बाक़ी दुनिया की तरह, भारत भी अभी नेट ज़ीरो के लक्ष्य की ओर तेज़ी से नहीं बढ़ रहा है. ग्रेटा थनबर्ग और उनके जैसे पर्यावरण कार्यकर्ता, इसकी वजह ये मानते हैं कि नेतृत्व उन नौजवानों के हाथ में नहीं है, जो भविष्य में जलवायु परिवर्तन के शिकार बनने वाले हैं. हो सकता है कि ये कुछ हद तक सही भी हो. लेकिन, जब हम दुनिया को आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस (AI), वित्तीय तकनीक या फिर सोशल मीडिया– जो तीनों ही युवा पीढ़ी की कोशिशों का नतीजा हैं– के रास्ते पर अंधाधुंध तरीक़े से आगे बढ़ते देखते हैं, जहां न तो निगरानी की उचित व्यवस्था है और न ही सुरक्षा के पर्याप्त इंतज़ाम हैं, तो हमें इस बात के लिए माफ़ किया जा सकता है कि हमने ऊर्जा परिवर्तन के मामले में वैश्विक नेतृत्व देने में कुछ अच्छी नीयत वाले और , संभावित पीड़ित नौजवानों की अनदेखी की है.
2040 तक नवीकरण योग्य स्रोतों से देश में बनाई जाने वाली बिजली में सौर और पवन ऊर्जा की दो तिहाई हिस्सेदारी होगी. 2040 से 2050 के बीच, स्वच्छ ईंधन के तौर पर हाइड्रोजन के कारोबारी उत्पादन के फ़ायदेमंद हो जाने के बाद भी इन दोनों का दबदबा बना रहेगा.
भारत नेट ज़ीरो के लक्ष्य तक पहुंचे, उससे पहले तीन चीज़ें करनी ही होंगी. नवीनीकरण योग्य ऊर्जा से बिजली (यानी RE जिसके दायरे में परमाणु ऊर्जा समेत ईंधन के सभी गैर जीवाश्म स्रोत आ जाते हैं) बनाने की क्षमता को आज की 179 गीगावाट के मुक़ाबले 2040 में 1000 गीगावाट (GW) तक पहुंचाना ही होगा.
दूसरा, 2050 तक बैटरी, पनबिजली के भंडारण की क्षमता या फिर हाइड्रोजन/ अमोनिया के भंडारण (400 गीगावाट) की क्षमता तैयार हो जानी चाहिए. 2020 के आकलन के मुताबिक़, उत्पादन की गई बिजली के 25 प्रतिशत हिस्से के भंडारण के लिए बैटरी की लागत 2025 तक 1.02 रुपए प्रति किलोवाट (KWh) तक और 2030 तक 0.83 रुपये/KWh तक गिर जाएगी. नवीनीकरण योग्य ऊर्जा के भंडारण और उत्पादन की कुल लागत तीन रुपए प्रति KWh तक लाना फ़ौरी ज़रूरत है, क्योंकि इससे सौर और पवन ऊर्जा के उत्पादन में पड़ने वाले ख़लल को पूरा किया जा सके.
2040 तक नवीकरण योग्य स्रोतों से देश में बनाई जाने वाली बिजली में सौर और पवन ऊर्जा की दो तिहाई हिस्सेदारी होगी. 2040 से 2050 के बीच, स्वच्छ ईंधन के तौर पर हाइड्रोजन के कारोबारी उत्पादन के फ़ायदेमंद हो जाने के बाद भी इन दोनों का दबदबा बना रहेगा. 2060 तक कुल बिजली उत्पादन में सौर और पवन ऊर्जा की हिस्सेदारी लगभग 80 प्रतिशत रहने का अनुमान है.
