Published on Sep 25, 2023 Updated 0 Hours ago
दक्षिण एशिया में चुनावी मौसम के दौरान नई चुनौतियों की बरसात

पाकिस्तान में सियासी उठापटक और भारत में समय-पूर्व चुनाव की आशंका के बीच, दक्षिण एशियाई देशों में चुनाव पर दुनिया की नज़र है. आगामी चार महीने दक्षिण एशियाई क्षेत्र के लिए महत्वपूर्ण होंगे, जिसमें तीन देशों में चुनाव होने वाले हैं और इनके परिणाम अगले पांच वर्षों के लिए भविष्य की दिशा को निर्धारित करेंगे. मालदीव में 9 सितंबर को राष्ट्रपति चुनाव हुए; भूटान की विधानसभा 31अक्टूबर को भंग हो गई, जिससे देश में चौथे आम चुनाव का रास्ता साफ़ हो गया; और बांग्लादेश में जनवरी 2024 में चुनाव होंगे. अपनी सीमाओं और कमियों के बावजूद, इन देशों में लोकतंत्र बरक़रार है. सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि कोरोना महामारी ने इन देशों की कमजोरियों और कमियों उजागर किया है, जिसके कारण आने वाली सरकारों को कई आंतरिक चुनौतियों करना होगा और अपनी चिंताओं को दूर करने के लिए दूसरे देशों के साथ मज़बूत साझेदारी करते हुए अपने हितों को आगे बढ़ाने की दिशा में काम करना होगा.

पाकिस्तान में सियासी उठापटक और भारत में समय-पूर्व चुनाव की आशंका के बीच, दक्षिण एशियाई देशों में चुनाव पर दुनिया की नज़र है.

लोकतंत्र का भविष्य

2008 में मालदीव में लोकतंत्र की शुरुआत होने के बाद से अब तक तीन राष्ट्रपति चुनाव हो चुके हैं और हर चुनाव में एक नए राष्ट्रपति को चुना गया है. राजनीतिक अस्थिरता के बावजूद, देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था बरक़रार है और चुनावों का नियमित आयोजन कर रही है. लोकतांत्रिक स्थिति और राजनीतिक अवसरों को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि देश में राजनीतिक दलों के नेतृत्व और उनके आपसी संबंधों में लगातार परिवर्तन देखने मिला है. उदाहरण के लिए, इस चुनाव में, मालदीव नेशनल पार्टी (MNP) जम्हूरी पार्टी (JP) से अलग हो गई है, डेमोक्रेट मालदीवियन डेमोक्रेटिक पार्टी (MDP) से अलग हो गए हैं, और प्रोग्रेसिव अलायंस ने अपने मौजूदा नेता अब्दुल्ला यामीन को चुनौती देकर एक नए नेतृत्व का चुनाव किया है. संयोग से, देश के इतिहास में पहली बार राष्ट्रपति पद के लिए प्रथम चरण के चुनाव में आठ उम्मीदवार (हर पार्टी से एक उम्मीदवार और तीन स्वतंत्र उम्मीदवार) खड़े हो रहे हैं. इन चुनावों के परिणाम आने के बाद ही संभावित दूसरे दौर के चुनावों और 2024 में होने वाले संसदीय चुनावों के लिए गठबंधनों के समीकरण तय किए जाएंगे. इस तरह से ये चुनाव नए प्रशासन की क्षमता और प्रभावशीलता को निर्धारित करेंगे.

2008 में पूर्ण राजतंत्र से संवैधानिक राजतंत्र बनने के बाद भूटान में तीन चुनाव हुए हैं, जहां हर चुनाव के साथ नए दल को सत्ता मिली है और नए प्रधानमंत्री को चुना गया है. भूटान का मामला दक्षिण एशिया के अन्य देशों से एकदम अलग है, क्योंकि यहां चुनाव हिंसा-मुक्त, नियमित और समय पर आयोजित होते रहे हैं. इन आलोचनाओं के बावजूद कि भूटान की चुनावी व्यवस्था नई पार्टियों के प्रति भेदभावपूर्ण है, देश में राजनीतिक पार्टियों का गठन और विघटन सहूलियत के मुताबिक किया जाता रहा है, और वंश और परिवार की परवाह किए बगैर उनके नेतृत्व में समय-समय पर बदलाव होता रहता है. आगामी चुनावों में, पांच राजनीतिक पार्टियां पहले दौर के चुनाव में आमने-सामने होंगी.

2008 में पूर्ण राजतंत्र से संवैधानिक राजतंत्र बनने के बाद भूटान में तीन चुनाव हुए हैं, जहां हर चुनाव के साथ नए दल को सत्ता मिली है और नए प्रधानमंत्री को चुना गया है.

