लंबे समय से चल रहे रूस-यूक्रेन युद्ध एवं मिडिल ईस्ट में चल रही जंग के बीच एक बात स्पष्ट रूप से देखने को मिली है कि युद्ध के तौर-तरीक़ों में कई तरह के बदलाव हो रहे हैं और इसमें पारंपरिक युक्तियों एवं आधुनिक तकनीक़ दोनों का जमकर इस्तेमाल किया जा रहा है. एक तरफ, यूक्रेन-रूस के बीच लड़ाई में हथियार, गोला-बारूद आदि का उपयोग किया गया है, जो कि पारंपरिक युद्ध की प्रासंगिकता को प्रकट करता है, वहीं दूसरी तरफ मध्य पूर्व में चल रहे युद्ध में अत्याधुनिक तकनीक़ का इस्तेमाल हो रहा है. यानी वहां लड़ाई में लक्ष्य साधने के लिए आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) और मानव रहित हवाई वाहनों यानी ड्रोन जैसी टेक्नोलॉजी का खूब उपयोग हो रहा है. हालांकि, आबादी वाले इलाक़ों में और दुर्गम क्षेत्रों में लड़े जाने वाले युद्धों में आज भी ज़मीनी सैनिकों की भूमिका अहम होती है, यानी इसने साबित किया है कि जितने अधिक सैनिक होते हैं, सेना की ताक़त उतनी ज़्यादा होती है. जिन देशों की सेनाओं ने आधुनिक युद्ध तकनीक़ों को अपनाया है, देखा जाए तो उनकी क्षमताओं में ज़बरदस्त वृद्ध हुई है. ड्रोन, गाइडेड हथियार और निगरानी की विकसित तकनीक़ों के उपयोग ने इजराइल जैसी छोटी सैन्य ताक़तों और हमास जैसे समूहों को अपने से ताक़तवर देशों पर हमला करने की क्षमता प्रदान की है. गाज़ा में हमास ने और यूक्रेन ने अपने विरोधी के ख़िलाफ़ व्यापक स्तर पर टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल किया है और इस प्रकार से सैनिकों की कम संख्या की भरपाई की है. चाहे रूस-यूक्रेन युद्ध का मैदान हो, या फिर मिडिल ईस्ट में छिड़ी जंग, दोनों जगहों पर ही युद्ध के नए और पारंपरिक तरीक़ों का तालमेल देखने को मिलता है और यह कहीं न कहीं भविष्य में लड़ी जाने वाली जंगों की एक झलक भी पेश करने का काम करता है.
तकनीक़ की बढ़ती भूमिका
युद्ध में होने वाला सबसे अहम बदलाव, आज युद्ध क्षेत्र के बारे में पूरी जानकारी का उपलब्ध होना और हर स्तर पर टेक्नोलॉजी की पहुंच होना है. ड्रोन और दूसरी तकनीक़ों के बढ़ते प्रयोग से आज सेना को लगभग पूरे युद्ध क्षेत्र की रियल टाइम तस्वीर, वो भी सटीक जीपीएस के साथ उपलब्ध हो रही है. ज़ाहिर है कि थल सेनाओं और वायु सेनाओं के लिए दुश्मन के ठिकानों पर सटीक निशाना लगाकर हमला करने के लिए यह जानकारी बहुत महत्वपूर्ण होती है. इजराइल ने AI-आधारित एल्गोरिदमिक टार्गेटिंग प्रोग्राम यानी व्यापक स्तर पर उपलब्ध आंकड़ों का विश्लेषण करके सटीक निशाना साधने के लिए लक्ष्य का पता लगाने में महारत हासिल की है. इजराइली सेना की इस उपलब्धि ने उसकी मारक क्षमता और अचूक निशाना साधने की क्षमता में इज़ाफा किया है. हालांकि, इससे युद्ध में मनुष्य बनाम मशीन के उपयोग को लेकर बहस शुरू हो गई है.
गाज़ा में हमास ने और यूक्रेन ने अपने विरोधी के ख़िलाफ़ व्यापक स्तर पर टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल किया है और इस प्रकार से सैनिकों की कम संख्या की भरपाई की है.
