हाल के दौर में दक्षिण एशिया को लेकर में रूस की नीति खासी चर्चा का विषय रही है। रूस और चीन के बीच निकट सहयोग और पाकिस्तान के साथ उसके रिश्तों में आ रही गर्माहट के साथ यह बात तेजी से जाहिर होती जा रही है कि रूस इस क्षेत्र में अपने भारत पर केंद्रित दृष्टिकोण से दूर हटता जा रहा है। यह संक्षिप्त दस्तावेज 1990 के दशक में सोवियत संघ के रूसी संघ में परिवर्तन के दौरान दक्षिण एशिया के बारे में रूस की विदेश नीति में आने वाले बदलावों और निरंतरता का अध्ययन करता है। उसके बाद यह इस क्षेत्र के प्रति रूस की नीति के वर्तमान घटनाक्रमों का आकलन करता है और दलील देता है कि दक्षिण एशिया में रूस की नीति उसके सुरक्षा संबंधी हितों से संचालित हैं, जैसा कि चीन और पाकिस्तान के साथ उसके बदलते समीकरणों से जाहिर है। यह संक्षिप्त दस्तावेज इस प्रचलित दृष्टिकोण को महत्व देता है कि भारत-रूस संबंधों में पहले जैसी गर्माहट का अभाव है, लेकिन या तो संतोष या संदेह के खिलाफ चेतावनी देता है।
परिचय
नवम्बर, 2013 के विलनियस शिखर सम्मेलन की विफलता [1] ने यूक्रेन को संकट की ओर धकेल दिया। संकट के चरम स्थिति में पहुंचने पर, रूस ने मार्च, 2014 में क्रिमिया पर अधिकार जमा लिया, जिसे जनमत संग्रह द्वारा वैधता दिलायी गई। पश्चिम ने इसका जवाब रूस पर आर्थिक प्रतिबंध थोपकर दिया, जिसके बदले में रूस ने भी उस पर प्रतिबंध लगा दिए। उसके बाद पश्चिम के साथ रूस के संबंध शीत युद्ध के बाद सबसे ज्यादा निम्न स्थिति में पहुंच गए। ।
विश्व में घटते तेल के दामों के साथ यूक्रेन से संबंधित प्रतिबंधों का रूस की अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। राजनीतिक और आर्थिक, दोनों तरह के पश्चिमी अलगाव के तहत लड़खड़ाते रूस ने तेजी से अपना केंद्रबिंदु एशिया की ओर मोड़ दिया, जिसकी शुरूआत कुछ समय पहले ही हो चुकी थी। यह विशेष तौर पर चीन के साथ उसके संबंधों में प्रदर्शित हुआ। मई 2014 में रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने अपनी शंघाई यात्रा के दौरान सतह से हवा में मार करने वाली रूसी एस-400 मिसाइलें चीन को बेचने सहित उसके राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ अनेक द्विपक्षीय समझौतों पर हस्ताक्षर किए। [2] इसके अलावा, रूसी कम्पनी गेजप्रॉम ने चीन की नेशनल पेट्रोलियम कार्पोरेशन के साथ 400 बिलियन डॉलर मूल्य के 30 साल के गैस समझौते पर हस्ताक्षर किए। इस सौदे में ‘पॉवर ऑफ साइबेरिया’ पाइपलाइन का निर्माण करने की परिकल्पना की गई, जिसके पूरा होने के बाद चीन को 38 बिलियन क्यूबिक मीटर प्राकृतिक गैस का निर्यात होने की संभावना है। रूस और चीन ने, चीन और जापान के बीच विवादित क्षेत्र पूर्वी चीन सागर पर संयुक्त नौसैनिक अभ्यास भी किए हैं, जो जापान की बेचैनी और उससे भी ज्यादा अमेरिकी चिंता का कारण बना। दिसम्बर, 2016 में रूस ने चीन को उन्नत एसयू-35 लड़ाकू विमानों की पहली खेप भेजी। [3]
इस बीच, लगभग इसी समय रूस द्वारा पाकिस्तान पर लगे हथियार प्रतिबंधों को हटाए जाने की खबरें सामने आने लगीं। [4] 2015 में, रूस ने पाकिस्तान के साथ चार उसे एमआई-35 हैलीकॉप्टरों की आपूर्ति करने का सौदा किया। उसी साल, दोनों देशों ने कराची और लाहौर में एलएनजी टर्मिनलों को जोड़ने वाली 1100 किलामीटर “नॉर्थ-साउथ” गैस पाइपलाइन के निर्माण में सहयोग देने का भी समझौता किया। [5] दोनों देशों ने चेरात में [6] पिछले साल अपना अब तक का पहला विशेष अभ्यास “द्रुज्बा” (मैत्री)-2016 भी किया। [7] यह अभ्यास उरी हमले के बाद भारत की चिंताओं के बावजूद किया गया। रिपोर्ट के अनुसार, दोनों देश इस साल के आखिर में दूसरे दौर के संयुक्त सैन्य अभ्यास करेंगे। [8]
इतना ही नहीं, अफगानिस्तान के संबंधों में रूस का पुराना रुख, जो भारत से मिलता-जुलता था, में व्यापक बदलाव आ चुका है। रूस, भारत और ईरान 1996 से 2001 के बीच अफगानिस्तान को पूरी तरह तालिबान के कब्जे में आने से रोकने का प्रयास कर रहे थे। अफगानिस्तान की समस्या में इस्लामिक स्टेट के दाखिल होने के बाद से, भारत का दृष्टिकोण रूस और ईरान से अलग हो चुका है, क्योंकि वह ‘अच्छे’ और ‘बुरे’ तालिबान में फर्क नहीं करता। अफगानिस्तान के बारे में उनके रुख में भिन्नता दिसम्बर 2016 में जाहिर हो गई, जब रूस, चीन और पाकिस्तान ने अफगानिस्तान की घटनाओं के बारे में चर्चा करने के लिए त्रिपक्षीय बैठक बुलाई और इसमें भारत तथा अफगानिस्तान को शामिल नहीं किया गया। विशेषकर कुछ चुनिंदा तालिबान नेताओं के खिलाफ लगे प्रतिबंध हटाने का उनका ‘लचीला रवैया’ भारत को मंजूर नहीं था। भारत और अफगानिस्तान द्वारा दिसम्बर की बैठक के बारे में स्पष्ट आपत्ति व्यक्त किए जाने के बाद, रूस ने इस साल फरवरी में हुए बातचीत के दूसरे दौर में उन दोनों को शामिल करने की सावधानी बरती।
