1 फरवरी को अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने रूस के साथ हुई इंटरमीडिएट-रेंज न्यूक्लियर फोर्सेज (INF) संधि से बाहर निकलने की घोषणा की है। यह घटना हाल की है लेकिन इसकी पृष्ठभूमि पिछले वर्ष ही तैयार हो गई थी, जब राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने आरोप लगाया था कि रूस इस संधि का ईमानदारी से पालन नहीं कर रहा। उनकी सरकार ने दिसंबर में कह दिया था कि अगर रूस अगले 60 दिनों में इस संधि के पालन की तरफ नहीं लौटता तो अमरीका इस संधि से पीछे हट जाएगा। अमरीका का कहना है कि रूस के क्रूज़ मिसाइल विकसित करने से संधि की शर्तों का उल्लंघन हुआ है।
इसके बाद, रूस के रक्षा मंत्री सर्गेई शोयगू ने अमरीका के इन आरोपों से इनकार करते हुए कहा, “अमरीका पहले से ही समझौते का उल्लंघन कर रहा था। अमरीका पांच सौ किलोमीटर से अधिक दूरी तय करने में सक्षम मिसाइल बनाने के लिए सक्रिय रूप से काम कर रहा है, जो संधि की सीमाओं के बाहर है।” उन्होंने आगे कहा, “इस स्थिति में रूसी राष्ट्रपति ने रक्षा मंत्रालय को ‘जैसे को तैसा’ की तर्ज पर काम करने को कहा है।”
पुतिन ने 20 फरवरी को अपने राष्ट्र के संबोधन में कहा कि “रूस को उन हथियारों का विकास और तैनाती करनी होगी, जिनका इस्तेमाल न केवल उन क्षेत्रों के खिलाफ किया जा सकता है जहां से एक सीधा ख़तरा आएगा, बल्कि उन क्षेत्रों के खिलाफ भी होगा जहां निर्णय लेने वाले केंद्र स्थित हैं।” उन्होंने यह भी जोर देकर कहा कि अमरीका ने रोमानिया और पोलैंड में मिसाइल लांचर तैनात करके इस संधि की अनदेखी की थी। पुतिन ने कहा, “अमरीका ने सबसे पहले धोखेबाजी से इंटरमीडिएट रेंज की मिसाइलों को विकसित करना और उसका इस्तेमाल करना शुरू किया है। इसके बाद उसने यूरोप में एमके-41 यूनिवर्सल लॉन्चर को तैनात करना शुरू किया, जो टॉमहॉक इंटरमीडिएट रेंज की क्रूज मिसाइलों का मुकाबला करने के उद्देश्य से लॉन्च करने में सक्षम हैं।” पुतिन ने इस बात को इंगित करते हुए आगे कहा कि “यह सब करके, संयुक्त राज्य अमरीका ने INF संधि के अनुच्छेद 4 और 6 को नजरअंदाज कर दिया।”
इस प्रकार, दोनों ही पक्ष संधि का पालन न करने को लेकर एक-दूसरे को लंबे समय से आरोपी ठहराते आए हैं। इसके अलावा अमरीका ने चीन के बढ़ते प्रभाव और उसके सैन्य निर्माण को भी ध्यान में रखकर यह फैसला किया है। अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प का स्पष्ट तौर पर यह कहना है कि रूस और चीन दोनों इस संधि का हिस्सा बने तो एक नई संधि बनायी जा सकती है। जिस तरह से वैश्विक शस्त्र नियंत्रण की वास्तुकला आज चरमरा रही है उससे तो यही प्रतीत होता है कि अब यह दुनिया में हो रहे बदलावों का जवाब देने में समर्थ नहीं है।
यदि चीन आईएनएफ़ संधि का हस्ताक्षरकर्ता होता तो उसकी 95 प्रतिशत मिसाइलें इस संधि का उल्लंघन करती।
INF संधि
यह संधि एक महत्वपूर्ण शस्त्र नियंत्रण समझौता है जिस पर अमरीका और सोवियत संघ ने 1987 में हस्ताक्षर किए थे। इस संधि के तहत ज़मीन से मार करने वाली 500 से लेकर 5,500 किलोमीटर की रेंज वाली मध्यम दूरी की मिसाइलों और क्रूज़ मिसाइलों को नष्ट करने और प्रतिबंधित करने पर सहमति जताई थी। इसमें परमाणु और पारंपरिक दोनों तरह की मिसाइलें शामिल हैं। अमरीका आधारित संस्थान आर्म्स कंट्रोल एसोसिएशन के मुताबिक़ इस संधि में पहली बार दोनों महाशक्तियों ने अपने परमाणु शस्त्रागार कम करने, परमाणु हथियारों की पूरी श्रेणी ख़त्म करने और साइट पर व्यापक निरीक्षण की अनुमति देने पर सहमति जताई थी। आईएनएफ संधि के परिणामस्वरूप, अमरीका और सोवियत संघ ने जून 1991 तक 2,692 छोटी, मध्यम और मध्यवर्ती दूरी की मिसाइलों को नष्ट कर दिया था।
