Author : Ullas Rao

Published on Dec 19, 2023 Updated 0 Hours ago

जिस प्रकार से भारत के मिडिल ईस्ट एवं GCC देशों, यानी गल्फ कोऑपरेशन काउंसिल में शामिल देशों के साथ प्रगाढ़ संबंध हैं, उसके मद्देनज़र इस्लामिक फाइनेंस व्यापार एवं वित्तीय क्षेत्र को सशक्त करने के लिए एक वैकल्पिक वित्तीय साधन उपलब्ध करा सकता है.

भारत के वित्तीय लक्ष्यों को हासिल करने के लिए इस्लामिक फाइनेंस कितना प्रभावी?

भारत के 76 गौरवशाली वर्षों के इतिहास को देखते हुए, आने वर्षों में विकास और प्रगति को लेकर नए एवं महत्वपूर्ण लक्ष्यों को निर्धारित करना बेहद बुद्धिमानी व समझधारी भरा फैसला है. यानी कि आने वाले दिनों में देश को 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने का लक्ष्य निर्धारित करना बहुत अहम है. वर्तमान GDP के मुताबिक़ 10 फीसदी विकास दर का लक्ष्य प्राप्त करने में पांच साल लगेंगे. इस्लामिक फाइनेंस (IF) इस लक्ष्य को हासिल करने में न केवल महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है, बल्कि अगले पांच वर्षों में 700 बिलियन डॉलर (14 प्रतिशत) का योगदान देकर विकास के एजेंडे को तेज़ गति प्रदान करने में अग्रणी भूमिका भी निभा सकता है. ज़ाहिर है कि वर्तमान में इस्लामिक फाइनेंस द्वारा प्रबंधित की जाने वाले कुल निवेश का बाज़ार मूल्य 3.95 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर है, जिसके वर्ष 2026 तक 5.9 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुंचने का अनुमान है. अगर भारत के बैंकिंग और वित्तीय सेक्टर को इस्लामिक फाइनेंस के लिए खोला जाता है, तो इससे न सिर्फ़ कम से कम 14 प्रतिशत बाज़ार हिस्सेदारी को हासिल करने का मौक़ा मिलेगा, बल्कि इससे भारत की मुस्लिम आबादी (जो कुल आबादी का लगभग 14 प्रतिशत है) को पूर्ण रुप से औपचारिक वित्तीय प्रणाली से भी जोड़ा जा सकेगा. इस्लामिक फाइनेंस को फिलहाल एक वैकल्पिक वित्तीय साधन माना जाता है और वर्तमान में IF 3.5 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर का है, जो कि वैश्विक अर्थव्यवस्था का 5 प्रतिशत से भी कम है. इस्लामिक वित्त के सबसे बड़े लाभार्थियों में मुख्य रुप से उभरते बाज़ार हैं. उल्लेखनीय है कि इस्लामिक फाइनेंस का लाभ उठाने वालों में से मध्य पूर्व और दक्षिण-पूर्व एशियाई (ASEAN का हिस्सा) देशों की हिस्सेदारी सबसे अधिक है, ज़ाहिर है कि इन देशों में से ज़्यादातर के भारत के साथ व्यापक स्तर पर व्यापारिक संबंध हैं. ख़ास बात यह है कि भारत को छोड़कर शंघाई सहयोग संगठन के सभी सदस्य देशों ने अलग-अलग स्तर पर कहीं न कहीं इस्लामिक फाइनेंस को स्वीकार कर लिया है. इतना ही नहीं रशियन फेडरेशन भी अपनी वित्तीय आवश्यकताओं को पूरा करने एवं वित्तपोषण के लक्ष्यों को हासिल करने के लिए, ख़ास तौर पर मुस्लिम आबादी बहुल क्षेत्रों में, इस्लामिक फाइनेंस को स्वीकृति देने के बारे में गंभीरता से सोच रहा है.

अगर भारत के बैंकिंग और वित्तीय सेक्टर को इस्लामिक फाइनेंस के लिए खोला जाता है, तो इससे न सिर्फ़ कम से कम 14 प्रतिशत बाज़ार हिस्सेदारी को हासिल करने का मौक़ा मिलेगा, बल्कि इससे भारत की मुस्लिम आबादी (जो कुल आबादी का लगभग 14 प्रतिशत है) को पूर्ण रुप से औपचारिक वित्तीय प्रणाली से भी जोड़ा जा सकेगा.

