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जैसे ही कर्ज़ जाल सबंधी आलोचना तेज़ होती जा रही है, चीनी प्रवक्ता ने श्रीलंकाई कर्ज़ संकट को लेकर अपनी अलग ही कहानी बयान करनी शुरू कर दी है
जैसे ही श्रीलंकाई राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे (President Gotabaya Rajapaksa, Sri Lanka) ने इस माह की शुरुआत में, श्रीलंका (Sri Lanka) दौरे पर आए चीनी विदेश मंत्री वांग यी (Foreign Minister Wang Yi, China) से कर्ज़ चुकता करने की मियाद में रोक लगाने की अपील की, “समस्याग्रस्त चीनी कर्ज़े” का मुद्दा एक बार फिर से वैश्विक सुर्खियों में आ गया है. चीन की सरकारी मीडिया (Chinese Media) इस कठिन ‘ऋण जाल’ की आलोचना से बौख़ला गयी है और इसके लिए भारत और साथ ही अंतरराष्ट्रीय मीडिया (Indian and International Media) पर चीन के खिलाफ़ राजनीति से प्रेरित दुष्प्रचार अभियान चलाने और चीन की छवि और इसके उदय को रोकने का एक कुप्रयास बताया है. कुछ ‘चीनी प्रवक्ता’ (Chinese Spokesperson) तो इस ऋण जाल के आरोप से संबंधित अपनी खुद की ही थ्योरी लेकर आ गए हैं. जिसमें से कुछ के बारे में इस लेख में चिंतन गया है.
इस बात से संबंधित एक तर्क यह भी दिया जा रहा है कि, वो वास्तविक वजह जिसके कारण श्रीलंका इस विदेशी मुद्रा की कमी संबंधी दुविधा में पड़ गया है, वो उसकी कमज़ोर आर्थिक बुनियाद के अलावा insufficient hematopoietic यानी आत्मनिर्भर होने की क्षमता, और सरकार की दीर्घकालिक अत्यधिक उधार और अनुचित कर्ज़ संरचना व्यवस्था है. इन सब की वजह से इसकी वित्तीय बुनियाद काफी कमज़ोर हो चुकी है. ऐसा दीर्घकालीन जीवन जो उनकी पहुंच के परे है, बाहरी ऋण के अनावश्यक उपयोग, और अनावश्यक ऋण ब्याज संरचना, के अलावा 2019 में हुए “ग्रे राइनो एवं काला हंस आंतकी घटनाओं” के साथ जुड़कर महामारी, और 2020 से उत्पन्न वित्तीय संकट ने श्रीलंका को बर्बादी के कगार पर ला खड़ा किया है. श्रीलंका में उत्पन्न आर्थिक चुनौतियों का मुख्य कारण न तो चीन है और न ही चीनी कर्ज़ है. क्योंकि, चीन ने श्रीलंका को ऋण लेने को कहीं से भी मजबूर नहीं किया था. चीन के मुताबिक, सभी लोन संबंधी निवेदन श्रीलंका द्वारा ही किए गए हैं, जो कि एक स्वतंत्र, प्रजातान्त्रिक राष्ट्र होने के नाते अपने उधार देने, निवेश करने, प्रोजेक्ट संबंधी निर्णय लेने जैसे फ़ैसले अपनी ज़रूरत अनुसार स्वयं लेता है. इसलिए वो चीन को अपनी बदहाली के लिए दोषी नहीं ठहरा सकता है. किसी ऋण से दबे देश का ऋण संकट, ऋण देने वाले देश की ज़िम्मेवारी नहीं हो सकती है.
चीन के मुताबिक, सभी लोन संबंधी निवेदन श्रीलंका द्वारा ही किए गए हैं, जो कि एक स्वतंत्र, प्रजातान्त्रिक राष्ट्र होने के नाते अपने उधार देने, निवेश करने, प्रोजेक्ट संबंधी निर्णय लेने जैसे फ़ैसले अपनी ज़रूरत अनुसार स्वयं लेता है. इसलिए वो चीन को अपनी बदहाली के लिए दोषी नहीं ठहरा सकता है.