दरअसल भारत, चीन के साथ रूस की करीबी साझेदारी और पाकिस्तान के साथ सौहार्दपूर्ण संबंधों को शक की नजर से देखता है। उसी तरह रूस भी अमेरिका के साथ भारत के संबंधों को शक की नजर से देखता है। भारत ने जब से अपने रक्षा आयातों में विविधता लानी शुरू की है, तभी से अमेरिका उसके प्रमुख आपूर्तिकर्ता के रूप में उभरा है। पिछले साल, दोनों देशों ने लॉजिस्टिक्स विनिमय समझौता ज्ञापन (एलईएमओए) को अंतिम रूप दिया, जो उन्हें मरम्मत और आपूर्ति करने के लिए एक-दूसरे के जमीनी, हवाई और नौसैनिक ठिकानों का इस्तेमाल करने की अनुमति देता है। भारत और अमेरिका के बीच सालाना रक्षा व्यापार लगभग 15 बिलियन डॉलर का है और भारत, अमेरिका के प्रमुख रक्षा साझेदार का दर्जा प्राप्त कर चुका है। इस तरक्की ने भारत को बेहद अत्याधुनिक और संवेदनशील अमेरिकी प्रौद्योगिकियों को खरीदने में समर्थ बनाया है। [9]
इन घटनाओं के मद्देनजर, दक्षिण एशिया में रूस की नीति के विकास के बारे में कई सवाल उठते हैं। दक्षिण एशिया के प्रति रूस की नीति ऐतिहासिक तौर पर भारत पर केंद्रित रही है, जैसे-जैसे हम इस दस्तावेज के अगले खंडों में चर्चा करेंगे, वह आखिरकार मौजूदा स्वरूप में आ जाएगी।
सोवियत युग (1947-1991)
दक्षिण एशिया क्षेत्र के प्रति सोवियत संघ की दिलचस्पी विशेषकर ख्रुश्चेव के कार्यकाल के दौरान जाहिर हुई। नवम्बर, 1955 में, कम्युनिस्ट पार्टी के तत्कालीन प्रथम सचिव निकिता ख्रुश्चेव और सोवियत संघ के तत्कालीन प्रधानमंत्री निकोलोई बल्गानिन ने भारत की यात्रा की। इसके साथ ही सोवियत संघ के विदेश सहायता कार्यक्रम के साथ भारत से उसके विशेष रिश्तों की शुरूआत हुई। [10] लास एंजेलिस टाइम्स की एक रिपोर्ट के अनुसार, “यह दौरा सोवियत संघ के भारत के साथ और दरअसल, शेष विकासशील विश्व के साथ रिश्तों का महत्वपूर्ण बिंदु था।” इस रिपोर्ट में भारत-सोवियत संबंधों को “देशों के बीच सशक्त, अजीब साझेदारियों में से एक” करार दिया गया। (बल दिया गया है) [11]
इसके बाद आपसी संबंधों के एक अभूतपूर्व सफर की शुरूआत हुई, जिसे अपनी अनोखी विश्वसनीयता के लिए जाना जाता है। अलग-अलग दौर में दोनों पक्षों के नेताओं द्वारा सार्वजनिक रूप से की गई घोषणाओं से इस विश्वास का पैमाना जाहिर होता है। 1976 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सोवियत संघ की यात्रा के दौरान, ख्रुश्चेव के उत्तराधिकारी लियोनिद ब्रेजनेव ने टिप्पणी की थी, “सोवियत संघ भारत और भारतीय जनता का भरोसेमंद दोस्त बना रहा है और बना रहेगा।” [12] ब्रेजनेव ने चार साल बाद अपनी एक आधिकारिक भारत यात्रा के दौरान भी यही विचार दोहराये : “बिना किसी अतिशियोक्ति के यह कहा जा सकता है कि सोवियत जनता और उसके नेता ऐसे दोस्त हैं, जिन पर भारत अपने अच्छे और बुरे समय में, साफ और खराब मौसम में भरोसा कर सकता है।” [13]
सबसे ज्यादा दिलचस्प बात यह है कि भारत में चाहे किसी की भी सरकार रही हो, उसकी तरफ से इसी तरह की ही प्रतिक्रियाएं व्यक्त की जाती रहीं। उदाहरण के लिए, 1970 के दशक के आखिरी वर्षों (1977-79) के दौरान जब कुछ समय के लिए कांग्रेस की जगह जनता पार्टी ने देश की बागडोर संभाली, तो भी सत्तारूढ़ दल ने कांग्रेस के कार्यकाल की तरह ही सोवियत संघ को प्राथमिकता देने की नीति को जारी रखा। जनता पार्टी की सरकार में विदेश मंत्री रहे अटल बिहारी वाजपेयी के एक इस वक्तव्य से यह जाहिर होता है। उन्होंने कहा था, “हमारे देश ने अकेले सोवियत संघ को ही अपना एकमात्र भरोसेमंद दोस्त पाया है।” [14]
अनेक महत्वपूर्ण घटनाएं दक्षिण एशिया के प्रति सोवियत संघ की तवज्जो को बयां करती हैं, 1950 के दशक से जिसके केंद्र में भारत रहा। सोवियत संघ ने महसूस किया कि दक्षिण एशिया में अमेरिका और चीन दोनों के प्रभाव को कम करने के लिए वहां मजबूती से पांव जमाने की जरूरत है। जिसकी वजह से अनिवार्य रूप से ऐसी स्थिति उत्पन्न हुई, जहां रूस को शक्ति के वैकल्पिक स्रोतों की तलाश शुरू करनी पड़ी। जिस तरह उसका ध्यान भारत पर गया, उसी तरह उसने पाकिस्तान तक पहुंच कायम करने की भी कोशिश की। हालांकि पाकिस्तान ने सोवियत संघ के साथ रिश्तों को, भारत के साथ उसके रिश्तों के प्रिज्म से देखा और सोवियत संघ की पेशकशों का उत्साह से जवाब नहीं दिया। इसकी बजाए उसने वित्तीय सहायता के लिए, साथ ही साथ बढ़ती भारत-सोवियत संघ साझेदारी का मुकाबला करने के लिए स्पष्ट तौर पर अमेरिका का रुख किया।
इस संबंध में एक दिलचस्प घटना 1949 में हुई, जब सोवियत संघ ने पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री लियाकत अली खान को अपने देश आने का निमंत्रण दिया। पहले-पहल तो पाकिस्तानी प्रधानमंत्री ने सोवियत संघ का निमंत्रण स्वीकार कर लिया, लेकिन बाद में वहां जाने की बजाए अमेरिका जाने का फैसला किया। [15] यहीं से सोवियत संघ और पाकिस्तान के सर्द रिश्तों की शुरूआत हुई, लेकिन वे पूरी तरह, विशेष तौर पर वाणिज्यिक क्षेत्र में अलग नहीं हुए। [16]