 

कम्प्रहेंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप एग्रीमेंट (CEPA) के बीच प्रगाढ़ होते भारत और संयुक्त अरब अमीरात (UAE) के रणनीतिक संबंधों पर नज़र डालें, तो दोनों देशों का द्विपक्षीय व्यापार पहले ही जून 2023 में 50.5 बिलियन अमेरिकी डॉलर के आंकड़े को पार कर चुका है. ज़ाहिर है कि इस्लामिक फाइनेंस इसमें जहां एक वैकल्पिक वित्तीय साधन उपलब्ध कराता है, वहीं व्यापार वित्तपोषण के वातावरण को प्रोत्साहित करता है. उल्लेखनीय है कि इस्लामिक फाइनेंस पूरी तरह से शरिया क़ानून के सिद्धांतों पर आधारित है और UAE की वित्तीय प्रणाली में इसकी 30 प्रतिशत हिस्सेदारी है. ज़ाहिर है कि भारत एक बहुत बड़ा बाज़ार है और इसमें अभी तक इस्लामिक फाइनेंस या इस्लामिंग बैंकिंग की पहुंच नहीं हो पाई है. ऐसे में अगर भारत में भी इस्लामिक फाइनेंस की अनुमति दी जाती है, निश्चित तौर पर वह न सिर्फ UAE जैसे देशों से मिली सीखों का लाभ उठा सकता है, बल्कि  व्यापार के अवसरों को भी प्रोत्साहित कर सकता है.

 

परिसंपत्ति-वित्तपोषण या एसेट फाइनेंस के नज़रिए से देखें तो इस्लामिक बैंकिंग में मुराबाहा या कॉस्ट-प्लस-प्रॉफिट कॉन्ट्रैक्ट सबसे प्रमुख अनुबंध है और इस्लामिक बैंकिंग का 80 प्रतिशत राजस्व इसी से आता है. इस्लामिक बैंक संपत्ति के विक्रेता और ख़रीदार के बीच एक मध्यस्थ के तौर पर कार्य करता है. यानी ये बैंक अपने पास जमा धनराशि से अचल संपत्ति ख़रीदते हैं और उस संपत्ति को दूसरे ख़रीदार को लाभ लेकर बेच देते हैं और इसके लिए ख़रीदार से किश्तों में भुगतान करने को कहा जाता है. जब बैंक को संपत्ति का पूरा भुगतान प्राप्त हो जाता है, तो वह संपत्ति के क़ानूनी मालिक यानी ख़रीदार को हस्तांतरित कर देते हैं. सैद्धांतिक रूप से देखें, तो संपत्ति का पूरा भुगतान होने तक, उसके क़ानूनी संरक्षक के रूप में और संपत्ति के मालिक के रूप में इस्लामिक बैंक पारंपरिक बैंकों की तुलना में बेहतर स्थिति में होते हैं, क्योंकि उनकी इस प्रक्रिया में नुक़सान की संभावना बेहद कम होती है. साथ ही इस्लामिक बैंकों द्वारा गारंटी के अंतर्गत रखी गई संपत्ति का उपयोग बिलकुल आखिरी विकल्प के तौर पर किया जाता है, यानी सभी प्रकार के प्रशासनिक और क़ानूनी दांवपेच का इस्तेमाल करने के बाद. जोख़िम को कम करने के लीहज़ से देखें, तो भारत के फाइनेंशियल सेक्टर में कॉस्ट-प्लस-प्रॉफिट मॉडल पर आधारित इस्लामिक बैंकिंग तंत्र का भविष्य काफ़ी आशाजनक है. क्योंकि भारत में इस्लामिक बैंकों को मौक़ा मिलने पर पारंपरिक बैंकें अपनी बैलेंस शीट का विस्तार करने में और भी अधिक सावधानी बरतेंगी, इतना ही नहीं ज़्यादा सख़्त नियम-क़ानूनों से उनके लाभ पर भी असर पड़ सकता है.

