहीं दे पाया है.
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Manoj Joshi is a Distinguished Fellow at the ORF. He has been a journalist specialising on national and international politics and is a commentator and ...
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