इस महीने भारत द्वारा G20 शिखर सम्मेलन की सफल मेज़बानी का समापन, आम सहमति से जारी की गई ‘दिल्ली घोषणा’ की सफलता के साथ हुआ. जबकि पहले आशंकाएं जताई जा रही थीं कि यूक्रेन को लेकर मतभेदों के चलते, सम्मेलन के अंत में कोई सामूहिक घोषणा जारी नहीं हो सकेगी. भारत की ख़्वाहिश थी कि वो ज़्यादा से ज़्यादा विकासशील देशों को G20 सम्मेलन के दौरान भागीदार बना सके. इसी वजह से G20 सम्मेलन में पश्चिमी एशिया (मध्य पूर्व) की नुमाइंदगी पूरी ताक़त के साथ दिखी. संयुक्त अरब अमीरात (UAE), सऊदी अरब, मिस्र, तुर्की और ओमान के नेताओं ने सम्मेलन में हिस्सा लिया. सऊदी अरब के वली अहद प्रिंस सलमान (MbS) ने सम्मेलन के बाद भारत का राजकीय दौरा भी किया. इसी दौरान, भारत से मध्य पूर्व होते हुए यूरोप के लिए आर्थिक गलियारा (IMEEC) बनाने की घोषणा भी की गई, जिसमें अमेरिका भी एक प्रमुख भागीदार होगा.
गौर करने वाली बात यह है कि वैश्विक बहुपक्षीय प्रणाली में जी20 की स्थिति को बचाने की भारत की क्षमता पर बहुत अधिक ध्यान केंद्रित किया गया था, क्योंकि कई लोगों ने गरीबी और जलवायु से जुड़ी समस्या से निपटने में संसाधनों और नतीजों की कमी के कारण इसकी योग्यता पर सवाल खड़े किये थे. पश्चिम एशिया की तरफ से आया प्रतिनिधित्व इस क्षेत्र में अरब देशों की तेज़ी से बढ़ती राजनीतिक और वित्तीय प्रमुखता को भी दर्शाता है. नया आर्थिक गलियारा, जिसे स्वाभाविक रूप से चीन के बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) के काउंटर के रूप में प्रचारित किया गया था, उसने भी भाग लेने वाले देशों के सामान्य आर्थिक हितों को बढ़ावा देने का काम किया. हालांकि, खाड़ी देशों की भू-राजनीति और भू-अर्थशास्त्र में इस समय काफी कुछ चल रहा है, जिसकी नई दिल्ली में आयोजित इस समिट में बहुत कम बानगी देखने को मिली है.
निश्चित रूप से खाड़ी वो इलाक़ा है जहां पश्चिमी देशों और चीन के बीच होड़ सबसे ज़्यादा स्पष्ट रूप से दिख रही है. पिछले एक दशक के दौरान हुई घटनाओं, जैसे कि यमन में संघर्ष, ईरान से समर्थन पाने वाले हूथी उग्रवादियों द्वारा सऊदी अरब के तेल के ठिकानों पर हमले और पश्चिमी देशों द्वारा ईरान के पास परमाणु बम होने की हक़ीक़त स्वीकार करने को तैयार होने ने इलाक़े की सामरिक सोच में बदलाव की रफ़्तार तेज़ कर दी है. हालांकि, ये बदलाव तो पहले से ही आने लगा था. इन सबके बीच खाड़ी इलाक़े को वैश्विक अर्थव्यवस्था के प्रकाश स्तंभ के तौर पर देखा जाने लगा है. तेल और गैस के मामले में तो खाड़ी देशों की महत्ता सबको पता है. आज के दौर में दुनिया के कुल कंटेनर कारोबार में खाड़ी की हिस्सेदारी 30 प्रतिशत और हवाई मालवाहन में 16 प्रतिशत है. जबकि इस भौगोलिक इलाक़े में दुनिया की केवल छह प्रतिशत आबादी रहती है.
सऊदी अरब के वली अहद प्रिंस सलमान (MbS) ने सम्मेलन के बाद भारत का राजकीय दौरा भी किया. इसी दौरान, भारत से मध्य पूर्व होते हुए यूरोप के लिए आर्थिक गलियारा (IMEEC) बनाने की घोषणा भी की गई, जिसमें अमेरिका भी एक प्रमुख भागीदार होगा.
