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शेयर बाज़ार के फ्यूचर ऐंड ऑप्शंस सूचकांक में लगातार बढ़ रही स्पेकुलेटिव ट्रेडिंग पर क़ाबू पाने के लिए 30 जुलाई को भारत के प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (SEBI) ने कुछ नए उपायों का एलान किया. इस कंसल्टेशन पेपर में सेबी ने निवेशकों और कारोबारियों को ऐसी ट्रेडिंग के दौरान भारी नुक़सान से बचाने के लिए विस्तार से उन बदलावों की चर्चा की है, जिनको लागू किया जाना है. इन प्रस्तावों में मार्जिन को फौरन वसूल करना, सूचकांक के विकल्पों को तार्किक बनाना और कॉन्ट्रैक्ट के न्यूनतम आकार में व्यापक बढ़ोत्तरी जैसे क़दम शामिल हैं. इन पहलों को इस तरह तैयार किया गया है, जिससे न केवल बाज़ार में स्थिरता बढ़ेगी, बल्कि ऐसे वित्तीय मंज़र में निवेशकों की हिफ़ाज़त भी हो सकेगी, जो लगातार उथल पुथल भरा होता जा रहा है.
आज जब फ्यूचर एंड ऑप्शन के कारोबार में भाग लेने वाले ख़ुद को नए नियमों के मुताबिक ढाल रहे हैं, तो संभावना इस बात की है कि डेरिवेटिव्स का बाज़ार ज़्यादा स्थिर और प्रौढ़ होने की दिशा में आगे बढ़ेगा.
सेबी ने जिन प्रस्तावों को पेश किया है, उनका असरदार होना बाज़ार की प्रतिक्रिया और व्यापक आर्थिक माहौल पर निर्भर होगा. आज जब फ्यूचर एंड ऑप्शन के कारोबार में भाग लेने वाले ख़ुद को नए नियमों के मुताबिक ढाल रहे हैं, तो संभावना इस बात की है कि डेरिवेटिव्स का बाज़ार ज़्यादा स्थिर और प्रौढ़ होने की दिशा में आगे बढ़ेगा. इसका लाभ निवेशकों को तो होगा ही, भारत के व्यापक वित्तीय इकोसिस्टम को भी इससे काफ़ी फ़ायदा होगा.
सेबी के प्रस्ताव क्या हैं?
SEBI के कंसल्टेशन पेपर में बहुत बारीक़ी से उन सात उपायों को रेखांकित किया गया है, जिन्हें इंडेक्स डेरिवेटिव्स में स्पेकुलेटिव ट्रेडिंग को सीमित करने के लिए तैयार किया गया है. ऐसे एक उपाय में स्ट्राइक क़ीमतों के उतार चढ़ाव को मौजूदा मूल्य की तुलना के अनुरूप ढालने के लिए इंडेक्स के विकल्पों का दायरा बढ़ाकर उसे तार्किक बनाने का सुझाव दिया गया है. इस तरीक़े का मक़सद पूंजी की उपलब्धता को मज़बूती देना और इस तरह से तमाम स्ट्राइक क़ीमतों में विघटन के असर को कम करना है. SEBI ने प्रीमियम को तुरंत वसूल करने का भी सुझाव दिया है. ये क़दम निश्चित रूप से भागीदारों के बीच इंट्राडे ट्रेडिंग के दौरान बहुत ज़्यादा फ़ायदा उठाने से रोकने वाला है. उल्लेखनीय है कि इस वक़्त वैसे तो ख़रीदारों से मारिजन वसूल करने से रोकने का कोई नियम नहीं है. लेकिन, फ्यूचर के कारोबार के फौरी और दूरगामी अवधि पर दांव लगाने और उनके बिक्री के विकल्पों के मुताबिक़ अपफ्रंट या फिर हाथ के हाथ पैसे लेने के मौजूदा चलन के ठीक उलट है.
इस बढ़ोत्तरी से फ्यूचर ऐंड ऑप्शंस में ट्रेडिंग करने वालों के लिए दायरा बढ़ेगा और सभी निवेशकों की लेन-देन करने की लागत बढ़ जाएगी. भागीदार कम होने से बाज़ार में पूंजी की कमी आ सकती है
सेबी ने प्रस्ताव दिया है कि कैलेंडर मार्जिन के लाभ को समय सीमा समाप्त होने वाले दिन तक विस्तार देने की प्रथा को ख़त्म किया जाए. इस वक़्त इस लाभ के ज़रिए फ्यूचर ऐंड ऑप्शन (F&O) के किसी दांव का मार्जिन कम किया जा सकता है. क्योंकि इसे भविष्य में ख़त्म होने वाले किसी दांव के विपरीत लगाया जाता है. निगरानी की व्यवस्था मज़बूत बनाने के लिए सेबी ने इंट्राडे ट्रेडिंग के दौरान इंडेक्स डेरिवेटिव कॉन्ट्रैक्ट में लगाए गए दांव पर कड़ी निगाह रखने का प्रस्ताव दिया है.
