Published on Jun 15, 2023 Updated 0 Hours ago
भारत नेट ज़ीरो के लक्ष्य की ओर तेज़ी से कैसे आगे बढ़े?

बाक़ी दुनिया की तरहभारत भी अभी नेट ज़ीरो के लक्ष्य की ओर तेज़ी से नहीं बढ़ रहा हैग्रेटा थनबर्ग और उनके जैसे पर्यावरण कार्यकर्ताइसकी वजह ये मानते हैं कि नेतृत्व उन नौजवानों के हाथ में नहीं हैजो भविष्य में जलवायु परिवर्तन के शिकार बनने वाले हैंहो सकता है कि ये कुछ हद तक सही भी होलेकिनजब हम दुनिया को आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस (AI), वित्तीय तकनीक या फिर सोशल मीडिया– जो तीनों ही युवा पीढ़ी की कोशिशों का नतीजा हैं– के रास्ते पर अंधाधुंध तरीक़े से आगे बढ़ते देखते हैंजहां  तो निगरानी की उचित व्यवस्था है और  ही सुरक्षा के पर्याप्त इंतज़ाम हैंतो हमें इस बात के लिए माफ़ किया जा सकता है कि हमने ऊर्जा परिवर्तन के मामले में वैश्विक नेतृत्व देने में कुछ अच्छी नीयत वाले और , संभावित पीड़ित नौजवानों की अनदेखी की है.

2040 तक नवीकरण योग्य स्रोतों से देश में बनाई जाने वाली बिजली में सौर और पवन ऊर्जा की दो तिहाई हिस्सेदारी होगी. 2040 से 2050 के बीच, स्वच्छ ईंधन के तौर पर हाइड्रोजन के कारोबारी उत्पादन के फ़ायदेमंद हो जाने के बाद भी इन दोनों का दबदबा बना रहेगा.

भारत नेट ज़ीरो के लक्ष्य तक पहुंचेउससे पहले तीन चीज़ें करनी ही होंगीनवीनीकरण योग्य ऊर्जा से बिजली (यानी RE जिसके दायरे में परमाणु ऊर्जा समेत ईंधन के सभी गैर जीवाश्म स्रोत  जाते हैंबनाने की क्षमता को आज की 179 गीगावाट के मुक़ाबले 2040 में 1000 गीगावाट (GW) तक पहुंचाना ही होगा.

दूसरा, 2050 तक बैटरीपनबिजली के भंडारण की क्षमता या फिर हाइड्रोजनअमोनिया के भंडारण (400 गीगावाटकी क्षमता तैयार हो जानी चाहिए2020 के आकलन के मुताबिक़उत्पादन की गई बिजली के 25 प्रतिशत हिस्से के भंडारण के लिए बैटरी की लागत 2025 तक 1.02 रुपए प्रति किलोवाट (KWh) तक और 2030 तक 0.83 रुपये/KWh तक गिर जाएगीनवीनीकरण योग्य ऊर्जा के भंडारण और उत्पादन की कुल लागत तीन रुपए प्रति KWh तक लाना फ़ौरी ज़रूरत हैक्योंकि इससे सौर और पवन ऊर्जा के उत्पादन में पड़ने वाले ख़लल को पूरा किया जा सके.

2040 तक नवीकरण योग्य स्रोतों से देश में बनाई जाने वाली बिजली में सौर और पवन ऊर्जा की दो तिहाई हिस्सेदारी होगी. 2040 से 2050 के बीचस्वच्छ ईंधन के तौर पर हाइड्रोजन के कारोबारी उत्पादन के फ़ायदेमंद हो जाने के बाद भी इन दोनों का दबदबा बना रहेगा. 2060 तक कुल बिजली उत्पादन में सौर और पवन ऊर्जा की हिस्सेदारी लगभग 80 प्रतिशत रहने का अनुमान है.