इस प्रस्तावित दबदबे को भविष्य के तकनीकी विकास से ही पलटा जा सकता है. मगर आज की तारीख़ में ये आज़माई हुई तकनीकें ही स्वच्छ ईंधन का इकलौता उपाय नज़र आ रही हैं. ग्रीन हाइड्रोजन अभी भी विकास की अवस्था में ही है. और वो भी निर्माण के इनपुट के लिए RE पर ही निर्भर है. परमाणु ऊर्जा से बिजली बनाने का अनुभव तो आज़माया हुआ है. लेकिन, अभी ये भारी लागत, निर्माण में लगने वाले लंबे समय, आपदाओं या लीकेज से एटमी प्लांट के 100 किलोमीटर के दायरे में रहने वाले लोगों के अस्तित्व के लिए संकट जैसी अपनी प्राथमिक कमज़ोरियों से ही नहीं उबर सकी है. फिर इन बिजलीघरों को बंद करने में भी भारी लागत आती है.
भविष्य में बिजली की आपूर्ति सस्ती पड़े, ये बिजली उत्पादन की लागत के साथ साथ इस बात पर भी निर्भर करेगा कि बिजली पहुंचाने में कितना ख़र्च आता है. भविष्य की बिजली ग्रिड, आज से बिल्कुल अलग दिखेगी और इसकी लागत भी ज़्यादा होगी
इस वक़्त जानकारों की बैठकों में, केंद्रीकृत रिएक्टर के एक आकर्षक विकल्प के तौर पर फिशन तकनीक पर आधारित छोटे मॉड्यूलर रिएक्टर्स (SMR) चर्चा का विषय ज़रूर बने हुए हैं. इन्हें कम से कम 10 मेगावाट (MWe) क्षमता लेकिन, 300 मेगावाट से कम बिजली उत्पादन क्षमता वाला बनाया जा सकता है. ये छोटे रिएक्टर लगाने में काफ़ी लचीलापन मुहैया कराते हैं. क्योंकि इनके निर्माण में कम वक़्त लगता है. चलने के दौरान ये ज़्यादा सुरक्षित रहते हैं. इसके अलावा बड़े पैमाने पर उत्पादन के कारण इन रिएक्टर्स (SMR) को केंद्रीकृत रूप से बनाने की लागत कम होने, मौक़े पर ही स्थापित करने के विकल्प और रिफ्यूलिंग की लंबी अवधि के कारण ये एक आकर्षक विकल्प बन सकते हैं. लेकिन, इनकी लंबी उम्र होने और कम लागत के दावों को तभी परखा जा सकता है, जब इनका ट्रायल किया जाए. विकेंद्रीकृत एटमी प्लांट सुरक्षित तरीक़े से चल सकें इसके लिए उच्च स्तर के प्रशासन और निगरानी की ज़रूरत होगी. भले ही फिलहाल परमाणु ऊर्जा के समर्थक छोटे मॉड्यूलर रिएक्टर को लेकर बहुत उत्साह दिखा रहे हों. मगर एक औसत नागरिक के लिए इन एटमी प्लांट का सुरक्षित तरीक़े से चलना वास्तविक चिंता है.
तीसरा बिजली आपूर्ति की एक लचीली ग्रिड: इस मामले में भारत के पास क्षमता भी है और मौक़े भी हैं. हमारे ट्रांसमिशन और डिस्ट्रीब्यूशन ग्रिड को नए सिरे से तैयार करना होगा. आम तौर पर लोग इस बात को नहीं जानते हैं कि भारत, दुनिया में बिजली और ऊर्जा का तीसरा सबसे बड़ा उपभोक्ता है. देश में बिजली उत्पादन की क्षमता का 21 प्रतिशत हिस्सा (केंद्रीय बिजली प्राधिकरण CEA की वार्षिक समीक्षा 2021) उद्योगों के अपने इस्तेमाल के लिए होता है, इसलिए इसकी आपूर्ति बिजली ग्रिड पर निर्भर नहीं होती. ये आकलन कम है, क्योंकि लगभग हर कारोबारी, मध्यम वर्गीय और अमीर रिहाइशी इमारत में या तो बैक–अप के लिए जनरेटर होता है या बैटरी होती है. इसके बावजूद, देश के ज़्यादातर ग्राहकों को बिजली, ग्रिड के ज़रिए ही पहुंचाई जाती है. फिर चाहे वो खुदरा उपभोक्ता हो या फिर थोक.