 

इस्लामिक वित्तपोषण

 

आम तौर पर यही माना जाता है कि इस्लामिक बैंक एक धर्म विशेष के नियम-क़ानून के मुताबिक़ संचालित होती हैं और इनके पीछे एक छिपा हुआ मजहबी एजेंडा है. जबकि सच्चाई यह है कि IF के लिए नैतिक वित्तपोषण और टिकाऊ वित्तपोषण, दो सबसे सटीक विचार हैं और इसके बुनियादी आधार भी हैं. जैसे कि यूएई में COP28 का आयोजन किया गया और दुनिया भर के देशों के प्रतिनिधि वहां मौजूद थे. वहां पर क्लाइमेट फाइनेंस यानी जलवायु वित्त की खूब चर्चा है, लेकिन यह भी इस्लामिक वित्त के समान ही है. UAE के दुबई में आयोजित हो रहे ऐतिहासिक COP28 सम्मेलन में, जो विचार मंथन किया गया, उसमें इस्लामिक फाइनेंस के कई बड़े वित्तीय संस्थानों ने भी शिरकत की है, जिनमें सऊदी अरब की इस्लामिक डेवलपमेंट बैंक (IsDB) का नाम भी शामिल है. सम्मेलन के दौरान इन इस्लामिक बैंकों की ओर से जलवायु परिवर्तन से पैदा होने वाले ख़तरों को कम करने के लिए वित्तीय सहायता की पेशकश की गई है. 

इस्लामिक वित्तपोषण की सबसे प्रमुख विशेषताओं में ब्याज का लेनदेन नहीं करना एवं ज़्यादा जोख़िम उठाने से परहेज करना शामिल है. इस्लामिक बैंकों की ब्याज मुक्त वित्तीय प्रणाली कहीं न कहीं इक्विटी-फाइनेंस की तरह दिखाई देती है.

 

ज़ाहिर है कि अगर इस दिशा में इस्लामिक वित्तीय संस्थानों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति के अनुरूप समझौते किए जाते हैं, तो निसंदेह तौर पर IF जलवायु वित्तपोषण की खाई को पाटने के लिए बेहद मज़बूत स्थिति में हैं. पारंपरिक बैंकों की भांति एक मुश्त ऋण देने के बजाए, ज़िम्मेदार तरीक़े से और सोच-समझकर निवेश करके आय जुटाने की इस्लामिक बैंकों की युक्ति इस्लामिक-टिकाऊ-जलवायु वित्तपोषण या (Islamic-Sustainable-Climate finance -ISC) का मुख्य आधार है. इस्लामिक वित्तपोषण की सबसे प्रमुख विशेषताओं में ब्याज का लेनदेन नहीं करना एवं ज़्यादा जोख़िम उठाने से परहेज करना शामिल है. इस्लामिक बैंकों की ब्याज मुक्त वित्तीय प्रणाली कहीं न कहीं इक्विटी-फाइनेंस की तरह दिखाई देती है, वहीं इनकी जोख़िम में नहीं पड़ने की रणनीति, देखा जाए तो डेरिवेटिव जैसे साधनों में निवेश से दूर रखती है. ज़ाहिर है कि डेरिवेटिव्स में निवेश के ज़रिए आय उत्पन्न करने को सबसे अधिक जोख़िम भरा माना जाता है. वर्ष 2008 में हुए वैश्विक वित्तीय संकट (GFC) के बाद किए गए अध्ययनों एवं शोधों के अनुसार जिन बैंकों और वित्तीय संस्थानों ने इस्लामिक फाइनेंस के सिद्धान्तों को अपनाया था, वे अपेक्षाकृत अन्य वित्तीय संस्थानों की तुलना में इस वैश्विक संकट की चपेट में आने से बचे रहे. इसकी वजह यह थी कि इनमें से अधिकांश वित्तीय संस्थानों के पास गिरवी रखी गई संपत्तियों द्वारा संरक्षित प्रतिभूतियां यानी (mortgage-backed securities) नहीं थीं. ज़ाहिर है कि इस प्रकार की प्रतिभूतियां पारंपरिक (ब्याज वाली) बैंकों और निवेश बैंकों की बैलेंस शीट को सबसे अधिक बिगाड़ने का काम करती हैं.

