Published on Jun 25, 2021 Updated 0 Hours ago

1980 के दशक में मार्शल आईलैंड्स की जनता ने अमेरिका के ख़िलाफ़ अमेरिका की संघीय अदालतों में कई मुक़दमे दर्ज कराए 

परमाणु सक्रियतावाद और हिंद-प्रशांत क्षेत्र में उसकी प्रासंगिकता

रिपब्लिक ऑफ़ मार्शल आईलैंड (आरएमआई) ने संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा 1946 से 1958 के बीच वातावरणीय परमाणु परीक्षण के कई दौर देखे हैं. 2015 के परमाणु हथियार अप्रसार (एनपीटी) समीक्षा सम्मेलन में तत्कालीन विदेश मंत्री टोनी डेब्रम ने 1954 में बिकिनी प्रवालद्वीप में किए गए ब्रावो परीक्षण के बारे में अपना स्वयं का अनुभव बयान किया था. इस व्याख्यान का मकसद सम्मेलन में मौजूद सदस्य देशों को मानव जीवन पर परमाणु हथियारों के कुप्रभावों के बारे में याद दिलाकर उन्हें इन हथियारों से तौबा करने के लिए रज़ामंद करने की कोशिश करना था. 

अप्रैल 2014 में आरएमआई ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी सक्रियता को और आगे बढ़ाया. उसने अंतरराष्ट्रीय न्यायालय (आईसीजे) में परमाणु हथियारों से लैस सभी 9 देशों- चीन, फ्रांस, भारत, इज़रायल, उत्तर कोरिया, रूस, यूनाइटेड किंगडम और अमेरिका- के ख़िलाफ़ शिकायत दर्ज कराई थी. हालांकि, आरएमआई द्वारा इस तरह के मुक़दमे दर्ज कराए जाने की ये कोई पहली मिसाल नहीं थी. 1980 के दशक में मार्शल आईलैंड्स की जनता ने अमेरिका के ख़िलाफ़ अमेरिका की संघीय अदालतों में कई मुक़दमे दर्ज कराए. ये मुक़दमे संपत्ति को पहुंची क्षति के साथ तमाम तरह के नुकसानों के मामले में दर्ज कराए गए थे. अभियोगों पर सुनवाई के क्रम में अमेरिका ने मार्शल आईलैंड के साथ कॉम्पैक्ट ऑफ़ फ़्री एसोसिएशन करार किया. इसके तहत परमाणु दावा न्यायाधिकरण की स्थापना की गई. इस न्यायाधिकरण को परमाणु परीक्षण कार्यक्रमों के चलते हुए नुकसानों से जुड़े दावों पर फ़ैसला करने का ‘अंतिम प्राधिकार’ दिया गया है. परमाणु दावा न्यायाधिकरण की स्थापना और कॉम्पैक्ट के प्रभाव में आने के फ़ौरन बाद अमेरिकी अदालतों ने क्षतिपूर्ति की मांग करने वाली तमाम याचिकाओं को ख़ारिज कर दिया. न्यायाधिकरण ने आईलैंड की जनता को क्षतिपूर्ति के तौर पर 38.6 करोड़ अमेरिकी डॉलर का भुगतान करने का आदेश दिया.

परमाणु दावा न्यायाधिकरण की स्थापना और कॉम्पैक्ट के प्रभाव में आने के फ़ौरन बाद अमेरिकी अदालतों ने क्षतिपूर्ति की मांग करने वाली तमाम याचिकाओं को ख़ारिज कर दिया.

अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में आरएमआई की शिकायत में परमाणु शक्ति संपन्न 9 राष्ट्रों पर परमाणु अप्रसार वार्ताओं को नेक नीयत के साथ आगे बढ़ाने में नाकाम रहने का आरोप लगाया गया. इसे 1968 के परमाणु अप्रसार संधि (एनपीटी) के आर्टिकल VI और परंपरागत अंतरराष्ट्रीय कानून का उल्लंघन बताया गया. इस मुक़दमे पर सिर्फ़ भारत, पाकिस्तान और यूनाइटेड किंगडम की ओर से प्रतिक्रिया दी गई. इन तीनों के अलावा जिन देशों को पक्षकार बनाया गया था वो राष्ट्रों के बीच के विवाद में अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के बाध्यकारी न्यायाधिकार को मान्यता नहीं देते. 

