Published on Jun 01, 2022 Updated 0 Hours ago

जिस तरह इस क्षेत्र में तेज़ी से परिस्थितियां बदल रही हैं उसे देखते हुए चीन को दक्षिण एशिया में अपनी चाल पर रणनीतिक तौर से पुनर्विचार करने की आवश्यकता है.

#Indian Ocean region: दक्षिण एशिया और हिंद महासागर क्षेत्र में चीन को मिल रही हैं चुनौतियां

हाल में कई दक्षिण एशियाई देशों में हुई उथल-पुथल ने बीजिंग में ख़तरे की घंटी बजा दी है. ऐसे समय में जब चीन-भारत संबंध में गतिरोध जारी है, तब चीन में दक्षिण एशिया पर नज़र रखने वाले एक्सपर्ट उसे दक्षिण एशिया में जारी घटनाक्रम को लेकर आगाह कर रहे हैं, जिसे लेकर उनका तर्क है कि व्यापक दक्षिण एशिया/हिंद महासागर क्षेत्र (आईओआर) में चीन की मौज़ूदा सोच और नीतियों से और अधिक दरार पैदा होगी जो चीन के लिए तमाम जटिलताओं का कारण बनेगा.

पाकिस्तान

चीन में , पाकिस्तान के नए प्रधानमंत्री के रूप में शाहबाज़ शरीफ़ की नियुक्ति को एक ऐसी वज़ह के रूप में देखा जा रहा है जो कम से कम समय में चीन के हितों के लिए और अधिक अनिश्चितताओं को बढा सकता है. चीन ख़ास तौर पर इमरान खान के सत्ता में बने रहने से खुश रहा – जिसकी सरकार ने संयुक्त राज्य अमेरिका (यूएस) के मुक्त और खुले भारत-प्रशांत (एफओआईपी) का विरोध किया, पाकिस्तान में अमेरिका के सैन्य ठिकानों के अनुरोध को ख़ारिज़ किया, यहां तक कि लोकतंत्र शिखर सम्मेलन में भी भाग लेने से इनकार कर दिया और इस्लामिक देशों के बीच जिनजियांग मामले से निपटने में चीन की मदद करता रहा .इस्लामी दुनिया के भीतर झिंजियांग मुद्दे से निपटना, और तो और रूस-यूक्रेन जंग को लेकर चीन के समान ही अपने रूख़ को बनाए रखा. हालांकि, अब यह चिंता का विषय है कि शरीफ़ सरकार, कम से कम शुरुआती वर्षों में, अमेरिका और भारत के साथ पाकिस्तान के संबंधों को सुधारने को प्राथमिकता दे सकती है.

अगर पाकिस्तान सीपीईसी के निर्माण की सुरक्षा के लिए स्पेशल पुलिस बल का गठन करता है और चीनी श्रमिकों की सुरक्षा का भरोसा देता है, तो इससे दोनों देशों पर आर्थिक बोझ बढ़ेगा बल्कि पाकिस्तान में चीनी समुदाय को यह पूरी तरह अलग थलग कर देगा.

ऐसे समय में जब पाकिस्तान की आर्थिक चुनौतियों ने चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे के सामने गतिरोध पैदा कर दी है – एक ऐसी परियोजना जिसे लेकर चीनी भी काफी अनिश्चित हैं – पाकिस्तान में चीनी परियोजनाओं और वहां काम कर रहे चीन के कर्मचारियों के ख़िलाफ़ आतंकवादी हमलों की बढ़ती संख्या भी एक प्रमुख चिंता का विषय बन चुकी है. 26 अप्रैल को बलूचिस्तान अलगाववादी संगठन द्वारा कराची विश्वविद्यालय में कन्फ्यूशियस संस्थान के चीनी शिक्षकों पर हुए हमले के बाद नवंबर 2018 में चीनी दूतावास पर हमला, 2019 में ग्वादर पोर्ट में होटल पर हमला और अगस्त 2021 में ग्वादर पोर्ट पर चीन के मज़दूरों से भरी बस पर हमले ने चीन में काफी हलचल पैदा की थी. चीनी रणनीतिकारों ने ना केवल पाकिस्तान में सार्वजनिक सुरक्षा के बिगड़ते हालात पर सार्वजनिक रूप से आलोचना की है, बल्कि उनकी चर्चाओं में चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे की सुरक्षा को लेकर चीन के सामने मौज़ूद दुविधा का भी सवाल सामने आया है.

