Author : Akshay Mathur

Published on Aug 02, 2021 Updated 0 Hours ago

एक नई दीर्घकालीन चिंता इस बात को लेकर है कि कोरोना महामारी से दुनिया भर के गरीबों को भारी नुकसान उठाना पड़ा है और इसके गंभीर नतीजे हुए हैं. 

G-20 के देशों की वित्तीय बहुपक्षीयता को लेकर किये गए वादे और उससे जुड़ी चिंताएं

हाल ही में G-20 सदस्य देशों के वित्तीय मंत्रियों की बैठक आयोजित की गई थी जो इस बात का सबूत है कि वित्तीय बहुपक्षीयता को लेकर G-20 की भूमिका कितनी अहम है. बीते वर्ष के दौरान ही -20 ने अंतर्राष्ट्रीय कर व्यवस्था को लेकर एक डील सुनिश्चित की थी – 650 बिलियन अमेरिकी डॉलर के बराबर स्पेशल ड्राइंग राइट्स, जिसके बाद कोरोना से प्रभावित निम्न आय वाले देशों के ऋण राहत कार्यक्रम को शुरू किया गया. यह कार्यक्रम G-20 द्वारा एक दशक पहले ट्रांस अटलांटिक वित्तीय संकट के दौरान उठाए गए कदमों की याद दिलाता है. 

ऐसे में सवाल उठता है कि क्या वास्तव में कार्यक्रम से जुड़े लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकेगा?

एक नये वैश्विक कर ढांचे  को लेकर शुरुआत

साल 2013 में जब G 20 ने पहली बार कर अधिनियम को लेकर ओईसीडी (ऑर्गेनाइजेशन फॉर इकोनॉमिक कोऑपरेशन एंड डेवलपमेंट) के ढांचे की प्रशंसा की थी तभी से वैश्विक कर ढांचे को विकसित करने को लेकर सहमति की कोशिशें होने लगी थीं – जिसमें बेस इरोजन और प्रॉफिट शिफ्टिंग (बीईपीएस) के अलावा 15 सिद्धांत शामिल थे – और ओईसीडी को यह ज़िम्मेदारी दी गई कि वो अपने सदस्य देशों के बाहर इसे लेकर सहमति बनाए. मौजूदा समय में इस पहल के साथ 139 देश जुड़े हुए हैं.

इनमें से एक सिद्धांत तो इस बात को लेकर था कि अर्थव्यवस्था के डिजिटिलाइजेशन होने से कर को लेकर पैदा होने वाली चुनौतियों से निपटने की तैयारी कैसे की जाए. 2 जुलाई 2021 को ओईसीडी ने गर्व से इस बात की घोषणा कर दी कि 139 में से 132 देशों ने वैश्विक डील पर हस्ताक्षर कर दिये हैं. इस ढांचे में दो चीजें मुख्य रूप से शामिल है: पहला, कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लाभ से कर या टैक्स कैसे लिया जाएगा, जबकि ऐसी कंपनियां कई देशों में आय पैदा करती हैं. दूसरा, 15 फ़ीसदी का एक न्यूनतम वैश्विक कॉरपोरेट टैक्स जो बहुराष्ट्रीय कंपनियों को न्यूनतम कर अधिकारों के तहत अपने कारोबार का रजिस्ट्रेशन कराने से रोकते हों.

बहुराष्ट्रीय कंपनियां जो अक्सर कर की ज़िम्मेदारी से बचने के लिए कर ठिकानों और ‘संधि खरीदारी’  का इस्तेमाल करती हैं उनसे टैक्स प्राप्त करने के लिए भारत लगातार कोशिश कर रहा है. तमाम सरकारें इसका अभिवादन कर रही हैं क्योंकि इस ढांचे के तहत जहां कहीं भी बहुराष्ट्रीय कंपनियां पैसा कमा रही हैं वहां उन्हें टैक्स देने की अनिवार्यता होगी.

स्पष्ट रूप से बहुराष्ट्रीय वित्तीय केंद्र और न्यूनतम टैक्स अधिकारों को लेकर सहमति बनाना सबसे ज़्यादा कठिन था. उदाहरण के तौर पर आयरलैंड – जो कॉरपोरेट्स को न्यूनतम कर से होने वाले फायदों की ओर आकर्षित करता है – इसका अभी तक सदस्य नहीं बना है.  लेकिन चीन, भारत, ब्राजील, तुर्की, इंडोनेशिया और मेक्सिको जैसे उभरते बाज़ार इस बात की याद दिलाने के लिये काफ़ी हैं कि वैश्विक शासन से क्या पाया जा सकता है. आज 132 देश एक साथ वैश्विक जीडीपी में 90 फ़ीसदी हिस्सेदारी रखते हैं जो काफ़ी महत्वपूर्ण है.