भारत और पाकिस्तान के मामलों में, आईसीजे के 16-सदस्यीय पैनल ने परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्रों के पक्ष में 9-7 के बहुमत से फ़ैसला दिया. फ़ैसले में ये कहा गया कि आईसीजे को इस मसले पर न्याय करने का अधिकार हासिल नहीं है. यूनाइटेड किंगडम के ख़िलाफ़ आईसीजे का पैनल 8-8 की बराबरी पर रहा. इस बराबरी को अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के अध्यक्ष जज रॉनी अब्राहम ने अपने निर्णायक वोट से भंग करते हुए यूके के पक्ष में फ़ैसला सुनाया. आईसीजे के फ़ैसले ने परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्रों का पक्ष लिया. आरएमआई के मुक़दमे ने भविष्य में ऐसी पहलों की प्रासंगिकता पर सवाल खड़े किए हैं. ख़ासतौर से इस वक़्त दुनिया का कोई भी राष्ट्र वैश्विक शक्ति संघर्ष में फंसना नहीं चाहता. 

हिंद-प्रशांत में निशस्त्रीकरण

परमाणु शक्ति से संपन्न 9 राष्ट्रों में से इज़रायल और यूनाइटेड किंगडम को छोड़कर बाक़ी तमाम राष्ट्रों की हिंद-प्रशांत क्षेत्र में किसी न किसी रूप में मौजूदगी है. परमाणु हथियारों पर प्रतिबंध से जुड़ी संधि (टीपीएनडब्ल्यू) को सितंबर 2017 में दस्तख़त के लिए सामने रखा गया था. इसे आसियान के 9 सदस्य देशों का तत्काल समर्थन हासिल हो गया. हालांकि, अपवाद के तौर पर सिंगापुर का रुख़ इसके ख़िलाफ़ रहा. परिणामस्वरूप संधि पर सवालिया निशान खड़े हो गए. महामारी के दौरान भी इस क्षेत्र में परमाणु निशस्त्रीकरण की मज़बूत बयार महसूस की गई. इसी का नतीजा है कि 30 सितंबर के बाद से अबतक 16 देशों ने टीपीएनडब्ल्यू को अपने समर्थन की पुष्टि कर दी है. 

संयुक्त राज्य अमेरिका ने अक्टूबर 2020 में टीपीएनडब्ल्यू पर हस्ताक्षर करने वाले देशों को एक पत्र लिखा था. पत्र में अमेरिका ने लिखा था कि ये संधि “निशस्त्रीकरण और सत्यापन पर अब तक किए गए प्रयासों पर पानी फेरने वाली और ख़तरनाक है”. वैसे लगता नहीं है कि इस पत्र ने अपना वांछित लक्ष्य हासिल किया है. बहरहाल परमाणु शक्ति से लैस देशों (एनपीएस) में परमाणु निशस्त्रीकरण को लेकर बढ़ती भावनाओं पर चिंता साफ़-साफ़ महसूस की जा सकती है. 

भारत के विदेश मंत्रालय ने टीपीएनडब्ल्यू पर हुई वार्ता प्रक्रियाओं में हिस्सा लेने से इनकार किया. मंत्रालय की दलील है कि परमाणु हथियारों से संपन्न किसी अन्य देश ने भी इसमें हिस्सा नहीं लिया. एशिया-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका के किसी भी मित्र-देश, मसलन ऑस्ट्रेलिया, जापान और दक्षिण कोरिया ने भी न तो वार्ता प्रक्रियाओं में हिस्सा लिया और न ही अमेरिकी परमाणु प्रतिरोधक क्षमता पर अपनी निर्भरता को वापस लेने का फ़ैसला किया है. 