दो नई पार्टियां (भूटान टेंड्रेल पार्टी और ड्रुक थुएंड्रेल त्शोग्पा) उन तीन पार्टियों के खिलाफ चुनाव लड़ेंगी, जिन्होंने 2008 से ही भूटान पर शासन किया है, यानी ड्रुक फुएनसम त्शोग्पा, पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी और मौजूदा सत्तारूढ़ पार्टी, ड्रुक न्यामरूप त्शोग्पा. पांचों में से जो दो पार्टियां सबसे ज्यादा वोट पाएंगी, वही दूसरे चरण के चुनावों में हिस्सा लेंगी, और उसके बाद सत्तारूढ़ और विपक्षी पार्टी के रूप में उभर कर सामने आएंगी.

बांग्लादेश में, मौजूदा अवामी लीग सरकार पर चुनावों में धांधली करने, विपक्षी नेताओं को जेल में डालने और चुनावी हिंसा में शामिल होने के आरोपों के बावजूद, देश में नियमित रूप से चुनाव होते रहे हैं. वर्तमान में, देश की राजनीति पर सत्तारूढ़ अवामी लीग और उसकी प्रतिद्वंदी बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (BNP) का वर्चस्व है. यह तब है जबकि BNP की राजनीतिक पूंजी में लगातार गिरावट आई है, जहां 2014 में उसने चुनावों का बहिष्कार किया था और 2018 के चुनावों में बहुत कम सीटें हासिल की थीं. हालांकि, देश में चुनावी हार-जीत के बारे में कुछ कह पाना मुश्किल है. 

जहां एक ओर शेख हसीना विपक्षी नेताओं से चुनावों में भाग लेने का आग्रह कर रही हैं और अपनी लोकतांत्रिक साख और वैधता को बढ़ावा देने का प्रयास कर रही हैं, दूसरी ओर BNP सरकार से रियायतें हासिल करने के लिए चुनावों का बहिष्कार करने की बात कर रही है. वहीं कट्टरपंथी जमात-ए-इस्लामी पार्टी चुनावों में भाग लेने के तरीके ढूंढ़ रही है.

सीमित अवसर और चुनौतियों की भरमार

लोकतांत्रिक प्रतिस्पर्धा बढ़ने के बावजूद, आने वाली सरकारों के लिए अगले पांच साल आसान नहीं होंगे. कोरोना महामारी और रूस-यूक्रेन युद्ध के कारण दक्षिण एशियाई अर्थव्यवस्थाएं अभी भी गंभीर संकट की स्थिति में हैं. एक तरफ़ ईंधन और खाद्य वस्तुओं की क़ीमतें आसमान छू रही हैं, वहीं दूसरी तरफ़ आयात पर निर्भर मालदीव, भूटान और बांग्लादेश का विदेशी मुद्रा भंडार कम होता जा रहा है. कोरोना महामारी के कारण राष्ट्रीय आय कम होती जा रही है और ऋण का बोझ बढ़ता जा रहा है. यही कारण है कि विदेशी मुद्रा भंडार में तेजी से गिरावट दर्ज की गई है. उदाहरण के लिए, मालदीव के पास महज़ 50 करोड़ अमेरिकी डॉलर का भंडार बचा है; भूटान का विदेशी मुद्रा भंडार केवल 14 महीनों तक आवश्यक आयात का भार उठा सकता है; और बांग्लादेश का विदेशी मुद्रा भंडार पिछले सात सालों के न्यूनस्तर स्तर पर है. इसलिए आने वाली सरकारों को आय और विदेशी मुद्रा भंडार के स्रोतों में विविधता लानी होगी. वर्तमान में, मालदीव विदेशी मुद्रा के लिए पर्यटन क्षेत्र पर अत्यधिक निर्भर है. भूटान पर्यटन और जलविद्युत पर ध्यान केंद्रित करता है, वहीं बांग्लादेश मुख्य रूप से कपड़ों के निर्यात पर निर्भर है.

लोकतांत्रिक प्रतिस्पर्धा बढ़ने के बावजूद, आने वाली सरकारों के लिए अगले पांच साल आसान नहीं होंगे. कोरोना महामारी और रूस-यूक्रेन युद्ध के कारण दक्षिण एशियाई अर्थव्यवस्थाएं अभी भी गंभीर संकट की स्थिति में हैं.

इसके अलावा, दक्षिण एशियाई देशों को अपनी अर्थव्यवस्थाओं में जान फूंकने के लिए व्यापक संरचनात्मक सुधार पर ध्यान केंद्रित करना होगा. मालदीव में, बजट घाटे और अनावश्यक व्यय पर लगाम लगाने और ऋण को कम करते हुए विकास को बढ़ावा देने की ज़रूरत है. भूटान को अर्थव्यवस्था को फिर से पटरी पर लाने, पर्यटन क्षेत्र को पुनर्जीवित करने, निजी क्षेत्र को मजबूत बनाने, विदेशी निवेश बढ़ाने, नौकरशाही व्यवस्था में सुधारों को बढ़ावा देने और रोजगार के नए अवसरों को पैदा करने की तत्काल ज़रूरत है. भूटान को इन आर्थिक सुधारों को तत्काल लागू करने की आवश्यकता है ताकि वह देश से बड़े पैमाने पर युवाओं के प्रवासन को रोक सके. अंततः, बांग्लादेश को भी रोज़गार अवसरों को पैदा करने, सुशासन को बढ़ावा देने, निर्यात और ऊर्जा स्रोतों में विविधता लाने और बैंकिंग और वित्तीय क्षेत्रों में सुधारों को बढ़ावा देने पर ध्यान केंद्रित करना होगा.

