Published on Aug 09, 2023 Updated 0 Hours ago

भारत, चीन और पश्चिमी देशों की तरफ़ से श्रीलंका संकट को लेकर अलग-अलग तरह की प्रतिक्रियाएं उनकी इंडो-पैसिफिक रणनीति के बारे में बताती है.

श्रीलंका के संकट को लेकर प्रतिक्रियाएं: नई विश्व व्यवस्था और इंडो-पैसिफिक क्षेत्र की झलक
श्रीलंका के संकट को लेकर प्रतिक्रियाएं: नई विश्व व्यवस्था और इंडो-पैसिफिक क्षेत्र की झलक

जैसे-जैसे श्रीलंका और भी ज़्यादा अराजकता की ओर बढ़ रहा है, वैसे-वैसे दुनिया की तरफ़ से प्रतिक्रियाएं सीमित हो रही हैं. इस द्वीपीय देश की मदद करने में भारत एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है, चीन सावधानी के साथ श्रीलंका के संकट को लेकर प्रतिक्रिया दे रहा है, वहीं पश्चिमी देश श्रीलंका को आर्थिक रूप से पटरी पर लाने में सबसे कम भूमिका निभा रहे हैं. व्यापक रूप से देखें तो ये अलग-अलग तरह की प्रतिक्रियाएं बता रही हैं कि कैसे ये देश एक नई विश्व व्यवस्था को देख रहे हैं और उसमें ख़ुद के लिए स्थिति बना रहे हैं, ऐसी विश्व व्यवस्था जो इंडो-पैसिफिक की ओर झुक रही है. 

व्यापक रूप से देखें तो ये अलग-अलग तरह की प्रतिक्रियाएं बता रही हैं कि कैसे ये देश एक नई विश्व व्यवस्था को देख रहे हैं और उसमें ख़ुद के लिए स्थिति बना रहे हैं, ऐसी विश्व व्यवस्था जो इंडो-पैसिफिक की ओर झुक रही है.

इंडो-पैसिफिक में अपना असर मज़बूत करना

जैसे-जैसे दुनिया इंडो-पैसिफिक के बढ़ते असर के मुताबिक़ ख़ुद को तैयार कर रही है, वैसे-वैसे भारत ने भी अपनी इंडो-पैसिफिक रणनीति के भीतर अपने पड़ोसी देशों और हिंद महासागर की नीतियों को अपना लिया है, उन्हें शामिल कर लिया है. भारत के लिए इंडो-पैसिफिक रणनीति अपने प्रभाव को बढ़ाने के लिए, सुरक्षा मुहैया कराने के लिए, हिंद महासागर में चीन के विस्तार एवं ख़तरे को सीमित करने के लिए, और अपनी समुद्री क्षमता दिखाने के लिए महत्वपूर्ण है. 

वास्तव में इन आकलनों ने संकट से घिरे श्रीलंका को लेकर भारत की नीति को प्रेरणा दी है. हाल के वर्षों में श्रीलंका के भीतर चीन की मौजूदगी और उसकी परियोजनाओं ने भारत को असहज कर दिया है. लेकिन उर्वरक के मुद्दे को लेकर श्रीलंका और चीन के बीच विवाद बढ़ने पर भारत को इस द्वीपीय देश में अपने प्रभाव को फिर से मज़बूत करने का अवसर मिल गया. इस साल जनवरी में शुरुआत करके भारत ने श्रीलंका के लिए 3 अरब अमेरिकी डॉलर से ज़्यादा की मदद मुहैया कराई है (तालिका 1 को देखें). इसमें आवश्यक सामानों के  लिए 1 अरब अमेरिकी डॉलर की क्रेडिट लाइन, पेट्रोलियम उत्पादों की ख़रीद के लिए 500 मिलियन अमेरिकी डॉलर की क्रेडिट लाइन, करेंसी स्वैप के लिए 400 मिलियन अमेरिकी डॉलर, और एशियन क्लीयरिंग यूनियन फ्रेमवर्क के लिए 1 अरब अमेरिकी डॉलर शामिल हैं. 