पाकिस्तान के दक्षिण-पूर्व एशियाई संधि संगठन(एसईएटीओ) [17] और केंद्रीय संधि संगठन (सीईएनटीओ) [18] दोनों में प्रवेश के बाद, अमेरिका ने 1954 में पाकिस्तान को सैन्य सहायता दी।एसईएटीओ और सीईएनटीओ के सदस्य के नाते, पाकिस्तान, सोवियत प्रभाव को कम करने के लिए लक्षित बहुपक्षीय व्यवस्थाओं का हिस्सा बन गया। दक्षिण में सोवियत सीमाओं के साथ पश्चिम-समर्थक सैन्य गठबंधनों में पाकिस्तान का शामिल होना, उसके सोवियत संघ के साथ संबंधों में महत्वपूर्ण दरार का कारण बना। पाकिस्तान को अमेरिका की नियंत्रण करने संबंधी रणनीति के लिंक के तौर पर देखा जाने लगा। सोवियत संघ के वैचारिक प्रतिद्वंद्वी चीन के साथ पाकिस्तान के अच्छे संबंध, उनके करीबी संबंधों में एक अन्य रुकावट थे।
जब तक ख्रुश्चेव की जगह ब्रेजनेव सत्ता में आए, तब तक “रूस अपनी दक्षिण एशिया नीति तैयार कर चुका था, जिसके केंद्र में भारत था।” [19] अपनी मध्यस्थता से 1966 में भारत और पाकिस्तान को ताशकंद घोषणापत्र पर हस्ताक्षर करने में समर्थ बनाना सोवियत संघ की दक्षिण एशियाई कूटनीति के बेहतरीन उदाहरणों में से एक है।
सत्ता का संतुलन बनाए रखने के लिए भारत की भागीदारी जल्द ही महत्वपूर्ण हो गई। इसलिए, रूस ने भारत को अंतर्राष्ट्रीय मामलों पर जहां तक मुमकिन हो सके, उसके लिए फैसलों के समान ही कूटनीतिक और वाणिज्यिक निर्णय लेने को कहा (बल दिया गया)। अनेक अवसरों पर देखा गया कि भारत ने सोवियत नीति की खुली आलोचना करने से परहेज किया। हंगरी में सोवियत हस्तक्षेप [20] पर भारत की प्रतिक्रिया कमजोर थी और तो और उसने हंगरी से सोवियत फौजों को वापस बुलाने का आह्वान करने वाले संयुक्त राष्ट्र महासभा के प्रस्ताव के विरूद्ध सोवियत संघ का समर्थन किया। [21] भारत में चेक जनता के लिए व्यापक सहानुभूति होने के बावजूद, भारत सरकार ने महज ‘अफसोस’ व्यक्त किया और चेकोस्लोवाकिया पर सोवियत हमले के मामले में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में 1968 में हुए मतदान में भाग नहीं लिया। जब 1970 के दशक के आखिर में जब सोवियत संघ के सैनिक अफगानिस्तान में दाखिल हुए, तो भारत ने उस पर ऐतराज होने के बावजूद उसका सार्वजनिक तौर पर विरोध न करने की समझदारी दिखाई। भारत ने अफगानिस्तान में सशस्त्र हस्तक्षेप तत्काल समाप्त करने का आह्वान करने वाले संयुक्त राष्ट्र महासभा के प्रस्ताव पर हुए मतदान में हिस्सा नहीं लिया।
सोवियत संघ ने कम ब्याज दर पर कर्ज रूप में उदार सहायता प्रदान करते हुए भारत के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस कर्ज को रूपये में ही चुकाया जाना था। उसने भारत को सैन्य उपकरणों और तेल, उर्वरक, धातु आदि जैसे अन्य महत्वपूर्ण उत्पादों की आपूर्ति की। उसने बुनियादी और महत्वपूर्ण औद्योगिक ढांचे की स्थापना में भी भारत की सहायता की। भारत की कुछ प्रमुख सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियों जैसे भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड (भेल), तेल एवं प्राकृतिक गैस निगम (ओएनजीसी) तथा हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (एचएएल) साथ ही साथ इस्पात उद्योग की स्थापना भी सोवियत सहयोग से ही हुई।
कश्मीर और गोवा जैसे विशिष्ट मामलों पर भारत के दृष्टिकोण को मिले सोवियत समर्थन से भी भारत को कूटनीतिक तौर पर बल मिला। [22] संयुक्त राष्ट्र के बाहर सोवियत सहायता तथा सुरक्षा परिषद के भीतर उसके वीटो के अधिकार के इस्तेमाल की धमकी या वास्तविक इस्तेमाल ने पाकिस्तान के पक्ष वाले अंतर्राष्ट्रीय दबाव से भारत की रक्षा की। भारत द्वारा सोवियत संघ से मिग-21 लड़ाकू विमान खरीदे जाने के साथ ही दोनों देशों के रक्षा संबंधों ने 1962 में ठोस सूरत अख्तियार की। यह ऐसा दौर था, जब पश्चिमी देश भारत को हथियार नहीं बेचना चाहते थे। इसी के बाद भारतीय सशस्त्र बलों की रूसी सैन्य साजोसामान पर लगभग 90 फीसदी निर्भरता हो गई। 1960 के दशक के आखिर में, सोवियत संघ, भारत को रक्षा उपकरणों का प्रमुख आपूर्तिकर्ता बनकर उभरा और वह भारत का दूसरा बड़ा कारोबारी सहयोगी बन गया। इतना ही नहीं, रूस एकमात्र ऐसा हथियार आपूर्तिकर्ता देश था, जो भारत के आत्मनिर्भर सैन्य प्रतिष्ठान दर्शन से सहानुभूति रखता था। [23]
भारत की भी अपनी महत्वाकांक्षाएं थीं और सोवियत संघ ने उन्हें प्रोत्साहन दिया। यह सब उस समय परिलक्षित हुआ, जब भारत ने 1974 में परमाणु परीक्षण किया। सोवियत संघ ने इसका विरोध नहीं किया, और तो और जब अमेरिका और कनाडा ने भारत के परमाणु रिएक्टरों के लिए गुरुजल की आपूर्ति रोक दी, तो उसने आवश्यक गुरुजल की आपूर्ति करके इस कमी को दूर करने की भी कोशिश की।