 

इस्लामिक फाइनेंस के तौर-तीरक़ों को इसकी बैलैंस शीट के ज़रिए आसानी से समझा जा सकता है. सैद्धांतिक तौर पर इस्लामिक वित्तीय संस्थान सामान्य रूप से दूसरे वित्तीय संस्थानों के उलट संपत्ति को अपने पास ही रखते हैं. इसके साथ ही संपत्ति के एवज में ख़रीदार से किश्तों में पैसे लिए जाते हैं और जब खऱीदार द्वारा पूरा भुगतान कर दिया जाता है, उसके पश्चात ही संपत्ति को क़ानूनी रूप से उनके नाम किया जाता है, साथ ही इसमें पट्टेदार के पास यानी बैंक के पास अंत में संपत्ति वापस ख़रीदने का विकल्प भी होता है. देनदारियों के बड़े हिस्से में इक्विटी जैसे उपकरण यानी डिपोज़िट (अनोखी विशेषताओं के साथ), और परिवर्तनीय बॉन्ड शामिल हैं, जिन्हें सामान्य तौर पर 'सुकूक' या इस्लामिक बांड के रूप में जाना जाता है. देखा जाए तो IF का सबसे बड़ा मकसद हर वाणिज्यिक लेनदेन को ऐसी संपत्ति के रूप में परिवर्तित करने की संभावनाओं को तलाशना है, जो उस लेनदेन को न केवल अव्यवहारिक व्यापार से दूर रखें, बल्कि इनकम पैदा करने में भी सक्षम हों. IF की प्रक्रिया कुछ ऐसी है, जो जोख़िम को वित्तीय संस्था और उपभोक्ता के बीच बांटने का काम करती है, जबकि पारंपरिक बैंकों द्वारा दिए जाने वाले ऋण में पूरा का पूरा जोख़िम कर्ज लेने वालों पर होता है. इसके साथ ही इस्लामिक वित्त में परिसंपत्तियों के लिए कुशल और प्रभावी वसूली अधिकार होते हैं, इसी का नतीज़ा है कि इस्लामिक वित्तीय संस्थानों का NPA बेहद कम होता है और लाभ बहुत अधिक होता है.

 

कमज़ोर वर्ग की वित्तीय मदद

 

विकास से संबंधित अपनी आर्थिक ज़रूरतों को पूरा करने के लिए भारत में इस्लामिक फाइनेंस को अपनाने की ज़बरदस्त संभावनाएं हैं. देखा जाए तो IF में वो सारी चीज़ें हैं, जो कि आज के दौर में समावेशी वित्तपोषण के लिए आवश्यक हैं. शहरी इलाक़ों में माइक्रो-फाइनेंस का बोलबाला है, ऐसे में इस्लामिक वित्त में देश के आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्ग की वित्तीय आवश्यकताओं को पूरा करने की ज़बरदस्त क्षमता है. ज़ाहिर है कि यह वर्ग ऐसा है, जो औपचारिक वित्तीय प्रणाली के विस्तार के बावज़ूद इसका लाभ उठाने से वंचित है. भारत दुनिया के सबसे बड़े स्टार्ट-अप हब में से एक है, ऐसे में यहां स्टार्ट-अप बिजनेस के क्षेत्र में पैदा होने वाले तमाम जोख़िमों का सामना करने के लिए सुव्यवस्थित और कार्य-कुशल पूंजी की भी ज़रूरत बढ़ रही है. 'आकस्मिक घटना' के रूप में इक्विटी की सहभागिता के साथ, निरंतर फलते-फूलते उद्यमशीलता इकोसिस्टम को IF से उल्लेखनीय रूप से फायदा हो सकता है. ऐसा इसलिए है, क्योंकि इसमें उद्यम पूंजी या वेंचल कैपिटल को वापस करने को लेकर कोई सख़्त नियम नहीं है, जो कि निश्चित तौर पर दिक़्क़तें पैदा करते हैं.