सेबी का एक अहम प्रस्ताव ठेके की न्यूनतम सीमा में बढ़ोत्तरी करने का भी है. इस योजना को दो हिस्सों में लागू करने के लिए तैयार किया गया है: पहले चरण में न्यूनतम कॉन्ट्रैक्ट की सीमा 15 से 20 लाख रुपए के बीच की होगी. वहीं इसके छह महीने बाद दूसरे चरण में ये न्यूनतम सीमा बढ़ाकर 20 से 30 लाख रुपए की जाएगी.
इस बढ़ोत्तरी से फ्यूचर ऐंड ऑप्शंस में ट्रेडिंग करने वालों के लिए दायरा बढ़ेगा और सभी निवेशकों की लेन-देन करने की लागत बढ़ जाएगी. भागीदार कम होने से बाज़ार में पूंजी की कमी आ सकती है, जिससे आगे चलकर ज़्यादा उथल पुथल मचने और कारोबार करने की लागत बढ़ने का अंदेशा है. आलोचकों का तर्क है कि ये उपाय वैसे तो बाज़ार को स्थिर बनाने और निवेशकों की रक्षा करने के इरादे से लाए गए हैं. लेकिन, इन क़दमों को लागू करने की वजह से अनजाने में ख़ुदरा निवेशक कहीं ऐसे बाज़ार का रुख़ न करें, जिसका नियमन नहीं होता. इसी वजह से प्रस्तावित क़दम जो वैसे को बाज़ार की स्थिरता बढ़ाने और निवेशकों को संरक्षित करने के इरादे से ला गए हैं. लेकिन, ये भी हो सकता है कि इससे व्यापार का कम आसान पहुंच वाला माहौल बने. ख़ास तौर से छोटे खिलाड़ियों और एल्गोरिद्म के आधार पर कारोबार करने वाले उन कारोबारियों के लिए जो तुरंत लेन-देन पर ज़्यादा ध्यान केंद्रित करते हैं.
यही नहीं, सेबी ने सुझाव दिया है कि फ्यूचर एंड ऑप्शंस की ट्रेडिंग करने वाले शेयर बाज़ार हर सप्ताह समात होने वाली सीमा को एक ही बेंचमार्क सूचकांक तक सीमित करें. इससे बाज़ार में स्थिरता बढ़ेगी और निवेशकों के हितों की रक्षा भी की जा सकेगी. इसके अलावा, सेबी ने एक्स्ट्रीम लॉस मार्जिन को भी बढ़ाकर तीन परसेंट करने और एक्सपायरी डेट क़रीब आते आते बढ़ाकर पांच प्रतिशत करने सुझाव दिया है. ये सब उपाय मिलकर सामूहिक रूप से ट्रेडिंग का अधिक सुरक्षित और संतुलित माहौल बनाने की आकांक्षा रखते हैं.
इन क़दमों के संभावित नतीजे
सेबी द्वारा इंडेक्स डेरिवेटिव्स के लिए कॉन्ट्रैक्ट की न्यूनतम सीमा को मौजूदा 5-10 लाख से बढ़ाकर 20-30 लाख करने के प्रस्ताव से बाज़ार में पूंजी की उपलब्धता पर काफ़ी असर पड़ने का अंदेशा है. न्यूनतम कॉन्ट्रैक्ट साइज़ बढ़ने से इंडेक्स डेरिवेटिव्स ख़ुदरा निवेशकों की पहुंच से दूर हो जाएंगे, क्योंकि इसमें भाग लेने के लिए आवश्यक पूंजी की मात्रा काफ़ी बढ़ जाएगी. हो सकता है कि बहुत से छोटे कारोबारी इस बाज़ार से ही बाहर हो जाएं, जिससे ख़ुदरा कारोबारियों की भागीदारी में गिरावट आएगी. इससे ख़ास तौर से फ़ौरी अवधि के दौरान कारोबार की मात्रा कम हो जाएगी, क्योंकि बाज़ार ख़ुद को नई शर्तों के मुताबिक़ ढालने की कोशिश करेगा.