इस प्रस्तावित दबदबे को भविष्य के तकनीकी विकास से ही पलटा जा सकता हैमगर आज की तारीख़ में ये आज़माई हुई तकनीकें ही स्वच्छ ईंधन का इकलौता उपाय नज़र  रही हैंग्रीन हाइड्रोजन अभी भी विकास की अवस्था में ही हैऔर वो भी निर्माण के इनपुट के लिए RE पर ही निर्भर हैपरमाणु ऊर्जा से बिजली बनाने का अनुभव तो आज़माया हुआ हैलेकिनअभी ये भारी लागतनिर्माण में लगने वाले लंबे समयआपदाओं या लीकेज से एटमी प्लांट के 100 किलोमीटर के दायरे में रहने वाले लोगों के अस्तित्व के लिए संकट जैसी अपनी प्राथमिक कमज़ोरियों से ही नहीं उबर सकी हैफिर इन बिजलीघरों को बंद करने में भी भारी लागत आती है.

भविष्य में बिजली की आपूर्ति सस्ती पड़े, ये बिजली उत्पादन की लागत के साथ साथ इस बात पर भी निर्भर करेगा कि बिजली पहुंचाने में कितना ख़र्च आता है. भविष्य की बिजली ग्रिड, आज से बिल्कुल अलग दिखेगी और इसकी लागत भी ज़्यादा होगी

इस वक़्त जानकारों की बैठकों मेंकेंद्रीकृत रिएक्टर के एक आकर्षक विकल्प के तौर पर फिशन तकनीक पर आधारित छोटे मॉड्यूलर रिएक्टर्स (SMR) चर्चा का विषय ज़रूर बने हुए हैंइन्हें कम से कम 10 मेगावाट (MWe) क्षमता लेकिन, 300 मेगावाट से कम बिजली उत्पादन क्षमता वाला बनाया जा सकता हैये छोटे रिएक्टर लगाने में काफ़ी लचीलापन मुहैया कराते हैंक्योंकि इनके निर्माण में कम वक़्त लगता हैचलने के दौरान ये ज़्यादा सुरक्षित रहते हैंइसके अलावा बड़े पैमाने पर उत्पादन के कारण इन रिएक्टर्स (SMR) को केंद्रीकृत रूप से बनाने की लागत कम होनेमौक़े पर ही स्थापित करने के विकल्प और रिफ्यूलिंग की लंबी अवधि के कारण ये एक आकर्षक विकल्प बन सकते हैंलेकिनइनकी लंबी उम्र होने और कम लागत के दावों को तभी परखा जा सकता हैजब इनका ट्रायल किया जाएविकेंद्रीकृत एटमी प्लांट सुरक्षित तरीक़े से चल सकें इसके लिए उच्च स्तर के प्रशासन और निगरानी की ज़रूरत होगीभले ही फिलहाल परमाणु ऊर्जा के समर्थक छोटे मॉड्यूलर रिएक्टर को लेकर बहुत उत्साह दिखा रहे होंमगर एक औसत नागरिक के लिए इन एटमी प्लांट का सुरक्षित तरीक़े से चलना वास्तविक चिंता है.

तीसरा बिजली आपूर्ति की एक लचीली ग्रिडइस मामले में भारत के पास क्षमता भी है और मौक़े भी हैंहमारे ट्रांसमिशन और डिस्ट्रीब्यूशन ग्रिड को नए सिरे से तैयार करना होगाआम तौर पर लोग इस बात को नहीं जानते हैं कि भारतदुनिया में बिजली और ऊर्जा का तीसरा सबसे बड़ा उपभोक्ता हैदेश में बिजली उत्पादन की क्षमता का 21 प्रतिशत हिस्सा (केंद्रीय बिजली प्राधिकरण CEA की वार्षिक समीक्षा 2021) उद्योगों के अपने इस्तेमाल के लिए होता हैइसलिए इसकी आपूर्ति बिजली ग्रिड पर निर्भर नहीं होतीये आकलन कम हैक्योंकि लगभग हर कारोबारीमध्यम वर्गीय और अमीर रिहाइशी इमारत में या तो बैकअप के लिए जनरेटर होता है या बैटरी होती हैइसके बावजूददेश के ज़्यादातर ग्राहकों को बिजलीग्रिड के ज़रिए ही पहुंचाई जाती हैफिर चाहे वो खुदरा उपभोक्ता हो या फिर थोक.