भविष्य में बिजली की आपूर्ति सस्ती पड़े, ये बिजली उत्पादन की लागत के साथ साथ इस बात पर भी निर्भर करेगा कि बिजली पहुंचाने में कितना ख़र्च आता है. भविष्य की बिजली ग्रिड, आज से बिल्कुल अलग दिखेगी और इसकी लागत भी ज़्यादा होगी. क्योंकि, बिजलीघरों से बिजली को मांग वाली जगहों पर पहुंचाने के लिए ट्रांसमिशन लाइन बिछाने का ख़र्च बढ़ जाएगा. इसके अलावा, पर्याप्त भंडारण और ब्लैकआउट की सूरत में तेज़ी से बिजली उत्पादन की क्षमता विकसित करने के लिए एक लचीली, स्थिर और डिजिटल ग्रिड स्थापित करने की लागत भी बहुत अधिक है.
भविष्य के अमीरों के लिए शर्मिंदगी का सबब
पहला, आज जहां बिजली उत्पादन और इसकी आपूर्ति कुछ गिने चुने 550 से भी कम केंद्रों (270 थर्मल, 250 हाइड्रो और 8 एटमी पावर प्लांट) के हाथ में है. लेकिन भविष्य में ग्रिड को बिजली आपूर्ति के केंद्रों की संख्या बढ़कर 20 करोड़ से भी ज़्यादा हो सकती है. क्योंकि, सौर ऊर्जा के ज़्यादातर छोटे छोटे प्लांट, रिहाइशी मकानों की छतों और खेतों में लगे होंगे. इसके अलावा, 2022 की मैकिंसी की रिपोर्ट के मुताबिक़ 2030 तक 10 करोड़ इलेक्ट्रिक व्हीकल्स (EV) ‘प्रोज़्यूमर्स’ बनने का विकल्प चुन सकते हैं. यानी ग्रिड में आपूर्ति के लिए वो बिजली के उत्पादक भी होंगे और इसके उपभोक्ता भी होंगे. ये काम नेट मीटरिंग के ज़रिए होगा, जिसकी कल्पना प्रधानमंत्री किसान ऊर्जा सुरक्षा एवं उत्थान महाभियान (PM KUSUM) योजना के तहत की गई है. ग्रिड को स्थिर बनाए रखने के लिए इन विकेंद्रीकृत ग्रिडों से बिजली की नियमित आपूर्ति को एकीकृत तरीक़े से सुनिश्चित करने के लिए ग्रिड की एक संस्थागत और तकनीकी मरम्मत की ज़रूरत होगी.
एकीकृत ग्रिड प्रबंधन
आज ग्राहकों को आपूर्ति के मामले में हमारी ग्रिड बंटी हुई है. देश भर में फैली बिजली ग्रिड राज्यों की सीमाओं और आपूर्ति के वोल्टेज के हिसाब से बंटी हुई है. सारी अंतरराज्यीय हाई वोल्टेज और एक्स्ट्रा हाई वोल्टेज ग्रिड का प्रबंधन केंद्र सरकार के हाथों में है. वहीं, राज्यों के ग्रिड प्रबंधक यही काम अपने राज्य की सीमा के भीतर करते हैं. ग्रिड के ये दोनों नियंत्रक, जहां तक मुमकिन हो आपसी तालमेल के साथ काम करते हैं.
