Author : Lisa Curtis

Published on May 05, 2022 Updated 1 Days ago

अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन की इंडो-पैसिफिक रणनीति का दस्तावेज़ उस महत्व का साफ़ संकेत देता है जो अमेरिका, भारत के साथ अपनी रणनीतिक साझेदारी को देता है

‘यूक्रेन में रूस के द्वारा शुरू किये गये जंग की गूंज इंडो-पैसिफिक तक पहुंची चुकी है’

ये लेख रायसीना एडिट 2022 श्रृंखला का हिस्सा है.


यूक्रेन में रूस के युद्ध- जिससे पहले 4 फरवरी को रूस और चीन के बीच ऐतिहासिक समझौते का एलान हुआ- का व्यापक वैश्विक रणनीतिक परिणाम होगा, ख़ास तौर से इंडो-पैसिफिक में जहां चीन का बढ़ता असर पहले से क्षेत्रीय व्यवस्था में बदलाव कर रहा है. स्थिति अभी भी बदल रही है और सभी की नज़रें इस बात पर टिकी हैं कि रूस को चीन सैन्य समर्थन मुहैया कराता है या नहीं या फिर रूस की अर्थव्यवस्था को चीन मुश्किल से उबारेगा या नहीं क्योंकि पश्चिमी देशों के आर्थिक प्रतिबंधों की वजह से रूस तेज़ी से दबाव में आ गया है. 

अमेरिका की रणनीति उभरते और तेज़ी से आक्रामक होते चीन के ख़तरों और चुनौतियों को लेकर स्पष्ट थी लेकिन इसके बावजूद इंडो-पैसिफिक के मुक्त, खुले, पारदर्शी और समावेशी व्यवस्था को बनाए रखने के लक्ष्य के साथ सकारात्मक अमेरिकी एजेंडे पर ध्यान दिया गया.

 अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन की इंडो-पैसिफिक रणनीति का दस्तावेज़ उस महत्व का साफ़ संकेत देता है जो अमेरिका, भारत के साथ अपनी रणनीतिक साझेदारी को देता है. साथ ही ये अमेरिका के उस दृष्टिकोण के बारे में भी बताता है जिसके मुताबिक़ भारत को इस महत्वपूर्ण क्षेत्र, जो चीन के आक्रमण और दबाव में बढ़ोतरी का सामना कर रहा है, में केंद्रीय भूमिका निभानी चाहिए. लेकिन यूक्रेन पर रूस के आक्रमण और भारत के निराशाजनक जवाब ने अमेरिका के रणनीतिक साझेदार के तौर पर कुल मिलाकर भारत की विश्वसनीयता के बारे में सवाल खड़े कर दिए हैं. साथ ही यूक्रेन में रूस के युद्ध ने नेतृत्व की ज़रूरत वाले वैश्विक घटनाक्रम और लोकतांत्रिक शक्तियों के बीच एकता को लेकर भारत की अनुकूलता पर भी सवाल उठाए हैं. 

इंडो-पैसिफिक को अमेरिका की तरजीह़ 

व्हाइट हाउस की इंडो-पैसिफिक रणनीति– जो रूस-चीन के साझा बयान के एक हफ़्ते बाद और यूक्रेन पर रूस के हमले के दो हफ़्ते पहले जारी हुई थी- स्पष्ट करती है कि अमेरिका के लिए दीर्घकालीन राष्ट्रीय सुरक्षा की प्राथमिकता चीन के साथ रणनीतिक प्रतिस्पर्धा बनी हुई है. अमेरिका की रणनीति उभरते और तेज़ी से आक्रामक होते चीन के ख़तरों और चुनौतियों को लेकर स्पष्ट थी लेकिन इसके बावजूद इंडो-पैसिफिक के मुक्त, खुले, पारदर्शी और समावेशी व्यवस्था को बनाए रखने के लक्ष्य के साथ सकारात्मक अमेरिकी एजेंडे पर ध्यान दिया गया. वैसे तो पूर्वी यूरोप में रूस का आक्रमण तुरंत अमेरिका का ध्यान खींचने की मांग करता है लेकिन अमेरिका के नीति निर्माता इस बात को लेकर बेहद उत्सुकता के साथ परिचित हैं कि चीन यूक्रेन संकट का इस्तेमाल इंडो-पैसिफिक में अमेरिका के प्रभाव को कम करने और ख़ुद को निर्विवादित क्षेत्रीय शक्ति के रूप में स्थापित करने की कोशिश करेगा. 

