हाल के दिनों में भारत ने पूरी दुनिया में ख़ासी सुर्खियां हासिल की हैं. फिर चाहे वो अभूतपूर्व सफलता के साथ G20 समिट का आयोजन हो और उसमें अलग–अलग विचारधारा वाले देशों के बीच विभिन्न मुद्दों पर अपने कूटनीतिक कौशल से विश्वास एवं सर्वसम्मति का माहौल बनाना हो, या फिर कनाडा में एक खालिस्तानी अलगाववादी नेता की हत्या में भारत के एजेंटों की कथित संलिप्तता का मामला हो. हालांकि, खालिस्तानी अलगाववादी नेता की हत्या में भारत का हाथ होने के आरोप बेबुनियाद हैं और “मनगढ़ंत व प्रेरित” महसूस होते हैं. ऐसे में भारत की ख़ुफ़िया जानकारी एकत्र करने एवं जासूसी की पुराने समय से चली आ रही परंपरा पर चर्चा करना लाज़िमी हो जाता है. जैसा कि भारत द्वारा G20 सम्मेलन के दौरान सदियों पुरानी ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की अवधारणा को आगे बढ़ाया गया, तो फिर ऐसे में भारत की प्राचीन गुप्तचर विधा की विरासत यानी जासूसों द्वारा अपनाए जाने वाले तौर–तरीक़ों की विरासत को आगे क्यों नहीं बढ़ाया जा सकता है?
“किसी देश की ख़ुशहाली और समृद्धि (उसकी वर्तमान सीमाओं के भीतर किसी राष्ट्र की सुरक्षा को सुनिश्चित करना एवं नए इलाक़ों का अधिग्रहण कर सीमाओं को बढ़ाना) तटस्थता का रास्ता चुनने या फिर सीधे तौर पर कार्रवाई करने की नीति अपनाने पर निर्भर करती है. आख़िर यही वो नीति है, जो कहीं न कहीं विदेश नीति की बुनियाद बनाती है.”
ख़ुफ़िया तंत्र और अर्थशास्त्र
कौटिल्य का अर्थशास्त्र एक ऐसा ग्रंथ है, जिसमें देश पर शासन करने की कला और राज्यव्यवस्था का विस्तार से बखान किया गया है. माना जाता है कि यह ग्रंथ मौर्य काल (321 BCE-185 BCE) का है. यह ग्रंथ अंतिम राजनीतिक लक्ष्य (योगक्षेम) में आंतरिक सुरक्षा के विचार को गूंथने का और इसके महत्व को बताने का काम करता है. इस विचार को इस प्रकार से परिभाषित किया गया है, “किसी देश की ख़ुशहाली और समृद्धि (उसकी वर्तमान सीमाओं के भीतर किसी राष्ट्र की सुरक्षा को सुनिश्चित करना एवं नए इलाक़ों का अधिग्रहण कर सीमाओं को बढ़ाना) तटस्थता का रास्ता चुनने या फिर सीधे तौर पर कार्रवाई करने की नीति अपनाने पर निर्भर करती है. आख़िर यही वो नीति है, जो कहीं न कहीं विदेश नीति की बुनियाद बनाती है.”
बाहरी सुरक्षा हो या फिर आंतरिक सुरक्षा, दोनों का ही आधार मज़बूत और सटीक ख़ुफ़िया जानकारी पर टिका है. ज़ाहिर है कि विकसित इंटेलिजेंस ही किसी राष्ट्र पर शासन करने की नींव है. “ख़ुफ़िया जानकारी एवं (राजनीतिक) कौशल के साथ कोई शासक” अपने विरोधी शासकों पर जीत हासिल कर सकता है, फिर चाहे विरोधी के पास कितनी भी आर्थिक और सैन्य ताक़त क्यों न हो, या वो कितना ही साहसी क्यों न हो. कौटिल्य ने तीन तरह की गुप्तचर गतिविधियों पर बल दिया है, यानी कि जानकारी एकत्र करने पर केंद्रित गतिविधि (जासूस या गुप्तचर, डबल एजेंट, मुख़बिर और एजेंटों की भर्ती); ज्ञान और समझ–बूझ पर केंद्रित गतिविधि (घटनाक्रमों और विभिन्न गतिविधियों के विश्लेषण एवं मूल्यांकन से जानकारी जुटाना); और कार्रवाई पर केंद्रित गतिविधि (गोपनीय कार्रवाई, सक्रिय उपाय, मनोवैज्ञानिक युद्ध और अस्थिरता पैदा करना).