उर्वरक के मुद्दे को लेकर श्रीलंका और चीन के बीच विवाद बढ़ने पर भारत को इस द्वीपीय देश में अपने प्रभाव को फिर से मज़बूत करने का अवसर मिल गया. इस साल जनवरी में शुरुआत करके भारत ने श्रीलंका के लिए 3 अरब अमेरिकी डॉलर से ज़्यादा की मदद मुहैया कराई है

इस रणनीति में सामरिक क्षेत्रों और जगहों में भू-आर्थिक निवेश, और सुरक्षा मुहैया कराने वाले देश के रूप में भारत की भूमिका ने भी अहम किरदार निभाया है. भारत ने न सिर्फ़ चीन की कुछ परियोजनाओं को रद्द करने के लिए श्रीलंका को मजबूर करने में सफलता हासिल की है बल्कि वहां नये निवेशों की पेशकश भी की है. इनमें ऊर्जा सुरक्षा (नवीकरणीय और ग़ैर-नवीकरणीय दोनों) से जुड़ी आधुनिकीकरण और विकास की परियोजनाएं, साजो-सामान, कनेक्टिविटी, इंफ्रास्ट्रक्चर, और बंदरगाह शामिल हैं. इसी तरह भारत ने कोलंबो सुरक्षा कॉन्क्लेव को संस्थागत रूप देकर और इसके साथ-साथ श्रीलंका के लिए जहाज़ों को खड़ा करने की सुविधा, समुद्री बचाव समन्वय केंद्र, और डॉर्नियर टोही एयरक्राफ्ट के ज़रिए परंपरागत और ग़ैर-परंपरागत ख़तरों का मुक़ाबला करने की भी कोशिश की है. 

श्रीलंका के संकट को लेकर भारत की प्रतिक्रिया सक्रिय और संपूर्ण रही है. सामानों, आर्थिक, और कूटनीतिक क्षमता की ये प्रदर्शनी भारत के बहुध्रुवीय विश्व के दृष्टिकोण का संकेत देता है जहां नई विश्व व्यवस्था और इंडो-पैसिफिक में भारत एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा. 

तालिका 1: 2022 में श्रीलंका को वित्तीय मदद 

देश/संगठन

कुल वित्तीय सहायता (अमेरिकी डॉलर में)

(2022)

अमेरिकी डॉलर में अतिरिक्त सहायता (अनुरोध या बातचीत जारी)
भारत 3 अरब 1.5 अरब
चीन 76 मिलियन 2.5 अरब
आईएमएफ 4 अरब
विश्व बैंक 300-600 मिलियन

स्रोत: लेखक के द्वारा जुटाया गया

चीन का पूनर्मूल्यांकन 

दूसरी तरफ़ श्रीलंका संकट को लेकर चीन का रवैया ऐहतियात भरा और प्रभावहीन रहा है. श्रीलंका और चीन के बीच दशकों से संबंधों में प्रगाढ़ता रही है. श्रीलंका के गृह युद्ध का आख़िरी चरण ख़त्म होने के बाद इस द्वीपीय देश ने चीन के रूप में एक नया दोस्त बनाया. इसकी वजह ये थी कि श्रीलंका में मानवाधिकार की स्थिति और भारी कर्ज़ को लेकर चीन बेपरवाह था. चीन अभी भी 6.5 अरब अमेरिकी डॉलर के कर्ज़ के साथ श्रीलंका का सबसे बड़ा कर्ज़दाता बना हुआ है. 

श्रीलंका की तरफ़ से ऋण पुन:संरचना के अनुरोध का फ़ायदा उठाकर चीन मुक्त व्यापार समझौते को आगे बढ़ाने की कोशिश कर रहा है. ऐसा भी लगता है कि चीन इस मौक़े का इस्तेमाल श्रीलंका को विशिष्ट द्विपक्षीय सहायता की पेशकश के लिए कर रहा था और उसे अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के पास जाने से रोक रहा था.

इन आर्थिक और राजनीतिक दांव के साथ चीन ने श्रीलंका को 2020 में 1 अरब अमेरिकी डॉलर के कर्ज़ और 1.5 अरब अमेरिकी डॉलर के करेंसी स्वैप डील के साथ मदद की. लेकिन जब से उर्वरक के मुद्दे पर चीन और श्रीलंका के बीच विवाद हुआ है और उत्तरी प्रांतों में श्रीलंका ने एकतरफ़ा कार्रवाई करते हुए चीन की परियोजनाओं को रद्द किया है, तब से ये सहायता काफ़ी हद तक घट गई है (तालिका 1 को देखें). उस वक़्त से चीन ने सिर्फ़ 76 मिलियन अमेरिकी डॉलर की सांकेतिक सहायता की पेशकश की है. ये स्थिति तब है जब श्रीलंका ने 2.5 अरब अमेरिकी डॉलर की ऋण पुन:संरचना और अतिरिक्त वित्तीय समर्थन का अनुरोध किया है. 