अगर पाकिस्तान सीपीईसी के निर्माण की सुरक्षा के लिए स्पेशल पुलिस बल का गठन करता है और चीनी श्रमिकों की सुरक्षा का भरोसा देता है, तो इससे दोनों देशों पर आर्थिक बोझ बढ़ेगा बल्कि पाकिस्तान में चीनी समुदाय को यह पूरी तरह अलग थलग कर देगा. दूसरी ओर अगर वे स्थानीय आबादी तक पहुंचना चाहते हैं तो इससे निहत्थे चीनी नागरिक अलग-अलग आतंकी संगठनों के लिए आसान लक्ष्य बन सकते हैं, जो दुनिया भर में अपनी हरकतों से सनसनी पैदा करने की फिराक़ में रहते हैं और अपनी मांगों को पूरा करने के लिए पाकिस्तानी सरकार पर दबाव बनाना चाहते हैं. हालांकि इस तरह की घटनाएं पाकिस्तान में निवेश करने वाले चीनी कारोबारियों पर नकारात्मक प्रभाव डालेगी और इससे दोनों देशों के बीच नागरिकों के संबंधों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा, जिससे चीन के सीपीईसी परियोजना की गति रुकेगी.

चीन ने हाल ही में दक्षिण एशिया में स्प्रिंग डिप्लोमेसी की शुरुआत की – जिसके तहत चीन ने पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान के दौरे के साथ ही इस्लामाबाद में ओआईसी विदेश मंत्रियों की बैठक में अपनी मौज़ूदगी दर्ज़ कराई ; जो अफ़ग़ानिस्तान मामले पर अफ़ग़ानिस्तान के पड़ोसी देशों के बीच तीसरी विदेश मंत्रियों के स्तर की बैठक थी

इसको लेकर चीन में तीखी बहस छिड़ी हुई है. कुछ चीनी रणनीतिकारों का मानना है कि पूरी तरह से पाकिस्तानी सरकार पर निर्भर रहने के बजाय चीन को पाकिस्तान में चीनी परियोजनाओं और अपने कर्मचारियों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए नए तरीक़े तलाशने चाहिए, ख़ासकर सीमा पार आतंकवाद विरोधी अभियान चलाकर चीन यह लक्ष्य हासिल कर सकता है. हालांकि इसके विरोध में तर्क यह दिया जाता है कि चीनी सेना किसी भी क़ीमत पर पाकिस्तान में दाख़िल ना हो, क्योंकि ऐसे क़दम से जहां अप्रत्याशित नतीज़े सामने आएंगे वहीं यह चीन-पाकिस्तान संबंधों को और जटिल बना सकता है. इससे बेहतर तो यह होगा कि चीन पाकिस्तान की सेना और पुलिस को आतंकवादी ताक़तों पर लगाम लगाने के लिए सशक्त बनाए और पाकिस्तान के साथ सहयोग बढ़ाने के अलावा भी क्षेत्रीय सहयोग को प्राथमिकता दे.

अफ़ग़ानिस्तान

क्षेत्रीय सहयोग के संदर्भ में चीन ख़ास तौर पर अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिका की वापसी के बाद से ही अफ़ग़ानिस्तान-पाकिस्तान सहयोग को बढावा देने के प्रयास में जुटा है. यहां ध्यान देने की ज़रूरत यह है कि चीनी नीतियों के निर्माण में अफ़ग़ानिस्तान का महत्व गैर-पारंपरिक सुरक्षा और पारंपरिक सुरक्षा दोनों ही दृष्टिकोण से है. चीन के आकलन के मुताबिक, अफ़ग़ानिस्तान सीधे पाकिस्तान की सुरक्षा से संबंधित है और पाकिस्तान का संबंध दक्षिण एशिया में शक्ति संतुलन को लेकर है और दक्षिण एशिया में शक्ति संतुलन सीधे तिब्बत और जिनजियांग की सुरक्षा से संबंधित है .