बहुराष्ट्रीय कंपनियां जो अक्सर कर की ज़िम्मेदारी से बचने के लिए कर ठिकानों और ‘संधि खरीदारी’  का इस्तेमाल करती हैं उनसे टैक्स प्राप्त करने के लिए भारत लगातार कोशिश कर रहा है. तमाम सरकारें इसका अभिवादन कर रही हैं क्योंकि इस ढांचे के तहत जहां कहीं भी बहुराष्ट्रीय कंपनियां पैसा कमा रही हैं वहां उन्हें टैक्स देने की अनिवार्यता होगी. हालांकि, भारत को कर के रूप में कितना अतिरिक्त आय प्राप्त होगा यह इस फॉर्मूला पर निर्भर करेगा जो इस समझौते को रेखांकित करता है. उदाहरण के तौर पर नए वैश्विक कर ढांचे के प्रभाव में आने के बाद भारत को 2 फ़ीसदी लेवी छोड़ना पड़ सकता है जो भारत डिजिटल बहुराष्ट्रीय कंपनियों के ई-कॉमर्स ट्रांजेक्शन पर उगाही किया करता था. इससे भारत को कर से होने वाली कुल आय में घाटा हो सकता है.

कई विकासशील देशों ने 15 फ़ीसदी की सीमा को चुनौती दी है क्योंकि अस्तित्व में जो दर हैं वो कहीं इससे ज़्यादा और 20-25 फ़ीसदी के बीच हैं. इसके साथ ही वो बहुराष्ट्रीय कंपनियां जिनकी सालाना आय 20 बिलियन यूरो से ज़्यादा है और जिनका मुनाफ़ा उनके टर्नओवर का 10 फ़ीसदी से ज़्यादा है केवल वो कंपनियां ही 20 फ़ीसदी प्रॉफिट शेयरिंग के लिए सक्षम हैं. इससे बहुत कम ही डिज़िटल फर्म होंगे जिनपर भारत सरकार कर लगा सकेगी. अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक में विकासशील देशों के वित्तीय और विकास संबंधी मामलों पर  आवाज़ बुलंद करने वाले G 24 – जो कि एक अंतर सरकार समूह है – ने भी कर की निचली सीमा और मुनाफ़े का 30 से 50 फ़ीसदी उच्चतम कर की सीमा तय करने की अपील की थी . 

इसी तरह की सीमा लेकिन पर्यावरण बदलाव के लिए जून 2020 में अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष में अंतर्राष्ट्रीय कार्बन मूल्य के लिए लाया गया था. इस प्रस्ताव में भारत के लिए कार्बन फ्लोर प्राइस 25 अमेरिकी डॉलर, चीन के लिए 50 अमेरिकी डॉलर, यूरोपियन यूनियन समेत अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा के लिए 75 अमेरिकी डॉलर, करने की सिफ़ारिश की गई है. भारत सरकार ने कहा है कि सभी प्रस्तावों पर पेरिस समझौते के ढांचे के तहत चर्चा होनी चाहिए. यह साझा लेकिन अलग-अलग ज़िम्मेदारी, संबंधित क्षमता, स्वतंत्र प्रतिबद्धता और तकनीक हस्तांतरण के प्रति सहमति की ओर इशारा करता है. लेकिन अगर इस प्रस्ताव पर चर्चा ज़ोर पकड़ती है जैसा कि कर पर वैश्विक समझौते को लेकर हुआ है, तो भारत को अपने हितों की सुरक्षा के लिए अपनी आवाज़ बुलंद करनी होगी.

भारत ने हमेशा से डीएसएसआई और सामान्य ढांचे को लेकर सहयोगात्मक रवैया रखा. बतौर G-20 फ्रेमवर्क वर्किंग ग्रुप के उपाध्यक्ष – जो समूह वैश्विक मैक्रो अर्थव्यवस्था से जुड़े मामलों के लिए ज़िम्मेदार है – भारत की आवाज़ को इसके प्रोजेक्ट डिज़ाइन और अमलीकरण के लिए जाना जाने लगा.

