Published on Oct 28, 2020 Updated 0 Hours ago

अभूतपूर्व तकनीकी बदलाव के इस दौर में दुनिया की दो महत्वपूर्ण शक्तियों के बीच भू-राजनीतिक प्रतिस्पर्धा अभी और बढ़ेगी. भारत समेत दूसरे देश इसके नतीजों के बारे में अच्छी तरह जानते हैं और वो इस तकनीकी भू-राजनीति की चुनौतियों से पार पाने की तैयारियों में जुट गए हैं.

5G नेटवर्क से जुड़े प्रश्न और भारत की विफलता

वायरलेस तकनीक की सबसे ताज़ा पीढ़ी 5G नेटवर्क को डिजिटल क्रांति की अगली सीमा के तौर पर बताया जाता है. लेकिन ये तकनीक उस वक़्त आई है जब चीन और अमेरिका के बीच भू-राजनीतिक और तकनीकी प्रतिद्वंदिता छिड़ी हुई है. चीन की टेलीकॉम कंपनी हुवावे का बाज़ार में वर्चस्व है और वो इस नई तकनीक की सबसे बड़ी सप्लायर और उत्पादक बन गई है. लेकिन चीन की सरकार के साथ उसके नज़दीकी संबंध, अस्पष्ट मालिकाना स्वरूप और क़ानूनी उल्लंघन के पुराने आरोपों ने इन चिंताओं को बढ़ा दिया है कि उसके उपकरण जासूसी और निगरानी के लिए इस्तेमाल किए जा सकते हैं.

चीन ने ये संकेत भी दिया है कि अगर चीन की कंपनियों पर पाबंदी लगाई जाती है तो वो ‘जवाबी आर्थिक प्रतिबंध’ का इस्तेमाल कर सकता है. इस पृष्ठभूमि में 5G तकनीक, उपकरण और सॉफ्टवेयर के लिए भारत का फ़ैसला महत्वपूर्ण है.

अमेरिका ने हुवावे पर पाबंदी लगाने के लिए कई क़दम उठाए हैं और वो अपने सहयोगियों को भी इसके लिए राज़ी कर रहा है. चीन ने अपनी टेलीकॉम कंपनी को रोकने वाले देशों की आलोचना की है. उसने इस क़दम को तकनीकी मुद्दे के राजनीतिकरण की शर्मनाक कोशिश बताया है. चीन ने ये संकेत भी दिया है कि अगर चीन की कंपनियों पर पाबंदी लगाई जाती है तो वो ‘जवाबी आर्थिक प्रतिबंध’ का इस्तेमाल कर सकता है. इस पृष्ठभूमि में 5G तकनीक, उपकरण और सॉफ्टवेयर के लिए भारत का फ़ैसला महत्वपूर्ण है.

तकनीकी, आर्थिक और सामरिक कारणों का जटिल सांचा इस फ़ैसले को प्रभावित करेगा. साइबर सुरक्षा जोखिम और निगरानी की चिंताएं भारत के लिए बड़े मुद्दे हैं क्योंकि भारत सरकार ने अभी तक निजता और डाटा की रक्षा के लिए मज़बूत क़ानूनी और संस्थागत प्रक्रिया को नहीं अपनाया है. “गुप्त द्वार” की संभावित स्थापना, जिसके ज़रिए चीन संचार पर निगरानी रख सकता है, का प्रदर्शन 2013 के एडवर्ड स्नोडन लीक मामले में सिस्को (अमेरिकी कंपनी) के राउटर के बारे में हुआ था. अमेरिका और चीन के बीच व्यापार और तकनीकी युद्ध को लेकर सामरिक चिंताए हैं. दोनों देशों के बीच तनाव बढ़ गया है जिसकी वजह से ग्लोबल साइबर स्पेस और तकनीक अलग-अलग प्रभाव के इलाक़ों में बंट रही है. भारत को अपने सामरिक हितों के आधार पर तय करना होगा कि उसे किस खेमे के साथ जुड़ना चाहिए. उपकरणों की लागत आर्थिक सोच-विचार का अंतिम पहलू है जो विकासशील देशों को विकसित करने में एक महत्वपूर्ण कारण है क्योंकि उनके पास महंगे 5G उपकरणों पर खर्च करने के लिए सीमित पैसे हैं.

भारत में 5G में बड़े सामाजिक बदलाव लाने और बुनियादी ढांचा, विकास और ई-गवर्नेंस में सरकार की प्रमुख योजनाओं का समर्थन करने की क्षमता है. भारत सरकार के प्रमुख मंत्रालयों और विभागों ने भारत में 5G लाने के लिए ठोस रास्ता बनाने में मदद करने के इरादे से नीतिगत दस्तावेज़ों और रिपोर्ट पर काम किया है. सरकार ने 5G के परीक्षण में चीन की कंपनियों की भागीदारी को इजाज़त देने के सवाल पर भी विचार-विमर्श किया है. भारत के टेलीकॉम मंत्री रविशंकर प्रसाद ने दिसंबर 2019 के आख़िर में एलान किया कि हुवावे समेत सभी आवेदकों को इजाज़त दी जाएगी.