इसलिए, दो दक्षिण एशियाई पड़ोसियों के बीच एक अटूट आर्थिक और रणनीतिक संबंध बनाना और दोनों के बीच राजनीतिक भरोसा बहाल करने के साथ-साथ सुलह और आपसी नीतियों में समन्वय विकसित करना मौज़ूदा परिस्थितियों में चीन की दक्षिण एशिया रणनीति की सर्वोच्च प्राथमिकता है . चीनी रणनीतिकारों का यह मानना है कि यह तभी मुमकिन हो सकता है जबकि एक ठोस अफ़ग़ानिस्तान-पाकिस्तान सहयोग को बढ़ावा दिया जाए, जिससे चीन इस क्षेत्र में अपने हितों को आगे बढ़ा सके जैसे कि चीन की पश्चिमी सीमा में सुरक्षा बनाए रखना, बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) को आगे बढ़ाना, अलग-अलग चीनी विरोधी ताक़तों जैसे – पूर्वी तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट और अल-क़ायदा पर नकेल कसना, और इस्लामिक देशों में चीन के संबंधों और छवि को सुधारना शामिल हैं. हालांकि इसके उलट वो इस बात को लेकर चिंता जताते हैं कि पाकिस्तान-अफ़ग़ानिस्तान संबंधों के बिगड़ने और भारत और अफ़ग़ानिस्तान के बीच संभावित सहयोग बढ़ने से पाकिस्तान की स्थिति काफी चिंताजनक हो सकती है जिससे उसकी राष्ट्रीय एकता, एक राष्ट्र के रूप में उसके अस्तित्व और इस क्षेत्र में भारत के ख़िलाफ़ एक बैलेंसिंग फ़ोर्स के तौर पर चीन की साख पर बट्टा लगा सकता है.

चीन ने हाल ही में दक्षिण एशिया में स्प्रिंग डिप्लोमेसी की शुरुआत की – जिसके तहत चीन ने पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान के दौरे के साथ ही इस्लामाबाद में ओआईसी विदेश मंत्रियों की बैठक में अपनी मौज़ूदगी दर्ज़ कराई ; जो अफ़ग़ानिस्तान मामले पर अफ़ग़ानिस्तान के पड़ोसी देशों के बीच तीसरी विदेश मंत्रियों के स्तर की बैठक थी; अनहुई प्रांत के तुन्क्सी में अफ़ग़ानिस्तान के पड़ोसी देश और अफ़ग़ानिस्तान के विदेश मंत्रियों के बीच वार्ता – जिसका मुख्य उद्देश्य पाकिस्तान के प्रभाव और नियंत्रण को मज़बूत करना था और जिसके बदले में अफ़ग़ानिस्तान की सत्ता पर काबिज़ तालिबान के ऊपर चीन के प्रभाव और नियंत्रण को साधना था.

हालांकि, पाकिस्तान-अफ़ग़ानिस्तान संबंधों को लेकर हाल के घटनाक्रम को देखते हुए चीन के हितों के लिए इसे पर्याप्त नहीं कहा जा सकता है. शुरुआती ग़र्मजोशी के बाद पाकिस्तान अब क़ाबुल पर तहरीक़-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) और इस्लामिक स्टेट इन इराक एंड द लेवेंट (आईएसआईएल) के लड़ाकों पर लगाम लगाने में नाकाम रहने का आरोप लगा रहा है. इतना ही नहीं आफगानिस्तान पर पाकिस्तान अपने सुरक्षाकर्मियों पर सीमा पार से हमलों को ना रोक पाने का आरोप भी मढ़ रहा है. दूसरी ओर तालिबान पाकिस्तान पर अफ़ग़ानिस्तान की सीमा के अंदर सैन्य हमले करने का आरोप लगाता रहा है जिसमें बड़ी तादाद में अफ़ग़ान नागरिकों की मौत हुई है. चीन ऐसे घटनाक्रमों को दक्षिण एशिया में बीजिंग द्वारा प्रस्तावित चीन-पाकिस्तान-अफ़ग़ानिस्तान सहयोग मॉडल के लिए गंभीर आघात मानता है.