वैसे तो हिंद-प्रशांत क्षेत्र की कोई भी बड़ी शक्ति टीपीएनडब्ल्यू के पक्ष में खुलकर सामने नहीं आई है. फिर भी ये बात ग़ौरतलब है कि जापान और दक्षिण कोरिया जैसे देश अपने यहां परमाणु शस्त्रागार विकसित करने की ज़रूरत पर पुनर्विचार कर रहे हैं. हो सकता है कि आईसीजी में आरएमआई के न्यायिक अभियोग का कोई अहम कानूनी नतीजा नहीं निकले. हालांकि इस शिकायत को परमाणु हथियार से संपन्न देशों के कड़े प्रतिरोध और नाराज़गी का सामना करना पड़ा. इसी प्रकार टीपीएनडब्ल्यू को किसी भी एनपीएस या महत्वपूर्ण परमाणु शक्ति की मान्यता या स्वीकार्यता नहीं मिल सकी है. ऐसे में इसको अमल में लाए जाने की क्षमता पर सवालिया निशान लग गए हैं. स्पष्ट है कि न तो परमाणु सक्रियता और न ही संधियां परमाणु हथियारों के संपूर्ण उन्मूलन का लक्ष्य हासिल करने में मददगार साबित हो रही हैं.

वैसे तो हिंद-प्रशांत क्षेत्र की कोई भी बड़ी शक्ति टीपीएनडब्ल्यू के पक्ष में खुलकर सामने नहीं आई है. फिर भी ये बात ग़ौरतलब है कि जापान और दक्षिण कोरिया जैसे देश अपने यहां परमाणु शस्त्रागार विकसित करने की ज़रूरत पर पुनर्विचार कर रहे हैं.

परमाणु अप्रसार संधि पर समीक्षा सम्मेलन 2020 के पदेन-अध्यक्ष ने टीपीएनडब्ल्यू के प्रभावी होने को लेकर सवाल खड़े किए हैं. उन्होंने ज़ोर देकर कहा है कि परमाणु शक्ति से संपन्न राष्ट्रों की मौजूदगी के बिना किसी तंत्र में परमाणु सत्ता का अस्तित्व नहीं हो सकता. मौजूदा संदर्भ में क्वॉड चीन की विस्तारवादी नीतियों की काट निकालने में लगा है. ऐसे में अगर एशिया-प्रशांत क्षेत्र की ओर नज़र दौड़ाएं तो हम पाते हैं कि प्रशांत क्षेत्र के द्वीप देश और आसियान राष्ट्र परमाणु निशस्त्रीकरण की अपनी नीति को प्रभावी और कामयाब तरीके से तभी अपना सकते हैं जब वो चीन या क्वॉड दोनों में से किसी भी पक्ष के साथ खुलकर जुड़ने की नीति का त्याग करें. हालांकि इन राष्ट्रों द्वारा ऐसी किसी नीति के अपनाए जाने का संभावित परिणाम व्यापार, बुनियादी ढांचे और अन्य सामरिक सहयोग के क्षेत्र में गिरावट के तौर पर सामने आ सकते हैं. ऐसे में परमाणु हथियारों के ख़िलाफ़ अपनी सक्रियता के नफ़ा-नुकसान की पड़ताल करने की ज़िम्मेदारी उन्हीं देशों पर है जो परमाणु हथियारों से संपन्न नहीं हैं. 

क्वॉड की सदस्यता से भारत को मिलने वाले फ़ायदे

भारत सरकार परमाणु निशस्त्रीकरण पर पिछले कुछ वर्षों से भ्रामक रवैया अपना रही है. सरकार कोई भी स्पष्ट रुख़ सामने रखने से बचती आ रही है. आज़ादी के बाद भारत वैश्विक परमाणु निशस्त्रीकरण की वकालत कर रहा था. निशस्त्रीकरण को लेकर भारत की नीति को शब्दाडंबरपूर्ण और असंगत बताया गया है. 