 

भारत द्वारा G20 की सफल अध्यक्षता की गई है, ऐसे में वो G20 के पूर्व अध्यक्ष रहे इंडोनेशिया से बहुत कुछ सीख सकता है. इंडोनेशिया इस्लामिक फाइनेंस से सिद्धान्तों के मुताबिक़ बखूबी अपनी पूंजी एवं उपभोग की आवश्यकताओं को पूरा कर रहा है. इतना ही नहीं इंडोनेशिया इसकी वजह से बदले आर्थिक वातावरण के चलते अपनी अर्थव्यवस्था को भी तेज़ी से प्रगति के पथ पर अग्रसर कर रहा है. माइक्रो-फाइनेंस के माध्यम से इंडोनेशिया द्वारा जिस प्रकार से इक्विटी के मॉडल पर आधारित इस्लामिक वित्त को अपनाया गया है, वो देखा जाए तो रोज़गारपरक कौशल को विकसित करके स्वैच्छिक प्रशिक्षण के ज़रिए स्थाई इनकम का साधन उपलब्ध कराके और वित्त तक पहुंच प्रदान करके अपनी आर्थिक रूप से कमज़ोर आबादी के सशक्तिकरण का एक अच्छा उदाहरण पेश करता है. 

भारत के मध्य पूर्व और GCC राष्ट्रों के साथ ऐतिहासिक रूप से प्रगाढ़ सांस्कृतिक एवं व्यापारिक रिश्ते हैं. गल्फ देशों के साथ भारत के यह मज़बूत संबंध, कहीं न कहीं वहां संचालित तमाम इस्लामिक फाइनेंस संस्थानों के माध्यम से विदेशी निवेश को आकर्षित करने की काबिलियत रखते हैं.

 

जहां तक भारत की बात है, तो भारत के माइक्रो-फाइनेंस सेक्टरों ने परंपरागत रूप से 'शहरी ग़रीबों' पर अपना ध्यान केंद्रित किया है और उनका फोकस एरिया तुलनात्मक रूप से समृद्ध पश्चिमी एवं दक्षिणी भारत है. इस वजह से इस्लामिक वित्त पर आधारित MFIs के लिए भारत के पूर्वी क्षेत्र में ख़ासतौर पर संभावनाओं को तलाशने के अवसर खुल रहे हैं. जिस प्रकार से भारत वित्तीय समावेशन के लक्ष्य को प्राप्त करना चाहता है, ऐसे में IF-MFIs के ज़रिए आने वाली पूंजी के साथ सशक्त आत्मनिर्भर सामाजिक उद्यमों को विकसित करके आबादी के एक बड़े हिस्से तक पहुंच स्थापित करना ज़रूरी हो जाता है. मलेशिया ने भी अपने वित्तीय इकोसिस्टम के सबसे अहम लक्ष्यों यानी कि आर्थिक लक्ष्यों को हासिल करने के लिए इस्लामिक फाइनेंस का बेहद समझदारी से सफलतापूर्वक उपयोग किया है. मलेशिया, जिसे कि इस्लामिक कैपिटल मार्केट्स (ICM) का केंद्र कहा जाता है, उसने अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों की वित्तपोषण से जुड़ी ज़रुरतों को पूरा करने के लिए इस्लामिक फाइनेंस संस्थानों की निगरानी, संचालन और उनके विकास की अगुवाई करने के लिए एक केंद्रीय बैंक की तरह विशेष ढांचे का भी गठन किया है.




भारत के पास भी विशेष अवसर है कि वो इस्लामिक फाइनेंस संस्थानों को भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) के प्रभाव क्षेत्र के भीतर शाखाएं स्थापित करने की मंज़ूरी दे और इस प्रकार से देश में विदेशी बैंकों के लिए संभावनाओं का विस्तार कर प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को बढ़ाए. ज़ाहिर कि RBI को अपने वर्तमान फ्रेमवर्क के अंतर्गत इस्लामिक बैंकों को अपनी गतिविधियों को संचालित करने की अनुमति देने के लिए अपने ढांचे का विस्तार करना पड़ेगा. यह ढांचा शुरूआती दौर में SFBs की संरचना का अनुकरण करने वाला होगा, भले ही वित्तीय समझौतों में अंतर्निहित रेमिट, अर्थात ब्याज-मुक्त भुगतान में कोई बदलाव नहीं हो. इसके अलावा कैपिटल मार्केट रेगुलेटर के रूप में SEBI भी अपने ढांचे का विस्तार कर सकता है, ताकि लंबी अवधि के निवेश और विकास को प्रोत्साहित करने के लिए IFIs से FIIs को भारत में स्थानीय स्तर पर संचालन करने एवं निवेश करने की मंजूरी दी जा सके.