लेकिन हुवावे को भारत का 5G नेटवर्क बनाने के लिए इजाज़त देने पर आख़िरी फ़ैसला अभी भी नहीं हुआ है. हुवावे पर भारत का रुख़ शुरुआत में सरकार के मंत्रालयों और एजेंसियों के भीतर असहमति से बदलकर सतर्कता भरा हो गया है. 5G परीक्षण में चीन की कंपनियों की हिस्सेदारी को लेकर प्रमुख वैज्ञानिक सलाहकार (PSA) की अध्यक्षता वाली एक समिति के सदस्यों की अलग-अलग राय थी. मामल्लापुरम शिखर सम्मेलन के बाद दोस्ती की नीति की शुरुआत के तहत विदेश मंत्रालय हुवावे को इजाज़त देने के पक्ष में था. लेकिन कोविड-19 ने वायरस को छिपाने और इसके ज़रिए आर्थिक ताक़त के दम पर दुनिया में स्थिति को बेहतर करने के बड़े मक़सद को लेकर चीन पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं. भारत की उत्तर-पश्चिमी सीमा पर जून 2020 में गलवान घाटी में संघर्ष की वजह से दोनों देशों के संबंध बिगड़ गए हैं. भारत सरकार का बदला हुआ रुख़ इस बात से झलकता है कि वो अब इस मुद्दे को सुरक्षा के चश्मे से देख रही है: गृह मंत्रालय के तहत एक नई समिति अब इस सवाल की जांच-पड़ताल करेगी.

इस फ़ैसले में भारत के टेलीकॉम सर्विस प्रोवाइडर और टेलीकॉम कंपनियों की नुमाइंदगी करने वाली उद्योग संस्था महत्वपूर्ण भागीदार हैं. भारत के बड़े मोबाइल ऑपरेटर (रिलायंस जियो, भारती एयरटेल और वोडाफ़ोन आइडिया) की राय भविष्य की किसी भी 5G नीति को लेकर सरकार के फ़ैसले को महत्वपूर्ण ढंग से प्रभावित कर सकती है. 5G सप्लायर चुनने में मौजूदा साझेदारी और आर्थिक औचित्य- जैसे कम लागत और बेहतर तकनीक- भारतीय मोबाइल ऑपरेटर के लिए महत्वपूर्ण वजह हो सकते हैं. वर्तमान में, भारत के टेलीकॉम सर्विस प्रोवाइडर भारी वित्तीय संकट से गुज़र रहे हैं क्योंकि उनके ऊपर काफ़ी कर्ज है, निवेश के लिए पैसे नहीं हैं और आमदनी कम है. इन वजहों से नई तकनीक में निवेश करने की उनकी क्षमता पर बुरा असर पड़ा है. टेलीकॉम उद्योग फ़ैसला करने से पहले चाहता है कि सरकार 5G के सवाल पर निर्णायक रुख़ अपनाए ताकि आगे फ़ैसलों पर असर ना पड़े.

भारत समेत सभी देशों के लिए बार-बार चिंता की बात है सुरक्षा से जुड़ी कमज़ोरी और जोखिम. सुरक्षा चिंताओं को ख़त्म करने का एक तरीक़ा देश में 5G तकनीक के विकास को बढ़ावा देना है. ये एक महत्वपूर्ण क़दम होगा क्योंकि भारत 90 प्रतिशत टेलीकॉम उपकरणों का आयात करता है. सरकार ने 224 करोड़ रु. (31.5 मिलियन डॉलर) की बजट मंज़ूरी के साथ देसी 5G टेस्ट बेड विकसित करने के लिए तीन वर्षीय कार्यक्रम को शुरू किया है. हाल में जियो की तरफ़ से ये घोषणा कि उसने एक संपूर्ण 5G सॉल्यूशन को डिज़ाइन और विकसित किया है, गेम चेंजर साबित हो सकता है बशर्ते ये वैश्विक मानक के मुताबिक़ काम करे.

भारत समेत सभी देशों के लिए बार-बार चिंता की बात है सुरक्षा से जुड़ी कमज़ोरी और जोखिम. सुरक्षा चिंताओं को ख़त्म करने का एक तरीक़ा देश में 5G तकनीक के विकास को बढ़ावा देना है. ये एक महत्वपूर्ण क़दम होगा क्योंकि भारत 90 प्रतिशत टेलीकॉम उपकरणों का आयात करता है.