चीन ने श्रीलंका के संकट का फ़ायदा उठाने की भी कोशिश की है और अपना रवैया वो बहुत सोच-समझकर तय करता है. उदाहरण के लिए, श्रीलंका की तरफ़ से ऋण पुन:संरचना के अनुरोध का फ़ायदा उठाकर चीन मुक्त व्यापार समझौते को आगे बढ़ाने की कोशिश कर रहा है. ऐसा भी लगता है कि चीन इस मौक़े का इस्तेमाल श्रीलंका को विशिष्ट द्विपक्षीय सहायता की पेशकश के लिए कर रहा था और उसे अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के पास जाने से रोक रहा था. इस दलील को श्रीलंका और आईएमएफ के बीच बातचीत को लेकर चीन की शुरुआती नाराज़गी और भी पुख़्ता करती है. लेकिन फिर चीन ने अपने रुख़ को बदल दिया और मौजूदा बातचीत के लिए समर्थन ज़ाहिर किया. 

चीन की इस धीमी, ऐहतियाती और सोची-समझी प्रतिक्रिया की संभावित वजह हिंद महासागर को लेकर उसकी रणनीति पर फिर से विचार हो सकता है. पहली बार इस रणनीति पर दोबारा विचार मालदीव में हुआ था और अब श्रीलंका में. प्राथमिक तौर पर ऐसा लगता है कि चीन के द्वारा पैसे के दम पर सरकारों को अपने पक्ष में करने की चाल, जिसने पिछले कुछ समय से भारत के ख़िलाफ़ काम किया है, अब काम नहीं कर रहा है. इसकी वजह मालदीव में सरकार परिवर्तन और श्रीलंका में राजपक्षे के द्वारा घरेलू मजबूरियों के कारण दूसरे देशों के साथ संतुलन पैदा करने का खेल है. 

श्रीलंका के संकट ने बाक़ी दुनिया के सामने ये उजागर करना भी शुरू कर दिया है कि अंधाधुंध कर्ज़ का वास्तविक ख़तरा कितना है. काफ़ी महत्वाकांक्षा के साथ कर्ज़ देने के बाद चीन अब ऋण पुन:संरचना के लिए ताज़ा अनुरोध की मिसाल नहीं देना चाहता है, ख़ास तौर पर ऐसे समय में जब कोविड-19 ने कई छोटी अर्थव्यवस्थाओं पर काफ़ी असर डाला है.

दूसरी बात ये है कि श्रीलंका के संकट ने बाक़ी दुनिया के सामने ये उजागर करना भी शुरू कर दिया है कि अंधाधुंध कर्ज़ का वास्तविक ख़तरा कितना है. काफ़ी महत्वाकांक्षा के साथ कर्ज़ देने के बाद चीन अब ऋण पुन:संरचना के लिए ताज़ा अनुरोध की मिसाल नहीं देना चाहता है, ख़ास तौर पर ऐसे समय में जब कोविड-19 ने कई छोटी अर्थव्यवस्थाओं पर काफ़ी असर डाला है. इस संदर्भ में श्रीलंका के द्वारा अपने सभी विदेशी कर्ज़ों के भुगतान को टालने के एकतरफ़ा फ़ैसले ने चीन के लिए ख़तरे की घंटी बजाने का काम किया होगा. शायद यही वजह है कि चीन ने आईएमएफ के साथ श्रीलंका की बातचीत पर अपने रुख़ को हाल में बदल लिया. 

चीन के बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) और हिंद महासागर में उसके प्रभाव के लिए श्रीलंका महत्वपूर्ण बना हुआ है. वैसे तो चीन इस समय भविष्य को लेकर अपने रुख़ पर सोच-विचार कर रहा है, लेकिन वो ये भी कोशिश कर रहा है कि श्रीलंका को पूरी तरह अपने से दूर करके भारत और पश्चिमी देशों के पास जाने का मौक़ा नहीं दे. इस तरह चीन ने कुछ कूटनीतिक झटकों और निराशा के बावजूद श्रीलंका के संकट को लेकर धीमी गति और अप्रत्यक्ष रूप से प्रतिक्रिया देना जारी रखा है. 

पश्चिमी देश: अभी तक भाषणबाज़ी से आगे नहीं बढ़ पाए हैं 

पश्चिमी देशों की प्रतिक्रिया सबसे कम रही है, वो भी तब जब पश्चिमी देश मानते हैं कि चीन के द्वारा दिया जाने वाला कर्ज़ उसकी “मूल्य आधारित व्यवस्था” के लिए एक चुनौती है. वहीं इंडो-पैसिफिक को लेकर व्यापक धारणा और दृष्टिकोण के मामले में समझ की कमी भी दिखती है. लगता है कि अफ़ग़ानिस्तान से सेना की वापसी और यूक्रेन में युद्ध में व्यस्त ईयू श्रीलंका के वर्तमान संकट को लेकर बहुत कम दिलचस्पी रखता है. यहां तक कि फरवरी 2022 में ईयू और श्रीलंका के बीच सबसे ताज़ा साझा आयोग की बैठक में भी इस संकट का ज़िक्र नहीं किया गया है, इस बैठक का पूरा ध्यान मानवाधिकार, लोकतंत्र, अलग-अलग क्षेत्रों में सहयोग, व्यापार इत्यादि पर था. 