2017 में भारत के विदेश मंत्रालय ने परमाणु मिसाइल लॉन्च करने को लेकर उत्तर कोरिया की आलोचना की थी. तब भारत ने जापान और अन्य देशों के साथ मिलकर ये कदम उठाया था. भारत-प्रशांत क्षेत्र में सुरक्षा हालात पर चर्चा के बाद एक साझा बयान जारी किया गया था. परमाणु निशस्त्रीकरण पर जापान की नीति उसके अपने अनुभवों से निर्देशित होती रही है. जापान दुनिया का इकलौता ऐसा देश है जिसने युद्धकाल में परमाणु बमबारी की त्रासदी झेली है. हालांकि, इन अनुभवों के बावजूद अमेरिका के एकीकृत परमाणु प्रतिरक्षा समूह का सदस्य होने के चलते जापान टीपीएनडब्ल्यू के साथ जुड़ने से बचता रहा है. 

टीपीएनडब्ल्यू पर हस्ताक्षर करने वाले आरएमआई और आसियान के सदस्य देशों के लिए ये समझना ज़रूरी है कि इस क्षेत्र में साम्य या संतुलन स्थापित करने के लिए पूर्ण निशस्त्रीकरण व्यवहार्य विकल्प नहीं है

ज़ाहिर है कि क्वॉड की सदस्यता भारत को परमाणु मसले पर अपना रुख़ तय करने में मददगार साबित होगी. इतना ही नहीं परमाणु हथियार से संपन्न देश होने और समानांतर रूप से निशस्त्रीकरण की नीति अपनाने जैसे दोधारी तलवार पर चलने में भी इससे सहायता मिलने की उम्मीद है. क्वॉड की स्थापना भारत-प्रशांत क्षेत्र में नियम-आधारित व्यवस्था की स्थापना के मकसद से हुई थी. टीपीएनडब्ल्यू पर हस्ताक्षर करने वाले आरएमआई और आसियान के सदस्य देशों के लिए ये समझना ज़रूरी है कि इस क्षेत्र में साम्य या संतुलन स्थापित करने के लिए पूर्ण निशस्त्रीकरण व्यवहार्य विकल्प नहीं है. चीन हिंद-प्रशांत क्षेत्र में परमाणु हथियारों से संपन्न पांच मौलिक शक्तियों में से एक है. इस इलाक़े में इसकी नीतियां विस्तारवादी हैं. हिंद-प्रशांत क्षेत्र में सम्पूर्ण और निरपेक्ष निशस्त्रीकरण की नीति के रास्ते पर आगे बढ़ने के अपने जोख़िम हैं. आधुनिक समय में चीन और क्वॉड जैसे परस्पर विरोधी दो शक्तिशाली ध्रुवों और उनके बीच के सत्ता संघर्ष में किसी के साथ भी न जुड़ने की नीति अपनाने वाले देशों के इन दोनों के बीच फंसकर रह जाने की प्रबल आशंका है. 

बहरहाल, इसमें कोई शक़ नहीं है कि परमाणु निशस्त्रीकरण एक वांछित वैश्विक लक्ष्य है. हालांकि स्थिर क्षेत्रीय सुरक्षा हालात पर अंतरराष्ट्रीय सक्रियतावाद को वरीयता दिए जाने के अपने जोखिम हैं. इस संदर्भ में भारत अपनी नीति को कुशलतापूर्वक आगे बढ़ा रहा है. ये नीति है- खुले तौर पर परमाणु शक्ति होने के बावजूद निशस्त्रीकरण की वक़ालत करना. भारत-प्रशांत क्षेत्र में नियम-आधारित व्यवस्था को बढ़ावा देने के लिए क्वॉड देशों के साथ सहयोग करने की रणनीति भारत की परमाणु नीति के लिए फ़ायदे का सौदा है.

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