ख़ुदरा निवेशकों की भागीदारी में कमी होने की सूरत में इंडेक्स फ्यूचर से ज़्यादा कारोबार इंडेक्स ऑप्शन में बढ़ सकता है. क्योंकि ऑप्शंस में आम तौर पर ज़्यादा पूंजी लगाने की ज़रूरत नहीं पड़ती. हालांकि, SEBI ने ऑप्शंस में स्पेक्युलेटिव ट्रेडिंग पर क़ाबू पाने के लिए भी कुछ उपायों का ऐलान किया है. इनमें प्रीमियम को तुरंत वसूल करना और स्ट्राइक की क़ीमतों को तार्किक बनाना शामिल है. इन बदलावों से कारोबारियों के लिए अपनी गतिविधियों को ऑप्शंस के वर्ग में ले जाने की क्षमता में कमी आएगी.
ज़रूरत से ज़्यादा अटकलें लग रही हैं, इसे तय करने के लिए कोई सर्वमान्य तौर पर स्वीकार मानक तो नहीं है. पर इससे जुड़े कई नियानम ढांचे दिशा-निर्देश ज़रूर मुहैया कराते हैं. अमेरिका में कमोडिटी एक्सचेंज एक्ट में ये व्यवस्था है कि स्पेकुलेटिव पोजीशन की सीमाएं तय की जा सकें, जिससे ज़्यादा अटकलें लगाने वाले दांव न खेले जा सकें. ये सीमाएं बाज़ार के हालात से तय होती हैं और इनका मक़सद बाज़ारों को अपने हित के मुताबिक़ तोड़ने मरोड़ने से रोकना और क़ीमतों को स्थिर बनाना होता है. भारत के मामले में शेयर बाज़ार तो उल्लेखनीय रूप से अटकलें लगाने वाला है. इसमें भाग लेने वाले अक्सर क़ीमतों में उतार चढ़ाव के मुताबिक़ ट्रेडिंग करते हैं, न कि शेयरों के वास्तविक मूल्य के आधार पर. डेरिवेटिव्स का बाज़ार और ख़ास तौर से फ्यूचर एंड ऑप्शंस (F&O) के कारोबार में तो दांव अक्सर बाज़ार में क़ीमतों में गिरावट आने की आशंका पर लगाया जाता है. हालांकि, F&O के बाज़ार पर अक्सर नियमन करने वालों की निगाह जाती है. इसकी वजह कहीं ज़्यादा स्पेकुलेशन होने की आशंका होती है. क्योंकि, इससे बुनियादी शेयर बाज़ार में उथल-पुथल बढ़ जाने का डर होता है.
भारत के मामले में शेयर बाज़ार तो उल्लेखनीय रूप से अटकलें लगाने वाला है. इसमें भाग लेने वाले अक्सर क़ीमतों में उतार चढ़ाव के मुताबिक़ ट्रेडिंग करते हैं, न कि शेयरों के वास्तविक मूल्य के आधार पर.
बाज़ार में पूंजी उपलब्ध कराने में बाज़ार बनाने वाले बहुत अहम भूमिका अदा करते हैं. न्यूनतम कॉन्ट्रैक्ट की रक़म को बढ़ा देने से मार्केट मेकर्स के लिए बहुत नाज़ुक बिड-आस्क पर दांव लगाना ज़्यादा चुनौतीपूर्ण हो जाएगा क्योंकि नक़द रक़म मुहैया कराने के लिए आवश्यक पूंजी बढ़ जाएगी. इससे दायरा बढ़ सकता है और, विशेष रूप से ये क़दम लागू करने के शुरुआती दौर में पूंजी की उपलब्धता में गिरावट आ सकती है.
न्यूनतम कॉन्ट्रैक्ट के आकार में बढ़ोत्तरी से भागीदारों की तादाद कम होने की वजह से कारोबारी गतिविधियां ज़्यादातर बड़े संस्थागत निवेशकों और पेशेवर कारोबारियों पर केंद्रित हो सकती है. इससे उथल-पुथल में इज़ाफ़ा होगा, क्योंकि कम भागीदारों द्वारा उठाए जाने वाले क़दमों का बाज़ार असर होने की आशंका भी बढ़ जाएगी.