कौटिल्य के उपाय अर्थात सूक्ष्म हथियार
कौटिल्य द्वारा अर्थशास्त्र में आंतरिक सुरक्षा के क्षेत्र में चार प्रकार के ख़तरों की चर्चा की गई है. ये ख़तरे भड़काने वाली कार्रवाई और उनका जवाब देने की वजह से उत्पन्न होते हैं. यह ख़तरे हैं बाहरी–आंतरिक, आंतरिक–बाहरी, बाहरी–बाहरी और आंतरिक–आंतरिक. अर्थशास्त्र में लक्षित लोगों के आधार पर इन ख़तरों का मुक़ाबला करने वाले उपायों के बारे में बताया गया है. इनमें दो प्रकार के ख़तरों के बीच संबंध के लिए, अर्थात बाहरी–आंतरिक और आंतरिक–बाहरी ख़तरों के बीच संबंध के बारे में बताया गया है कि इसमें जो पहले प्रतिक्रिया देता है, वो फायदे में रहता है, क्योंकि प्रतिक्रिया देने वाला छल–कपट और मक्कारी से भरा हुआ होता है. जब विश्वासघात और छल–कपट व्यापक स्तर पर फैला हो, तो राजद्रोही, गद्दार और भड़काने वाले को प्रभावहीन करके असंतोष या नाराज़गी को समाप्त नहीं किया जा सकता है, क्योंकि यह असंतोष कहीं न कहीं दोबारा से सिर उठाने लगता है. इसके लिए कौटिल्य द्वारा साम, दाम, दंड और भेद जैसे चार उपयों के बारे में बताया गया है. यानी कि अगर भड़काने वाला शख्स आंतरिक क्षेत्र से है, अर्थात अपने ही देश का है, तो उससे सुलह करके (साम) और उसे कुछ ले–देकर (दाम) माहौल के शांत करना चाहिए. इसके साथ ही अगर भड़काने वाला बाहरी हो, तो फूट डालकर (भेद) और ताक़त का इस्तेमाल कर (दंड) उसे काबू में करना उपयुक्त होता है. कौटिल्य का स्पष्ट तौर पर यह मानना है कि अगर व्यापक स्तर पर जनमानस में नारज़गी का भाव पैदा होता है, तो निश्चित तौर पर उसके लिए ग़लत नीतियां ज़िम्मेदार होती हैं. ऐसी नीतियों की वजह से ही लोगों में ग़रीबी, लालच और वैमनस्यता पैदा होती है. ऐसे हालातों में शासक को तत्काल प्रभाव से इन्हें दूर करने के लिए क़दम उठाने चाहिए.
कौटिल्य ने स्पष्ट तौर पर कहा है कि अगर देश की जनता नाराज़ है और विद्रोह पर उतर आई है, तो इस स्थित पर काबू पाने के लिए कभी ताक़त का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए, हालांकि बाक़ी उपायों को अमल में लाया जा सकता है.