सोवियत संघ के साथ संबंध बढ़ाने का भारत का मुख्य रणनीतिक उद्देश्य बाहरी सैन्य खतरों के खिलाफ सहायता सुनिश्चित कराना था। इसके अलावा, “सोवियत सैन्य समर्थन ने भारत को कुछ हद तक सैन्य ताकत के रूप में उभरने में भी सहायता की।” [24] पाकिस्तान के संदर्भ में, भारत अपनी सैन्य श्रेष्ठता भी प्राप्त करना चाहता था जबकि साथ ही देश के लिए बाहरी सहायता को भी हतोत्साहित करना चाहता था। सोवियत संघ के साथ अपने सुरक्षा और कूटनीतिक संबंधों को मजबूती प्रदान करके यह उद्देश्य पूरा किया जा सका। सोवियत सैन्य सहायता की जरूरत की वजह से 1971 में भारत-सोवियत मैत्री एवं सहयोग संधि पर हस्ताक्षर किए गए। इस संधि के लिए बातचीत हालांकि 1969 में ही शुरू हो चुकी थी, लेकिन पाकिस्तान के साथ युद्ध के समय सोवियत सहायता की जरूरत ने इस संधि को आकार देने को गति मिली।
भारत-सोवियत संबंधों का रास्ता निरंतर सकारात्मक बना रहा, लेकिन उसमें कुछ मतभेद भी रहे। 1970 के दशक में अफगानिस्तान में सोवियत सैनिकों के प्रवेश, भारत द्वारा एशिया में सामूहिक सुरक्षा प्रणाली के सोवियत संघ के प्रस्ताव का अनुमोदन करने से इंकार, साथ ही साथ परमाणु हथियारों के अप्रसार की संधि (एनपीटी), जिस पर भारत ने हस्ताक्षर करने से इंकार कर दिया आदि जैसे मामलों पर मतभेद — उन विविध असहमतियों में शामिल हैं, जो दोनों देशों के बीच मौजूद थीं, लेकिन सार्वजनिक क्षेत्र में शायद ही कभी इनका जिक्र किया गया। [25] जैसा कि रॉबर्ट डोनाल्डसन का कहना है, दोनों पक्ष इस बात को जानते थे कि उनके उद्देश्य भली-भांति पूरे हो सकेंगे “यदि क्षेत्रीय और वैश्विक प्रतिद्वंद्वी यह मानते रहे कि भारत और रूस छोड़ दिए जाने या धोखा होने के डर के बिना एक-दूसरे की सहायता पर भरोसा कर सकते हैं।” [26]
सोवियत संघ के विघटन के बाद का दौर
रूस, सोवियत संघ का प्रमुख उत्तराधिकारी बनकर उभरा, उसे अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति तैयार करते तथा अपने राष्ट्रीय हितों को नए सिरे से परिभाषित करते समय अपनी कम हो चुकी क्षमताओं के साथ गुजारा करना था। जबकि वह वैश्विक प्रभाव में आई गंभीर कमी से जूझ रहा था, उसे “चेचन्या जैसे क्षेत्रों में पृथकतावादी आंदोलनों में वृद्धि, आतंकवाद तथा कट्टरपंथ की वृद्धि, गंभीर आर्थिक संकट तथा सैन्य ताकत और सैन्य औद्योगिक क्षमताओं में गिरावट जैसी गंभीर चुनौतियों का भी सामना करना पड़ रहा था।” [27] मास्को स्थित विश्व अर्थव्यवस्था एवं अंतर्राष्ट्रीय संबंध संस्थान(आईएमईएमओ) के उप निदेशक व्लादिमीर बारनोवस्की इस दौर को “तकलीफदेह प्रक्रिया” [28] करार देते हैं, जहां रूसी नेतृत्व को मौजूदा तथा उभरते खतरों और चुनौतियों से निपटने में सक्षम सुरक्षा की अवधारणा स्पष्ट करने के लिए संघर्ष करना पड़ा। [29]
रूस ने उस समय अपनी तरक्की और विकास के लिए पश्चिम का रुख किया। इस बीच, भारत भी सोवियत संघ के विघटन के बाद की नई वास्तविकता को अपनाने की कोशिश कर रहा था। 1991 के मध्य में, पी.वी.नरसिम्हा राव की सरकार ने नियंत्रण समाप्त करते हुए अर्थव्यवस्था के उदारीकरण की प्रक्रिया को तेजी प्रदान की। उसने अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ)और विश्व बैंक से कर्ज प्राप्त करने के लिए आईएमएफऔर विश्व बैंक की कुछ शर्तों को माना और अर्थव्यवस्था को विदेशी निवेश के लिए खोल दिया। अलग-अलग हित होने के बावजूद, भारत और अमेरिका ने भी एक-दूसरे के प्रति मैत्रीपूर्ण भाव दिखाए और सहयोग के नए क्षेत्रों की तलाश की।
भारत और रूस के बीच जब जनवरी, 1992 में राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन की भारत यात्रा के दौरान नई 20 वर्षीय मैत्री और सहयोग संधि पर हस्ताक्षर हुए, तो प्रतीकात्मक संकेत के रूप में 1971 की संधि से “शांति” शब्द निकाल दिया गया। इतना ही नहीं, दोनों पक्षों ने मौलिक संधि के अनुच्छेद 9 की सुरक्षा संबंधी धारा को भी संशोधित किया और “महज दूसरे पक्ष के सुरक्षा हितों को प्रभावित कर सकने वाला कोई भी कदम उठाने से परहेज करने पर सहमति प्रकट की” [30](1971 की संधि में, दोनों देशों द्वारा “दूसरे पक्ष के साथ सशस्त्र संघर्ष करने वाले तीसरे पक्ष को किसी भी तरह की सहायता प्रदान करने से परहेज करने पर सहमति प्रदान की गई थी।”)राष्ट्रपति येल्तसिन के कार्यकाल के दौरान विदेश मंत्री रहे आंद्रेई कोजीरेव द्वारा — जनवरी 1993 में प्रस्तुत ‘विदेश नीति की अवधारणा’ में 1987 और 1993 के बीच रूस की राष्ट्रीय सुरक्षा संबंधी प्राथमिकताओं में बदलाव को औपचारिक स्वरूप प्रदान किया। अवधारणा में पश्चिम, विशेषकर अमेरिका के साथ सहयोगपूर्ण संबंध कायम करने को प्राथमिकता दी गई। इसमें प्राथमिकता की दृष्टि से दक्षिण एशिया (भारत का अलग से जिक्र किए बिना)को सातवां स्थान दिया गया। [31]
