सामाजिक सुरक्षा के टिकाऊ मॉडल तैयार करना और उनका दायरा बढ़ाना, G20 के एजेंडे का ज़रूरी हिस्सा होना चाहिए
अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) सामाजिक सुरक्षा को इन शब्दों में परिभाषित करता है: ‘वो संरक्षण जो कोई समाज नागरिकों और परिवारों को स्वास्थ्य सेवा प्राप्त करने और ख़ास तौर से बुढ़ापे, बेरोज़गारी, बीमारी, अक्षमता, काम के दौरान चोट लगने, मातृत्व या फिर किसी परिवार को चलाने वाले की मौत की स्थिति में आमदनी की गारंटी देता है.’
मोटे तौर पर सामाजिक सुरक्षा, समाज के कमज़ोर तबक़े को मुश्किल वक़्त में सुरक्षा का एक कवच देती है. आमदनी के पुनर्वितरण में मददगार होती है, आर्थिक जोख़िमों में विविधता लाती है और सामाजिक स्थिरता व आर्थिक वृद्धि को बढ़ावा देती है.
जब हम G20 देशों में सामाजिक सुरक्षा के मौजूदा ढांचे का स्वरूप देखते हैं, तो पता चलता है कि सामाजिक सुरक्षा की अधिकतर योजनाएं लक्ष्य आधारित हैं, जबकि कुछ योजनाएं सबके लिए हैं. इन कार्यक्रमों के स्वरूप में काफ़ी अंतर दिखता है. मिसाल के तौर पर, भारत में एक वृद्धावस्था पेंशन व्यवस्था है, जो पूरी तरह से सरकार चलाती है. जबकि काम की जगह पर चोट से होने वाली शारीरिक अक्षमता योगदान पर आधारित है और इसमें सरकार की कोई भागीदारी नहीं है. ब्राज़ील और ब्रिटेन में भी काम के स्थान पर अक्षमता के लिए योगदान आधारित पेंशन व्यवस्था है. लेकिन, इसके फंड में कोई कमी होने पर भरपाई सरकार करती है. यही बात हम सऊदी अरब में देखते हैं, जहां सरकार फंड की किसी भी कमी को अपनी जेब से पूरा करती है. हालांकि अमेरिका में सरकार की कोई भूमिका नहीं होती और ज़्यादातर राज्यों में नौकरी देने वाले इसका पूरा ख़र्च उठाते हैं.
जब हम G20 देशों में सामाजिक सुरक्षा के मौजूदा ढांचे का स्वरूप देखते हैं, तो पता चलता है कि सामाजिक सुरक्षा की अधिकतर योजनाएं लक्ष्य आधारित हैं, जबकि कुछ योजनाएं सबके लिए हैं.
जब हम मातृत्व के लाभों को देखते हैं, तो जापान सरकार पचास प्रतिशत का योगदान देती है. बाक़ी की रक़म वो देता है जिसका बीमा हुआ है. दक्षिण कोरिया में रोज़गार देने वाले और नौकरी करने वाले मातृत्व के बीमा में बराबर का योगदान देते हैं और सरकार, ज़रूरत के हिसाब से सब्सिडी देती है. नीचे की सारणी में कुछ चुनिंदा G20 देशों में सामाजिक सुरक्षा की अलग अलग योजनाओं के विभिन्न स्वरूपों की तुलना की गई है.
टेबल-1: सामाजिक सुरक्षा के कार्यक्रमों का स्वरूप (भारत, अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी)
सामाजिक सुरक्षा का प्रकार
भारत
अमेरिका
ब्रिटेन
जर्मनी
बच्चों के लिए
आंकड़े अनुपलब्ध
आंकड़े उपलब्ध नहीं
पूरी तरह सरकार प्रायोजित
पूरी तरह सरकार प्रायोजित
मातृत्व योजनाएं
100 प्रतिशत सरकार प्रायोजित
कोई नहीं
92 – 100 प्रतिशत फंड सरकार देती है
सरकार एक तय दर से योगदान देती है, बाक़ी हिस्सा रोज़गार देने वालों और नौकरी करने वाले देते हैं
बेरोज़गारी
सरकार 100 दिनों का रोज़गार देती है
प्रशासनिक ख़र्च सरकार उठाती है
योगदान आधारित, सरकार कमी पूरी करती है
पूरी तरह सरकार प्रायोजित
वृद्धावस्था पेंशन
पूरी तरह सरकार प्रायोजित
पूरी तरह सरकार प्रायोजित
पूरी तरह सरकार प्रायोजित
सरकार, रोज़गार देने वाले और कर्मचारी मिलकर योगदान देते हैं
पूरी दुनिया में सामाजिक सुरक्षा की योजनाओं का क्षेत्र बहुत सीमित रहा है. ये पाया गया है कि, काम की जगह पर चोट से संरक्षण देने वाली योजनाओं के दायरे में 40 प्रतिशत से भी कम कामगार आते हैं.इसी तरह दुनिया के केवल 30 प्रतिशत कमज़ोर तबक़े के लोगों को ही सरकार से किसी तरह की सामाजिक मदद मिल रही है, जो हम आंकड़ों में देख सकते हैं. इसके अतिरिक्त, सामाजिक सुरक्षा की योजनाओं के कवरेज की बात करें, तो वैश्विक स्तर पर विकसित और विकासशील देशों के बीच बहुत फ़ासला नज़र आता है. उच्च आमदनी वाले देशों में लगभग 100 प्रतिशत आबादी को किसी तरह की वृद्धावस्था पेंशन मिलती है. वहीं, कम आमदनी वाले देशों में ये संख्या 25 प्रतिशत से भी कम है.