भविष्य में बिजली की आपूर्ति सस्ती पड़ेये बिजली उत्पादन की लागत के साथ साथ इस बात पर भी निर्भर करेगा कि बिजली पहुंचाने में कितना ख़र्च आता हैभविष्य की बिजली ग्रिडआज से बिल्कुल अलग दिखेगी और इसकी लागत भी ज़्यादा होगी. क्योंकिबिजलीघरों से बिजली को मांग वाली जगहों पर पहुंचाने के लिए ट्रांसमिशन लाइन बिछाने का ख़र्च बढ़ जाएगाइसके अलावापर्याप्त भंडारण और ब्लैकआउट की सूरत में तेज़ी से बिजली उत्पादन की क्षमता विकसित करने के लिए एक लचीलीस्थिर और डिजिटल ग्रिड स्थापित करने की लागत भी बहुत अधिक है.

भविष्य के अमीरों के लिए शर्मिंदगी का सबब

पहलाआज जहां बिजली उत्पादन और इसकी आपूर्ति कुछ गिने चुने 550 से भी कम केंद्रों (270 थर्मल, 250 हाइड्रो और 8 एटमी पावर प्लांटके हाथ में हैलेकिन भविष्य में ग्रिड को बिजली आपूर्ति के केंद्रों की संख्या बढ़कर 20 करोड़ से भी ज़्यादा हो सकती हैक्योंकिसौर ऊर्जा के ज़्यादातर छोटे छोटे प्लांटरिहाइशी मकानों की छतों और खेतों में लगे होंगेइसके अलावा, 2022 की मैकिंसी की रिपोर्ट के मुताबिक़ 2030 तक 10 करोड़ इलेक्ट्रिक व्हीकल्स (EV) ‘प्रोज़्यूमर्स’ बनने का विकल्प चुन सकते हैंयानी ग्रिड में आपूर्ति के लिए वो बिजली के उत्पादक भी होंगे और इसके उपभोक्ता भी होंगेये काम नेट मीटरिंग के ज़रिए होगाजिसकी कल्पना प्रधानमंत्री किसान ऊर्जा सुरक्षा एवं उत्थान महाभियान (PM KUSUM) योजना के तहत की गई हैग्रिड को स्थिर बनाए रखने के लिए इन विकेंद्रीकृत ग्रिडों से बिजली की नियमित आपूर्ति को एकीकृत तरीक़े से सुनिश्चित करने के लिए ग्रिड की एक संस्थागत और तकनीकी मरम्मत की ज़रूरत होगी.

एकीकृत ग्रिड प्रबंधन

आज ग्राहकों को आपूर्ति के मामले में हमारी ग्रिड बंटी हुई हैदेश भर में फैली बिजली ग्रिड राज्यों की सीमाओं और आपूर्ति के वोल्टेज के हिसाब से बंटी हुई हैसारी अंतरराज्यीय हाई वोल्टेज और एक्स्ट्रा हाई वोल्टेज ग्रिड का प्रबंधन केंद्र सरकार के हाथों में हैवहींराज्यों के ग्रिड प्रबंधक यही काम अपने राज्य की सीमा के भीतर करते हैंग्रिड के ये दोनों नियंत्रकजहां तक मुमकिन हो आपसी तालमेल के साथ काम करते हैं