भारत—रूस क्रायोजनिक सौदा विवाद भी लगभग इसी समय हुआ। 1993 में, रूस भारतीय भू-स्थैतिक अंतरिक्ष प्रक्षेपण यान (जीएसएलवी)के लिए भारत को क्रायोजनिक बूस्टर इंजनों के उत्पादन की प्रौद्योगिकी की आपूर्ति करने वाला था। अमेरिका की आपत्तियों को देखते हुए यह सौदा आखिरकार रद्द कर दिया गया, क्योंकि अमेरिका इसे मिसाल टैक्नोलॉजी व्यवस्था का उल्लंघन मान रहा था।
इस बीच, 1990 के दशक के शुरूआती बरसों में रूस के पाकिस्तान के साथ रिश्तों में भी सुधार आने लगा। पाकिस्तान के प्रति रूस के नए प्रस्ताव, सैन्य आयातों में विविधता लाने की पाकिस्तान की जरूरत के अनुरूप थे, क्योंकि 1990 में अमेरिका ने हथियारों की आपूर्ति रोक दी थी। 1992 में, रूस, पाकिस्तान को एसयू-27 लड़ाकू विमानों की आपूर्ति के लिए उसके साथ समझौते पर हस्ताक्षर करने के बेहद करीब पहुंच गया था, लेकिन भारतीय सरोकारों के मद्देनजर यह सौदा रद्द कर दिया गया। [32]
रूस में उस समय भारत से संबंधित नीति के बारे में दो अलग-अलग तरह की विचारधाराएं मौजूद थीं। पहली विचारधारा को मानने वालों में शिक्षक और सांसद थे, जो भारत के साथ परम्परागत रिश्ता बनाए रखने के पक्ष में थे, जबकि दूसरी विचारधारा को मानने वाले लोग भारत के साथ विशेष रिश्ते समाप्त करने को उचित समझते थे । दूसरी विचारधारों को मानने वालों में विदेश मंत्रालय के अधिकारी (जिसका नेतृत्व उस समय कोजीरेव के हाथ में था)शामिल थे। इस समूह का मानना था कि इस क्षेत्र के प्रति अपनाए गए भारत-केंद्रित दृष्टिकोण की वजह से अन्य दक्षिण एशियाई देशों विशेषकर पाकिस्तान के साथ रूस के रिश्ते प्रभावित हुए। इसके अलावा, अब जबकि रूस का झुकाव पश्चिम की ओर हो रहा था, ऐसे में भारत के साथ संबंध सोवियत-युगीन नीतिगत दृष्टिकोण की याद दिलाते थे। [33]
1990 के दशक के आखिर में, रूस का पश्चिम प्रेम अपनी चमक-दमक खोने लगा, हालांकि भारत के प्रति बदलता दृष्टिकोण आकार लेने लगा। प्रधानमंत्री येवगेनी प्रिमाकोव ने दिसम्बर 1998 में, पोखरण—2 परीक्षण के छह महीने बाद भारत का दौरा किया। प्रिमाकोव की यह यात्रा महत्वपूर्ण थी, क्योकि एक तो रूस संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य था और दूसरा इन परीक्षणों पर रूस की आपत्तियों के बावजूद वह नई दिल्ली पहुंचे। यह स्पष्ट था कि रूस, विशाल भारतीय बाजार के साथ रक्षा संबंध बहाल करने का इच्छुक था।
व्लादिमीर पुतिन के सत्ता की बागडोर संभालने के बाद हालांकि इस दिशा में निर्णायक मोड़ आया। उन्होंने भारत पर नए सिरे से ध्यान केंद्रित करना शुरू किया। उन्हीं के नेतृत्व में रूस ने भारत के साथ 2000 में सामरिक साझेदारी स्थापित की, बाद में उसका दायरा बढ़ाते हुए 2010 में उसे ‘विशेष एवं विशेषाधिकारप्राप्त साझेदारी’ स्वरूप प्रदान किया गया। तभी से, यह सामरिक साझेदारी सभी क्षेत्रों में व्यापक सहयोग की दिशा में बढ़ रही है।
2014 के बाद की स्थिति में हालांकि नई चुनौतियां सामने आई हैं। यह साझेदारी अब उभरती भारत-अमेरिकी सामरिक साझेदारी तथा चीनी-रूसी और रूसी-पाकिस्तानी संबधों के कारण खतरे में हैं।
वर्तमान परिदृश्य
रूस की विदेश नीति 2014 के आरंभ में क्रिमिया पर उसके कब्जे के बाद नए सिरे से अंतर्राष्ट्रीय दिलचस्पी का केंद्र बन चुकी है। तभी से रूस खुद को वैश्विक स्तर पर महत्वपूर्ण बनाने के लिए प्रयास कर रहा है, जैसा कि सीरिया में इस्लामिक स्टेट का मुकाबला करने के लिए रूस के हस्तक्षेप और अफगानिस्तान में स्थायित्व कायम करने के उसके प्रयासों से जाहिर होता है। इस तरह बदलती भूराजनीतिक परिस्थिति की वास्तविकता को देखते हुए दक्षिण एशिया में रूस की वर्तमान नीति को बहु-मार्गी (मल्टी वेक्टर्ड) करार दिया गया जा सकता है। इन वास्तविकताओं में अफगानिस्तान में 2014 के बाद के सुरक्षा हालात, रूस की अपने रक्षा निर्यातों में विविधता लाने की आवश्यकता और पड़ोस तथा उससे परे अपने नेतृत्व का दावा करने की इच्छा शामिल हैं। [34]
अफगानिस्तान में 2014 के बाद के सुरक्षा हालात, रूस की अपने रक्षा निर्यातों में विविधता लाने की आवश्यकता और पड़ोस तथा उससे परे अपने नेतृत्व का दावा करने की इच्छा शामिल हैं।
हालांकि पाकिस्तान के साथ रूस के समग्र संबंध भारत जितने व्यापक नहीं हैं, लेकिन यह स्पष्ट हो चुका है कि रूस, भारत के साथ अपने संबंधों के आधार पर पाकिस्तान के साथ अपने संबंधों को परिभाषित करने से दूर जा चुका है। इस संदर्भ में, इस बात पर जरूर गौर किया जाना चाहिए कि बांग्लादेश, नेपाल, श्रीलंका, मालदीव और भूटान जैसे अन्य दक्षिण एशियाई देशों में रूस, भारत के नेतृत्व का ही अनुसरण कर रहा है। बदलते भूराजनीतिक परिदृश्य में ऐसी व्यवस्था की व्यवहारिकता और निरंतरता भी समीक्षा के दायरे में है।