नेपाल और श्रीलंका

नेपाल की देउबा सरकार ने मिलेनियम चैलेंज कॉर्पोरेशन (एमसीसी) समझौते को पारित करने के बाद संयुक्त राष्ट्र में रूस के ख़िलाफ़ मतदान किया और पिछले साल जुलाई में पदभार ग्रहण करने के बाद नई दिल्ली को अपनी पहली विदेश यात्रा (जिसे हाल ही में पीएम मोदी द्वारा बदला गया) के लिए चुना, जिससे चीन के रणनीतिकारों ने पहले से ही नेपाल में सत्तारूढ़ व्यवस्था को “अमेरिका परस्त” और “भारत परस्त” बताना शुरू कर दिया है. चीनी पक्ष ख़ास तौर से नेपाल की तिब्बत नीति पर अमेरिका-भारत के प्रभाव को लेकर आशंकित है. इस संबंध में चीन ने निर्वासित तिब्बती सरकार के राष्ट्रपति, पेनपा त्सेरिंग की अमेरिकी यात्रा और अमेरिकी प्रतिनिधि सभा के अध्यक्ष नैन्सी पेलोसी और राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद हिंद-प्रशांत कोऑर्डिनेटर कर्ट कैंपबेल के साथ उनकी बैठकों पर क़रीब से नज़र रखी थी. नागरिक सुरक्षा, लोकतंत्र और मानवाधिकार राज्य के अवर सचिव उज़रा ज़ेया की नई दिल्ली, धर्मशाला (भारत) और फिर काठमांडू (नेपाल) की आगामी यात्रा कुछ ऐसी है जिस पर चीन बारीक़ी से नज़र रखने की कोशिश करेगा.

श्रीलंका में भी कथित तौर पर “चीन समर्थक” राजपक्षे सरकार के निष्कासन से चीन की चिंता बढ़ी हुई है. जब से राष्ट्रपति गोटाबाया ने पदभार संभाला, उन्होंने ना केवल सार्वजनिक रूप से चीन के “कर्ज़ के जाल के सिद्धांत” पर घोर आपत्ति जताई, बल्कि साल 2020 में अमेरिकी विदेश मंत्री पोम्पिओ की यात्रा के दौरान यह भी स्पष्ट कर दिया था कि श्रीलंका कभी भी अमेरिका के साथ “मिलेनियम चैलेंज कॉरपोरेशन” (एमसीसी) पर हस्ताक्षर नहीं करेगा. हालांकि, अब जबकि राजपक्षे संकट में हैं, तो चीन को अब श्रीलंका में अपने निवेश के भविष्य के बारे में चिंता हो रही है; साथ ही कर्ज़ जाल को लेकर दुनिया भर में चीन की तैयार होती नकारात्मक छवि, कर्ज़ के पुनर्गठन जैसे मुद्दे को लेकर चीन पर और अधिक करने का दबाव बढ़ता जा रहा है – यही नहीं इसकी वज़ह से श्रीलंका द्वारा ख़ुद को एमसीसी जैसे समझौतों के लिए तैयार करना भी उसकी चिंता बढ़ा दी है.

कुछ चीनी रणनीतिकार इस बात पर अफ़सोस जताते हैं कि कैसे अतीत में भारत ने अमेरिका और चीन दोनों के ख़िलाफ़ कुछ हद तक सतर्कता की नीति रखी थी, जिससे एक हद तक इस क्षेत्र में चीन अपने हितों को आगे बढ़ाने में कामयाब रहा था.

