Author : Harsh V. Pant

Published on Apr 22, 2019 Updated 0 Hours ago

शुरु से चीन के बीआरआई और उससे संभव व्यापक संपर्कों के प्रति विरोधी रुख के साथ अलग खड़े रहने के बावजूद भारत इस मसले पर वैश्विक विमर्श के स्वरूप का निर्धारक रहा है।

उपनिवेशवाद के नए विरोधी

ऐसा होना बहुत अप्रत्याशित नहीं था। अतीत की ही तरह भारत ने दूसरी बार चीन की ओर से आधिकारिक तौर पर उसके बेल्ट ऐंड रोड इनीशिएटिव (बीआरआई) मंच की 25-27 अप्रैल को बीजिंग में होने जा रही बैठक में शामिल होने के न्योते को अस्वीकार कर दिया। भारत ने मई 2017 में हुई पहले बीआरआई शिखर सम्मेलन में भी शामिल होने से मना कर दिया था जिसमें 29 राष्ट्राध्यक्षों समेत 129 देशों के प्रतिनिधि शामिल हुए थे।

उस बैठक में अमेरिका, रूस, जापान, ब्रिटेन, जर्मनी और फ्रांस जैसे देशों ने भी भाग लिया था, लेकिन भारत ने इस चीनी पहल के खिलाफ खड़े रह कर अपनी गंभीर चिंताओं को रेखांकित किया था। बीआरआई के माध्यम से वैश्विक अगुआ जैसी छवि बनाने के चीनी प्रयास को यह पहला बड़ा झटका था। उसके बाद से कई और संकटों ने चीन की समस्याओं को काफी बढ़ा दिया है।

अब जब भारत ने अपना विरोध दोबारा व्यक्त किया है तो चीन इसे अपने बजाय भारत के समस्याग्रस्त इतिहास के रूप में पेश करेगा। इस पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए चाइना इंस्टीट्यूट ऑव कंटेम्पोररी इंटरनेशनल रिलेशन्स (सीआईसीआईआर) के दक्षिण एशियाई अध्ययन संस्थान के उप निदेशक लाऊ चुन्हाओ ने चीन के आधिकारिक मुखपत्र ग्लोबल टाइम्स से कहा कि “यदि भारत बीआरआई में सहयोग करने से बचता रहता है या इससे संबंधित परियोजनाओं में अड़ंगा लगाता है तो उसे विकास की कई संभावनाओं से हाथ धोना होगा और अन्य दक्षिण एशियाई देशों के साथ संबंधों में हानि उठानी पड़ेगी।”

अब जब भारत ने अपना विरोध दोबारा व्यक्त किया है तो चीन इसे अपने बजाय भारत के समस्याग्रस्त इतिहास के रूप में पेश करेगा।

भारत की ओर से इस प्रस्ताव का बहिष्कार किए जाने की पृष्ठभूमि में संयुक्त राष्ट्र द्वारा जैश-ए-मोहम्मद के मुखिया मसूद अजहर को वैश्विक आतंकवादी घोषित करवाने के भारतीय प्रयासों को चीन की ओर से लगातार बाधित किया जाना है। मई 2018 में वुहान में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रपति शी जिनपिंग के अनौपचारिक शिखर सम्मेलन के बावजूद लगता नहीं कि चीन-भारत संबंधों में कोई मौलिक बदलाव हुआ है।

डोकलाम पठार में अपनी स्थिति मजबूत करने की दिशा में चीन के प्रयासों के बारे में हालिया रिपोर्टों से सीमा पर भारत के लिए खड़ी चुनौतियों को समझा जा सकता है। इसके अलावा, भारत की सम्प्रभुता का मूल प्रश्न भी बीआरआई को संकट में डालता है। जैसा कि चीन में भारत के राजदूत विक्रम मिश्री ने इस बात को दोहराया है कि, “कोई भी देश किसी ऐसी पहल में भाग नहीं ले सकता जो सम्प्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता पर उसकी मुख्य चिंताओं की अनदेखी करती हो।”

हालांकि, बीआरआई के माध्यम से दुनिया के बाकी हिस्सों तक चीन की पहुंच निर्बाध रूप से आगे बढ़ रही है। इस महीने की बैठक में लगभग 40 सरकारों के प्रमुखों समेत 100 से अधिक देश पहुंचेंगे। इस परियोजना पर पश्चिम में बढ़ते संशय के बावजूद पिछले महीने इटली बीआरआई के लिए सहमत होने वाला पहला यूरोपीय राष्ट्र बन गया।

बहुत बढ़िया नहीं है बीआरआई

चीन आर्थिक वैश्वीकरण के अगले चरण के रूप में बुनियादी ढ़ाँचे के विकास और अंतरराष्ट्रीय सम्पर्कों को बढ़ावा देने की तत्काल आवश्यकता की ओर दुनिया का ध्यान खींचने में सफल रहा है। उसके इस कथन के परिणामस्वरूप अन्य प्रमुख शक्तियों को अपने खुद के बुनियादी ढ़ाँचे और वैश्विक सम्पर्क योजनाओं के बारे में नजरिया साफ करना पड़ा है। पिछले साल अमेरिका द्वारा इंडो-पैसिफिक इकोनॉमिक विजन की घोषणा इसी का एक उदाहरण है। दुनिया भर में ढाँचागत विकास की मांग काफी बड़ी है, और चीन इसकी पूर्ति करने की कोशिश करने वाली पहली बड़ी शक्ति है।

