Author : Saaransh Mishra

Published on Jul 30, 2023 Updated 0 Hours ago

चूंकि अमेरिका और रूस के बीच बातचीत में कोई ख़ास प्रगति नहीं हो रही है और रूस का ‘धैर्य ख़त्म हो रहा है’, तो पश्चिमी देश रूस की कुछ मांगों पर विचार करने को राज़ी हो सकते हैं.

अब जबकि कूटनीति नाकाम हो रही है, तो क्या रूस सैन्य पलटवार करेगा?
अब जबकि कूटनीति नाकाम हो रही है, तो क्या रूस सैन्य पलटवार करेगा?

अमेरिका और रूस के बीच हफ़्ते भर तक चली सुरक्षा वार्ताओं में कोई प्रगति न होने से ये संकेत मिलता है कि कूटनीति एक अंधे मोड़ पर पहुंच गई है. इसकी बड़ी वजह रूस की सुरक्षा संबंधी मांगों को लेकर नैटो के सहयोगी देशों और रूस के बीच कई बड़े मतभेद हैं. बड़ी उम्मीदों वाली तीन बैठकों के दौरान अमेरिका ने रूस की इन मांगों को ये कहकर ख़ारिज कर दिया कि ये ‘विचार के क़ाबिल ही नहीं’ हैं, तो रूस के विदेश मंत्री सर्जेई लावरोव ने कहा कि पश्चिम के साथ रूस के सब्र का बांध टूट गया है और रूस इस हफ़्ते तक उनसे लिखित जवाब की उम्मीद रखता है. सर्जेई लावरोव ने साफ़ तौर पर ये भी कहा कि वैसे तो रूस ये उम्मीद करता है कि मौजूदा संकट को आपसी सम्मान और हितों के बीच संतुलन के साथ निपटा लिया जाएगा. लेकिन, इस पर प्रतिक्रिया के लिए रूस कई विकल्प अपनाने पर ग़ौर करेगा. इसका मतलब ये है कि एक समझौते पर सहमति बना पाने में हो रही लगातार देरी और फिलहाल इसकी दूर-दूर तक कोई उम्मीद न दिखने से, ये भी हो सकता है कि रूस ‘सैन्य तकनीकी’ तरीक़े से कार्रवाई कर सकता है. हालांकि ये देखना होगा कि इसमें कितना वक़्त लगेगा और क्या इस दौरान पश्चिमी देशों और रूस में कुछ मसलों पर सहमति बन सकती है.

रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने दिसंबर में अमेरिका को चेतावनी दी थी कि रूस ग़ैर दोस्ताना गतिविधियों के जवाब में ‘सैन्य तकनीकी क़दम’ उठा सकता है. इसके बाद सर्जेई लावरोव के बयानों ने पश्चिमी देशों की ये आशंका बढ़ा दी है कि रूस, यूक्रेन पर आक्रमण करने वाला है.

