Published on Oct 01, 2022 Updated 24 Days ago

भारत और पाकिस्तान के बीच संतुलन साधने की कोशिश में तालिबान तनी हुई रस्सी पर चल रहा है.

तालिबान की कश्मीर नीति: लफ़्फ़ाज़ी, विचारधारा, और हित

अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान को शासन करते हुए एक साल से अधिक बीतने के साथ, यह स्पष्ट है कि यह संगठन 1990 के दशक में जो था आज भी उससे कुछ अलग नहीं है. महिलाओं पर पाबंदियां थोपी जा रही हैं, आतंकवादी संगठनों का सुरक्षित ठिकाना तलाशना जारी है, और निशाना बनाकर हत्याएं हो रही हैं. इस संदर्भ में, कश्मीर को लेकर तालिबान के वादों और नीति पर दोबारा ग़ौर करना बहुत ज़रूरी है. कश्मीर पर तालिबान की मौजूदा लफ़्फ़ाज़ी 1990 के दशक में उनके पहली बार सत्ता में आने के बाद से जस की तस रही है. हालांकि, लफ़्फ़ाज़ी को किनारे रखते हुए, उसकी असल नीति दो कारकों से निर्धारित होती रही है : विचारधारा और हित. अब भी ये दोनों कारक कश्मीर को निशाना बनाने वाले संगठनों को पनाह देने के लिए तालिबान के पक्ष में हैं. हालांकि, बदलाव की एक संभावना है, जो तालिबान के पाकिस्तान के साथ विकसित होते रिश्तों और तालिबान को समायोजित करने के लिए भारत के इच्छुक होने पर आधारित है.

लफ़्फ़ाज़ी और उससे परे

तालिबान की कश्मीर नीति 1996 में उनके पहली बार सत्ता में आने के बाद से मोटे तौर पर जस की तस रही है. 2001 तक, तालिबान ने भारत के घरेलू मामलों और कश्मीर में दख़लअंदाज़ी नहीं करने तथा भारत से अच्छे रिश्ते को बढ़ावा देने की लफ़्फ़ाज़ी को जारी रखा. हालांकि, हक़ीक़त में, उसकी नीति के एक बड़े हिस्से को उसकी विचारधारा और हितों ने आकार प्रदान किया. वैचारिक रूप से, तालिबान ख़ुद अफ़ग़ान क्षेत्रों से परे जिहाद छेड़ने का ज़्यादा इच्छुक नहीं है, लेकिन इसके साथ ही वह दूसरे जिहादी संगठनों (कश्मीर में सक्रिय संगठनों समेत) के लिए गहरी हमदर्दी की पैरोकारी भी करता है. स्वाभाविक रूप से, तालिबान ने अफ़ग़ान क्षेत्रों में दूसरे आतंकी संगठनों को आश्रय और समर्थन दिया या कम से कम उनकी मौजूदगी को लेकर अपनी आंखें मूंद लीं. इसने उसे पाकिस्तान तथा दूसरे आतंकवादी संगठनों से भौतिक लाभ और धन हासिल करके अपने हितों को आगे बढ़ाने में मदद की.

2001 तक, तालिबान ने भारत के घरेलू मामलों और कश्मीर में दख़लअंदाज़ी नहीं करने तथा भारत से अच्छे रिश्ते को बढ़ावा देने की लफ़्फ़ाज़ी को जारी रखा. हालांकि, हक़ीक़त में, उसकी नीति के एक बड़े हिस्से को उसकी विचारधारा और हितों ने आकार प्रदान किया.