चित्र1: सामाजिक सुरक्षा के विभिन्न कार्यक्रमों के दायरे में आने वाली आबादी(2020)
कुल मिलाकर कम आमदनी वाले देशों में किसी तरह के सामाजिक सुरक्षा के लाभ प्राप्त करने वाली आबादी केवल 20 प्रतिशत है और इन देशों में किसी तरह की सामाजिक सुरक्षा वाली योजनाओं के दायरे में आने वाली जनसंख्या 10 प्रतिशत से भी कम है. ये बात हम आगे आंकड़ों में देख सकते हैं. सामाजिक सुरक्षा योजनाओं में ये अंतर G20 देशों के बीच भी नज़र आता है. अक्टूबर 2021 में G20 नेताओं की रोम घोषणा में ‘असमानताएं कम करने, ग़रीबी ख़त्म करने, कामगारों को रोज़गार बदलने में मदद करने और श्रम बाज़ार से दोबारा जोड़ने और समावेशी व टिकाऊ विकास को बढ़ावा देने’ का लक्ष्य रखा गया था, ताकि मानव केंद्रित नीतिगत नज़रिया अपनाकर सामाजिक सुरक्षा की व्यवस्थाओं को मज़बूत बनाया जा सके.
चित्र2: उच्च आमदनी एवं कम आमदनी वाले देशों में सामाजिक सुरक्षा का कवरेज (2020)
महामारी के बाद की दुनिया में सामाजिक सुरक्षा
सामाजिक सुरक्षा के ढांचे का दायरा बढ़ाने से सबको लाभ होता है, क्योंकि इससे एक तरफ़ तो व्यापक आर्थिक पैमानों के हिसाब से दूरगामी विकास को ताक़त मिलती है. वहीं दूसरी तरफ़, राष्ट्रों की अंदरूनी अर्थव्यवस्था को स्थिर करने में भी मदद मिलती है, क्योंकि इससे स्थानीय वस्तुओं और सेवाओं की मांग बनी रहती है, जिससे कोविड-19 महामारी जैसे संकटों के समय न केवल रोज़गार सृजन होता है और आमदनी बढ़ती है. सच तो ये है कि कोविड-19 महामारी के दौरान सामाजिक सुरक्षा का प्रश्न बेहद अहम हो गया था. जैसा कि हम आगे के आंकड़ों में देख सकते हैं, कि आमदनी के पिरामिड के सबसे निचले तबक़े के 40 प्रतिशत लोगों ने अपनी 6.7 प्रतिशत आमदनी गंवा दी. जबकि आमदनी के पिरामिड के शीर्ष के 40 प्रतिशत लोगों की आमदनी को 2021 में केवल 2.7 प्रतिशत की क्षति हुई. जैसे जैसे बेरोज़गारी बढ़ी और आमदनी में गिरावट आई, तो कारक और उत्पाद के बाज़ारों, दोनों के लिए मांग और आपूर्ति को दुरुस्त करने के लिए सामाजिक सुरक्षा बेहद आवश्यक हो गई.
चित्र-3: कोविड-19 के कारण (वैश्विक आमदनी के पैमाने पर) आमदनी की क्षति का प्रतिशत
इसके बाद भी, पिछले कुछ वर्षों में G20 देशों की जनसंख्या के सबसे निचले वर्ग के लिए सामाजिक सुरक्षा की व्यवस्था में काफ़ी सुधार देखा गया है. इसके नतीजे में ग़रीबी की दर कम हुई है और आबादी का एक बड़ा हिस्सा स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी सेवाएं हासिल कर पा रहा है; इसके अलावा ये वर्ग, ऊर्जा हासिल करने और तकनीकी तरक़्क़ी का लाभ भी ले सका है.