सिर्फ़ बाहरी–बाहरी और आंतरिक–आंतरिक ख़तरे की स्थिति में भड़काने वाले के साथ सख़्ती से पेश आना अधिक फायदेमंद है, क्योंकि ऐसे मामलों में जो विद्रोह को भड़काने वाले होते हैं, वे ही कपटी और मक्कार किस्म के होते हैं. ऐसे में जब ऐसे धूर्त विद्रोहियों पर काबू पा लिया जाता है, तो विद्रोह भी अपने आप समाप्त हो जाता है. यहां भी, देश के बाहर के गद्दारों के साथ एक–एक कर निपटा जाना चाहिए और इसके लिए फूट डालना, ताक़त का इस्तेमाल करना और गुपचुप तरीक़े से उन्हें दंड देने जैसे उपायों को अमल में लाना चाहिए. इसके साथ ही आंतरिक क्षेत्र में ऐसे लोगों से निपटने के लिए जो जैसा है उसके साथ वैसा ही सलूक करना चाहिए. जैसे कि नाराज़ और असंतुष्टों से सुलह–समझौता करना चाहिए, उनकी ईमानदारी और सत्यनिष्ठा की तारीफ़ करते हुए उनका सम्मान करना चाहिए और जो लोग ज़्यादा दुष्ट प्रकृति के हों, उनसे फूट डालकर एवं शक्ति का उपयोग कर गुप्त तरीक़े से सज़ा देकर निपटना चाहिए.
कुल मिलाकर कौटिल्य ने स्पष्ट तौर पर कहा है कि अगर देश की जनता नाराज़ है और विद्रोह पर उतर आई है, तो इस स्थित पर काबू पाने के लिए कभी ताक़त का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए, हालांकि बाक़ी उपायों को अमल में लाया जा सकता है. जबकि जनता के बीच विद्रोह का नेतृत्व करने वालों के ख़िलाफ़ बलपूर्वक कार्रवाई करना चाहिए और उन्हें गुप्त तरीक़े से सज़ा भी देना चाहिए. स्पष्ट है कि विपरीत हालातों पर काबू पाने के लिए दमनकारी नीति अपनानी है या फिर हल्के–फुल्के उपायों से उस पर नियंत्रण पाना है, यह सब देश की अत्यधिक पेशेवर ख़ुफिया सेवा और उसके गुप्तचरों द्वारा एकत्र की गई सूचनाओं पर निर्भर करता है.
बाहरी–बाहरी ख़तरा है कनाडा में सिख एक्टिविज़्म और भारत का मामला
भारत और कनाडा के बीच मौज़ूदा राजनयिक विवाद को निश्चित तौर पर बाहरी–बाहरी परिदृश्य के लिहाज़ से बखूबी समझा जा सकता है. ज़ाहिर है कि दोनों देशों के बीच यह विवाद, बढ़ते सिख अलगाववाद एवं ख़ास तौर पर सिख आतंकवादी नेता हरदीप सिंह निज्जर की हत्या के चलते पैदा हुआ है. प्राचीन समय में जो साम्राज्य होते थे, उनमें ग्रामीण इलाक़ों, सरहद से लगे क्षेत्रों, जंगलों और जागीरदारी को ‘बाहरी’ कहा जाता था. ध्यान देने वाली बात यह है कि इस समस्या (पैट्रिक ओवेल द्वारा ‘dosa’ को विश्वासघात और धोखा बताया गया है) की पहचान विद्रोह को भड़काने वाली जगह पर रहने वाले सिर्फ व्यक्ति के रूप में की गई है, वहां रहने वाली आम जनता के रूप में नहीं की गई है.