ऋण सेवा निलंबन को लेकर पहल

महामारी के चलते ऋण में राहत देने को लेकर भी G-20 ने आश्चर्यजनक तौर पर अपना रूख मोड़ा है. आईएमएफ और विश्व बैंक द्वारा देखभाल किए जाने वाले ऋण सेवा निलंबन को लेकर पहल (डीएसएसआई) ने भी इसी तरह की वैश्विक सहमति जगाई. इस कदम की अहमियत ये थी कि इसने पेरिस क्लब (मुख्य तौर पर अमीर पश्चिमी देश) और गैर पेरिस क्लब के सदस्यों जैसे कि चीन, भारत, सऊदी अरब और तुर्की को कर्ज़ भुगतान को लेकर अस्थायी राहत दे दी. विश्व बैंक के साल 2021 के अंतर्राष्ट्रीय कर्ज़ के आंकड़ों के मुताबिक निम्न आय वाले मुल्क जो डीएसएसआई के लिए उपयुक्त थे उनका साल 2019 का कुल बाहरी कर्ज़ 744 बिलियन अमेरिकी डॉलर था. 1 मई 2020 को शुरू किए गए इस कार्यक्रम के तहत 73 मुल्क जो इसके लिए उपयुक्त थे और जिन्हें द्वीपक्षीय कर्ज़दारों को भुगतान करने में राहत चाहिए थी. G20 देशों का अकेले ही 90 फ़ीसदी कर्ज़ बाकी था तो डीएसएसआई के लिए उपयुक्त मुल्कों का चीन पर अकेले 60 फ़ीसदी कर्ज़ का हिस्सा था. डेविड मेहाली और स्कॉट मॉरिश के आंकड़ों के मुताबिक साल 2019 तक चीन के कर्ज़ के भुगतान की राशि उसके द्वारा दिए गए कर्ज़ के आंकड़ों को पार कर जाएगा. इसका मतलब यह हुआ कि डीएसएसआई में चीन की हिस्सेदारी बेहद अहम होगी. 

डीएसएसआई में ब्याज दर ज़्यादा होने की वजह से इसे लेने वाले कम हैं. हालांकि, मार्च 2021 तक इस कर्ज़ के लिए उपयुक्त 40 मुल्कों को राहत पहुंचाने के लिए 5 बिलियन अमेरिकी डॉलर का कर्ज़ स्वीकृत किया गया.जबकि 2020 -21 के लिए आईएमएफ का अनुमान वैश्विक अर्थव्यवस्था में 12 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर के नुकसान का अनुमान था. ब्रसेल्स में मौजूद बेरी, गार्सिया हेरेरो और विल ऑफ़ ब्रूगेल जैसे थिंक-टैंक ने बताया है कि कैसे विकासशील देश यहां से कर्ज़ के लिए आवेदन करने में आना-कानी करते रहे. इसकी वजह यह है कि इन मुल्कों को इस बात का डर सताने लगा कि जब उनके सार्वजनिक वित्त के बारे में खुलासा होगा तो रेटिंग एजेंसियां उनकी रेटिंग कम कर देंगी. इन एजेंसियों ने यह भी बताया कि चीन जैसे देश डीएसएसआई में सक्रिय भूमिका निभाएं. इसके साथ ही निजी कर्ज़दारों के ऋण को पिछले दशक में 5 बार बढ़ाकर 102 बिलियिन अमेरिकी डॉलर किया गया जिसे लेकर वैश्विक सहमति भी नहीं थी.

आईएमएफ की एसडीआर का आवंटन दरअसल अमीर मुल्कों की भूमिका बतौर कर्ज़दाता बढ़ाने लगा है. हालांकि, भारत हमेशा से अतिरिक्त एसडीआर आवंटन के ख़िलाफ़ रहा है. 

 भारत ने हमेशा से डीएसएसआई और सामान्य ढांचे को लेकर सहयोगात्मक रवैया रखा. बतौर G-20 फ्रेमवर्क वर्किंग ग्रुप के उपाध्यक्ष – जो समूह वैश्विक मैक्रो अर्थव्यवस्था से जुड़े मामलों के लिए ज़िम्मेदार है – भारत की आवाज़ को इसके प्रोजेक्ट डिज़ाइन और अमलीकरण के लिए जाना जाने लगा. अगर डीएसएसआई नाकाम रहता है तो यह अतिमहत्वाकांक्षी G-20 कॉमन फ्रेमवर्क फॉर डेब्ट ट्रीटमेंट्स के लक्ष्य में बाधा पहुंचाती है. यह ऐसी ज़िम्मेदारी है जो साल 2023 में जब भारत G-20 की अध्यक्षता करता तो उसके सामने आती.