अमेरिका बहुत आक्रामक तरीक़े से ये माहौल बनाने में जुटा है कि रूस, यूक्रेन के बहाने से भड़काने की कोशिश कर रहा है और इसकी आड़ में वो यूक्रेन पर हमला कर सकता है. रूस इस आरोप से इनकार करता रहा है. क्रेमलिन के प्रवक्ता दिमित्री पेस्कोव ने, इन आरोपों को ‘झूठ’ क़रार दिया है. रूस द्वारा बेलारूस के साथ साझा युद्धाभ्यास के लिए अपने सैनिकों को वहां तैनात करने को भी पश्चिमी देश शक की निगाह से देख रहे हैं, क्योंकि बेलारूस के साथ भी यूक्रेन की 700 मील लंबी सीमा लगती है. पश्चिमी देश इस बात की लगातार अनदेखी कर रहे हैं कि रूस और बेलारूस की सेनाओं के बीच इस साझा युद्धाभ्यास का एलान पिछले साल दिसंबर में वार्ताएं नाकाम होने से पहले ही किया गया था. यूक्रेन स्थित अपने दूतावास से अपने राजनयिक वापस बुलाने के रूस के फ़ैसले को भी यूक्रेन पर उसके संभावित आक्रमण के संकेत के तौर पर देखा जा रहा है. जबकि ऐसा भी हो सकता है कि रूस ने यूक्रेन के साथ लगातार बढ़ते तनाव के चलते अपने अधिकारियों को सुरक्षा की दृष्टि से स्वदेश वापस बुलाया हो. रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने दिसंबर में अमेरिका को चेतावनी दी थी कि रूस ग़ैर दोस्ताना गतिविधियों के जवाब में ‘सैन्य तकनीकी क़दम’ उठा सकता है. इसके बाद सर्जेई लावरोव के बयानों ने पश्चिमी देशों की ये आशंका बढ़ा दी है कि रूस, यूक्रेन पर आक्रमण करने वाला है. हालांकि रूस के सरकारी अधिकारी लगातार पश्चिमी देशों की इन आशंकाओं को सख़्ती से ख़ारिज करते रहे हैं.

हालांकि पश्चिमी देशों में आशंकाओं के गर्म बाज़ार के बीच प्रतिष्ठिति विशेषज्ञ भी इस बात का अंदाज़ा लगा पाने में नाकाम रहे हैं कि आगे क्या होने वाला है. 21 जनवरी को रूस और अमेरिका के अधिकारियों के बीच जेनेवा में हुई बातचीत से भी कुछ ख़ास नहीं निकल सका. ऐसा लगता है कि कूटनीतिक कोशिशों से कोई ख़ास नतीजा न निकल पाने के चलते रूस काफ़ी ख़ीझ गया है.

यूक्रेन का सैन्य बल

अगर वाक़ई रूस सैन्य कार्रवाई करने का फ़ैसला करता है, तो इसमें कोई शक नहीं कि यूक्रेन में उसकी स्थिति काफ़ी मज़बूत होगी. ख़ास तौर से तब और जब जो बाइडेन ने बड़ी सख़्ती से कहा है कि यूक्रेन में अमेरिकी सैनिक भेजने के विकल्प पर क़तई विचार नहीं किया जा रहा है. इसमें कोई दो राय नहीं कि पश्चिमी देशों द्वारा पिछले कई वर्षों से दी गई अरबों डॉलर की मदद और प्रशिक्षण के चलते यूक्रेन की सेना काफ़ी मज़बूत हुई है. लेकिन, यूक्रेन की सैन्य ख़ुफ़िया सेवा के मुताबिक़, यूक्रेन के पास अभी इतनी ताक़त नहीं है कि रूस के पूरी ताक़त से आक्रमण करने पर वो पलटवार कर सके. यूक्रेन की सेना में 2,55,000 सैनिक हैं और इसक अलावा क़रीब नौ लाख रिज़र्व सैनिक भी हैं. यूक्रेन जैसे देश के आकार के हिसाब से सैनिकों की ये तादाद काफ़ी ज़्यादा है. वहीं, पश्चिमी देशों से आ रही ख़बरों के मुताबिक़, रूस ने यूक्रेन से लगने वाली सीमा पर अपने एक लाख से ज़्यादा सैनिक तैनात कर रखे हैं. रूस की सेना में रिज़र्व सैनिकों को मिलाकर लगभग तीस लाख जवान हैं. 

यूक्रेन की सैन्य ख़ुफ़िया सेवा के मुताबिक़, यूक्रेन के पास अभी इतनी ताक़त नहीं है कि रूस के पूरी ताक़त से आक्रमण करने पर वो पलटवार कर सके. यूक्रेन की सेना में 2,55,000 सैनिक हैं और इसक अलावा क़रीब नौ लाख रिज़र्व सैनिक भी हैं. 