ये संस्थागत समझौता एक झमेला क्यों है, इसे हम भारतीय रेल की मिसाल से समझ सकते हैं. इस वक़्त भारतीय रेल एक एकीकृत प्रबंधन व्यवस्था के तहत चलाई जाती है. अगर इसे मौजूदा बिजली ग्रिड की तरह से चलाया जाए, तो मंज़र कुछ इस तरह का होगा. राजधानी, शताब्दी और वंदे भारत जैसी यात्री गाड़ियां और बड़ी बड़ी मालगाड़ियां ऐसे रेलवे ट्रैक पर दौड़ेंगी, जो किसी राज्य की सीमा पर जाकर ख़त्म हो जाएंगी. एक राज्य से दूसरे राज्य में जाने के दौरान इन रेलगाड़ियों की ज़िम्मेदारी केंद्रीय कंट्रोलर्स की होगी. रेलवे लाइनों का पूरा ट्रैक और रेलवे स्टेशनों का रख–रखाव राज्यों की सरकारों या बड़े शहरों के हाथ में होगा यानी प्रबंधन टुकड़ों में बंटा होगा. हर राज्य का अलग अलग मानक होगा. किसी आपदा या अपराध की सूरत में उनकी ज़िम्मेदारी अलग अलग इलाक़ों में अलग अलग राज्यों की पुलिस के हाथों में होगी. मगर ऐसा है नहीं. भारतीय रेल एकीकृत व्यवस्था के तहत चलती है और उस पर कोई बाहरी दबाव नहीं है. ठीक वैसे ही जैसे सेना के कैंट और केंद्र सरकार के मालिकाना हक़ वाली सार्वजनिक क्षेत्र की बड़ी कंपनियां.
इस वक़्त भारतीय रेल एक एकीकृत प्रबंधन व्यवस्था के तहत चलाई जाती है. अगर इसे मौजूदा बिजली ग्रिड की तरह से चलाया जाए, तो मंज़र कुछ इस तरह का होगा. राजधानी, शताब्दी और वंदे भारत जैसी यात्री गाड़ियां और बड़ी बड़ी मालगाड़ियां ऐसे रेलवे ट्रैक पर दौड़ेंगी, जो किसी राज्य की सीमा पर जाकर ख़त्म हो जाएंगी.
इसके उलट किसी मूलभूत ढांचे के देशव्यापी नेटवर्क का संचालन टुकड़ों में बंटे होने पर क्या होगा, इसकी कल्पना से ही सिहरन उठती है. लेकिन, देश में बिजली ग्रिड को स्थिर बनाए रखने और नियम के मुताबिक़ फ्रीक्वेंसी के तहत बिजली आपूर्ति के लिए भारत के ग्रिड कंट्रोलर (मूल रूप से इसका नाम POSOCO था) को हर मिनट यही जद्दोजहद करनी पड़ती है, ताकि वो हर राज्य की अलग समय पर अलग तरह की मांग को बिजली के सही वितरण से पूरा कर सके. राज्यों के पास अपनी बिजली उत्पादन और वितरण व्यवस्था होती है. अंतरराज्यीय बिजली ग्रिड से बिजली लेने से पहले हर राज्य, रोज़ाना अपने यहां उपलब्ध बिजली का हिसाब किताब लगा लेता है. राज्यों द्वारा केंद्रीय ग्रिड से बिजली की ये मांग रोज़मर्रा के हिसाब से तय होती है और इसमें एक घंटे पहले बदलाव किया जा सकता है.
इस वक़्त देश में पीक पर बिजली की मांग केवल 220 गीगावाट होती है. इसे देखते हुए बहुत सारी कमियां नज़र आती हैं. अब आप कल्पना कीजिए कि जब 2050 देश में बिजली की मांग बढ़कर 1500 गीगावाट पहुंच जाएगी, तब क्या होगा.
डिकार्बनाइज़ेशन का त्रिशूल
कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए तीन चीज़ें ज़रूरी हैं. पहला अच्छी क्वालिटी की हरित और सस्ती ऊर्जा; दूसरा कम बिजली खाने वाले घरेलू और औद्योगिक उपकरण; और तीसरा, संस्थागत विकास के ज़रिए कारगर नियमों का निर्माण, जो दाम तय करने और कार्बन के कारोबार को तय करने के लिए बाज़ार के सिद्धांतों का इस्तेमाल करें.
संस्थागत रूप से नई जान डालने के लिए हम केंद्र सरकार, 30 राज्यों की सरकारें और 10 लाख से ज़्यादा आबादी वाले 52 शहरों (2011-12 की जनगणना के मुताबिक़, इन शहरों में 19वें स्थान पर आने वाले कोझिकोड की आबादी, देश के 16वें बड़े राज्य नगालैंड से ज़्यादा है) के अलग अलग अधिकार क्षेत्रों और इनमें आपस में तालमेल बनाने के लिए अधिकार क्षेत्रों की नए सिरे से परिकल्पना करनी होगी.
