Author : Sushant Sareen

Published on Apr 02, 2021 Updated 0 Hours ago

पाकिस्तान के वास्तविक शासक के द्वारा सरगर्मी पैदा करने वाले भाषण और वास्तविक ज़मीनी हालात के बीच मौजूद विशाल खाई को देखते हुए बाजवा ने जो कहा उससे क्या नतीजा निकाला जा सकता है?

पाकिस्तान: जनरल बाजवा का भाषण और देश की सामरिक नीति में 180 डिग्री का बदलाव!

ऊपर से देखने पर तो ये लगता है कि इस्लामाबाद सुरक्षा डायलॉग (आईएसडी) के उद्घाटन सत्र में पाकिस्तान के सेना प्रमुख जनरल क़मर बाजवा का भाषण पाकिस्तान की सामरिक नीति में 180 डिग्री बदलाव का संकेत देता है. भू-राजनीति की जगह भू-अर्थशास्त्र पर ज़ोर तर्कयुक्त होने के साथ-साथ नई तरह की चीज़ है. जनरल बाजवा ने सभी अच्छी चीज़ों का ज़िक्र किया, सभी अच्छी बातें कही. वो मुनासिब लगे और उन्होंने वास्तविकता बयां की, जो कि आमतौर पर पाकिस्तान के जनरल से उम्मीद नहीं की जाती. लेकिन जैसा कि पुरानी कहावत है, अगर ये सही होने जैसा लगता है तो शायद ये सही है. पाकिस्तान के वास्तविक शासक के द्वारा सरगर्मी पैदा करने वाले भाषण और वास्तविक ज़मीनी हालात के बीच मौजूद विशाल खाई को देखते हुए बाजवा ने जो कहा उससे क्या नतीजा निकाला जा सकता है? क्या पाकिस्तान और उसकी सर्वशक्तिमान सेना “अतीत को भुलाकर आगे बढ़ने के लिए” गंभीर है? या फिर पूरा भाषण “पाकिस्तान की छवि को बदलने” और उसे “अमन पसंद मुल्क” के तौर पर दिखाने की शरारती कोशिश से ज़्यादा कुछ नहीं है?

इमरान ख़ान हुकूमत के एक हाई-प्रोफाइल संघीय मंत्री को लगता है कि बाजवा का भाषण मूल रूप से पाकिस्तान की सकारात्मक छवि को पेश करने के लिए है. उनके मुताबिक़ बाजवा के भाषण का लक्ष्य भारत नहीं बल्कि बाक़ी दुनिया है. मंत्री के इस ख़ुलासे को पाकिस्तान सरकार द्वारा तैयार एक दस्तावेज़ वज़न देता है. इस दस्तावेज़ में विस्तार से बताया गया है कि विदेशी लोगों तक अपनी ‘राष्ट्रीय सोच’ को पहुंचाने के लिए पाकिस्तान को क्या तरीक़ा अपनाना चाहिए. बाजवा का भाषण काफ़ी हद तक दस्तावेज़ में दिए गए सामरिक संचार दिशानिर्देश की पुष्टि करता है. अगर वास्तव में भाषण छवि बनाने की कोशिश के अलावा कुछ नहीं है तो साफ़तौर पर भारत के साथ संभावित शांति प्रक्रिया बहुत दूर तक नहीं जाएगी.

इमरान ख़ान हुकूमत के एक हाई-प्रोफाइल संघीय मंत्री को लगता है कि बाजवा का भाषण मूल रूप से पाकिस्तान की सकारात्मक छवि को पेश करने के लिए है. उनके मुताबिक़ बाजवा के भाषण का लक्ष्य भारत नहीं बल्कि बाक़ी दुनिया है