मौज़ूद परिस्थितियों में यह कहना उचित होगा कि फिलहाल भारत के भीतर सिखों में कोई विद्रोह नहीं है और देश के सिखों को पंजाबी एवं भारतीय होने पर गर्व है. हालांकि, 1970 और 1980 के दशक में भारत में सिख अलगाववादी आंदोलन फैला हुआ था, लेकिन आज ज़मीनी हालत एकदम जुदा हैं. ज़ाहिर है कि उस दौरान सिख अलगाववादी आंदोलनों के पीछे नस्लीय, धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक कारण थे. लेकिन हमेशा से एक बात देखने को मिली है, वो है ऐसे आंदोलनों को विदेशों में रहने वाले सिख प्रवासियों द्वारा मिलने वाला वैचारिक, आर्थिक और लॉजिस्टिकल समर्थन. हालांकि इस समर्थन का स्तर अलग–अलग रहा है, लेकिन इस समर्थन में अक्सर प्रवासी सिखों को आश्रय देने वाले देश के घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय हितों की छाप ज़रूर रही है. अमेरिका के ख़ुफ़िया निदेशालय द्वारा वर्ष 1987 में जारी किए गए डिक्लासिफाइड रिसर्च पेपर में वहां 1,50,000 सिखों की मौज़ूदगी को लेकर गंभीर चिंता जताई गई थी. इस रिसर्च पेपर के मुताबिक़ ये सिख भारत में चरमपंथी संगठनों को पैसा भेजते हैं, जो कि दोनों देशों के बीच द्विपक्षी संबंधों को संभावित रूप से बिगाड़ने वाला है. इसी रिसर्च पेपर में दिल्ली और वाशिंगटन के सुधरते रिश्तों के बीच भारत में राजीव गांधी के सिख एसेसिनेशन के ख़तरे का भी उल्लेख किया गया था, जो कि अमेरिकी हितों को बुरी तरह से प्रभावित कर सकता था.
कनाडा की सरकार लंबे समय से अपनी ज़मीन पर पैर पसार रहे सिख उग्रवाद, आतंकवाद और अलगाववाद को राजनीतिक तौर पर प्रश्रय देती रही है, इतना ही नहीं कनाडा ने भारत सरकार द्वारा इस पर कार्रवाई करने की मांग को भी अनसुना कर दिया है
भारत के बाहर सिखों की सबसे बड़ी आबादी कनाडा में निवास करती है. कनाडा में रहने वाले सिख शायद राजनीतिक तौर पर भी सबसे अधिक प्रभावशाली हैं. कुछ अरसे से कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो के राजनीतिक सितारे गर्दिश में हैं और उनके लिए खालिस्तानी अलगाववादी सिखों का समर्थन बेहद अहम है. ट्रूडो वर्ष 2019 और 2021 के कनाडाई संघीय चुनावों में चीनी दख़ल को लेकर भी विवादों में घिरे हुए हैं. कनाडा की सरकार लंबे समय से अपनी ज़मीन पर पैर पसार रहे सिख उग्रवाद, आतंकवाद और अलगाववाद को राजनीतिक तौर पर प्रश्रय देती रही है, इतना ही नहीं कनाडा ने भारत सरकार द्वारा इस पर कार्रवाई करने की मांग को भी अनसुना कर दिया है. प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने जिस प्रकार से वर्ष 2020 में भारत में किसानों के विरोध–प्रदर्शन को लेकर चिंता जताई थी, जिस प्रकार से हाल ही में सिख प्रदर्शनकारियों द्वारा लंदन में भारतीय उच्चायोग और सैन फ्रांसिस्को में भारतीय वाणिज्य दूतावास में घुसकर हिंसक प्रदर्शन किया गया और जिस तरह से कनाडा में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर सिखों के अलगाववादी आंदोलन को बढ़ावा मिला है, यह सब देखा जाए तो बहुत ही भयानक घटनाक्रम रहा है. इस घटनाओं को लेकर कोई ठोस कार्रवाई नहीं की गई और आख़िरकार हालात बद से बदतर होते चले गए. इसके साथ ही कनाडा की घरेलू राजनीतिक परिस्थियों की वजह से ओटावा की मज़बूरी है कि वो क्षेत्रीय एकजुटता की दिल्ली की चिंताओं की अनदेखी करे और उनका विरोध करे.
कौटिल्य के अर्थशास्त्र में अगर आधुनिक और आज़ाद भारत के लिए कोई सबक है, तो वो यह है कि आंतरिक सुरक्षा सबसे अधिक महत्वपूर्ण है और इससे कभी समझौता नहीं करना चाहिए.