कुछ चीनी स्तंभकारों ने “चीनी ऋण जाल” के वर्णन को “यूएस पर निर्भरता” के वर्णन का जामा पहनाकर दोषारोपण का आरोप लगाया. अपनी बहस में उन्होंने कहा कि श्रीलंका की अर्थव्यवस्था अमेरिकी डॉलर से काफी गहराई तक जुड़ी हुई है. इसके अंतर्गत श्रीलंका की 60 प्रतिशत तक की ऋण अदायगी यूएस डॉलर में होगी. यूएस डॉलर के समझौते की वजह से श्रीलंका के सभी क्षेत्रों में निर्यात लागत काफी महंगी साबित हो रही है. अब जबकी अमेरिका बदले हालातों में “यूएस श्रीलंका को मुद्रास्फीति निर्यात कर रहा है और कसी हुई मुद्रा नीति अपना रहा है” तो इस वजह से श्रीलंकाई अर्थव्यवस्था धराशायी होने की कगार पर पहुंच चुकी है. इसलिए, अमेरिका को चाहिए कि बजाय चीन पर दोषारोपण करने के, वो श्रीलंका के विदेशी मुद्रा संकट के लिए खुद की भूमिका की विवेचना करे. वहीं दूसरी तरफ श्रीलंका को भी चाहिए कि वो अपने विदेशी मुद्रा रिज़र्व के विविधिकरण करने के अलावा चीनी मुद्रा रेनमिनबी में ज्य़ादा से ज़्यादा व्यापार करने पर विचार करे.
चीनी प्रवक्ताओं ने भारत की आलोचना करते हुए, इस पूरे खेल के पीछे भारत का दिमाग बताया है, जिसे उन्होंने “छद्म ऋण जाल थ्योरी” का नाम दिया है. उन्होंने अपनी बहस में कहा कि भारत इस वजह से परेशान है क्योंकि वो श्रीलंका को अपने प्रभुत्व वाला क्षेत्र मानता है और ये अपेक्षा रखता है कि उन्हें (श्रीलंका को) भारत को अपनी प्रथम वरीयता देनी चाहिये. अब चूंकि, चीन की तुलना में भारत द्वारा श्रीलंका में किए गए निवेश, कर्ज़ और सहायता आदि काफ़ी कम हो गए हैं तो इसकी वजह से भारत बहुत बेचैन है और वो चीन-श्रीलंका के बीच बढ़ते संबंधों को लेकर चिंतित है. आगे, इसी कड़ी में, वास्तविक लाइन ऑफ़ कंट्रोल (एलएसी) विवाद के संबंध में, श्रीलंका के कर्ज़ संबंधी परेशानियों के बाबत नई दिल्ली द्वारा चीन को दोषी बताना अधिक जरूरी और निर्विवाद बन गया है.
हालांकि, गुस्से से भरे प्रतिवाद और जुबानी जंग के बावजूद, गहरायी में अगर झांके तो पायेंगे कि, श्रीलंका में उत्पन्न आर्थिक संकट, चीन के लिए अंदरूनी चिंता और शर्मिंदगी का विषय बना हुआ है. चीनी इंटरनेट पर, श्रीलंका में बढ़ती महंगाई और मुद्रास्फीति, खाद्य पदार्थों के बढ़ते दाम, और राज्य के खाली पड़ते खज़ाने की वजह से आम लोगों की दयनीय स्थिती पर काफी चर्चा हो रही है. इस परिप्रेक्ष्य में, एक प्रमुख सवाल जो बार-बार सामने आ रहा है वो ये है कि ये सभी नकारात्मक घटनायें कैसे चीनी राजधानी के प्रति श्रीलंकाई नज़रिए को प्रभावित करेगा, स्थानीय चुनाव में उसका कैसा प्रभुत्व रहेगा, और सम्पूर्ण रूप से श्रीलंका-चीन संबंधों पर इसके क्या प्रभाव पड़ेंगे.
चीन की तुलना में भारत द्वारा श्रीलंका में किए गए निवेश, कर्ज़ और सहायता आदि काफ़ी कम हो गए हैं तो इसकी वजह से भारत बहुत बेचैन है और वो चीन-श्रीलंका के बीच बढ़ते संबंधों को लेकर चिंतित है.