ये आंकड़े खाड़ी देशों की अहमियत को बढ़ा देते हैं, जिसकी वजह से भारत के लिए उनकी आवाज़ और साझेदारी, दोनों ही बहुमूल्य हो जाती है. IMEEC गलियारे के निर्माण का ऐलान और प्रिंस सलमान का राजकीय दौरा, दोनों ही ये दिखाते हैं कि आर्थिक सुरक्षा के लिए भारत और खाड़ी की एक दूसरे पर निर्भरता बढ़ रही है. हालांकि, इस दोस्ती की राह में अस्थिर वैश्विक राजनीति और दो ध्रुवों वाली विश्व व्यवस्था की ओर बढ़ती दुनिया है. जबकि भारत, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात (UAE) जैसे देश एक बहुध्रुवीय दुनिया का निर्माण करना चाहते हैं. ये चुनौती सभी के लिए निर्णायक साबित होने वाली है, क्योंकि हम भूमंडलीकरण की जिस परिभाषा को जानते-मानते थे, अब उसी को चौतरफ़ा चुनौती दी जा रही है.
IMEEC का पदार्पण
भारत, मध्य पूर्व और यूरोप के बीच कनेक्टिविटी की परियोजना (IMEEC) का ऐलान, जो अभी सहमति पत्र के स्तर तक ही पहुंचा है, ने काफ़ी सुर्ख़ियां बटोरीं. इसे चीन के BRI के मुंहतोड़ जवाब के तौर पर पेश किया गया. काग़ज़ों पर IMEEC की जो ताक़त दिख रही है, वो काफ़ी प्रभावशाली लग रही है. क्योंकि, ये परियोजना उन देशों को आपस में जोड़ने वाली है, जिनके बीच आपसी सहयोग का या तो शानदार इतिहास रहा है, या वो ये इतिहास रचने में सक्षम हैं. शायद यही वजह है कि भौगोलिक रूप से इससे दूर होने के बावजूद, अमेरिका के बाइडेन प्रशासन ने इस प्रस्ताव को लेकर जितना खुलकर उत्साह दिखाया है, उस पर हैरानी नहीं होनी चाहिए. भारत में जहां चीन के नेतृत्व वाली आर्थिक योजनाओं को खुलकर चुनौती दी जा रही है, वहां इस उत्साह का स्वागत किया जाएगा.
हालांकि, IMEEC को सच्चाई के धरातल पर उतारने के लिए दो तल्ख़ हक़ीक़तों का सामना करना पड़ेगा. इसमें से एक तो भू-राजनीति है, और दूसरी आर्थिक है. भारत को पश्चिमी एशिया और उससे आगे के इलाक़ों से जोड़ने वाली कनेक्टिविटी की परियोजनाएं उचित लगती हैं. फिर भी आम तौर पर पूरी दुनिया में कनेक्टिविटी की परियोजनाओं के कामयाब होने की मिसालें बहुत कम ही दिखती हैं. हालांकि, IMEEC की घोषणा के बाद इसको लेकर किए गए ज़्यादातर विश्लेषण में कुछ अहम पहलुओं की अनदेखी की गई है. ये उन अवसरों और चुनौतियों से जुड़े हैं, जिनका सामना इस परियोजना को करना होगा. पहला, अक़्लमंदी तो इसी बात में होगी कि इसे (IMEEC को) एक ऐसी परियोजना के तौर पर देखा जाए, जो सामान को एक जगह से दूसरे स्थान पर पहुंचाने का ज़रिया भर नहीं होगी, बल्कि वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं में विविधता लाएगी. इसका मतलब है कि ये परियोजना अब्राहम समझौतों— जिसने संयुक्त अरब अमीरात (UAE) और बहरीन जैसे देशों के साथ इज़राइल के संबंध सामान्य किए- और I2U2 (यानी भारत, अमेरिका, इज़राइल और UAE के बीच पहले से मौजूद आर्थिक पहल) द्वारा तैयार की गई सियासी ज़मीन का बख़ूबी इस्तेमाल करेगी. इससे IMEEC को एक ऐसे व्यापक गठजोड़ के तौर पर तब्दील किया जाएगा, जिसके तहत विकासशील देशों में कारखाने लगाए जाएंगे. इसका ख़ाका तैयार करने के दौरान इस बात का भी ख्याल रखा जाए कि अफ्रीका और लैटिन अमेरिका जैसे देशों में निर्माण क्षमताओं को बढ़ावा दिया जा सके.