2001 में जब तालिबान सत्ता से बेदख़ल हो गया, पाकिस्तान पर उसकी निर्भरता बढ़ गयी. उस वक़्त के दौरान, तालिबान ने लश्कर-ए-तैयबा (एलईटी) और जैश-ए-मोहम्मद (जेईएम) समेत अन्य स्थानीय जिहादी संगठनों से मज़बूत संबंध बनाकर पश्चिम के दबाव से बाहर निकलने की कोशिश की. इन दोनों कारकों ने तालिबान को अफ़ग़ानिस्तान में भारतीय कामगारों, ठेकेदारों और राजनयिक मिशनों के ख़िलाफ़ समन्वित हमले शुरू करके अपने हितों को आगे बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित किया. हालांकि, लफ़्फ़ाज़ी के स्तर पर उन्होंने यह कहना जारी रखा कि वे भारत-पाकिस्तान संबंधों में निष्पक्ष हैं; कश्मीर में सक्रिय आतंकी संगठनों के साथ उनका कोई संपर्क नहीं है; और भारत पर हमले का उनका कोई इरादा नहीं है. तालिबान के कई नेताओं ने कश्मीर के शांतिपूर्ण समाधान का समर्थन किया, साथ ही उन्होंने यह भी खुलकर कहा कि वे कश्मीरियों और अन्य मुसलमानों के ख़िलाफ़ भारत की हिंसा की निंदा करने का अधिकार सुरक्षित रखते हैं.

2021 में सत्ता में दोबारा आने के साथ, तालिबान ने भारत और कश्मीर पर कई बयान दिये हैं. उन्होंने यह दोहराया है कि वे किसी भी देश (भारत समेत) को निशाना नहीं बनायेंगे; उनका एलईटी या दूसरे आतंकवादी संगठनों से कोई संपर्क नहीं है; वे कश्मीर मुद्दे में कोई दख़लअंदाज़ी नहीं करेंगे; और यह चाहेंगे कि भारत और पाकिस्तान कश्मीर विवाद का समाधान शांतिपूर्वक करें. हालांकि, उन्होंने एक बार फिर दोहराया कि वे कश्मीर में अपने साथी मुसलमानों के साथ एकजुटता में अपनी आवाज़ उठायेंगे और उनके साथ खड़े होंगे. कश्मीर पर तालिबान की मौजूदा लफ़्फ़ाज़ी जस की तस बनी हुई है, लेकिन वैचारिक कारक और हित उसकी असल नीति तय करेंगे.

आतंकी संगठन, विचारधारा, और हित

तालिबान के अलक़ायदा और उसके शाखा संगठनों, ख़ासकर ‘अलक़ायदा भारतीय उपमहाद्वीप’ (एक्यूआईएस) से गहरे रिश्ते हैं. कुछ विद्वान यहां तक टिप्पणी करते हैं कि तालिबान और एक्यूआईएस के सदस्यों के बीच फ़र्क़ करना मुश्किल है. अलक़ायदा और एक्यूआईएस की निगाहें दक्षिण एशिया में जिहाद के केंद्र के बतौर कश्मीर पर लंबे समय से टिकी हुई हैं. उन्होंने तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) जैसे संगठनों को यहां तक सुझाव दिया कि वे पाकिस्तान में हिंसा भड़काना छोड़ें और भारत पर अपना ध्यान केंद्रित करें. हालांकि, उसकी ज़्यादातर लफ़्फ़ाज़ी कश्मीर के ख़िलाफ़ प्रोपगैंडा में ही दिखती है, कार्रवाइयों में नहीं. कश्मीर के ख़िलाफ़ अपने तीखे और बढ़ते प्रोपगैंडा के बावजूद, एक्यूआईएस और उससे संबद्ध संगठन अंसार गजवत-उल-हिंद ख़ुद को कश्मीर में टिका पाने में अभी तक तक विफल रहे हैं.