चीन इस बात से भली-भांति वाकिफ़ है कि, श्रीलंका के उसके साथ परस्पर संबंध और उसके ऊपर बढ़ती निर्भरता को लेकर उसके अंदर कितनी बेचैनी और असुरक्षा की भावना व्याप्त है. चीनी बुद्धिजीवियों द्वारा किए गए शोध में अक्सर, चीन-श्रीलंका व्यापार और निवेश, बढ़ते ऋण, चीन की कमोबेश बंद और अंदर की ओर जाती निवेश मॉडल जिसमें श्रीलंका की सहभागिता कम होती जा रही है, इत्यादि को ज्य़ादा करके रेखांकित किया जाता है, जो एक तरह से आधारभूत स्तर पर असंतुलित है. द्वीप राष्ट्र में स्थायी रोज़गार पैदा कर पाने और टैक्स भागीदारी में अक्षम होने की वजह से वहां के नागरिकों के जीवन और जीविका पर चीन का बहुत ही मामूली प्रभाव है जिसके कारण – श्रीलंकाई सरकार और नागरिकों के बीच चीन को लेकर असंतोष और आक्रोश घर बनाता जा रहा है.
जैसा वे कहते हैं, ये सब श्रीलंका को वैविध्य होने और दुनिया की प्रमुख शक्तियों को बैलेंस करने की नीति को अपनाने के लिये प्रेरित करते हैं. कुछेक वर्गों में, ये खेदपूर्वक माना जाता है कि श्रीलंका के विदेशी संबंधों में चीन अब पहले की तरह से कोई प्रभावशाली खिलाड़ी नहीं रह गया है, जैसा की वो गृह युद्ध के दरम्यान हुआ करता था, लेकिन वो एक दूसरी पार्टी ज़रूर बन चुका है, यद्यपि वो एक महत्वपूर्ण पार्टी ज़रूर है, जिसे और भी ज्य़ादा ‘संतुलित’ किया जाना बाकी है. हालांकि, इस बात पर अक्सर प्रकाश डाला जाता है कि श्रीलंका में चीन को अपने निवेश मॉडल को यथोचित तरीके से संतुलित करने की ज़रूरत है; सहभागिता की गुणवत्ता में सुधार; और भारत, जापान, यूरोपियन यूनियन, जैसे अन्य खिलाड़ियों के साथ मिलकर श्रीलंका की उत्पादन क्षमता और प्रतिस्पर्धात्मक फ़ायदों को बहुपक्षीय सहयोग संग प्रोत्साहित किया जाना चाहिए. लेकिन, ऐसा देखा गया है कि इस ओर कोई ठोस क़दम अब तक चीन द्वारा नहीं उठाये गये हैं.
श्रीलंका के विदेशी संबंधों में चीन अब पहले की तरह से कोई प्रभावशाली खिलाड़ी नहीं रह गया है, जैसा की वो गृह युद्ध के दरम्यान हुआ करता था, लेकिन वो एक दूसरी पार्टी ज़रूर बन चुका है, यद्यपि वो एक महत्वपूर्ण पार्टी ज़रूर है, जिसे और भी ज्य़ादा ‘संतुलित’ किया जाना बाकी है.
दूसरी चिंताजनक बात ये भी है कि किस तरह से श्रीलंकाई मुद्दा, अन्य देशों में चीनी निवेश पर भी नकारात्मक प्रभाव डाल सकता हैं और आज अथवा भविष्य में, उनके बेल्ट और रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) में भाग लेने के निर्णय पर प्रभाव डाल सकता है. अतीत में ऐसे कई उदाहरण हैं जहां म्यांमार, मलेशिया और नेपाल ने श्रीलंकाई केस को नकारात्मक मिसाल के तौर पर लिया और कर्ज़ संबंधी चिंताओं के कारण उन्होंने चीनी निवेश जनित प्रोजेक्ट्स को निरस्त कर दिया. उस नज़रिए से, ये उल्लेख करना आवश्यक है की दक्षिण एशिया में ज्य़ादातर चीनी प्रोजेक्ट प्रदर्शन मात्र के उद्देश्य से हैं – जो कि चीनी एजेंडे के तहत, स्थानीय और वैश्विक तौर पर चीन के लिए एक अनुकूल वातावरण तैयार करे और लोगों के मन मस्तिष्क को जीत सके. उस नज़रिए से अगर देखें तो, श्रीलंका का ऋण संकट इस क्षेत्र और उससे आगे के लिए भी चीनी उद्देश्यों के लिए एक करारा झटका ही साबित हो रहा है.
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Antara Ghosal Singh is a Fellow at the Strategic Studies Programme at Observer Research Foundation, New Delhi. Her area of research includes China-India relations, China-India-US ...
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