IMEEC की घोषणा के बाद इसको लेकर किए गए ज़्यादातर विश्लेषण में कुछ अहम पहलुओं की अनदेखी की गई है. ये उन अवसरों और चुनौतियों से जुड़े हैं, जिनका सामना इस परियोजना को करना होगा.
IMEEC के सामने खड़ी चुनौतियां भी साफ़ दिख रही हैं. पहली बात तो ये है कि ये विचार ही अभी अकादमिक स्तर पर दिख रहा है. इतिहास में कनेक्टिविटी की न जाने कितनी ऐसी परियोजनाएं बिखरी पड़ी हैं, जो किसी मुकाम तक नहीं पहुंच सकीं. IMEEC में जितने भागीदार दिख रहे हैं, उनके हिसाब से इस परियोजना को अमली जामा पहनाने के लिए ज़बरदस्त राजनीतिक इच्छाशक्ति की ज़रूरत पड़ेगी. इसमें सबसे ज़्यादा भूमिका तो अमेरिका और भारत निभा सकते हैं. दोनों को अपने अपने यहां इस बात को लेकर पूरा सियासी समर्थन हासिल है कि दुनिया के मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर और इसके साथ आपूर्ति श्रृंखलाओं पर चीन की पकड़ को कमज़ोर करना है. हालांकि, दूसरे खाड़ी देशों जैसे कि सऊदी अरब और UAE की सोच इस मामले में अलग है. दोनों ही देश चीन की BRI परियोजनाओं का हिस्सा हैं और सक्रियता से चीनी निवेश को आकर्षित करने में जुटे हैं. जब बात IMEEC में पूंजी लगाने की आती है, तो दूसरा पहलू उस आम सहमति का है, जिसके तहत सभी भागीदार ये मानते हैं कि अमेरिका इसमें सबसे ज़्यादा पूंजी निवेश करें. हालांकि, आज असली संपत्ति, तो ख़ुद खाड़ी देशों के सरकारी ख़ज़ानों में जमा है. ऊर्जा क्षेत्र में इज़ाफ़े और और OPEC+ द्वारा लगातार तेल के दाम ऊंचे रखने की वजह से तेल निर्यातक देशों ने काफ़ी धन कमाया है. ये कमाई अब अच्छे निवेश के मौक़े तलाश रही है और IMEEC जैसी परियोजनाएं उनके निवेश के लिए एक अच्छा विकल्प बन सकती हैं, जिससे उन्हें पश्चिमी देशों की तकनीक और मूलभूत ढांचे के विकास में महारत से सीखने का मौक़ा भी हासिल होगा.
आख़िरी बात, इस पहल को लागू करने के लिए ज़रूरी ज़्यादातर मूलभूत ढांचा तो पहले से ही मौजूद है. अब तो नीति निर्माताओं और राजनीतिक शक्तियों को आम सहमति से पहल करने की ज़रूरत है, जिससे वो वैश्विक कारोबारियों के लिए इस खुले बाज़ार को आकर्षक बनाएं.
प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान का राजकीय दौरा
सऊदी अरब के प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान द्वारा भारत का राजकीय दौरा, कूटनीति का एक और अहम मौक़ा है, जो पिछले एक दशक के दौरान पश्चिमी एशिया से नज़दीकी बढ़ाने की भारत की कोशिशों को रेखांकित करता है. सऊदी अरब के वली अहद (युवराज) के लिए भारत का स्थान बहुत महत्वपूर्ण है. जिस समय प्रिंस सलमान पत्रकार खशोगी के क़त्ल के विवाद में फंसे थे, उस समय वो अपनी स्वीकार्यता के लिए भारत, रूस और चीन से अपेक्षा कर रहे थे. भारत को पता था कि प्रिंस सलमान सऊदी अरब के शाही ख़ानदान में सत्ता के सबसे बड़े दावेदार हैं. इसीलिए,भारत ने थोड़ा हिचकते हुए ही सही, लेकिन जनवरी 2019 में प्रिंस सलमान को अपने यहां के दौरे पर उस वक़्त आमंत्रित किया था, जब जब लगभग सभी पश्चिमी देशों के दरवाज़े उनके लिए बंद थे. इस राजनीतिक जोखिम के बावजूद, प्रिंस सलमान के दौरे ने सऊदी अरब में भारत के लिए संभावनाओं के वो दरवाज़े खोले जो आने वाले कई दशकों तक काम आते रहेंगे.