निस्संदेह दोनों देश दुनिया में अपनी छवि चमकाने के लिए कुछ हद तक आगे बढ़ेंगे. ज़ुबानी वार-पलटवार कम करने और एक सकारात्मक माहौल बनाने के लिए कुछ कोशिशें होंगी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस दिशा में आगे बढ़ते हुए पाकिस्तान के प्रधानमंत्री के कोविड-19 से जल्दी ठीक होने की कामना की और पाकिस्तान के राष्ट्रीय दिवस पर वहां की अवाम को बधाई दी. दोनों देशों के अधिकारियों के बीच कुछ बैठकें होंगी जिनमें राजनीतिक स्तर की बैठक भी शामिल हैं. ये मुमकिन है कि आगे बढ़ने के लिए किसी तरह के रास्ते को लेकर भी बातचीत हो यानी मूल रूप से बातचीत को लेकर बातचीत. इन सबके बीच सामान्य ग़ैर-आधिकारिक- ट्रैक-II बैठक होगी, खेल-कूद में दोनों देश शामिल होंगे और सांस्कृतिक आदान-प्रदान इत्यादि भी होंगे. दोनों में से कोई भी पक्ष नहीं चाहेगा कि ख़ुद को अक्खड़ और बातचीत से इनकार करने वाला दिखाकर दूसरे पक्ष को राजनयिक तौर पर बढ़त हासिल करने दे. लेकिन आख़िर में ये जो भी कमज़ोर इमारत खड़ी की जा रही है वो फिर से गिर जाएगी क्योंकि दोनों देश किसी कामयाबी के मक़सद से बातचीत नहीं करेंगे बल्कि बाहरी दबाव से पीछा छुड़ाने के लिए बातचीत करेंगे. ऐसा इसलिए होगा क्योंकि ज़मीनी हालात में कोई बदलाव नहीं आया है. ज़्यादा-से-ज़्यादा इस बात की उम्मीद की जा सकती है कि कोई तौर-तरीक़ा तैयार होगा- संभावित रूप से दोनों देशों की सरकारों के बीच पर्दे के पीछे काम करने वाला- जो हालात को नियंत्रण से बाहर होने से रोकेगा.

दूसरी संभावना ये है कि चीज़ें वाकई बदल रही हैं. हालांकि, इसपर विचार करने के लिए भी हद से बढ़कर विश्वास करना होगा. इस बात का क्या अगर पाकिस्तान की सेना को एहसास हो गया है कि भारत के साथ संघर्ष की क़ीमत को ज़्यादा दिन तक नहीं चुकाया जा सकता? भारत के साथ दुश्मनी की वजह से पाकिस्तान को न सिर्फ़ सीधे तौर पर आर्थिक और दूसरी क़ीमत चुकानी पड़ रही है बल्कि इसकी वजह से मौक़ा भी गंवाना पड़ रहा है जो पाकिस्तान के लिए काफ़ी महंगा साबित हो रहा है. जनरल बाजवा का भाषण ‘कनेक्टिविटी’, ‘क्षेत्रीय अखंडता’, ‘मानव सुरक्षा’ और ‘व्यापार और ट्रांज़िट कॉरिडोर’ जैसे लोकप्रिय शब्दों से भरा था. ये सभी सिद्धांत उस विदेश नीति के लिए ज़रूरी हैं जो भू-अर्थशास्त्र को केंद्र में रखता है. बाजवा ने पाकिस्तान की भू-रणनीतिक स्थिति को “सभ्यताओं के बीच सेतु और क्षेत्रीय अर्थव्यवस्थाओं के बीच जोड़ने वाली पाइपलाइन” के तौर पर बताने की पूरी कोशिश की. उन्होंने “पूर्व और पश्चिम एशिया के बीच संपर्क सुनिश्चित करके दक्षिण और मध्य एशिया की अभी तक इस्तेमाल नहीं की गई संभावना को खोलने” के अवसर के बारे में भी बताया.

ये जो भी कमज़ोर इमारत खड़ी की जा रही है वो फिर से गिर जाएगी क्योंकि दोनों देश किसी कामयाबी के मक़सद से बातचीत नहीं करेंगे बल्कि बाहरी दबाव से पीछा छुड़ाने के लिए बातचीत करेंगे. 

भू-राजनीति के केंद्र में भारत

लेकिन भारत के बिना ये सभी भव्य योजनाएं धरी-की-धरी रह जाएंगी. शायद पाकिस्तान के जनरल को आख़िरकार वास्तविकता का एहसास हो गया है और दुनिया का मानचित्र खोलने पर उन्हें पता चला है कि भारत तक पहुंच के बिना पाकिस्तान एक ऐसा सेतु है जो हवा में लटक रहा है. पश्चिम एशिया को पूर्व एशिया या मध्य एशिया को दक्षिण एशिया से जोड़ना भारत

के बिना मुमकिन नहीं है. भू-अर्थशास्त्र के संदर्भ में पाकिस्तान की भू-रणनीतिक स्थिति का औचित्य भारत के संबंध में ही है क्योंकि भारत 130 करोड़ लोगों का बाज़ार है और ऐसी अर्थव्यवस्था है जिसके इस दशक के अंत तक 5 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की जीडीपी के साथ दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के तौर पर उभरने की उम्मीद है. लेकिन अगस्त 2019 से पाकिस्तान ने भारत के साथ सभी व्यापार और व्यावसायिक संबंध तोड़ रखे हैं. साफ़ तौर पर अगर पाकिस्तान भू-अर्थशास्त्र, संपर्क और व्यापार एवं ट्रांज़िट केंद्र के तौर पर उभरने को लेकर गंभीर है तो उसे इमरान ख़ान की अव्यवहारिक, अस्थिर और नुक़सानदेह भारत नीति की बंद गली से बाहर निकलने की ज़रूरत है.