बिजली, संविधान की समवर्ती सूची का विषय है. यानी ये केंद्र और राज्यों के अधिकार क्षेत्र में आती है. आम लोगों को ख़ुदरा आपूर्ति का ज़िम्मा राज्यों का होता है. भारत की बहुआयामी सांस्कृतिक विविधता को देखते हुए ये बात उचित ही लगती है. लेकिन, ग्रिड का तो एकीकरण होना ही चाहिए.
यही वजह है कि विकेंद्रीकृत तरीक़े से कार्बन उत्सर्जन कम करने का काम राज्यों की सरकारों और दस लाख से ज़्यादा आबादी वाले शहरों को सौंप दिया जाना चाहिए और केंद्र सरकार उनको वित्तीय और तकनीकी मदद दे. छोटे स्तर की हो या बड़े पैमाने पर, नवीनीकरण योग्य स्रोतों से बनी बिजली (RE) एक दूसरे के समानांतर दौड़े, इसके लिए छोटे स्तर पर बिजली उत्पादन को, राज्य सरकारों द्वारा बड़े पैमाने पर उत्पादन की ज़िम्मेदारी संभालने से जोड़ दिया जाना चाहिए कि वो बड़े स्तर पर हरित ऊर्जा के उत्पादन के लिए ज़मीन उपलब्ध कराएं.
वैश्विक स्तर पर रिसर्च में सहयोग को बढ़ाया जाए
संस्थागत कूटनीतिक प्रयासों के माध्यम से लक्ष्य आधारित रिसर्च और विकास को अंतरराष्ट्रीय रिसर्च केंद्रों और प्रयोगशालाओं के साथ संरचनात्मक सहयोग के इर्द गिर्द खड़ा किया जाना चाहिए और उन्हें वित्तीय सहयोग दिया जाना चाहिए. इसके अलावा, नए भू–राजनीतिक समीकरण बनाने के भारत के मौजूदा प्रयासों का लक्ष्य निजी क्षेत्र से संपर्क बढ़ाने के लिए किया जाना चाहिए.
घरेलू बाज़ार का लेन–देन रोज़गार से हो
हमारी उपनिवेशवाद विरोधी प्रवृत्तियों का इस्तेमाल करते हुए स्वदेशी तकनीकी विकल्पों का विकास करने का समय तब आएगा जब हमारी वित्तीय ताक़त, प्रबंधन की क्षमता और मानव संसाधनों में इतनी मज़बूती आ जाए कि हम अकेले दम पर ये काम कर सकें. चीन ने दुनिया के साथ सहयोग का सफर 1978 में शुरू किया था, उस वक़्त हम आत्मनिर्भरता के जाल में फंसे हुए थे. एप्पल ने चीन में अपना उत्पादन 2001 में शुरू कर दिया था. इत्तेफाक से 2002 में जो GDP चीन की थी, वो 2022 में भारत की थी– यानी दोनों देशों के बीच 20 बरस का फ़ासला था. हम अभी भी चीन की बराबरी पर पहुंच सकते हैं. लेकिन इसके लिए हम सहयोगात्मक तकनीकी और कारोबारी गठबंधन बनाने होंगे, जिनमें भारत अपनी कम लागत वाली तकनीकी विशेषज्ञता, ज़बरदस्त निजी प्रबंधन की ताक़त और घरेलू बाज़ार की अधूरी पड़ी मांग से संभावित कारोबारी लाभ के ज़रिए योगदान दे.
बिना गहराई से संस्थागत बदलाव लाए कोई क़दम उठाया उसी तरह खोखला होगा जैसे वो संस्थान होते हैं, जो तेज़ी से बदल रही दुनिया में अपना मक़सद पूरा नहीं कर पाते हैं. फ़ौरी फ़ायदे के लिए छोटे मोटे उपाय करके काम चलाने की आदत छोड़कर हमें दूरगामी सोच वाली नीतियों पर चलने की ज़रूरत होगी.
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