ये संस्थागत समझौता एक झमेला क्यों हैइसे हम भारतीय रेल की मिसाल से समझ सकते हैंइस वक़्त भारतीय रेल एक एकीकृत प्रबंधन व्यवस्था के तहत चलाई जाती हैअगर इसे मौजूदा बिजली ग्रिड की तरह से चलाया जाएतो मंज़र कुछ इस तरह का होगाराजधानीशताब्दी और वंदे भारत जैसी यात्री गाड़ियां और बड़ी बड़ी मालगाड़ियां ऐसे रेलवे ट्रैक पर दौड़ेंगीजो किसी राज्य की सीमा पर जाकर ख़त्म हो जाएंगी. एक राज्य से दूसरे राज्य में जाने के दौरान इन रेलगाड़ियों की ज़िम्मेदारी केंद्रीय कंट्रोलर्स की होगीरेलवे लाइनों का पूरा ट्रैक और रेलवे स्टेशनों का रखरखाव राज्यों की सरकारों या बड़े शहरों के हाथ में होगा यानी प्रबंधन टुकड़ों में बंटा होगाहर राज्य का अलग अलग मानक होगाकिसी आपदा या अपराध की सूरत में उनकी ज़िम्मेदारी अलग अलग इलाक़ों में अलग अलग राज्यों की पुलिस के हाथों में होगीमगर ऐसा है नहींभारतीय रेल एकीकृत व्यवस्था के तहत चलती है और उस पर कोई बाहरी दबाव नहीं हैठीक वैसे ही जैसे सेना के कैंट और केंद्र सरकार के मालिकाना हक़ वाली सार्वजनिक क्षेत्र की बड़ी कंपनियां.

इस वक़्त भारतीय रेल एक एकीकृत प्रबंधन व्यवस्था के तहत चलाई जाती है. अगर इसे मौजूदा बिजली ग्रिड की तरह से चलाया जाए, तो मंज़र कुछ इस तरह का होगा. राजधानी, शताब्दी और वंदे भारत जैसी यात्री गाड़ियां और बड़ी बड़ी मालगाड़ियां ऐसे रेलवे ट्रैक पर दौड़ेंगी, जो किसी राज्य की सीमा पर जाकर ख़त्म हो जाएंगी.

इसके उलट किसी मूलभूत ढांचे के देशव्यापी नेटवर्क का संचालन टुकड़ों में बंटे होने पर क्या होगाइसकी कल्पना से ही सिहरन उठती हैलेकिनदेश में बिजली ग्रिड को स्थिर बनाए रखने और नियम के मुताबिक़ फ्रीक्वेंसी के तहत बिजली आपूर्ति के लिए भारत के ग्रिड कंट्रोलर (मूल रूप से इसका नाम POSOCO थाको हर मिनट यही जद्दोजहद करनी पड़ती हैताकि वो हर राज्य की अलग समय पर अलग तरह की मांग को बिजली के सही वितरण से पूरा कर सकेराज्यों के पास अपनी बिजली उत्पादन और वितरण व्यवस्था होती हैअंतरराज्यीय बिजली ग्रिड से बिजली लेने से पहले हर राज्यरोज़ाना अपने यहां उपलब्ध बिजली का हिसाब किताब लगा लेता हैराज्यों द्वारा केंद्रीय ग्रिड से बिजली की ये मांग रोज़मर्रा के हिसाब से तय होती है और इसमें एक घंटे पहले बदलाव किया जा सकता है.

इस वक़्त देश में पीक पर बिजली की मांग केवल 220 गीगावाट होती हैइसे देखते हुए बहुत सारी कमियां नज़र आती हैंअब आप कल्पना कीजिए कि जब 2050 देश में बिजली की मांग बढ़कर 1500 गीगावाट पहुंच जाएगीतब क्या होगा.

डिकार्बनाइज़ेशन का त्रिशूल

कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए तीन चीज़ें ज़रूरी हैंपहला अच्छी क्वालिटी की हरित और सस्ती ऊर्जादूसरा कम बिजली खाने वाले घरेलू और औद्योगिक उपकरणऔर तीसरासंस्थागत विकास के ज़रिए कारगर नियमों का निर्माणजो दाम तय करने और कार्बन के कारोबार को तय करने के लिए बाज़ार के सिद्धांतों का इस्तेमाल करें.

संस्थागत रूप से नई जान डालने के लिए हम केंद्र सरकार, 30 राज्यों की सरकारें और 10 लाख से ज़्यादा आबादी वाले 52 शहरों (2011-12 की जनगणना के मुताबिक़इन शहरों में 19वें स्थान पर आने वाले कोझिकोड की आबादीदेश के 16वें बड़े राज्य नगालैंड से ज़्यादा हैके अलग अलग अधिकार क्षेत्रों और इनमें आपस में तालमेल बनाने के लिए अधिकार क्षेत्रों की नए सिरे से परिकल्पना करनी होगी.