वैश्विक अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए स्पेशल ड्राइंग राइट्स

कर और ऋण में छूट के अलावा, G-20 ख़ासतौर पर आईएमएफ के नेतृत्व से भी खुश है. जिसके तहत इसके सदस्य देशों से स्पेशल ड्राइंग राइट्स के लिए सहमति बनाना था. इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ कि एसडीआर का आंकड़ा 650 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुंच गया. यह घोषणा आईएमएफ के मैनेजिंग डायरेक्टर क्रिस्टीना जार्जीवा ने 10 जुलाई 2021 को की थी जब G-20 के वित्त और केंद्रीय बैंक गर्वनरों की बैठक ख़त्म हुई.

एसडीआर एक तरह का अंतर्राष्ट्रीय संपत्ति कोष है जिसका प्रबंधन आईएमएफ के हाथों में है. व्यावहारिक उद्येश्यों के लिए एसडीआर का अनुमोदन आईएमएफ द्वारा नए मुद्रा छापने को लेकर बेहतर समझा जा सकता है. इसका मक़सद वैश्विक अर्थव्यवस्था में तरलता लाने की होती है और जिन मुल्कों के पास कोष की कमी होती है उन्हें यह प्रदान करना होता है. आईएमएफ के सदस्य देशों को संस्था के साथ जितनी एसडीआर का कोटा दिया जाता है उतनी ही उन्हें दी जाती है. 

हालांकि, विकासशील देशों को इस बात को लेकर नाराज़गी है कि अमीर देश (जिनका आईएमएफ में ज़्यादा कोटा निश्चित है) स्वाभाविक रूप से ज़्यादा एसडीआर कोटा के हकदार हो जाते हैं. मसलन, अमेरिका को प्रस्तावित 650 बिलियन अमेरिकी डॉलर में से 133 बिलियन अमेरिकी डॉलर का एसडीआर प्राप्त हुआ. कर्ज़ और विकास आंकड़ों को लेकर यूरोपीयन नेटवर्क की एक रिपोर्ट के मुताबिक कुल प्रस्तावित एसडीआर का महज 1 फ़ीसदी, करीब 7 बिलियन अमेरिकी डॉलर, ही निम्न आय देशों के लिए बच पाता है, जबकि ज़रूरत करीब तीन ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की है. इस रिपोर्ट में विशिष्ट अर्थव्यवस्थाओं के लिए यूएस फेडरल रिज़र्व द्वारा 2.7 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर और यूरोपीयन सेंट्रल बैंक द्वारा 2.1 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर को देने के बीच तुलना भी शामिल है. बावजूद इसके अमेरिका और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष इसे बड़ी जीत बताता है. हालांकि, इसे लेकर जो सीमा तय की गई थी उस फैसले को ट्रंप प्रशासन ने उलट दिया. अमेरिकी संसद में 650 बिलियन अमेरिकी डॉलर से ज़्यादा की राशि के अनुमोदन का प्रस्ताव आने वाला था जिसे लेकर बाइडेन प्रशासन ने बेरूख़ी दिखाई.

कम आय वाले मुल्क उन्हें दी गई एसडीआर को हस्तानांतरित कर सकते हैं जैसा कि अमेरिकी ट्रेज़री के साथ एक समझौते के तहत प्रस्तावित किया गया था (वैसे मुल्क जो स्वंय एसडीआर को डॉलर, यूरो या फिर येन में बदलने को सहमत थे उनकी संख्या 32 है) जबकि कुछ अमीर मुल्कों ने अपने कोटे के एसडीआर की पुनरावृत्ति करा ली जिससे कि वो आईएमएफ़ के मौजूदा कोष की कमी को कम करने और ग्रोथ ट्रस्ट जैसे रियायती ऋण का फायदा उठा सकें. महामारी की शुरुआत के साथ ट्रस्ट के करीब 60 फ़ीसदी वित्त की व्यवस्था इसी रूट से की गई.

लेकिन विडंबना इसे लेकर साफ़ है : आईएमएफ की एसडीआर का आवंटन दरअसल अमीर मुल्कों की भूमिका बतौर कर्ज़दाता बढ़ाने लगा है. हालांकि, भारत हमेशा से अतिरिक्त एसडीआर आवंटन के ख़िलाफ़ रहा है. ये अलग बात है कि इसे लेकर कोई आधिकारिक बयान नहीं है लेकिन आईएमएफ कोटा को लेकर भारत का लगातार विरोध करना वैश्विक अर्थव्यवस्था में उसके हिस्से को लेकर भारत की स्थिति को न्यायोचित ठहराता है. 

अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने आर्थिक स्थिरता और सामाजिक अशांति को लेकर भी चिंता जाहिर की है, आईएमएफ के मुताबिक इसकी वजह वैश्विक विकास में ज़बरदस्त विचलन का होना है. जहां 50 फ़ीसदी के करीब विकासशील मुल्क अपने विकास के लक्ष्य से पीछे रहेंगे.

हालांकि केविन गैलाहर और जोस एंटोनियो ओकैंपो जैसे एक्सपर्ट ने इसे ज़्यादा उत्साही प्लान बताया है.उनका सुझाव था कि जिस एसडीआर का इस्तेमाल नहीं हुआ उसे आईएमएफ के रैपिड क्रेडिट फैसिलिटी और रैपिड फाइनेंसिंग इंस्ट्रूमेंट के लिए इस्तेमाल कर लिया जाए. इसके ज़रिए बिना किसी शर्त के ऋण का आवंटन जल्द हो सकेगा. आईएमएफ ने इस बात को लेकर ख़ुद ही सुझाव दिया है कि जिस एसडीआर का इस्तेमाल नहीं हो सका है उसे जलवायु परिवर्तन (रेजिलियेंस एंड ससटेनिबिलिटी ट्रस्ट – स्थिर और टिकाऊ ट्रस्ट) जैसे नए कोष के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है. जिसका इस्तेमाल बाद में ग्रीन प्रोजेक्ट के लिए दीर्घकालीन वित्तीय ज़रूरतों के लिए किया जा सकता है. इसके अलावा कई दूसरी अवधारणाओं पर भी चर्चा की गई जिसमें वर्ल्ड रिकवरी फंड या फिर काउंटरसाइकिल सोवरीन फाइनेंसियल मेकेनिज्म शामिल है. 

आईएमएफ के पास खुद ही कई अच्छे सुझाव हैं. एक आधिकारिक नोट के मुताबिक साल 2022 के आधे तक सभी मुल्कों की 60 फ़ीसदी आबादी को वैक्सीन लगाने के लिए कदम उठाने का प्रस्ताव है. इसमें लगभग 50 बिलियन अमेरिकी डॉलर के ख़र्च का अनुमान है लेकिन इस बीच विश्व की अर्थव्यवस्था फिर गति पकड़ेगी और लगभग   9 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर के फायदे का अनुमान भी है।

एक नई दीर्घकालीन चिंता इस बात को लेकर है कि कोरोना महामारी से दुनिया भर के गरीबों को भारी नुकसान उठाना पड़ा है और इसके गंभीर नतीज़े हुए हैं. अमीरों को वैक्सीन की उपलब्धता, ऑनलाइन शिक्षा, तकनीक, रोजगार, और आर्थिक सुधार प्रोत्साहन के पैकेज आसानी से उपलब्ध होते हैं. जबकि गरीबों को भोजन और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी ज़रूरतों की भी कमी होती है. विश्व बैंक के अनुमान के मुताबिक दुनिया की करीब 124 मिलियन आबादी गरीबों की श्रेणी में चली जाएगी. अकेले दक्षिण एशिया में नए गरीबों की कुल आबादी का करीब 60 फ़ीसदी हिस्सा होगा जिसमें एक बड़ी तादाद भारत में पाए जाएंगे. इसके अलावा अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने आर्थिक स्थिरता और सामाजिक अशांति को लेकर भी चिंता जाहिर की है, आईएमएफ के मुताबिक इसकी वजह वैश्विक विकास में ज़बरदस्त विचलन का होना है. जहां 50 फ़ीसदी के करीब विकासशील मुल्क अपने विकास के लक्ष्य से पीछे रहेंगे.

G-20 के वित्तीय बहुपक्षीयता के वादे को तब तक पूरा नहीं किया जा सकता जब तक इसके फायदे को उन मुल्कों और समुदायों तक नहीं पहुंचाया जाएगा जिन्हें इसकी सबसे ज़्यादा ज़रूरत है. ऐसा नहीं हुआ तो असमान, अनुचित लाभ की चिंता आखिरकार G-20 को उसके मक़सद से अलग दिशा में ले जाएगी.

[1] लेखक इटली में 2021 के G20 के तहत  T20 अंतराष्ट्रीय वित्त टास्कफोर्स के उपाध्यक्ष रहे हैं.

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