लेकिन ये कहना आसान है और करना मुश्किल क्योंकि जैसा कि बाजवा ने कहा, “शांतिपूर्ण तरीक़े से कश्मीर विवाद के समाधान के बिना उप-महाद्वीप की मेल-मिलाप की प्रक्रिया के पटरी से उतरने का ख़तरा बरकररार रहेगा.” उन्होंने दावा किया कि पाकिस्तान “शांति प्रक्रिया या सार्थक संवाद की शुरुआत” के लिए तैयार था लेकिन इसके लिए पहले भारत को जम्मू और कश्मीर में “उचित माहौल तैयार” करना होगा. बाजवा ने अपने भाषण में कहा कि पाकिस्तान “तर्क के आधार पर” “सोच-समझकर” पड़ोसियों के साथ “गरिमापूर्ण और शांतिपूर्ण तरीक़े” से सभी बकाया मुद्दों के समाधान के लिए बातचीत की कोशिश कर रहा है. ऐसे में ये माना जा रहा है कि जब वो उचित माहौल की बात करते हैं तो वो न तो संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों की बात कर रहे हैं, न ही अगस्त 2019 में जम्मू-कश्मीर में किए गए संवैधानिक सुधारों को पलटने की बात कर रहे हैं. अपने भाषण में कम-से-कम वो इन दोनों ‘पूर्व शर्तों’ का ज़िक्र नहीं कर रहे हैं. अगर कोई बातचीत इन ‘पूर्व शर्तों’ पर निर्भर है तो वो शुरू होने से पहले ही ख़त्म हो जाएगी.

भारत तक पहुंच के बिना पाकिस्तान एक ऐसा सेतु है जो हवा में लटक रहा है. पश्चिम एशिया को पूर्व एशिया या मध्य एशिया को दक्षिण एशिया से जोड़ना भारत के बिना मुमकिन नहीं है. 

अगर बाजवा और उनकी सेना अतीत को दफ़न करने के लिए तैयार है तो उन्हें इस तथ्य को मानना पड़ेगा कि अगस्त 2019 के बाद जम्मू-कश्मीर में एक नई स्थिति बन गई है. जम्मू-कश्मीर को अतीत में ले जाने का कोई प्रस्ताव नहीं है. ज़्यादा-से-ज़्यादा जम्मू-कश्मीर को राज्य का दर्जा देने की उम्मीद की जा सकती है. लेकिन ऐसा या तो न्यायिक फ़ैसले से हो सकता है या कार्यकारी निर्णय से. अगर कार्यकारी निर्णय से होता है तो आदर्श स्थिति ये होगी कि बातचीत का रास्ता बनाने के लिए प्रोत्साहन के तौर पर जम्मू-कश्मीर को राज्य का दर्जा नहीं दिया जाना चाहिए. इसकी जगह पर ये होना चाहिए कि पाकिस्तान जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद, हथियारों की आपूर्ति और आतंकियों को पैसे देने, आतंकवादियों को प्रशिक्षण देने और दुष्प्रचार में समर्थन देने को रोके.

कश्मीर पर बातचीत मुमकिन, समझौता नहीं

भारत जम्मू-कश्मीर को लेकर पाकिस्तान के साथ निश्चित तौर पर बातचीत के लिए तैयार होगा लेकिन किसी को इस भ्रांति में नहीं रहना चाहिए कि अफ़ग़ानिस्तान या उससे आगे मध्य एशिया तक ज़मीनी पहुंच के लिए या यहां तक कि चीन-पाकिस्तान इकॉनमिक कॉरिडोर (सीपीईसी) का हिस्सा बनने के लिए भारत कभी भी कश्मीर पर लेन-देन के लिए तैयार होगा या जम्मू-कश्मीर पर भारत की संप्रभुता से समझौता करेगा. कम-से-कम ऐसी सोच न सिर्फ़ भारत के बारे में चौंकाने वाली नादानी प्रकट करती है बल्कि बुनियादी अर्थशास्त्र, अंतर्राष्ट्रीय व्यापार और भारतीय नीति बनाने में सामरिक अनिवार्यता और राष्ट्रवादी उत्तेजना के ख़िलाफ़ भी है. लेकिन पाकिस्तान के नीति निर्माता, विश्लेषक और टिप्पणीकार, जो सेना से आदेश लेते हैं, इस बात के लिए बेहद कुख्य़ात हैं कि वो ऐसी दुनिया में जीते हैं जहां वो भारत के बारे में ग़लत समझते हैं, ग़लत मतलब लगाते हैं और ग़लत अनुमान लगाते हैं.