 

मिडिल ईस्ट के साथ रिश्ते

 

प्राइवेट इक्विटी, म्यूचुअल फंड्स एवं वित्तीय सेवाओं सहित इस सेक्टर में इस्लामिक फाइनेंस का फैलाव बहुत व्यापक है. ज़ाहिर है कि अग्रणी सरकारी एवं प्राइवेट सेक्टर के बैंकों के साथ संयुक्त उद्यम का दायरा अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों की वित्तीय आवश्यकताओं को पूरा करने के अवसरों को भी खोल सकता है. उपभोक्ता ऋण या कंज़्यूमर लेंडिंग, कमर्शियल फाइनेंस और इन्फ्रास्ट्रक्चर कुछ ऐसे बुनियादी सेक्टर हैं, जिन्हें इस प्रकार की साझेदारियों से अत्यधिक लाभ हो सकता है. इसकी वजह यह है कि ये सभी सेक्टर कहीं न कहीं GDP में प्रत्यक्ष तौर पर योगदान देते हैं. इसके अलावा, NPA के पीछे जोख़िम से बचने की प्रवृति को देखते हुए, भारत को अपनी क्षमता, आकार और पैमाने का एहसास कराने के लिए, परिस्थितियों पर पूर्ण नियंत्रण होतु पूंजी की कमी की गारंटी नहीं दी जा सकती है. इस्लामिक फाइनेंस में जिस प्रकार से ब्याज-मुक्त ऋण देने पर बल दिया जाता है, ऐसे में निश्चित तौर पर भारत के कॉर्पोरेट सेक्टर द्वारा अपने आर्थिक सुधार के आधार पर स्थापित पूंजी के एक बिलकुल नए रास्ते का स्वागत किया जाएगा. ऐसे में एक नियामक उपकरण या नियामक निकाय इस प्रकार से वित्तीय तंत्र की मज़बूती का मूल्यांकन करने के साथ-साथ भारतीय वित्तीय सेक्टर की विशेष ज़रूरतों को पूरा करने के लिए इस्लामिक फाइनेंस को उसके मुताबिक़ ढालने की दिशा में सकारातमक वातावरण बना सकता है.

 

भारत के मध्य पूर्व और GCC राष्ट्रों के साथ ऐतिहासिक रूप से प्रगाढ़ सांस्कृतिक एवं व्यापारिक रिश्ते हैं. गल्फ देशों के साथ भारत के यह मज़बूत संबंध, कहीं न कहीं वहां संचालित तमाम इस्लामिक फाइनेंस संस्थानों के माध्यम से विदेशी निवेश को आकर्षित करने की काबिलियत रखते हैं. ज़ाहिर है कि इन IF संस्थानों के पास पहले से ही गल्फ देशों में रहने वाले भारत के समृद्ध प्रवासियों को अपने सेवाएं प्रदान करने का अच्छा-ख़ासा अनुभव है. ऐसा करना रणनीतिक लिहाज़ से अहम भू-आर्थिक क्षेत्र या जियो-इकोनॉमिक रीजन से NRI निवेश को आकर्षित करने के लिए एक वैकल्पिक चैनल का मार्ग भी प्रशस्त करेगा. उल्लेखनीय है कि ऐसे वक़्त में जब भारत शीघ्र ही विश्व की चोटी की तीन अर्थव्यवस्थाओं में शामिल होने की उम्मीद के साथ तेज़ी से अग्रसर है, तब इस्लामिक फाइनेंस भारतीय अर्थव्यवस्था की बढ़ती आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए एक रणनीतिक प्रेरणा और प्रोत्साहन के रूप में कार्य कर सकता है.


उल्लास राव एक प्रमुख एकेडमिक एवं वित्तीय अर्थशास्त्री हैं और दुबई,UAE में रहते हैं. इसके साथ ही वे भारत और UAE में कई प्रतिष्ठित संस्थानों में कार्य कर चुके हैं.

ये लेखक के निजी विचार हैं.

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