चीन आर्थिक वैश्वीकरण के अगले चरण के रूप में बुनियादी ढ़ाँचे के विकास और अंतरराष्ट्रीय सम्पर्कों को बढ़ावा देने की तत्काल आवश्यकता की ओर दुनिया का ध्यान खींचने में सफल रहा है।

लेकिन ऐसा करने के दौरान बीजिंग दूसरों पर किसी न किसी तरह से सवारी गांठने की अपनी प्रवृत्ति से मुक्त नहीं रह पाया है। यद्यपि चीन के बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव का विरोध भारत ने सम्प्रभुता के आधार पर किया है, फिर भी उसने सम्प्रभुता के अलावा अन्य उतनी ही महत्वपूर्ण चिंताओं, जैसे कि समावेशिता, वित्तीय, पर्यावरणीय स्थिरता और बीआरआई की एकतरफा प्रकृति की ओर भी संकेत किया है।

शुरुआत में बीआरआई में शामिल होने वाले कई देश अब पुनर्विचार करते हुए भारत जैसे ही विचार व्यक्त कर रहे हैं। मलेशिया और म्यांमार जैसे दक्षिणपूर्व एशियाई देशों ने हाल ही में बीआरआई से सामने आ रही चीन की ‘कर्ज़ का जाल’ जैसी कूटनीति के बारे में चिंताएं व्यक्त की हैं। मालदीव और श्रीलंका से लेकर मलेशिया और थाईलैंड तक अनेक चीनी परियोजनाओं के बारे में भविष्य की व्यवहार्यता पर सवाल उठाए जा रहे हैं।

पश्चिम भी चीनी आर्थिक दुर्व्यवहार पर शिकंजा कस रहा है। जर्मन उद्योग महासंघ ने हाल ही में यूरोपीय संघ का आह्वान किया है कि वह उत्पाद डंपिंग, बाध्यकारी प्रौद्योगिकी हस्तांतरण और वित्तीय समर्थन में असमानता जैसे अनुचित प्रतिस्पर्धात्मक तौर-तरीकों के बारे में चीन के साथ कड़ाई बरते।

दरअसल भारत ने एक से अधिक तरीकों से चीनी बीआरआई की शिकार बनाने वाली प्रकृति को उजागर करके सम्पर्क और बुनियादी ढ़ाँचे पर उभरते वैश्विक दृष्टिकोण को आकार दिया है। चीन के साथ संप्रभुता संबंधी द्विपक्षीय चिंताओं के कारण बीआरआई के विरोध से आगे जाते हुए भारत इस दायरे में आदर्श विमर्श के विकास को आकार देने में सफल रहा है। और, इस प्रक्रिया में स्वयं नई दिल्ली को भी क्षेत्रीय सम्पर्क जैसी सार्वभौम सेवा प्रदाता के रूप में अपनी सीमाओं को स्वीकार करने के लिए बाध्य होना पड़ा है।

दरअसल भारत ने एक से अधिक तरीकों से चीनी बीआरआई की शिकार बनाने वाली प्रकृति को उजागर करके सम्पर्क और बुनियादी ढ़ाँचे पर उभरते वैश्विक दृष्टिकोण को आकार दिया है।

इस बात को आगे ले जाएं तो भारत स्वयं अपना प्रदर्शन सुधारने के लिए मजबूर होने के साथ ही अन्य देशों के साथ साझेदारी पर अधिक रचनात्मक रूप से सोचने के लिए बाध्य हुआ है। इन सबके परिणामस्वरूप सम्पर्क और बुनियादी ढ़ाँचे के प्रति नई दिल्ली के दृष्टिकोण में एक नई गंभीरता आई है, जो पहले नहीं थी।

रास्ते की बाधाएं

भारत ने बीआरआई के प्रति अपने विरोध को हिंद-प्रशांत क्षेत्र में बुनियादी ढ़ाँचागत परियोजनाओं के वित्तीयन के लिए अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया द्वारा शुरू की गई संयुक्त पहल से दूरी बनाए रख कर संतुलित किया है। अमेरिका-जापान-आस्ट्रेलिया की पहल का उद्देश्य भी क्षेत्र में बुनियादी ढ़ाँचे के निर्माण, विकास की चुनौतियों से निपटने, सम्पर्क बढ़ाने और आर्थिक विकास को प्रोत्साहित करने वाली परियोजनाओं का वित्तपोषण करना है। भारत ने इसके बजाय द्विपक्षीय साझेदारियों पर अधिक ध्यान केंद्रित किया है। दक्षिण एशिया में जापान के साथ-साथ एशिया-अफ्रीका ग्रोथ कॉरिडोर (एएजीसी) से जुड़ाव भारत का पसंदीदा मॉडल है।

वास्तव में शुरु से चीन के बीआरआई और उससे संभव व्यापक संपर्कों के प्रति विरोधी रुख के साथ अलग खड़े रहने के बावजूद भारत इस मसले पर वैश्विक विमर्श के स्वरूप का निर्धारक रहा है। अब, यह भारत के नीति निर्माताओं पर निर्भर है कि वे चीनी परियोजना के बारे में बढ़ती चिंताओं से पैदा हुए अवसरों का उपयोग प्रभावकारी ढ़ंग से करते हुए भारत को क्षेत्रीय सम्पर्कों के सुरक्षा प्रदाता के रूप में विकसित करें।


यह लेख मूल रूप से  इकॉनॉमिक टाइम्स में प्रकाशित हो चुका है।

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