“संतुलन बिगड़ रहा है”

कुल मिलाकर, बीजिंग द्वारा निकाला गया निष्कर्ष यह है कि “दक्षिण एशिया में परिस्थितियां बदल गई हैं“. सच में, राजनीतिक अस्थिरता और सत्ता में लगातार बदलाव हमेशा से दक्षिण एशियाई राजनीति की प्रमुख विशेषता रही है. हालांकि, इस बार चीन दक्षिण एशिया में बदलाव को लेकर ज़्यादा चिंतित है क्योंकि उसे संदेह है कि गलवान में सैन्य संघर्ष के बाद भारत और अमेरिका दक्षिण एशिया में हिंद-प्रशांत रणनीति के कार्यान्वयन पर आम सहमति तक पहुंच चुके हैं और वो इस दिशा में तेज़ी से आगे बढ़ रहे हैं, जिससे इस क्षेत्र में चीन के सामरिक बादशाहत को चुनौती दी जा सके.

कुछ चीनी रणनीतिकार इस बात पर अफ़सोस जताते हैं कि कैसे अतीत में भारत ने अमेरिका और चीन दोनों के ख़िलाफ़ कुछ हद तक सतर्कता की नीति रखी थी, जिससे एक हद तक इस क्षेत्र में चीन अपने हितों को आगे बढ़ाने में कामयाब रहा था. हालांकि गलवान की घटना के बाद परिस्थितियां तेज़ी से बदल रही हैं. चीनी रणनीतिकारों का कहना है कि एक तरफ भारत ने दक्षिण एशिया में अपने रणनीतिक संचालन को तेज़ कर दिया है. उदाहरण के तौर पर, भारत ने श्रीलंका को मौज़ूदा संकट से उबारने के लिए सक्रिय रुख़ अपनाया है तो साथ में पड़ोसी देशों में प्रधान मंत्री या विदेश मंत्री के लगातार दौरों को सुनिश्चित भी कर रहा है. हाल ही में भारत ने निजी क्षेत्र के निवेशकों को हिंद-प्रशांत क्षेत्र में प्रोत्साहित करने के मक़सद से त्रिपक्षीय विकास निगम (TDC) फ़ंड की स्थापना की है.

दूसरी ओर, चीनी अपने मूल्यांकन के तहत, अमेरिका शीत युद्ध के दिनों की तरह ही अब दक्षिण एशिया में अधिक दिलचस्पी दिखा रहा है और इन देशों में अपने रणनीतिक निवेश को मज़बूत करने में जुटा है. हाल के वर्षों में अमेरिकी विदेश विभाग के वरिष्ठ अधिकारियों ने इन छोटे दक्षिण एशियाई देशों की कई बार यात्राएं की हैं.

चीन का मानना है कि चीन, अमेरिका और भारत के बीच त्रिस्तरीय प्रतिस्पर्धा की इस उभरती प्रवृत्ति ने चीन के मुक़ाबले दक्षिण एशिया के छोटे देशों की सौदेबाज़ी की ताक़त को बढ़ा दिया है. इससे पहले इन देशों में कोई भी राजनीतिक शक्ति सत्ता पर काबिज़ होती थी तो उसे समर्थन के लिए चीन की ओर देखना पड़ता था, जिससे इस क्षेत्र में चीनी हितों की सुरक्षा की गारंटी मिलती थी लेकिन अब इन देशों के पास विकल्प मौज़ूद हैं.

तो क्या चीन को अपने आर्थिक संबंधों को प्राथमिकता देने वाली दक्षिण एशियाई रणनीति पर फिर से विचार करना चाहिए और दूसरे देशों के राजनीतिक मामलों में सीधे तौर पर शामिल नहीं होना चहिए ? क्या चीन के पास इतना धैर्य और समय है कि वह दक्षिण एशिया में परिस्थितियों को अपने हित में आने तक का इंतज़ार कर सके? ये कुछ अहम सवाल हैं जो मौज़ूदा चीनी नीति निर्माताओं के मन में लगातार चल रहे हैं.


[1] “The Impact of the Change in Afghanistan on China’s National Security and China’s Strategic Response”, Journal of United Front Science. 2021(06) Page:95-105

[2] Ibid.

[3] Ibid.

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