जिस तरह ट्रंप प्रशासन की इंडो-पैसिफिक रणनीतिक रूप-रेखा ने महत्वपूर्ण भूमिका के लिए भारत को चुना था, ठीक उसी तरह बाइडेन की रणनीति में इंडो-पैसिफिक के लिए अमेरिका-भारत के द्विपक्षीय संबंध को बड़ा हिस्सा बताया गया है. अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की रणनीतिक रूपरेखा भारत के उभार को तेज़ करने में अमेरिका के लक्ष्य को लेकर ज़्यादा स्पष्ट थी जबकि बाइडेन की रणनीति “दक्षिण एशिया और हिंद महासागर में नेतृत्व करने वाले, दक्षिण-पूर्व एशिया में सक्रिय और जुड़ा हुआ, क्वॉड और दूसरे क्षेत्रीय मंच के लिए एक प्रेरक शक्ति, और क्षेत्रीय विकास के लिए एक इंजन के तौर पर” भारत को मान्यता देती है. 

मार्च के अंत में अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के लिए अमेरिका के उप राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार दलीप सिंह ने अपनी  दिल्ली यात्रा के दौरान साफ़ कर दिया कि अमेरिका उम्मीद करता है कि रूस के द्वारा काफ़ी छूट पर भारत को तेल बेचने की पेशकश का फ़ायदा उठाने से भारत परहेज़ करेगा.

बाइडेन की इंडो-पैसिफिक रणनीति क्वॉड्रिलेटरल सुरक्षा संवाद (क्वॉड) को एक “प्रमुख क्षेत्रीय समूह” के रूप में लोगों की नज़र में लाती है जो वैक्सीन, महत्वपूर्ण एवं उभरती तकनीकों, जलवायु परिवर्तन, बुनियादी ढांचा, साइबर सुरक्षा, और अंतरिक्ष के मुद्दों पर सामूहिक क़दम उठाएगी. एक साल के भीतर क्वॉड की तीसरी शिखर वार्ता 3 मार्च 2022 को आयोजित की गई जिसमें भारत को एक मौक़ा प्रदान किया गया कि वो दूसरे सदस्य देशों (अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और जापान) को यूक्रेन में रूस के आक्रमण को लेकर अपनी स्थिति के बारे में बताए. साथ ही इस शिखर वार्ता के दौरान क्वॉड के चारों देशों को ये दिखाने का भी अवसर मिला कि वो रूस को लेकर मतभेदों के बावजूद इस संगठन को लगातार अहमियत दे रहे हैं. 

अमेरिका-भारत रिश्तों का इम्तिहान 

अमेरिका ने अभी तक यूक्रेन में रूस के आक्रमण को लेकर भारत के उत्साहहीन जवाब और रूस पर आर्थिक प्रतिबंध लगाने में भारत के समर्थन की कमी को लेकर ज़बरदस्त धैर्य दिखाया है लेकिन अब इस बात के संकेत मिल रहे हैं कि अमेरिका की हताशा बढ़ती जा रही है. मार्च के अंत में अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के लिए अमेरिका के उप राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार दलीप सिंह ने अपनी  दिल्ली यात्रा के दौरान साफ़ कर दिया कि अमेरिका उम्मीद करता है कि रूस के द्वारा काफ़ी छूट पर भारत को तेल बेचने की पेशकश का फ़ायदा उठाने से भारत परहेज़ करेगा. रूस ने ये प्रस्ताव भी दिया था कि भारत रुपया-रूबल भुगतान के तौर-तरीक़ों को स्वीकार करे जिससे कि डॉलर में लेन-देन से बचा जा सके. डॉलर में भुगतान होने पर अमेरिका का आर्थिक प्रतिबंध शुरू हो सकता है. 

वैसे तो भारत सही दलील देता है कि यूरोप भी रूस का तेल ख़रीद रहा है और भारत अपनी कुल ऊर्जा ज़रूरत के सिर्फ़ एक प्रतिशत के क़रीब ही रूस से ख़रीदता है लेकिन भारत के द्वारा रूस को आर्थिक प्रतिबंधों के असर से बचने का कोई भी मौक़ा देने से अमेरिका के अधिकारी नाराज़ होंगे. इससे भारत के द्वारा रूस से एस-400 एयर डिफेंस सिस्टम ख़रीदने पर अमेरिकी क़ानून सीएएटीएसए (यानी अमेरिका के विरोधियों को आर्थिक प्रतिबंधों के ज़रिए जवाब देने का क़ानून) से भारत को छूट के पक्ष में दलील देना भी ज़्यादा मुश्किल हो जाएगा. भारत को एस-400 एयर डिफेंस सिस्टम पिछले साल दिसंबर से मिलना शुरू हो चुका है. 