सामाजिक सुरक्षा के किसी भी अच्छे से तैयार किए गए कार्यक्रम में कुछ ऐसे तत्व ज़रूर होने चाहिए, जो उन व्यक्तियों या परिवारों की ज़रूरत पूरी कर सकें, जिनके लिए ये योजनाएं बनाई जाती हैं.
सामाजिक सुरक्षा के किसी भी अच्छे से तैयार किए गए कार्यक्रम में कुछ ऐसे तत्व ज़रूर होने चाहिए, जो उन व्यक्तियों या परिवारों की ज़रूरत पूरी कर सकें, जिनके लिए ये योजनाएं बनाई जाती हैं. अलग अलग सामाजिक आर्थिक कारकों के हिसाब से इन योजनाओं में काट-छांट करनी पड़ेगी. जैसे कि लिंग, उम्र, आमदनी का स्रोत और रोज़गार का स्वरूप वग़ैरह. महामारी और रूस-यूक्रेन युद्ध जैसे बाहरी झटकों से कई देशों में महंगाई का तूफ़ान आ गया है. इससे विकासशील और कम विकसित देशों की पूंजी पर भी दबाव पड़ रहा है. इससे उचित कारणों से ही ख़र्च करने और राजस्व जुटाने जैसे उपाय करने का दबाव बढ़ा है, ताकि दूरगामी अवधि में सामाजिक सुरक्षा की व्यवस्थाओं के लिए पूंजी हासिल कर पाना टिकाऊ बना रहे.
यहां ये जान लें कि सामाजिक सुरक्षा की व्यवस्थाओं को बढ़ाकर G20 देश, संयुक्त राष्ट्र के टिकाऊ विकास के लक्ष्यों (SDGs) को प्राप्त करने के क़रीब पहुंच जाएंगे. बदक़िस्मती से G20 का कोई भी देश 2030 तक अपने लक्ष्य हासिल करने में अच्छी प्रगति नहीं दिखा रहा है. इसके लिए वित्त की कमी से लेकर संकट के अस्थायी प्रबंधन जैसी बातें शामिल हैं. हालांकि सामाजिक सुरक्षा के टिकाऊ मॉडल तैयार करना और उनका दायरा बढ़ाना, G20 का एक ज़रूरी एजेंडा होना चाहिए. जो न केवल स्थानीय विकास के लक्ष्य की प्राप्ति को मज़बूती दे, बल्कि इससे महामारी के बाद की दुनिया में घरेलू और क्षेत्रीय अर्थव्यवस्थाओं में दूरगामी अवधि के लिए लचीलापन लाने में भी मदद मिले.
भारत के पास महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी क़ानून (MGNREGA) जैसी योजनाओं के रूप में सामाजिक सहायता की योजनाओं का अच्छा अनुभव रहा है. ये सार्वजनिक क्षेत्र का दुनिया का सबसे बड़ा कार्यक्रम है, जो 100 दिन रोज़गार उपलब्ध कराने की गारंटी देता है. ग़रीबी उन्मूलन और विकासशील देशों की अन्य अहम समस्याओं के समाधान में भारत के अपने ऐसे अनुभव साझा करने के लिहाज़ से भारत की G20 अध्यक्षता बेहद महत्वपूर्ण होगी. आख़िर में, यहां ये बात ध्यान देने लायक़ है कि राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय लक्ष्य हासिल करने में सामाजिक सुरक्षा देने वाली व्यवस्थाओं की उपयोगिता पर कोई सवाल नहीं उठा सकता है. लेकिन इन व्यवस्थाओं के ढांचे में वित्त के टिकाऊ मॉडल शामिल करना अभी भी पूंजी की कमी की चुनौती से निपटने का अहम पहलू है.
इस लेख के लेखक, अपने रिसर्च इनपुट देने के लिए बैंगलुरू की नेशनल लॉ स्कूल ऑफ़ इंडिया यूनिवर्सिटी के अरविंद जे. नंपूथरी के शुक्रगुज़ार हैं.
The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.
Debosmita Sarkar is an Associate Fellow with the SDGs and Inclusive Growth programme at the Centre for New Economic Diplomacy at Observer Research Foundation, India.
Her ...
Soumya Bhowmick is an Associate Fellow at the Centre for New Economic Diplomacy at the Observer Research Foundation. His research focuses on sustainable development and ...