2014 में अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी की शुरूआत होने के बाद से रूस का उस पर फोकस भी बढ़ गया है। अफगानिस्तान के प्रति उसका मौजूदा दृष्टिकोण आईएसआईएस से खतरे पर केंद्रित है, जिसे वह क्षेत्रीय स्तर तक सीमित — तालिबान से ज्यादा बड़ा खतरा मानता है। [35] वह अफगानिस्तान में आईएसआईएस का मुकाबला करने के लिए तालिबान को मददगार मान रहा है और इस प्रकार वह पाकिस्तान को अफगानिस्तान में वास्तविक प्लेयर के रूप में देख रहा है। एक रूसी विद्वान में इस बात का सारांश निम्नलिखित वाक्य में बहुत बेहतर ढंग से प्रस्तुत किया है, “अक्सर किसी ऐसे देश को साथ जोड़ने की जरूरत पड़ती है, जो समाधान का अंग भले ही न हो, लेकिन समस्या का भाग हो, क्योंकि हो सकता है कि उसकी भूमिका की विपरीत प्रतिक्रिया हो और वह रूस की सुरक्षा के साथ ही साथ क्षेत्र की सुरक्षा के लिए भी खतरनाक हो जाए।” [36]
अफगानिस्तान में रूस के हितों को समझने के लिए, ताजिक-अफगान सीमा पर उसके हितों पर गौर करना महत्वपूर्ण होगा, जिसे वह अपना
सामरिक क्रॉस मानता है। पूर्व सैन्य अधिकारी और सुरक्षा परिषद में रूस के सचिव अलेक्सांद्र लीबेद ताजिक-अफगान सीमा को उन डोमिनोज़ की श्रृंखला की पहली कड़ी करार देते हैं, जिनकी अस्थिरता अन्य मध्य एशियाई देशों के पतन का कारण बन सकती है। यह सिलसिला आखिरकार रूस तक पहुंचेगा, क्योंकि इस प्रक्रिया में उसकी सीमाएं “अस्त्राखान या यहां तक कि वोल्गा के विस्तार के मध्य तक धकेल दी जाएंगी।” [37] रूस सरकार ने ताजिकिस्तान-अफगानिस्तान सीमा पर सुरक्षा सहयोग बढ़ाने के बारे में ताजिकिस्तान के साथ कई दौर की बातचीत की है और वह मध्य एशियाई सैन्य ब्लॉक सामूहिक सुरक्षा संधि संगठन (सीएसटीओ)के दायरे में विस्तार किए जाने की संभावना पर विचार कर रहा है।
रूस के लिए, मादक पदार्थों की तस्करी जैसी समस्याएं, जिनका स्रोत अफगानिस्तान है [38] उसकी आसानी से लांघी जा सकने वाली सीमाओं की समस्या को उजागर करती हैं। इस प्रक्रिया में रूस न सिर्फ मादक पदार्थों की तस्करी का ट्रांजिट रूट बन गया है, बल्कि मादक पदार्थों की लत का शिकार भी बन रहा है। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, रूस मादक पदार्थों का बड़ा उपभोक्ता बनकर उभरा है जिसकी वजह से आए दिन मौते होती हैं। यह किसी भी ऐसे देश के भविष्य के लिए अच्छा संकेत नहीं है, जो पहले से जनसंख्या में कमी की भीषण समस्या से जूझ रहा है।
इन मतभेदों के कारण भारत-रूस संबंधों की भविष्य की राह के बारे में संदेह और अनिश्चितता बढ़ी है। संदेह होना वाजिब भले ही हो, लेकिन इसे वास्तविकता से अधिक आंकना गलत होगा।जैसा कि इस संक्षिप्त दस्तावेज में संकेत किया गया है कि भारत-सोवियत संघ/रूस संबंधों के पूरे इतिहास में भारत और रूस के बीच भिन्नताएं, समानताओं के साथ समानांतर रूप से मौजूद रही हैं। दोनों देश सोवियत संघ के दौर में , साथ ही साथ 1990 के दशक के शुरूआती वर्षों के परिवर्तन के बाद उन पर काबू पाने में सफल रहे थे, जब दोनों देश अपने-अपने संक्रमण काल से जूझ रहे थे। दरअसल, लचीलापन इस साझेदारी का निर्धारक तत्व रहा है, जिसे वाजिब रूप से “समय की कसौटी पर खरा उतरा” करार दिया गया है।
आधिकारिक रूप से उठाए गए कदमों पर गौर करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि रूस, भारत के साथ सहयोग बनाए रखने का इच्छुक है। उदाहरण के लिए, रूस की विदेश नीति की अवधारणा, 2016 के नवीनतम संस्करण (इससे पहले,विदेश नीति का आखिरी दस्तावेज 2013 में जारी किया गया था) में कहा गया है, “रूस, भारत गणराज्य के साथ दोनों देशों द्वारा स्वीकृत दीर्घकालिक सहयोग कार्यक्रमों को लागू करने पर ध्यान केंद्रित करते हुए विदेश नीति की प्राथमिकताओं की समानताओं, ऐतिहासिक दोस्ती और गहरे आपसी विश्वास साथ ही साथ प्राथमिक रूप से व्यापार और अर्थव्यवस्था सहित सभी क्षेत्रों में परस्पर लाभकारी आपसी संबंधों को बढ़ावा देने पर आधारित अपनी विशिष्ट विशेषाधिकारप्राप्त साझेदारी को और ज्यादा मजबूती प्रदान करने के लिए संकल्पबद्ध है।” [39]
इसी तरह, जब व्लादिमीर पुतिन ने इस साल जून के आरंभ में सेंट पीट्सबर्ग अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक मंच के दौरान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से मुलाकात की, तो उन्होंने फिर से भरोसा दिलाया कि अन्य देशों के साथ रूस के रिश्तों के कारण भारत के साथ उसके रिश्ते ‘कमजोर नहीं होंगे’। [40] इस यात्रा की समाप्ति अनेक समझौतों के साथ हुई। दोनों देशों ने आतंकवाद के खिलाफ साझा घोषणापत्र पर हस्ताक्षर करने के अलावा कुडनकुलम में दो अतिरिक्त परमाणु रिएक्टरों के लिए सामान्य प्रारूप समझौता और ऋण प्रोटोकॉल को भी अंतिम रूप प्रदान किया। दोनों देशों ने लड़ाकू विमानों और ऑटोमोबील्स के निर्माण के लिए संयुक्त उद्यम लगाने की योजनाओं का भी खाका तैयार किया।