फिर भी 11 अप्रैल को वॉशिंगटन में भारत के विदेश एवं रक्षा मंत्री और अमेरिका के विदेश एवं रक्षा मंत्री के बीच 2+2 संवाद ने रूस को लेकर मतभेदों के बावजूद दोनों देशों के बीच मज़बूत संबंधों की फिर से पुष्टि की. 2+2 बैठक के अलावा बाइडेन और भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बीच अप्रत्याशित वर्चुअल मुलाक़ात और बातचीत के बाद जारी विस्तृत एवं व्यापक साझा बयान ने दोनों देशों के इस दृढ़ निश्चय को दिखाया कि रूस को लेकर अलग-अलग रुख़ के बावजूद वो अपने सामरिक संबंधों में रुकावट नहीं आने देंगे. 

रूस-चीन-भारत गठजोड़

भारत की निर्णय प्रक्रिया पर काफ़ी असर डालने वाला एक बड़ा घटनाक्रम रूस-चीन का घोषणापत्र है जिसे फरवरी में बीजिंग ओलंपिक के उद्घाटन के दिन रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच बैठक के बाद जारी किया गया था. पिछले 70 साल से ज़्यादा समय के दौरान रूस-चीन संबंधों पर सबसे मज़बूत बयान कहे जाने वाले इस घोषणापत्र में कहा गया है कि “दुनिया में शक्ति के फिर से वितरण” की तरफ़ रुझान के साथ विश्व “तेज़ विकास और बहुत ज़्यादा बदलाव के एक नये युग” में प्रवेश कर रहा है. साझा बयान से संकेत मिलता है कि पुतिन और शी मानते हैं कि दुनिया भर में अमेरिका की ताक़त और असर का मुक़ाबला करने के लिए एकजुट होने का समय आ गया है और अपने इस साझा लक्ष्य के बारे में पूरी दुनिया को बताया जाए. 

5,000 से ज़्यादा शब्दों के बयान में रूस ने मज़बूती से ताइवान को लेकर चीन के रुख़ का समर्थन किया. इसके अलावा दोनों देशों ने नेटो के विस्तार का विरोध किया, ऑकस को लेकर चिंता व्यक्त की, और अमेरिका की इंडो-पैसिफिक रणनीति की आलोचना की. रूस-चीन का साझा बयान लोकतंत्र की फिर से परिभाषा भी देना चाहता है और एक बेतुका दावा करता है कि मौजूदा समय में रूस और चीन में एक लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था है. 

चीन को ये पसंद है कि इंडो-पैसिफिक के बदले अमेरिका यूरोप में फंसा हुआ है और वहां अमेरिकी संसाधन एवं कूटनीतिक ध्यान लगा हुआ है. लेकिन चीन अपने घरेलू स्थायित्व और आर्थिक विकास को भी प्राथमिकता देता है और इसलिए ऐसे आर्थिक प्रतिबंधों से परहेज करना चाहता है जो रूस की आर्थिक मदद करने की वजह से उस पर लगेंगे.

वैसे तो ये सार्वजनिक दस्तावेज़ अमेरिका के वैश्विक असर को कमज़ोर करने में दोनों देशों के हितों की मदद करता है लेकिन इस तरह के सवाल भी हैं कि रूस-चीन साझेदारी व्यावहारिक रूप से कैसे काम करेगी, ख़ास तौर से यूक्रेन पर रूस के आक्रमण को लेकर पश्चिमी देशों के मज़बूत और एकजुट विरोध को देखते हुए. चीन को ये पसंद है कि इंडो-पैसिफिक के बदले अमेरिका यूरोप में फंसा हुआ है और वहां अमेरिकी संसाधन एवं कूटनीतिक ध्यान लगा हुआ है. लेकिन चीन अपने घरेलू स्थायित्व और आर्थिक विकास को भी प्राथमिकता देता है और इसलिए ऐसे आर्थिक प्रतिबंधों से परहेज करना चाहता है जो रूस की आर्थिक मदद करने की वजह से उस पर लगेंगे. इसके अलावा, यूक्रेन संकट जितना लंबा खिंचेगा उतना ही मज़बूत अमेरिका-यूरोप संबंध बनेगा. साथ ही यूरोप के देश चीन के विस्तारवादी उद्देश्यों को लेकर अमेरिका की चेतावनी पर और ज़्यादा ध्यान देंगे. 

फिर भी, रूस-चीन समझौते ने निश्चित तौर पर भारतीय अधिकारियों को चिंता में डाल दिया है जो सावधानी से दुनिया की दो महाशक्तियों के बीच दूरी बनाए रखने की कोशिश करते हैं ताकि भारत की अपनी सामरिक आवश्यकताओं को पूरा किया जा सके. जून 2020 में चीन के साथ लगती विवादित सीमा पर चीन की सेना का सामना करने और निकट भविष्य में सीमा पर तनाव की आशंका बरकरार रहने के साथ भारत-चीन सीमा पर एक और तनाव की स्थिति में भारत के लिए रूस के साथ मित्रतापूर्ण संबंध बनाए रखने की ज़रूरत है. 