इन बातों से इतर, जैसा कि रिटायर्ड लेफ्टिनेंट जनरल एवगेनी बुज़िंस्की ने न्यूयॉर्क टाइम्स को बताया था कि रूस के पास इतनी ताक़त है कि वो यूक्रेन की सीमा के भीतर एक भी सैनिक भेजे बग़ैर सिर्फ़ हवाई हमले करके जंग जीतने की ताक़त रखता है. क्योंकि रूस के हवाई हमलों से ही यूक्रेन का मूलभूत ढांचा तबाह हो जाएगा. इस लिहाज़ से रूस को काफ़ी बढ़त हासिल है.

इस बढ़त के बावजूद रूस को ये एहसास है कि अगर वो कोई भी सैन्य कार्रवाई करता है, तो उसे इसके गंभीर नतीजे भुगतने पड़ेंगे. इनमें सख़्त प्रतिबंध जैसे क़दम शामिल होंगे, जिनसे रूस को आर्थिक रूप से बहुत झटका लगने की आशंका है. ये आर्थिक प्रतिबंध 2014 के बाद लगी पाबंदियों की तुलना में अधिक सख़्त होंगे और जर्मनी, नॉर्ड स्ट्रीम 2 गैस पाइपलाइन भी रोक सकता है, जो रूस को अरबों डॉलर का झटका देने वाला क़दम होगा. इसके अलावा अमेरिका और नैटो देशों के सैनिक रूस के पास स्थित देशों में तैनात किए जाने की आशंका है. ये ऐसा मुद्दा है, जिससे रूस ने अपनी सुरक्षा संबंधी मांगों की सूची में शामिल करके निपटने की कोशिश की है. अगर बड़े पैमाने पर युद्ध छिड़ता है, तो इसके गंभीर आर्थिक परिणाम होंगे. इसका संकेत हमें हाल ही में देखने को मिल भी चुका है, जब मॉस्को शेयर बाज़ार दो दिन के अंदर छह प्रतिशत तक गिर गया, डॉलर के मुक़ाबले रूबल की क़ीमत दो प्रतिशत घट गई. जबकि उसके बाद डॉलर की तुलना में रूबल की क़ीमत 77 प्रतिशत तक गिर गई, जो पिछले साल की गर्मियों के बाद आई सबसे बड़ी गिरावट है.

रूस बढ़ा रहा है दबाव

यहां जो एक और बात ग़ौर करने लायक़ है, वो ये है कि जब रूस ने अपनी सुरक्षा संबंधी मांगों की सूची तैयार की थी, तो शायद उसे ये अंदाज़ा रहा होगा कि इनमें से ज़्यादातर मांगों को मानना अमेरिका और रूस के लिए लगभग नामुमकिन होगा, क्योंकि ये गठबंधन के बुनियादी सिद्धांतों के ख़िलाफ़ हैं और अमेरिका इस गठबंधन में किसी भी क़ीमत पर बदलाव नहीं करना चाहेगा. इसके अलावा, जैसा कि सैमुअल शरप लिखते हैं कि रूस के सख़्त ऐतराज़ के बीच यूक्रेन और यहां तक कि जॉर्जिया के नैटो का सदस्य बनने की अटकलें तो 2008 से ही लगाई जा रही हैं, जबकि दोनों ही देशों को ‘मेंबरशिप एक्शन प्लान’ (MAPs) का हिस्सा बनाने से इंकार कर दिया गया था. हालांकि, इन दोनों ही देशों को नैटो का सदस्य बनाने के लिए कोई ठोस क़दम नहीं उठाया गया, जिसके पीछे रूस के दबाव के आगे झुकने के अलावा कोई और वजह नहीं दिखती है. यूक्रेन के नैटो का सदस्य बनने को लेकर पश्चिमी देशों और रूस के बीच चल रही इस रस्साकशी से ये हक़ीक़त नहीं बदल सकती कि यूक्रेन को अपना सदस्य बनाने की फिलहाल नैटो की कोई योजना नहीं दिख रही है.