यहीं पर तालिबान की नीति अलक़ायदा के लिए बेहद अहम साबित होगी. यह सच है कि अफ़ग़ानिस्तान में अलक़ायदा की मौजूदगी तालिबान की सैन्य शक्ति के लिए उतनी उपयोगी नहीं होगी जितनी कि वह पश्चिम के ख़िलाफ़ लड़ाई के दौरान थी. बिन लादेन का आश्रयदाता होने से लेकर काबुल में अल-ज़वाहिरी को शरण देने तक, तालिबान की अलक़ायदा और उसकी जिहादी विचारधारा के लिए हमदर्दी लगातार बनी हुई है. हितों के लिहाज़ से बात करें तो, अफ़ग़ान ज़मीन पर अलक़ायदा की खुली मौजूदगी अंतरराष्ट्रीय वैधता पाने की तालिबान की महत्वाकांक्षा को ख़तरे में डाल सकती है. हालांकि, अलक़ायदा को गुप्त समर्थन तालिबान को बाकी जिहादी दुनिया के साथ जुड़े रहने और भौतिक व वैचारिक लाभ हासिल करने में सक्षम बनाता है. अगर तालिबान अंतरराष्ट्रीय वैधता हासिल करने में विफल रहता है, तो यह उसके लिए एक आसान विकल्प लगता है. इन वैचारिक और सांगठनिक हितों को देखते हुए, तालिबान अलक़ायदा को उसकी गतिविधियों (कश्मीर के ख़िलाफ़ समेत) के लिए अफ़ग़ान ज़मीन का इस्तेमाल करने से पूरी तरह रोकने से हिचकिचायेगा.

अलक़ायदा और एक्यूआईएस की निगाहें दक्षिण एशिया में जिहाद के केंद्र के बतौर कश्मीर पर लंबे समय से टिकी हुई हैं. उन्होंने तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) जैसे संगठनों को यहां तक सुझाव दिया कि वे पाकिस्तान में हिंसा भड़काना छोड़ें और भारत पर अपना ध्यान केंद्रित करें.

हो सकता है कि जेईएम को पनाह देने में तालिबान को ज़्यादा सैन्य फ़ायदा नहीं लगे. हालांकि, वैचारिक रूप से, तालिबान की साथी देवबंदी संगठनों के लिए हमदर्दी बहुत गहरी है. अतीत में, कश्मीर को निशाना बनाने वाले देवबंदी संगठनों जैसे हरकत-उल-मुजाहिदीन, हरकत-उल-जेहादी इस्लाम और हरकत-उल-अंसार ने अफ़ग़ानिस्तान में सुरक्षित ठिकाना और कामकाज की जगह खोजी. तालिबान ने मसूद अज़हर के जेईएम के गठन में भी एक अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभायी. कश्मीर में पाकिस्तान द्वारा देवबंदी संगठनों के इस्तेमाल ने, तालिबान को अफ़ग़ान ज़मीन पर उन्हें पनाह देने और इसके ज़रिये पाकिस्तान से मोलभाव के लिए प्रोत्साहित करना जारी रखा हुआ है.

पाकिस्तान से ख़ुद को अलग करने के जेईएम के कई तत्वों, और पाकिस्तानी राज्य द्वारा भी यही प्रदर्शित करने की कोशिश के बावजूद, जेईएम को आईएसआई, तालिबान और अलक़ायदा के बीच आपसी संबंधों का लाभ हासिल है. इस तरह, वैचारिक और सांगठनिक हित इस बात के पक्ष में हैं कि तालिबान जेईएम को अपनी गतिविधियों के लिए अफ़ग़ान ज़मीन का इस्तेमाल जारी रखने दे. मसूद अज़हर की मौजूदगी अफ़गानिस्तान में है या फिर पाकिस्तान में, इससे कोई फ़र्क़ पड़े बिना यह जारी रहेगा. स्वाभाविक रूप से, जेईएम अफ़ग़ानिस्तान के नंगरहार में आठ कैंप चलाता है – जिनमें से तीन तालिबान के सीधे नियंत्रण में हैं.

हालांकि, एलईटी के पास अफ़ग़ानिस्तान में सीमित संचालन क्षमता और मौजूदगी है. इसने अपनी मौजूदगी केवल 2006 में बढ़ायी – पश्चिम से लड़ने में तालिबान की क्षमताओं को बढ़ाने के लिए. उन्होंने तालिबान, अलक़ायदा और दूसरे देवबंदी संगठनों से सदस्यों को जुटाया, भर्ती किया और पनाह दी, और कभी-कभार मैनपॉवर से भी उनकी मदद की. हालांकि, इस सीमित सहयोग के बावजूद, एलईटी को कई देवबंदी संगठनों द्वारा संशय के साथ देखा जाता है. इसकी दो वजहें हैं : एलईटी की अहल-ए-हदीस विचारधारा और देवबंदी विचारधारा के बीच वैचारिक अंतर्विरोध; और एलईटी की आईएसआई से निकटता और कई मौक़ों पर उसकी ओर से काम करना. इस तरह, अपेक्षाकृत रूप से, एलईटी को अफ़ग़ान जमीन से काम करने देने में तालिबान को कम वैचारिक दिलचस्पी है, लेकिन एलईटी की आईएसआई के साथ नजदीकी तालिबान के लिए थोड़े मोलभाव और लाभ उठाने की शक्ति सुनिश्चित करती है. यही वजह है कि एलईटी अफ़ग़ानिस्तान में भी काम करता है, अलबत्ता एक सीमित ढंग से.