इतना ही नहीं, रूस के निर्यातों और भारत के रक्षा आयातों में विविधता के बावजूद, दोनों निरंतर रूप से प्रमुख रक्षा और सामरिक साझेदार बने हुए हैं। भारत के 70 प्रतिशत रक्षा सौदे अभी तक रूस के साथ होते हैं। कुछ सकारात्मक घटनाओं में, पिछले साल गोवा में ब्रिक्स शिखर सम्मेलन के दौरान दूसरी रूसी परमाणु शक्ति वाली युद्धक पनडुब्बी अकुला-2 श्रेणी के भारतीय नौसेना के लिए पट्टे से संबंधित सौदे पर हस्ताक्षर किया जाना शामिल है। [41] इतना ही नहीं, अप्रैल, 2017 में बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना की भारत यात्रा के दौरान भारत और बांग्लादेश ने असैन्य परमाणु समझौते पर हस्ताक्षर किए। बांग्लादेश के साथ असैन्य परमाणु समझौता, रूस के साथ त्रिपक्षीय सहयोग का मार्ग प्रशस्त करेगा, जो बांग्लादेश के रूपपुर में परमाणु बिजली घर का निर्माण कर रहा है। इस बात पर गौर करना महत्वपूर्ण होगा कि यह किसी तीसरे देश में परमाणु बिजली परियोजना के विकास के लिए भारत की किसी अन्य देश का साथ सहयोग की यह पहली घटना है।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि रूस एकमात्र ऐसा देश है, जिसके साथ उच्च प्रौद्योगिकी के हस्तांतरण और संयुक्त उत्पादन के लिए भारत की संस्थागत व्यवस्था है। इसका आशय यह है कि रूस एकमात्र ऐसा देश है, जो भारत के साथ महत्वपूर्ण प्रौद्योगिकी साझा करने और उसके साथ मिलकर निर्माण करने का इच्छुक है, जिसके लिए पश्चिम अब तक इच्छुक नहीं रहा है। भारत ब्रह्मोस सुपरसोनिक मिसाइल, टी-90 टैंक और सुखोई लड़ाकू विमानों सहित अनेक रूसी रक्षा उत्पादों का निमार्ण अब स्थानीय स्तर पर करता है। रूस उन शुरूआती देशों में से है, जिन्होंने रक्षा क्षेत्र में ‘मेक इन इंडिया’ पहल का जवाब दिया है।
निष्कर्ष
दक्षिण एशिया के प्रति रूस की बदलती नीति का क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में हो रहे बदलावों के संदर्भ में आकलन किया जाना चाहिए। अमेरिका के अपेक्षाकृत कमजोर होने और चीन की बढ़ती आक्रामकता के साथ हालात बदलाव के दौर से गुजर रहे हैं। वर्तमान में भारत-रूस संबंधों में मौजूद खामियों को दूर करने का सामर्थ्य मजबूत आर्थिक संबंधों में है। इस संदर्भ में, बहु-राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय उत्तर-दक्षिण ट्रांजिट कॉरिडोर (आईएनएसटीसी) में पर्याप्त संभावनाएं मौजूद हैं।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि भारत के राष्ट्रीय हित रूस के साथ मजबूत संबंधों में हैं। इसलिए रूस को संदेह में डालने की जगह, उस तक पहुंच बनाने और उसकी चिंताओं को दूर करने में सक्रिय भूमिका निभाने की जरूरत है। सशक्त रूस-पाकिस्तान-चीन संबंध भारत के लिए लाभकारी नहीं है, ऐसे में उसे समय की कसौटी पर खरे उतरे और भरोसेमंद साझेदार के साथ अपने संबंधों को बनाए रखने में पहल करनी चाहिए।
रूस के साथ भारत का बुनियादी सहयोग, बहुपक्षीय व्यवस्था के लिए उसकी सहायता में निहित है, जिसके तहत उसमें निरंतर वृद्धि हो सकती है। वांछित अंतर्राष्ट्रीय समानता बनाए रखने के लिए मजबूत और मैत्रीपूर्ण रूस महत्वपूर्ण है। चीन के लगातार आक्रामक रुख अपनाने के साथ, एशिया में सत्ता का संतुलन बनाए रखने के लिए यह और भी प्रासंगिक हो जाता है। इस तरह मजबूत भारत-रूस साझेदारी, दोनों के लिए ही फायदेमंद है।
संदर्भ
[1] Then Ukrainian president, Viktor Yanukovych refused to sign an EU association agreement- the cornerstone of the Union’s Eastern Partnership initiative, just before the Vilnius summit. He expressed Ukraine’s inability to sacrifice trade with Russia (which was opposed to the EU deal) as the reason behind the withdrawal.
[2] Russia resumed the sale of advanced arms technology sale to China after almost a decade of an informal ban on exports of high technology military equipment following China’s alleged replication of Russian weapons designs.
[3] http://www.defensenews.com/articles/china-receives-first-advanced-su-35-flankers-from-russia
[4]Confirming the same, the head of Russian state technology corporation Rostec, Sergei Chemezov noted that, “the decision w as taken, and we are negotiating the delivery of helicopters” For further details see http:/ /tass. com/ world/734309.
[5] Pakistan, Russia sign agreement for construction of North-South gas pipeline, The Dawn, October 16, 2015, https://www.dawn.com/news/1213460.