लंबी अवधि में न्यूनतम कॉन्ट्रैक्ट के आकार में वृद्धि से डेरिवेटिव्स का अधिक स्थिर और प्रौढ़ बनाने में मदद मिलेगी. स्पेक्युलेटिव ट्रेडिंग घट जाने और ज़्यादा कुशल निवेशकों की भागीदारी को बढ़ावा देकर बाज़ार बहुत ज़्यादा उथल पुथल और तोड़ मरोड़ से बच सकेगा. हालांकि, ऐसा बदलाव होने में वक़्त लगेगा और नियामकों को चाहिए कि वो पूंजी की उपलब्धता पर इन क़दमों से पड़ने वाले असर पर बारीकी से नज़र रखें और सहज बदलाव सुनिश्चित करें.
यहां इस बात पर ध्यान देना ज़रूरी है कि पूंजी पर पड़ने वाला असर कई कारकों पर निर्भर करेगा. इसमें लागू करने की रफ़्तार, बाज़ार के भागीदारों की प्रतिक्रिया और व्यापक आर्थिक हालात शामिल हैं. नियामकों को चाहिए कि वो इन प्रभावों पर नज़दीकी से नज़र रखें और ज़रूरत पड़ने पर लागू किए जा रहे उपायों में तब्दीली लाने के लिए भी तैयार रहें, ताकि अच्छे से काम कर रहे लिक्विड डेरिवेटिव्स बाज़ार को बनाए रखा जा सके.
आगे की राह
सेबी के इन क़दमों के शुरुआती प्रभावों में ख़ुदरा निवेशकों की भागीदारी में कमी आना तय है. क्योंकि छोटे कारोबारी डेरिवेटिव्स के बाज़ार की शर्तों का पालन कर पाने की स्थिति में नहीं होंगे. इससे शॉर्ट टर्म में ट्रेडिंग की मात्रा में कमी आएगी और शायद नक़द पूंजी की उपलब्धता में भी गिरावट आए. हालांकि, ज़्यादा सधे हुए निवेशकों की कारोबारी गतिविधियों से बाज़ार में मज़बूती आएगी, जिससे आने वाले समय में कारोबार का एक स्थिर माहौल भी बनेगा. क्योंकि, ये भागीदार डेरिवेटिव्स की ट्रेडिंग से जुड़े जोखिमों से निपट पाने में आम तौर पर ज़्यादा सक्षम होते हैं.
जब बाज़ार इन बदलावों के मुताबिक़ ख़ुद को ढाल रहा होगा, तो नियामकों के लिए इन बदलावों पर नज़दीकी से नज़र बनाए रखना और अपने रवैये में लचीलापन लाना बहुत ज़रूरी होगा
फ्यूचर एंड ऑप्शंस (F&O) की ट्रेडिंग में सेबी द्वारा प्रस्तावित बदलावों के ऐलान के बाद एंजेल वन और बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज (BSE) के शेयर लगभग सात प्रतिशत तक बढ़ गए. प्रस्तावित क़दमों से ट्रेडिंग के प्रति एक अनुशासित रवैया विकसित होगा. फौरी अटकलबाज़ी पर दांव लगाने के बजाय दूरगामी निवेश की रणनीतियां तैयार होंगी. जब बाज़ार इन बदलावों के मुताबिक़ ख़ुद को ढाल रहा होगा, तो नियामकों के लिए इन बदलावों पर नज़दीकी से नज़र बनाए रखना और अपने रवैये में लचीलापन लाना बहुत ज़रूरी होगा, ताकि डेरिवेटिव्स के बाज़ार का इस तरह विकास सुनिश्चित किया जा सके जिसमें मज़बूती से लिक्विडिटी और स्थिरता बने रहने के साथ साथ निवेशकों की रक्षा भी की जा सके.
आख़िर में अभी जबकि इन बदलावों को लागू करने के शुरुआती दिन हैं, तो बाज़ार की प्रतिक्रिया और व्यापक आर्थिक संदर्भों से ही तय होगा कि सेबी के ये प्रस्ताविक क़दम कितने असरदार साबित होते हैं. अब जबकि इन बाज़ारों में कारोबार करने वाले ख़ुद को नए नियमों के अनुरूप ढालने का प्रयास करेंगे, तो इससे डेरिवेटिव्स का अधिक स्थिर और मैच्योर बाज़ार उभरने की संभावना है, जिसका लाभ निवेशकों को तो होगा ही, भारत के व्यापक वित्तीय इकोसिस्टम को भी काफ़ी फ़ायदा होगा.
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