तालिबान ने अभी तक डूरंड लाइन को स्वीकार नहीं किया है और कई मौक़ों पर पाकिस्तानी बलों के साथ झड़प का होना जारी है. इसके अलावा, टीटीपी को उसकी सहानुभूति और आश्रय ने भी दोनों देशों के बीच तनाव बढ़ाया है.

हित और भारतपाकिस्तान कारक

हालांकि, इन हितों के तालिबान की भारत व पाकिस्तान नीति और इसके विलोम-क्रम (वाइस-वर्सा) से भी प्रभावित होने की संभावना है. तालिबान के इस्लामाबाद से सहायता और सुरक्षित ठिकाना लेने के बावजूद, उसका और पाकिस्तान का एक जटिल रिश्ता है. पाकिस्तान-विरोधी लफ़्फ़ाज़ी का इस्तेमाल करते हुए, घरेलू वैधता तथा अधिक स्वायत्तता हासिल करने की तालिबान की कोशिश ने इस रिश्ते को और जटिल बना दिया है. तालिबान ने अभी तक डूरंड लाइन को स्वीकार नहीं किया है और कई मौक़ों पर पाकिस्तानी बलों के साथ झड़प का होना जारी है. इसके अलावा, टीटीपी को उसकी सहानुभूति और आश्रय ने भी दोनों देशों के बीच तनाव बढ़ाया है. कहा जाता है कि, आईएसआई की अब भी संगठन के भीतर कुछ पकड़ मौजूद है, और कश्मीर में उन्नत सैन्य साजो-सामान और हथियारों की अफ़ग़ानिस्तान से आवक बढ़ रही है.

दूसरी तरफ़, तालिबान ने भारत के साथ संलग्नता की शुरुआत के ज़रिये पाकिस्तान पर अपनी अति-निर्भरता से छुटकारा पाने की कोशिश की है. तालिबान ने सैन्य संबंधों को आगे बढ़ाने और निवेश के लिए भारत को आमंत्रित किया है और ऐसे किसी आतंकवादी संगठन को आश्रय नहीं देने की गारंटी दी है जो भारत को निशाना बना सकता है. इस संबंध में, भारत ने तालिबान को खाद्य सामग्री और मानवीय मदद की पेशकश की है और काबुल में अपने राजनयिक मिशन को भी दोबारा खोल दिया है – मोटे तौर पर यह कश्मीर में 90 के दशक वाली स्थिति दोहरायी जाने से बचने के लिए है.

कुल मिलाकर, तालिबान अपने संगठन के भीतर आईएसआई का प्रभाव कमज़ोर करने के प्रयास कर रहा है, और यह कश्मीर को निशाना बनाने वाले आतंकी संगठनों को उनके समर्थन के स्तर को शायद मद्धिम बनायेगा. हालांकि तालिबान के हितों और विचारधारा को देखते हुए, वह भारत-विरोधी और पाकिस्तान-विरोधी संगठनों को संभवत: आश्रय देगा. यह उन्हें दोनों पक्षों से रियायतें और लाभ हासिल करने में मदद करेगा. फिर भी, कश्मीर मुद्दे पर तालिबान अपने संतुलन में किसकी ओर झुकेगा, यह मोटे तौर पर इस बात पर निर्भर करेगा कि भारत और पाकिस्तान तालिबान के हितों को, और तालिबान भारत और पाकिस्तान के हितों को किस तरह समायोजित करेगा.

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