INF और चीन
चीन कभी भी आईएनएफ़ संधि का सदस्य नहीं रहा है। इसलिए उसके ऊपर इस संधि की कोई भी सीमाएं लागू नहीं होती है जिसके वजह से उसने बीते तीन दशकों में कम और मध्यम दूरी के प्रक्षेपास्त्रों का ज़ख़ीरा खड़ा कर लिया है। पिछले वर्ष यूएस पैसिफिक कमांड के प्रमुख पद से सेवानिवृत्त हुए और दक्षिण कोरिया में अमरीका राजदूत रहे एडमिरल हैरी हर्रिस ने कहा की चीनी पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के पास 2,000 से अधिक बैलिस्टिक और क्रूज मिसाइल है जिससे अब वह दुनिया की सबसे बड़ी और सबसे विविध मिसाइल फोर्स बन गया है। उन्होंने इस बात को रेखांकित किया कि यदि चीन इस संधि का हस्ताक्षरकर्ता होता तो उसकी 95 प्रतिशत मिसाइलें इस संधि का उल्लंघन करती। जिस तरह से चीन अपने पारम्परिक हथियारों की वृध्दि कर रहा है उससे तो यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि आने वाले वर्षों में हिन्द-प्रशांत क्षेत्र की शक्ति संतुलन बिगड़ेगा।
जिस तरह से चीन अपने पारम्परिक हथियारों की वृध्दि कर रहा है उससे तो यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि आने वाले वर्षों में हिन्द-प्रशांत क्षेत्र की शक्ति संतुलन बिगड़ेगा।
चीन परेशान क्यों?
चीन ट्रम्प के इस कदम से काफी चिंतित है कि अब अमरीका जल्द ही फिर से बड़े पैमाने पर भूमि-आधारित मध्यम और मध्यवर्ती मिसाइलों को विकसित कर सकता है और इस क्षेत्र में तैनात कर सकता है। यदि ऐसा होता है तो चीन की सैन्य क्षमताओं को सबसे अधिक चुनौती मिलेगी और चीन के तटवर्ती इलाकों के पास वर्तमान संतुलन स्थानांतरित होगी जिससे चीन अपनी संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता की रक्षा करने में असहज महसूस करेगा। चीन की डोंग फेंग-26 बैलिस्टिक मिसाइल, जिसकी रेंज 3,000-4,000 किमी है, को 2015 में तैनात किया गया था, जिससे यह हिन्द-प्रशांत के अधिकांश क्षेत्रों को निशाना बना सकता जिसमे अमरीका के कई ठिकाने भी इस जद में आते है।
क्या ट्रम्प सफल होंगे?
वैसे तो यह कहना कठिन होगा कि ट्रम्प इस संधि को तोड़कर क्या हासिल करना चाहते है लेकिन एक नई संधि की उम्मीदें बन सकती है जिसमे चीन को भी शामिल किया जाए। इस तरह के विचारों को रूस से भी समर्थन मिल सकता है, जिसने अतीत में चीनी मिसाइलों के बारे में चिंता व्यक्त की है। प्रश्न यह उठता है की क्या चीन इस समझौते में शामिल होना चाहेगा? ट्रम्प प्रशासन के लिए, चीन पर दबाव बनाना उसकी विदेश नीति का प्रमुख हिस्सा है जो हमेशा से यह कहते आ रहे है कि चीन और रूस को संयुक्त राज्य अमरीका के लिए महत्वपूर्ण ख़तरे है।
वैसे तो चीन, संयुक्त राज्य अमरीका के साथ इस शस्त्र-नियंत्रण संधि में शामिल होने में संकोच कर सकता है लेकिन इसके लिए बहुत ही रचनात्मक कूटनीति की आवश्यकता होगी।
संक्षेप में, अमरीकी सरकार को INF संधि में चीन को शामिल करने के हानि/लाभों के बारे में सोचने की आवश्यकता है। अमरीका के अगले कदमों से चीन को अपने ख़तरे की धारणा और प्रतिशोध दोनों बढ़ सकती है। इससे दोनों देशों के बीच उनके सैन्य प्रतिस्पर्धा में तेजी ला सकती है। वैसे तो चीन, संयुक्त राज्य अमरीका के साथ इस शस्त्र-नियंत्रण संधि में शामिल होने में संकोच कर सकता है लेकिन इसके लिए बहुत ही रचनात्मक कूटनीति की आवश्यकता होगी।
एक ऐसे समय में जब अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर शस्त्र नियंत्रण की स्थापित वास्तुकला के ढ़हने का ख़तरा मंडरा रहा है, तब सभी परमाणु संपन्न राज्य की गंभीर ज़िम्मेदारी बनती है की इस तबाही को रोका जाये।
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