बिजलीसंविधान की समवर्ती सूची का विषय हैयानी ये केंद्र और राज्यों के अधिकार क्षेत्र में आती हैआम लोगों को ख़ुदरा आपूर्ति का ज़िम्मा राज्यों का होता हैभारत की बहुआयामी सांस्कृतिक विविधता को देखते हुए ये बात उचित ही लगती हैलेकिनग्रिड का तो एकीकरण होना ही चाहिए.

यही वजह है कि विकेंद्रीकृत तरीक़े से कार्बन उत्सर्जन कम करने का काम राज्यों की सरकारों और दस लाख से ज़्यादा आबादी वाले शहरों को सौंप दिया जाना चाहिए और केंद्र सरकार उनको वित्तीय और तकनीकी मदद दे. छोटे स्तर की हो या बड़े पैमाने परनवीनीकरण योग्य स्रोतों से बनी बिजली (RE) एक दूसरे के समानांतर दौड़ेइसके लिए छोटे स्तर पर बिजली उत्पादन कोराज्य सरकारों द्वारा बड़े पैमाने पर उत्पादन की ज़िम्मेदारी संभालने से जोड़ दिया जाना चाहिए कि वो बड़े स्तर पर हरित ऊर्जा के उत्पादन के लिए ज़मीन उपलब्ध कराएं.

वैश्विक स्तर पर रिसर्च में सहयोग को बढ़ाया जाए

संस्थागत कूटनीतिक प्रयासों के माध्यम से लक्ष्य आधारित रिसर्च और विकास को अंतरराष्ट्रीय रिसर्च केंद्रों और प्रयोगशालाओं के साथ संरचनात्मक सहयोग के इर्द गिर्द खड़ा किया जाना चाहिए और उन्हें वित्तीय सहयोग दिया जाना चाहिएइसके अलावानए भूराजनीतिक समीकरण बनाने के भारत के मौजूदा प्रयासों का लक्ष्य निजी क्षेत्र से संपर्क बढ़ाने के लिए किया जाना चाहिए.

घरेलू बाज़ार का लेनदेन रोज़गार से हो

हमारी उपनिवेशवाद विरोधी प्रवृत्तियों का इस्तेमाल करते हुए स्वदेशी तकनीकी विकल्पों का विकास करने का समय तब आएगा जब हमारी वित्तीय ताक़तप्रबंधन की क्षमता और मानव संसाधनों में इतनी मज़बूती  जाए कि हम अकेले दम पर ये काम कर सकेंचीन ने दुनिया के साथ सहयोग का सफर 1978 में शुरू किया थाउस वक़्त हम आत्मनिर्भरता के जाल में फंसे हुए थेएप्पल ने चीन में अपना उत्पादन 2001 में शुरू कर दिया थाइत्तेफाक से 2002 में जो GDP चीन की थीवो 2022 में भारत की थी– यानी दोनों देशों के बीच 20 बरस का फ़ासला थाहम अभी भी चीन की बराबरी पर पहुंच सकते हैंलेकिन इसके लिए हम सहयोगात्मक तकनीकी और कारोबारी गठबंधन बनाने होंगेजिनमें भारत अपनी कम लागत वाली तकनीकी विशेषज्ञताज़बरदस्त निजी प्रबंधन की ताक़त और घरेलू बाज़ार की अधूरी पड़ी मांग से संभावित कारोबारी लाभ के ज़रिए योगदान दे.

बिना गहराई से संस्थागत बदलाव लाए कोई क़दम उठाया उसी तरह खोखला होगा जैसे वो संस्थान होते हैंजो तेज़ी से बदल रही दुनिया में अपना मक़सद पूरा नहीं कर पाते हैंफ़ौरी फ़ायदे के लिए छोटे मोटे उपाय करके काम चलाने की आदत छोड़कर हमें दूरगामी सोच वाली नीतियों पर चलने की ज़रूरत होगी

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