तब भी देसी तकनीक को विकसित करने पर ज़ोर देना कुछ-कुछ हैरान करने वाला है. आसान शब्दों में कहें तो भारत तकनीकी डिज़ाइन, डेवलपमेंट या दूरसंचार उपकरणों के निर्माण के मामले में बड़ा देश नहीं है. भारत में अभी तक मौलिक और वैश्विक तौर पर प्रतिस्पर्धी उद्योग स्थापित नहीं हो पाया है जिसे सरकारी और निजी क्षेत्र का समर्थन मिलता हो और रिसर्च के लिए यूनिवर्सिटी के साथ जिसका समझौता हो. इस बात की आशंका है कि भारत और दुनिया के दूसरे देशों को लंबे समय तक आर्थिक कठिनाई के दौर से गुज़रना पड़े. ऐसे में ये साफ़ नहीं है कि सरकार देसी 5G उद्योग बनाने के लिए वित्तीय प्रोत्साहन और समर्थन देने में सक्षम हो सकेगी.

5G पहेली तेज़ी से अमेरिका और चीन के बीच तकनीकी शीत युद्ध में बदल गई है. इसकी वजह से दोनों बड़ी शक्तियों की शत्रुता बढ़ गई है और दोनों देश उम्मीद के मुताबिक़ आर्थिक और तकनीकी तौर पर अलग-अलग हो गए हैं. कुछ लोग अमेरिका की मोर्चाबंदी को डर पैदा करने वाला, संरक्षणवादी और प्रेरित बता सकते हैं जो तकनीकी नेतृत्व के कथित नुक़सान की वजह से है. लेकिन आलोचक ये दलील देते हैं कि टेलीकॉम नेटवर्क में हुवावे की एंट्री राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए ख़तरा पैदा कर सकती है और महत्वपूर्ण बुनियादी ढांचे को चीन की जासूसी और साइबर हमले के जोखिम के हवाले कर देगी.

भारत के लिए सिर्फ़ दो परिदृश्य हो सकते हैं: एक वो जहां भारत 5G नेटवर्क के लिए सप्लाई करने की इजाज़त हुवावे को देता है और दूसरा वो जहां भारत हुवावे और चीन की दूसरी कंपनियों पर पाबंदी लगाता है. पहले परिदृश्य का भारत के चीन के अलावा अमेरिका के साथ द्विपक्षीय संबंधों पर बड़ा असर होगा. भारत और चीन के बीच रूखे संबंधों को देखते हुए ये फ़ैसला भारत की राजनीति के साथ-साथ भारत के सहयोगियों के लिए भी हैरान करने वाला होगा. लेकिन अमेरिका के साथ भारत के स्थापित रक्षा और सुरक्षा सहयोग को इससे ज़ोरदार झटका लगेगा. साथ ही निगरानी का जोखिम बरकरार रहेगा. दूसरी तरफ़ हुवावे को ठुकराकर अमेरिका के आह्वान में शामिल होना भारत के लिए स्वाभाविक पसंद होगा क्योंकि अमेरिका के साथ भारत के द्विपक्षीय संबंधों में मज़बूती आ रही है. लेकिन ऐसा करने से भारत-चीन संबंध और बिगड़ेंगे, भारत अपने पड़ोस में और भी अलग-थलग पड़ जाएगा.

भारत के लिए सिर्फ़ दो परिदृश्य हो सकते हैं: एक वो जहां भारत 5G नेटवर्क के लिए सप्लाई करने की इजाज़त हुवावे को देता है और दूसरा वो जहां भारत हुवावे और चीन की दूसरी कंपनियों पर पाबंदी लगाता है. पहले परिदृश्य का भारत के चीन के अलावा अमेरिका के साथ द्विपक्षीय संबंधों पर बड़ा असर होगा.

लेकिन भारत के लिए सिर्फ़ यही विचार नहीं हैं; उसे चाहिए कि वो अपना फ़ैसला और नीतिगत रूपरेखा स्वतंत्र रूप से बनाए और इस तकनीक को लगाने के लिए सुरक्षित, भरोसेमंद और किफ़ायती सप्लायर को चुने. ये देखते हुए कि देसी तकनीक विकसित करना एक लंबा रास्ता है, ऐसे में भारतीय उद्योग के लिए सप्लायर को चुनने में इस समय उपकरण की लागत और आर्थिक व्यावहारिकता शायद सबसे बड़े कारण हैं.

भारत को फ़ैसला लेते वक़्त उन चुनौतियों की जानकारी होनी चाहिए जिनका सामना वो ऐसी नीति बनाने में कर रहा है जो इस चर्चा के आर्थिक और सुरक्षा पहलुओं का जवाब दे सकें. अभूतपूर्व तकनीकी बदलाव के इस दौर में दुनिया की दो महत्वपूर्ण शक्तियों के बीच भू-राजनीतिक प्रतिस्पर्धा अभी और बढ़ेगी. भारत समेत दूसरे देश इसके नतीजों के बारे में अच्छी तरह जानते हैं और वो इस तकनीकी भू-राजनीति की चुनौतियों से पार पाने की तैयारियों में जुट गए हैं.


यह लेख हर्ष वी. पंत और आरशी तिर्की, “ 5 जी क्वेश्चन एंड इंडियाज कानेड्रम, ओर्बिस, वॉल्यूम. 64 नंबर 4 (2020), पृष्ठ संख्या 571-588 से एक उद्धरण के रूप में लिया गया है.

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