इस बार प्रिंस सलमान के भारत दौरे के दौरान, दोनों देशों के शीर्ष नेताओं ने सामरिक साझेदारी परिषद की पहली बैठक की. इसमें ऊर्जा और रक्षा जैसे मसलों पर बात हुई. सऊदी अरब का विज़न 2030, प्रिंस सलमान की निजी महत्वाकांक्षी योजना है. इससे तमाम संभावनाओं के दरवाज़े खुले हैं, जिनकी काफ़ी चर्चा पहले ही हो चुकी है. इससे पता चलता है कि वो धीरे-धीरे मगर काफ़ी मज़बूती से सऊदी अरब के समाज में खुलापन ला रहे हैं, और उस कट्टरपंथ से दूरी बना रहे हैं, जिसके लिए सऊदी अरब बदनाम रहा है. और, सऊदी अरब में इन सांस्कृतिक सामाजिक और वैचारिक बदलावों का शायद दुनिया भर में काफ़ी अपेक्षाओं के साथ इंतज़ार किया जा रहा है, क्योंकि इससे सऊदी अरब में वो अवसर पैदा होंगे, जो इससे पहले कभी नहीं थे. सऊदी अरब, जो इससे पहले तक वहाबी इस्लाम जैसे कट्टरपंथी विचारो के लिए जाना जाता था, वो अब धीरे धीरे कुछ उदारवादी आदर्शों को अपनाने के साथ साथ आर्थिक विकास को प्राथमिकता दे रहा है. वैश्विक सुरक्षा के नज़रिए से ये बदलाव बेहद महत्वपूर्ण है. क्योंकि, इसके बग़ैर भविष्य में वो दूरगामी आर्थिक तरक़्क़ी हासिल करना मुश्किल है, जो भूमंडलीकरण के भरोसे आगे बढ़ती है.
सऊदी अरब, जो इससे पहले तक वहाबी इस्लाम जैसे कट्टरपंथी विचारो के लिए जाना जाता था, वो अब धीरे धीरे कुछ उदारवादी आदर्शों को अपनाने के साथ साथ आर्थिक विकास को प्राथमिकता दे रहा है.
ये ऐसा बदलाव है, जिसकी तारीफ़ भारत भी करता है. मध्य पूर्व में कट्टरपंथी विचारधाराओं पर क़ाबू पाने का उन रूढ़िवादियों पर भी सीधा असर पड़ेगा, जो पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान और दक्षिणी एशिया के अन्य हिस्सों में ख़ूब फल-फूल रहे हैं. मिसाल के तौर पर, भारत और सऊदी अरब के बीच एक मज़बूत साझेदारी से पाकिस्तान की राजनीतिक और सैन्य व्यवस्था में मौजूद कट्टर भारत विरोधी तत्वों पर भी प्रभाव या दबाव पड़ेगा और फिर उन्हें अपने देश और फौज के नज़रिए में बदलाव लाने को मजबूर होना पड़ेगा. भले ही अभी ये बात बहुत दूर की सोच लगती हो, लेकिन इस्लाम की दो सबसे पवित्र मस्जिदों के संरक्षक के रूप में सऊदी शाही परिवार की हैसियत अभी भी बेहद ताक़तवर है.
निष्कर्ष
पश्चिमी एशिया की भू-राजनीति में क्रांतिकारी बदलाव आते दिख रहे हैं, और सऊदी अरब व संयुक्त अरब अमीरात जैसे देश पहले ही ख़ुद को बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था के एक मज़बूत ध्रुव के तौर पर देखते हैं. जैसे जैसे खाड़ी देशों की आर्थिक स्थिति मज़बूत हो रही है, वैसे वैसे ब्रिक्स+ से लेकर शंघाई सहयोग संगठन (SCO) और अब G20 में उनकी नुमाइंदगी भी बढ़ रही है. हालांकि, चुनौतियां भी अभी बनी हुी हैं. वैसे तो ये दौर भू-राजनीतिक मौसम के बदलने का है. लेकिन, अभी भी मध्य पूर्व में संकट के बुनियादी मसले, जैसे कि फिलिस्तीन के मसले से लेकर ईरान के साथ तनाव तक, सीरिया और इराक़ में अस्थिरता से लेकर लेबनान के आर्थिक पतन तक, अनसुलझे बने हुए हैं. ऊपरी तौर पर स्थिरता किस हद तक निचले स्तर तक पहुंचती है, ये बात ही लंबी अवधि में नई आर्थिक और राजनीतिक परियोजनाओं की कामयाबी तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेगी.
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