रूस के साथ चल रही लड़ाई में यूक्रेन ने भी इसी प्रकार से टेक्नोलॉजी का उपयोग किया है. यूक्रेन के उप प्रधानमंत्री, मिखाइल फेडोरोवा के मुताबिक़ यूक्रेन की जीत का फार्मूला है: "यूक्रेनी नागरिकों का साहस + प्रौद्योगिकी = यूक्रेन की जीत." यूक्रेन के सैनिक युद्ध के पूरे इलाक़े में यहां-वहां फैले हुए हैं और तमाम सेंसरों एवं कैमरों से लैस हैं, जो कि सीधे सैन्य यूनिट और मुख्यालयों से जुड़े हुए हैं. इनसे जो भी ख़ुफ़िया जानकारी मिलती है, उसे तत्काल बिना समय गंवाए जांचा जाता है और लक्ष्य पर हमला कर दिया जाता है. यूक्रेन युद्ध में ड्रोन ने बेहद उल्लेखनीय भूमिका निभाई है. ये ड्रोन दुश्मन की मिसाइलों के बारे में शुरुआत में ही जानकारी उपलब्ध कराते हैं. इसमें बायरकटार TB2 और शाहेद 136 हथियारों से लैस ड्रोन ("कामिकेज़ ड्रोन") ख़ास तौर पर कारगर साबित हुए हैं. इतना ही नहीं, समुद्री इलाक़ों में भी ड्रोन काफी प्रभावशाली सिद्ध हुए हैं. इसके अलावा, यूक्रेन ने कोस्टल डिफेंस मिलाइलों से रूस की ताक़तवर नौसेना का डटकर मुक़ाबला किया है. यूक्रेन ने इन मिसाइलों के ज़रिए सैन्य साज़ो-सामान और सैनिकों को ले जाने में सक्षम रूसी युद्धपोतों को तबाह करके रूस के पानी और ज़मीन पर चलने वाले सैन्य अभियानों को क्षति पहुंचाई है. ऐसे ही यूक्रेनी हमलों में रूस का प्रमुख युद्धपोत मोस्कवा क्षतिग्रस्त होकर डूब गया था. कहने का मतलब है कि समुद्री युद्ध में हमले के अलग-अलग तरीक़ों का उपयोग करना भी कहीं न कहीं नौसैनिक युद्ध में होने वाले परिवर्तन को सामने लाता है. ज़ाहिर है कि चीन, नाटो और मित्र देशों की नौसेनाएं भी इससे सबक ले रही हैं.
ड्रोन से मिली सटीक जानकारी के आधार पर लक्ष्य पर हमला करने वाले निर्देशित हथियारों का मतलब है कि एक ही धमाके में लक्ष्य को तबाह कर देना. कहने का मतलब है कि तकनीक़ के इस्तेमाल से वर्तमान में दुश्मन के ठिकानों पर अचूक हमला करना संभव है, जबकि पूर्व में ऐसा नहीं था. पहले युद्ध के दौरान दुश्मन के ठिकाने को नष्ट करने के लिए अंधाधुंध गोला-बारी करनी पड़ती थी और उसके बाद भी यह निश्चित नहीं था कि हमला सही जगह पर ही हुआ है और सफल रहा है. अमेरिका ने पिछले वर्ष 7 अक्टूबर को इजराइल पर हुए हमास के आतंकी हमले के बाद आतंकी समूह हमास पर हमला करने के लिए तमाम आधुनिक हथियारों की आपूर्ति की मंज़ूरी दी थी. इन हथियारों में लक्ष्य पर सटीक निशाना साधने वाले हथियार और किफ़ायती गाइडेड हथियार शामिल थे. इसके अलावा, अमेरिका ने अपनी आर्मी की दो आयरन डोम बैटरियों को इजरायल को सौंपने का भी ऐलान किया है. इसके साथ ही अमेरिका ने इजराइल को तामिर इंटरसेप्टर, स्माल डायामीटर बम, संयुक्त रूप से सीधा हमला करने वाले हथियार और 155 मिमी के गोला-बारूद भी उपलब्ध कराए हैं. इसी प्रकार से अमेरिका 275 मिलियन अमेरिकी डॉलर का सहायता पैकेज यूक्रेन को देने की तैयारी कर रहा है. इस पैकेज में 155 मिमी के गोले-बारूद, महत्वपूर्ण हवाई हथियार और ज़मीनी वाहन की सहायता भी शामिल होगी.