हमें रूस को इस बात का श्रेय देना चाहिए कि अमेरिका ने पहले ही साफ़ कर दिया है कि वो रूस के पास के देशों में मिसाइलों की तैनाती के मसले पर बातचीत के लिए तैयार है. अगर रूस दबाव बनाने में कामयाब रहता है, जैसा कि इस वक़्त दिख भी रहा है, तो इससे वो अमेरिका और नैटो देशों पर अपनी मांगों के बारे में जवाब देने की समय सीमा भी तय करा सकेगा,

इसलिए, तल्ख़ बयानबाज़ी और दबाव बनाकर रूस का मक़सद शायद पश्चिमी देशों को यूक्रेन की नैटो सदस्यता के अलावा अन्य मुद्दों पर बातचीत के लिए तैयार करना हो सकता है. जैसे कि रूस के नज़दीकी इलाक़ों में ख़तरा बनने वाली नैटो देशों की मिसाइलों और सेनाओं की तैनाती, नैटो की सेनाओं की 1997 के पहले जैसी तैनाती और इसके अलावा यूक्रेन के सैन्य ढांचे का आधुनिकीकरण जैसे मुद्दे, जिन्हें रूस अपनी सुरक्षा के लिए ख़तरा मानता है.

हमें रूस को इस बात का श्रेय देना चाहिए कि अमेरिका ने पहले ही साफ़ कर दिया है कि वो रूस के पास के देशों में मिसाइलों की तैनाती के मसले पर बातचीत के लिए तैयार है. अगर रूस दबाव बनाने में कामयाब रहता है, जैसा कि इस वक़्त दिख भी रहा है, तो इससे वो अमेरिका और नैटो देशों पर अपनी मांगों के बारे में जवाब देने की समय सीमा भी तय करा सकेगा, बल्कि अमेरिका के क़दमों के जवाब में लैटिन अमेरिका में अपने सैन्य बल तैनात करने के इरादे जताकर रूस, पश्चिमी देशों से ऐसी कई सामरिक रियायतें हासिल कर सकता है, जो उसकी सुरक्षा के दूरगामी हितों के अनुकूल हों. हालांकि, पश्चिमी देश रूस को किस तरह की रियायतें देंगे और क्या इससे रूस संतुष्ट हो जाएगा, इसका अंदाज़ा तभी लगाया जा सकता है, जब बातचीत में किसी तरह की प्रगति हो. हम ये तो मानकर चल सकते हैं कि अमेरिका और नैटो रूस या किसी अन्य देश को अपनी नीतियां तय करने का दबाव बनाने की इजाज़त नहीं देंगे. लेकिन इस वक़्त जिस क़दर तनाव का माहौल है, उसमें पश्चिमी देश रूस को इस बात की गारंटी दे सकते हैं कि आने वाले समय में वो यूक्रेन को नैटो का सदस्य बनाने पर विचार नहीं कर रहे हैं. इससे तनाव को काफ़ी हद तक कम किया जा सकेगा.

असल में क्या होगा, इसकी भविष्यवाणी तो एक से एक तजुर्बेकार विशेषज्ञ भी करने की स्थिति में नहीं हैं. लेकिन, ये बात तो बिल्कुल साफ़ है कि रूस अपनी सुरक्षा से जुड़े समझौते के लिए अंतहीन समय तक इंतज़ार करने को राज़ी नही है.

ओआरएफ हिन्दी के साथ अब आप FacebookTwitter के माध्यम से भी जुड़ सकते हैं. नए अपडेट के लिए ट्विटर और फेसबुक पर हमें फॉलो करें और हमारे YouTube चैनल को सब्सक्राइब करना न भूलें. हमारी आधिकारिक मेल आईडी [email protected] के माध्यम से आप संपर्क कर सकते हैं.


The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.