बाजवा और संभवत: पाकिस्तान की सेना का भू-आर्थिक दृष्टिकोण चार खंभों पर आधारित है: देश के भीतर और बाहर मज़बूत और स्थायी शांति; पड़ोसी और क्षेत्रीय देशों के आंतरिक मामलों में किसी भी तरह का हस्तक्षेप नहीं; क्षेत्रीय व्यापार और संपर्क; और क्षेत्र के भीतर निवेश और आर्थिक केंद्र की स्थापना के ज़रिए टिकाऊ विकास और समृद्धि. इस दृष्टिकोण के आख़िरी दो खंभे शुरुआती दो खंभे बनाने पर आधारित है. शुरुआती दो खंभों के बिना आख़िरी दो खंभों का कोई मतलब नहीं है. लेकिन अभी तक ऐसा कोई सबूत नहीं है कि इस क्षेत्र में शांति सुनिश्चित करने के लिए या पूर्व और पश्चिम में अपने दोनों पड़ोसियों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप बंद करने के लिए पाकिस्तान ने कोई सार्थक क़दम उठाया है. ये महत्वपूर्ण है क्योंकि समूचे भू-आर्थिक दृष्टिकोण की उम्मीद सिर्फ़ संयुक्त पैकेज के तौर पर होगी. पाकिस्तान कुछ हिस्सों- संपर्क, क्षेत्रीय अखंडता और व्यापार एवं ट्रांज़िट केंद्र के तौर पर ख़ुद को स्थापित करना- को पसंद करने और दूसरे हिस्सों- भारत के साथ संबंध सामान्य करना या अफ़ग़ानिस्तान में हिंसा को बढ़ावा नहीं देने- को ठुकरा नहीं सकता. इस मायने में अफ़ग़ानिस्तान और भारत- दोनों पाकिस्तान के भविष्य के दृष्टिकोण के लिए महत्वपूर्ण हैं.

बाजवा जो करने की कोशिश कर रहे हैं, अगर ये मान लिया जाए कि बाजवा कुछ करना चाह रहे हैं तो उनके पूर्ववर्ती परवेज़ मुशर्रफ़ ने अपने चार सूत्रीय फॉर्मूला के ज़रिए जो करने की कोशिश की, उससे भी काफ़ी ज़्यादा महत्वाकांक्षी है

लेकिन साफ़ तौर पर जनरल बाजवा ने जो भव्य ‘दृष्टिकोण’ रखा है, उसको लागू करना एक सपना बना रहेगा जब तक कि पाकिस्तान अपने वादे पर अमल नहीं करता. ये आसान नहीं होगा. पाकिस्तान के भीतर न सिर्फ़ अवाम से बल्कि सैन्य अधिकारियों की तरफ़ से भी इसका विरोध होगा. बाजवा जो करने की कोशिश कर रहे हैं, अगर ये मान लिया जाए कि बाजवा कुछ करना चाह रहे हैं तो उनके पूर्ववर्ती परवेज़ मुशर्रफ़ ने अपने चार सूत्रीय फॉर्मूला के ज़रिए जो करने की कोशिश की, उससे भी काफ़ी ज़्यादा महत्वाकांक्षी है. जबतक मुशर्रफ़ के हाथ में सेना की बागडोर थी तब तक हर कोई, जनरल समेत, उनके साथ चलता रहा. लेकिन जैसे ही उन्होंने वर्दी उतारी उनके फॉर्मूले को ठुकरा दिया गया. अगर विरोध बेहद गंभीर होता है तो सेना आसानी से अपने पुराने सामरिक सांचे की तरफ़ लौट जाएगी.

जहां तक भारत की बात है तो वो बातचीत के लिए तैयार है लेकिन वो पाकिस्तान की तरफ़ से उठाए जाने वाले हर क़दम पर बहुत सावधानी और काफ़ी संदेह से नज़र रखेगा. भारत अपनी चौकसी में एक पल के लिए भी कमी नहीं करेगा या पाकिस्तान की तरफ़ से आने वाले लुभावने शब्दों के जाल में नहीं फंसेगा (ऐसी उम्मीद की जाती है). अगर चीज़ें सही दिशा में आगे बढ़ती हैं तो भारत बातचीत को लेकर ख़ुश रहेगा लेकिन अगर पाकिस्तान अपनी पुरानी चाल पर लौटते हुए भारत को धोखा देता है तो भारत को दुनिया के सामने पाकिस्तान के विश्वासघात और बेईमानी का पर्दाफ़ाश करने का एक और मौक़ा मिलेगा.

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