भारतीय अधिकारियों को इस तथ्य का ध्यान रखना होगा कि चीन पर रूस की निर्भरता बढ़ने की उम्मीद है. इससे रूस में चीन का असर बढ़ेगा. चीन को किसी मुद्दे, जिनमें भारत के साथ सीमा तनाव शामिल है, पर समझाने में रूस की क्षमता कम हो जाएगी. 

फिलहाल रूस पश्चिमी देशों के ज़ोरदार आर्थिक प्रतिबंधों का सामना कर रहा है. भारतीय अधिकारियों को इस तथ्य का ध्यान रखना होगा कि चीन पर रूस की निर्भरता बढ़ने की उम्मीद है. इससे रूस में चीन का असर बढ़ेगा. चीन को किसी मुद्दे, जिनमें भारत के साथ सीमा तनाव शामिल है, पर समझाने में रूस की क्षमता कम हो जाएगी. अगर भारत को इस बात का भरोसा है कि यूक्रेन पर रूस के आक्रमण को लेकर उसकी आलोचना में कमी से वो चीन के साथ अपने सीमा विवाद को लेकर रूस का समर्थन हासिल कर लेगा तो उसे निराशा हाथ लग सकती है. रूस के सैन्य उपकरणों पर भारत की निर्भरता को देखते हुए रूस के ख़िलाफ़ पश्चिमी देशों का आर्थिक प्रतिबंध लागू होने के बाद भारत को अपने रक्षा उद्योग के लिए प्रत्यक्ष नकारात्मक परिणाम का सामना भी करना पड़ सकता है. अनुमानों के मुताबिक़, 2016-2020 के बीच भारतीय हथियार आयात में रूस के उपकरणों का हिस्सा क़रीब 50 प्रतिशत है. 

अमेरिका की वैश्विक ज़िम्मेदारी और भारत के सामने मुश्किल विकल्प 

नियम आधारित व्यवस्था, जिसमें अलग-अलग देश अपनी संप्रभुता और स्वतंत्रता बनाए रखते हैं, को बचाने के लिए अमेरिका के पास ये चुनने का विकल्प नहीं है कि वो अपना संसाधन और ध्यान यूरोप पर केंद्रित करे या इंडो-पैसिफिक पर. उसे निश्चित रूप से दोनों क्षेत्रों पर ध्यान देना चाहिए और अपने साझेदारों एवं सहयोगियों पर निर्भरता बढ़ानी चाहिए ताकि यूरोप में रूस के आक्रमण और इंडो-पैसिफिक में चीन के अतिक्रमण का सामना करने में उसे मदद मिले. 

रूस के आक्रमण की निंदा करने से भारत के इनकार और रूस को एक आर्थिक जीवन रेखा मुहैया कराने की भारत की इच्छा के कारण भारत के साथ अमेरिका के संबंधों में तनाव पैदा हो रहा है और इसकी वजह से क्वॉड के भविष्य को लेकर सवाल खड़े हो गए हैं. साथ ही ये सवाल भी उठ रहे हैं कि जब क्वॉड के सदस्य यूरोप के घटनाक्रम को लेकर बंटे हुए हैं तो क्या ये संगठन इंडो-पैसिफिक में चीन के वर्चस्व के ख़िलाफ़ वास्तव में एक विश्वसनीय विरोध मुहैया करा सकता है. 

अमेरिका को भरोसा है कि भारत इंडो-पैसिफिक में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेगा और इस क्षेत्र में चीन की शक्ति को संतुलित करने में बढ़-चढ़कर योगदान करेगा. लेकिन रूस के सैन्य हथियारों पर भारत की निर्भरता बने रहने से इंडो-पैसिफिक में भारत के द्वारा एक असरदार भूमिका अदा करने की क्षमता कमज़ोर हो सकती है. इसके अलावा समुद्री कार्य-क्षेत्र को लेकर जागरुकता जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे पर सहयोग करने की क्वॉड की क्षमता पर असर भी है. 

रूस के आक्रमण की निंदा करने से भारत के इनकार और रूस को एक आर्थिक जीवन रेखा मुहैया कराने की भारत की इच्छा के कारण भारत के साथ अमेरिका के संबंधों में तनाव पैदा हो रहा है और इसकी वजह से क्वॉड के भविष्य को लेकर सवाल खड़े हो गए हैं.

भारत को 2022 में महत्वपूर्ण सामरिक निर्णय लेने हैं जिनका असर न केवल अमेरिका के साथ द्विपक्षीय संबंधों पर बल्कि चीन और इंडो-पैसिफिक को लेकर भारत के व्यापक राष्ट्रीय सुरक्षा हितों पर भी पड़ेगा. यूक्रेन में रूस का युद्ध भारत के लिए अमेरिका-रूस के बीच दूरी के बावजूद इसके असर से ज़्यादा समय तक दूर रहने को मुश्किल- शायद असंभव- बना रहा है. 

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