देखा जाए तो रूस-यूक्रेन संघर्ष और मिडिल ईस्ट की लड़ाई में परंपरागत और अत्याधुनिक दोनों ही प्रकार के हथियारों व तकनीक़ों का उपयोग किया गया है. इससे युद्ध के दौरान होने वाले ख़र्च में कमी आई है, यानी कम ख़र्चीले युद्ध लड़ना संभव हुआ है. यूक्रेन ने अपनी रणनीति के तहत लड़ाई के मैदान पर सेंसर्स का एक व्यापक नेटवर्क बिछाया है, जिससे रूस के लड़ाकू ड्रोन को मशीनगनों द्वारा मार गिराने में सफलता मिली है. अगर इजराइल-फिलिस्तीन लड़ाई की बात करें, तो हमास जैसे आतंकी समूह ने हमलों के लिए व्यावसायिक ड्रोन्स का इस्तेमाल किया है. इन ड्रोन्स की क़ीमत महज 2,000 से 3,000 अमेरिकी डॉलर के बीच है. हमास की इस रणनीति ने इजराइल के सामने गाज़ा के हवाई क्षेत्र पर नियंत्रण हासिल करने में मुश्किलें पैदा कर दी हैं. ज़ाहिर है कि ड्रोन और एविएशन इंडस्ट्री में विशेषज्ञता होने के बावज़ूद इजराइल हमास की इस रणनीत के सामने नाक़ाम साबित हो रहा है.
ड्रोन की अगर HIMARS यानी हाई मोबिलिटी आर्टिलरी रॉकेट सिस्टम जैसी पारंपरिक हथियार प्रणालियों से तुलना की जाए, तो कम दूरी तक नज़र रखने वाले ड्रोन और यहां तक कि घातक हथियारों से लैस सैन्य-ड्रोन भी तुलनात्मक रूप से काफ़ी कम क़ीमत में आ जाते हैं. कहने का अर्थ है कि इन ड्रोन्स ने युद्धों में होने वाले ख़र्च को कम करने में काफ़ी मदद की है. कहा जा सकता है कि हाई टेक्नोलॉजी का मतलब हमेशा हाई कॉस्ट नहीं होता है. रूस-यूक्रेन युद्ध में सबसे बड़ी बात ड्रोन का व्यापक रूप से इस्तेमाल किया जाना है. रूस-यूक्रेन संघर्ष के शुरुआती दौर में दोनों पक्षों ने तुर्की के बायरकटार TB2 जैसे विशाल ड्रोन्स का उपयोग किया था, लेकिन बाद में दोनों तरफ से छोटे, दुश्मन की नज़र में नहीं आने वाले और सस्ते चीनी डीजेआई मेविक मिनी ड्रोन का इस्तेमाल किया जाने लगा. ये मिनी ड्रोन एंटी एयरक्राफ्ट डिफेंस और इलेक्ट्रॉनिक वारफेयर यूनिट्स के लिहाज़ से भी एकदम मुफ़ीद हैं.
हमास की इस रणनीति ने इजराइल के सामने गाज़ा के हवाई क्षेत्र पर नियंत्रण हासिल करने में मुश्किलें पैदा कर दी हैं. ज़ाहिर है कि ड्रोन और एविएशन इंडस्ट्री में विशेषज्ञता होने के बावज़ूद इजराइल हमास की इस रणनीत के सामने नाक़ाम साबित हो रहा है.
हालांकि, अगर इन युद्धों को गहराई से देखा जाए, तो इनसे यह भी पता चलता है कि आधुनिक युद्ध न सिर्फ़ बेहद विनाशकारी और ख़र्चीले होते हैं, बल्कि ये अनंतकाल तक चलने वाले भी होते हैं. ज़ाहिर है कि ये दोनों ही युद्ध लंबे समय से चल रहे हैं और इससे युद्ध की लागत में भी लगातार बढ़ोतरी हो रही है. एक और बात यह है कि यूक्रेनी सेना को विभिन्न सुविधाएं और सेवाएं उपलब्ध कराने में प्राइवेट कंपनियों, जिनमें ज़्यादातर गैर-सरकारी और टेक्नोलॉजी कंपनियां शामिल हैं, ने अहम भूमिका निभाई है. यानी यूक्रेनी सेना को इंटरनेट कनेक्टिविटी (स्टारलिंक/स्पेस एक्स) उपलब्ध कराने, क्लाउड कंप्यूटिंग और साइबर सेवा मुहैया कराने (अमेज़ॉन, माइक्रोसॉफ्ट, गूगल), ड्रोन की आपूर्ति करने (DJI), और पुराने सिस्टम्स को बेहतर बनाने के लिए सॉफ्टवेयर उपलब्ध कराने में निजी कंपनियों का महत्वपूर्ण योगदान है. अगर इजराइली डिफेंस फोर्सेज (IDF) की बात करें, तो वहां ऐसा नहीं है. इजराइल में वर्षों से सरकारी और निजी स्तर पर वहां के रक्षा उद्योग की मदद दी जा रही है, साथ ही वहां डिफेंस टेक्नोलॉजी एवं रिसर्च पर काफ़ी काम किया जा रहा है और इससे भी इजराइली सेना को बहुत सहायता मिलती रही है.