[6] It is ocated in the north-western province of Khyber-Pakhtunkhwa
[7]Russian Army to hold first mountain drills with Pakistan in 2016, TASS, January, 2016. http://tass.com/defense/851484
[8] https://in.rbth.com/blogs/south_asian_outlook/2017/01/16/where-does-pakistan-fit-in-russias-south-asia-strategy_681726
[9] Himani Pant, “India-Russia in Testy waters?”, South Asian Voices, https://www.orfonline.org/research/india-russia-testy-waters/
[10] See Thomas W.Wolfe, Soviet Power and Europe, 1945-70,Johns Hopkins Press, Baltimore, 1970, p.130, quoted in
Robin Edmonds, Soviet Foreign Policy 1962-73
of Super Power, Oxfore Univ.Press, New York, 1975, pp.11-12,
[11] http://articles.latimes.com/1986-11-23/news/mn-12608_1_soviet-union
[12] Ibid., p.235.
[13] Ibid.
[14] Foreign Broadcast Information Service (FBIS), Daily Report: Soviet Union, April 12, 1978, p.11, quoted in Robert Donaldson’s The Soviet Union in South Asia: A Friend to Rely on?, Journal of International Affairs, 1980, 34:2, p. 235.
[15] For further details see Hafeez-ur-Rahman Khan, “Pakistan’s Relations with the USSR”, Pakistan Horizon, 14:1, 1961, p.34.
[16] As early as February 1956, the Soviet Union had offered Pakistan technical knowledge on the peaceful uses of atomic energy. This was followed by an offer to construct a steel mill in Pakistan, similar to the one the Soviet Union built in India (Bhilai Steel Plant, 1955). Later, President Ayub Khan accepted the Soviet offer to assist in the exploration of mineral resources in 1959. Inspite of the U-2 incident that followed in 1960, both sides saw it in their interests to continue with economic cooperation and concluded the Oil Pact in 1961. In fact, Pakistan set up its largest exploration and production (E&P firm), the Oil and Gas Development Company Ltd (OGDCL) with the Soviet financial and technical assistance. A Civil Aviation Pact was also reached in 1963, which facilitated cooperation between the Pakistani and Soviet airlines to cooperate over each other’s territories. Another major deal took place in 1966 under which the Soviet Union agreed to provide technical assistance in the construction of various projects, including the Guddo Thermal Power station. For details see, Zubeida Hasan “Pakistan’s Relations with the U.S.S.R. in the 1960s.” The World Today 25:1, 1969, p.34.
[17]SEATO was founded in 1954 and originally consisted of Australia, France, New Zealand, Pakistan, the Philippines, Thailand, the UK and the USA. It is currently inactive.
[18] Formerly known as the Baghdad Pact, CENTO was founded in 1955 and originally consisted of Iran, Iraq, Pakistan, Turkey and the UK. It is currently inactive.
[19] Pramod K. Mishra, “the Soviet Union in South Asia”, Indian Journal of Asian Affairs, 3:1/2, June December 1990, p.2.
[20] For details on Hungry episode, please see https://2001-2009.state.gov/r/pa/ho/time/lw/107186.htm.
[21] Harsh V. Pant, “India-Russia Ties and India’s Strategic Culture: Dominance of a Realist Worldview.” India Review 12:1, 2013, p.3
[22]V.P. Dutt, India’s Foreign Policy Vikas Publishing House, New Delhi, 1984, p. 131–32
[23] S. Nihal Singh, the Yogi and the Bear, Mansell Publishing Ltd.
[24] Ibid.
[25] Nandan Unnikrishnan, “The Enduring Relevance of India-Russia Relations”, ORF Issue Brief 179, May, 2017, p.2.
[26] Robert Donaldson, The Soviet Union in South Asia: A Friend to Rely on?, Journal of International Affairs, 1980, 34:2,237.
[27] Baidya Bikash Basu, “Russian National Security Thinking”, https://www.idsa-india.org/an-oct-00-6.html
[28] https://www.sipri.org/sites/default/files/files/books/SIPRI99Chu/SIPRI99Chu.pdf, 25-26
[29] https://www.idsa-india.org/an-oct-00-6.html
[30] Vinay Shukla, “Russia in South Asia: A View from India”, SIPRI, 254, http://books.sipri.org/files/books/SIPRI99Chu/SIPRI99Chu16.pdf.
[31] Russia’s priorities order: (1) the Commonwealth of Independent States (CIS); (2) arms control and international security; (2) economic reform; (4) the United States; (5) Europe; (6) the Asia–Pacific region; (7) West and South Asia; (8) the Near East; (9) Africa; and (10) Latin America.
[32] Vinay Shukla, “Russia in South Asia: A View from India”, http://books.sipri.org/files/books/SIPRI99Chu/SIPRI99Chu16.pdf.
[33] Vinay Shukla, “Russia in South Asia: A View from India”, SIPRIhttp://books.sipri.org/ files/books/ SIPRI99Chu/SIPRI99Chu16.pdf.
[34]http://calhoun.nps.edu/bitstream/handle/10945/30471/Johnson_Mason_Understanding_the_Taliban.pdf?sequence=1&isAllowed=y
[35] Manoj Joshi, Understanding Russian Engagement in South Asia, South Asian Voices, 2014, Available at, https://southasianvoices.org/understanding-russian-engagement-south-asia/
[36] An unnamed Russian scholar cited in Indrani Talukdar’s “India – Russia: Perceptions need to be Corrected and Relationship Strengthened.” Indian Foreign Affairs Journal 11:4, 2016, 316-321.
[37] Dmitri Trenin, “The End of Eurasia”, 2002, p.192.
[38] During the mid-1990s, Russia emerged as a major corridor for drug trafficking, majority of narcotics arriving from Afghanistan. In South Asia via Tajikistan and Kyrgyzstan and are exported to Western Europe by way of the Baltic countries and east central Europe.
[39] “Foreign Policy Concept of the Russian Federation (approved by President of the Russian Federation Vladimir Putin on November 30, 2016)”, Ministry of Foreign Affairs of the Russian Federation, 30 November 2016. http://www.mid.ru/en/foreign_policy/news/-/asset_publisher/ cKNonkJE02Bw/content/id/2542248
[40] No ‘tight’ military ties with Pak, Indo-Russia ties cannot be diluted: Putin, http://www.ptinews.com/news/8758888_PTI-EXCLUSIVE–No–tight–military-ties-with-Pak–Indo-Russia-ties-cannot-be-diluted–Putin.html.
[41] India acquires Akula-2 class nuclear powered submarine from Russia, The Deccan Chronicle, October 16, 2016, http://www.deccanchronicle.com/nation/current-affairs/191016/india-acquires-akula-2-class-nuclear-powered-attack-submarine-from-russia.html.
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