ऐसे हालातों में कौटिल्य की युक्तियों के लिहाज़ से सोचा जाए, तो विद्रोह या असंतोष फैलाने वालों के नेताओं की पहचान करना और गोपनीय तरीक़े से उन्हें चुपचाप दंड देना सर्वथा उचित है. हालांकि कौटिल्य ने दूसरे पक्ष को भी सावधानी बरतने की सलाह दी है: “…शासक को अपने क्षेत्र में शत्रुओं के गुप्त उकसावे से उन लोगों का बचाव करना चाहिए, जिन्हें भड़काया जा सकता है और उनका भी बचाव करना चाहिए, जिन्हें भड़काया नहीं जा सकता है, फिर चाहे वो कोई रसूखदार व्यक्ति हो, या फिर आम लोग.” ज़ाहिर है कि अगर आज कौटिल्य होते, तो वे नई दिल्ली को यही सलाह देते कि वो देश के भीतर सिखों के बीच किसी भी नाराज़गी को कम करने की यथासंभव कोशिश करें, साथ ही संदिग्ध देशद्रोहियों के बारे में पता लगाने के गंभीर प्रयास करे.
साम्राज्यों से लेकर राष्ट्र और राज्यों तक
उल्लेखनीय है कि आज के दौर में एक मॉर्डन नेशन–स्टेट व्यवस्था (modern nation-state system) में वैश्विक शांति एवं स्थिरता के लिए जहां क़ानून का शासन बुनियादी तौर पर बहुत ज़रूरी होता है, वहीं राष्ट्रों के बीच पारस्परिक संबंध जवाबदेही, पारदर्शिता और निष्पक्षता पर आधारित होते हैं. हालांकि इस सबके साथ ही इस नेशन–स्टेट सिस्टम को और सशक्त बनाने के लिए कौटिल्य की युक्तियों को ठीक से समझने एवं उन्हें अपनाने की आवश्यकता है. दुनिया के किसी भी कोने में अगर भारत की संप्रभुता और क्षेत्रीय एकजुटता के ख़िलाफ़ किसी आतंकवादी या कट्टरपंथी संगठन द्वारा कोई भी राजनीतिक, वैचारिक या भौतिक समर्थन दिया जा रहा है, तो भारत को पूरी शक्ति के साथ उसका विरोध करना चाहिए. भारत और कनाडा के बीच जो मौज़ूदा विवाद चल रहा है, देखा जाए तो उसने भारत को एक ऐसा अवसर उपलब्ध कराया है कि वो न केवल कनाडा को माकूल जवाब दे, बल्कि इसके ज़रिए दुनियाभर में भारत के विरोधियों और साझीदारों को भी कड़ा संदेश दे कि अगर उनकी ज़मीन का इस्तेमाल भारत के ख़िलाफ़ भड़काने वाली साज़िशों के लिए किया जाएगा, वो इसे बर्दाश्त नहीं करेगा. भारत जिस तरह से दूसरे देशों के साथ रक्षा एवं प्रौद्योगिकी से जुड़े समझौते करने या पारस्परिक सहयोग से इकोनॉमिक कॉरिडोर स्थापित करने में पूरी ताक़त झोंक देता है, उसी प्रकार से भारत को दूसरे देशों में मौज़ूद राष्ट्र विरोधी चरमपंथियों के सुरक्षित ठिकानों का ख़ात्मा करने में भी अपनी पूरी भू–राजनीतिक ताक़त का उपयोग करने की आवश्यकता है. आख़िर में कौटिल्य के अर्थशास्त्र में अगर आधुनिक और आज़ाद भारत के लिए कोई सबक है, तो वो यह है कि आंतरिक सुरक्षा सबसे अधिक महत्वपूर्ण है और इससे कभी समझौता नहीं करना चाहिए.
डॉ. कजरी कमल तक्षशिला संस्थान, बेंगलुरु में एसोसिएट प्रोफेसर हैं और कौटिल्य के अर्थशास्त्र को पढ़ाती हैं.
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