वर्तमान में तकनीक़ी रूप से दक्ष सेना को लेकर सवाल उठाया जा रहा है. चीन जैसे कई देशों द्वारा इस अवधारणा को उछाला जा रहा है और मौज़ूदा दौर में इसकी परख भी की जा रही है. रूस-यूक्रेन युद्ध एवं इजराइल-हमास संघर्ष से यह पता चलता है कि जंग के मैदान पर सैनिकों और संसाधनों की संख्या और गुणवत्ता दोनों की ही अहमियत होती हैं. ज़ाहिर है कि युद्ध के दौरान यूक्रेन सैनिकों की कमी से जूझ रहा था और तभी यूक्रेनी राष्ट्रपति वोलोदीमीर ज़ेलेंस्की ने सैनिकों की संख्या बढ़ाने के लिए एक क़ानून पर हस्ताक्षर किए थे. वहीं रूस के पास सैनिकों की कोई कमी नहीं थी, लेकिन उसे यूक्रेन की तकनीक़ी विशेषज्ञता के सामने दिक़्क़त का सामना करना पड़ा, साथ ही उसे यूक्रेन को नाटो सहयोगियों की ओर से मिलने वाली मदद से भी दो-चार होना पड़ा. इससे ज़ाहिर होता है कि केवल अत्याधुनिक तकनीक़ या फिर बड़ी संख्या में सैनिकों की भर्ती ही किसी देश के लिए पर्याप्त नहीं होती है. बल्कि इन उदाहरणों से यह पता चलता है कि लंबे समय तक किसी युद्ध में टिके रहने के लिए अच्छी तरह से प्रशिक्षित और तकनीक़ से लैस सेनाएं बेहद महत्वपूर्ण होती हैं.
आगे की राह
एक प्रभावशाली और ताक़तवर सेना के लिए यह सारी बातें बेहद महत्वपूर्ण हैं, लेकिन एकदम से कोई क़दम उठाकर अचानक परिवर्तन नहीं लाया जा सकता है. हालांकि, यदि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का व्यापक रूप से उपयोग किया जाता है, तो निश्चित तौर पर सेनाओं को आधुनिक बनाया जा सकता है और युद्धक्षेत्र में उसकी मारक क्षमता को बढ़ाया जा सकता है. अमेरिका द्वारा युद्ध में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और स्वायत्तता का ज़िम्मेदारी के साथ उपयोग करने को लेकर 2023 में दिशानिर्देश जारी किए गए थे. अमेरिका द्वारा निर्धारित किए गए इन दिशानिर्देशों की ज़मीनी हक़ीक़त जांचने के लिए यानी एआई के ज़िम्मेदार उपयोग की पड़ताल करने के लिए यूक्रेन और इजराइल एक हिसाब से परीक्षण स्थल बन रहे हैं. ऐसा इसलिए है, क्योंकि इजराइल ने एआई जैसी तकनीक़ों के ज़िम्मेदार उपयोग को सुनिश्चित करने वाले किसी भी समझौते पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं.
यूक्रेन और मिडिल ईस्ट में चल रहे टकराव न सिर्फ़ आधुनिक युद्ध के तौर-तरीक़ों में आए तमाम परिवर्तनों को ज़ाहिर करते हैं, बल्कि नई-नई टेक्नोलॉजियों और परंपरागत सैन्य क्षमताओं के बीच पेचीदा पारस्परिक संबंध के बारे में भी बताते हैं. इसके साथ ही इन युद्धों से यह भी साबित हुआ है कि सैनिकों और संसाधनों की संख्या भी एक ताक़तवर सेना के लिए बेहद महत्वपूर्ण है. प्रशिक्षित सैन्य बलों की ज़रूरत और पारंपरिक सैन्य साज़ो-सामान एवं गोला-बारूद की आवश्यकता से यह बखूबी पता चलता है. इन युद्धों में पारंपरिक तरीक़ों के साथ ही आधुनिक व हाईटेक तकनीक़ों के इस्तेमाल से साफ पता चलता है कि युद्ध के दौरान एक संतुलित नज़रिया अपनाना कितना महत्वपूर्ण होता है और किस प्रकार से परंपरागत और आधुनिक तरीक़ों का युद्ध भूमि पर फायदा उठाया जा सकता है. इसके अतिरिक्त, जिस प्रकार से एआई तकनीक़ का उपयोग करके युद्ध से जुड़े फैसले लिए जा रहे हैं, उसने नैतिकता से जुड़ी गंभीर चिंताओं को उजागर किया है, जिनका प्राथमिकता के आधार पर समाधान किया जाना चाहिए.
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अंकित के युद्ध व रणनीति संयोजन के विशेषज्ञ हैं और दिल्ली में रहते हैं.
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