दूसरी तरफ़ अमेरिका ने श्रीलंका में कुछ हद तक दिलचस्पी दिखाई तो है लेकिन उसने जो कहा है वो अभी तक किया नहीं है. अमेरिका ने राजपक्षे परिवार के चीन समर्थित रवैये को लेकर मतभेद कायम होने के बावजूद आईएमएफ के साथ काम करने के श्रीलंका के फ़ैसले का स्वागत किया है. अमेरिका ने क्वॉड के दूसरे सदस्य देशों और पश्चिमी देशों के साझेदारों से कर्ज़ और निवेश को लेकर श्रीलंका की मदद करने का अनुरोध भी किया है. लेकिन ये एक नया प्रस्ताव नहीं है. पश्चिमी देश और उनके साझेदार चीन के बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) का संस्थागत विकल्प मुहैया कराने में दिक़्क़तों का सामना कर रहे हैं. वास्तव में कई प्रस्तावित पहल जैसे कि एशिया-अफ्रीका ग्रोथ कॉरिडोर और बिल्ड बैक बेटर वर्ल्ड (बी3डब्ल्यू) का या तो पूरा इस्तेमाल नहीं किया गया है या उन्हें अधर में छोड़ दिया गया है. 

पश्चिमी देशों के बीच उनकी इंडो-पैसिफिक रणनीति को लेकर व्यापक आम राय बनना अभी बाक़ी है. जहां अमेरिका की विदेश नीति अपेक्षाकृत रूप से यथार्थवादी रही है, वहीं ईयू के देशों ने अभी भी नियमों और मूल्यों पर ज़ोर देना जारी रखा है. एक जैसे दृष्टिकोण की कमी के कारण भारत को इस क्षेत्र में सामानों और मूल्यों पर आधारित ज़्यादातर मशक्कत करनी पड़ती है. आईएमएफ के साथ श्रीलंका की बातचीत को लेकर भारत के स्थायी द्विपक्षीय समर्थन और उस पर ज़ोर से ये पहले ही स्पष्ट हो चुका है. अब श्रीलंका के द्वारा अंततोगत्वा आईएमएफ और विश्व बैंक के पास जाने (तालिका 1 को देखें) के साथ पश्चिमी देशों को भी एक मौक़ा मिल गया है कि वो नई विश्व व्यवस्था में अपने संस्थागत औचित्य को साबित करें और इसके लिए मौजूदा प्रतिक्रिया के मुक़ाबले ज़्यादा संगठित एवं मज़बूत जवाब देने की ज़रूरत है. 

अब श्रीलंका के द्वारा अंततोगत्वा आईएमएफ और विश्व बैंक के पास जाने के साथ पश्चिमी देशों को भी एक मौक़ा मिल गया है कि वो नई विश्व व्यवस्था में अपने संस्थागत औचित्य को साबित करें और इसके लिए मौजूदा प्रतिक्रिया के मुक़ाबले ज़्यादा संगठित एवं मज़बूत जवाब देने की ज़रूरत है. 

कुल मिलाकर श्रीलंका के आर्थिक संकट को लेकर प्रतिक्रियाओं में काफ़ी अंतर रहा है और इस मामले में संबंधित देशों की व्यापक इंडो-पैसिफिक रणनीति का प्रभाव रहा है. जैसे-जैसे दुनिया को इंडो-पैसिफिक के बढ़ते महत्व का पता लग रहा है, वैसे-वैसे दुनिया की बड़ी ताक़तें इस क्षेत्र में ख़ुद को प्रासंगिक और प्रभावशाली बनाए रखने के अनुरूप अपनी नीतियों को बनाएंगी. इस संदर्भ में, श्रीलंका संकट को लेकर प्रतिक्रियाएं वैश्विक किरदारों की प्राथमिकता, और इंडो-पैसिफिक में उनकी मज़बूती एवं कमज़ोरी का सिर्फ़ एक प्रतिबिंब होगा. 

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Author

Aditya Gowdara Shivamurthy

Aditya Gowdara Shivamurthy

Aditya Gowdara Shivamurthy is an Associate Fellow with ORFs Strategic Studies Programme. He focuses on broader strategic and security related-developments throughout the South Asian region ...

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