नई मजबूरियां और साझेदारियां

इन चुनौतियों का असर आने वाली सरकारों के बाहरी संबंधों पर भी देखने को मिलेगा, साथ ही यह उनके देश के हितों को बढ़ावा देने की क्षमता को भी प्रभावित करेगा. मालदीव में, मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियां भारत और चीन को नाराज़ नहीं करना चाहेंगी क्योंकि ये दोनों देश आर्थिक और राजनीतिक रूप से प्रभावशाली हैं. वर्तमान में, देश बजट घाटे, ऋण और अपव्यय जैसी चिंताओं का सामना कर रहा है, लेकिन मालदीव में होने वाले चुनावों के मद्देनजर उम्मीदवार वेतन वृद्धि, सब्सिडी और अवसंरचना विकास का वादा कर रहे हैं. इससे पता चलता है कि भविष्य में भी मालदीव बाहरी सहायता (ज्यादातर भारत और चीन पर) पर निर्भर रहने वाला है. अगर एमडीपी या डेमोक्रेट सत्ता में आते हैं, तो संभावना है कि वे भारत के साथ घनिष्ठ संबंध बनाए रखना चाहेंगे. इसका कारण यह है कि दोनों देशों के बीच आपसी भरोसे का एक लंबा इतिहास है और दोनों के राजनीतिक संबंध काफ़ी मज़बूत हैं, और मालदीव के सामाजिक-आर्थिक विकास क्षेत्र में भारत ने भारी निवेश किया है. इसी तरह, यामीन के राष्ट्रपति पद की दौड़ से बाहर होने जाने के बाद, चीन समर्थक प्रोग्रेसिव एलायंस ने अपनी भारत विरोधी बयानबाजी को रोक लगाई है. इससे पता चलता है कि भले ही उनकी पार्टी चीन के साथ मज़बूत संबंध रखना चाहती है, लेकिन उसके साथ ही भारत के प्रति अपने नज़रिए में बदलाव भी कर रही है और उसे अलग-थलग करने से झिझक रही है. आखिर में, मालदीव की विदेश नीति के न्यू प्रति स्वतंत्र उम्मीदवारों और तुलनात्मक रूप से छोटी-छोटी पार्टियों की प्रतिक्रियाएं अलग-अलग हैं. कुछ तटस्थ रहना चाहते हैं और वहीं लोगों ने भारत के साथ मालदीव के रक्षा सहयोग का राजनीतिकरण करके राष्ट्रवादी भावनाओं की आंच को भड़काना जारी रखा है. फिर भी, भविष्य में गठबंधन और सहयोग की संभावना को लेकर इन नीतियों को लेकर उठा-पटक जारी रहेगी.

वचिनमसिनहीं दूसरी ओर, भूटान में, राजा देश की विदेश नीति और रक्षा और सुरक्षा ज़रूरतों के लिए “मार्गदर्शक” की भूमिका में बने हुए हैं परिणामस्वरूप, चारों ओर से ज़मीन से घिरे इस देश में निरंतरता बने रहने की संभावना है, भले ही चुनावों के परिणाम कुछ भी हों. भूटान भारत के साथ अपने संबंधों को लेकर कोई समझौता कर सकता, वहीं चीन के साथ रणनीतिक संबंध हैं. ऐसा दो कारणों से है: चीन के साथ सीमा विवाद को सुलझाना और उससे आर्थिक लाभ उठाना. इसलिए भूटान की सरकार हमेशा से भारत के साथ आर्थिक संबंध बनाए रखने की कोशिश करती रही है, जहां वह नई दिल्ली के हितों और उसकी चिंताओं का सम्मान करता रहा है. और किसी का पक्ष लिए बिना और चीन के साथ दुश्मनी बढ़ाने की बजाए उसने चीन के साथ अपने सीमा विवादों को सुलझाने की कोशिशें की हैं. हालांकि 2020 में गलवान में हुई भिड़ंत और भारत और चीन के बीच बढ़ती प्रतिस्पर्धा ने भूटान को अपने विवादों को जल्द से जल्द ख़त्म करने के लिए प्रेरित किया है. मौजूदा सरकार ने चीन के साथ एक समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर किए हैं, चार विशेषज्ञ समूह की बैठकों का आयोजन किया है, और दोनों देशों के बीच सीमा के सीमांकन के लिए एक तकनीकी टीम की बैठक शुरू की है. यहां तक कि भविष्य में भी, आने वाली सरकार किसी का भी पक्ष न लेकर, कुछ क्षेत्रों को चीन को सौंपकर, डोकलाम मुद्दे पर त्रिपक्षीय बातचीत को जारी रखकर, भारत के साथ आर्थिक संबंधों को एकीकृत करके और चीन के साथ संबंधों को मज़बूत बनाने की कोशिश के साथ वह अपनी इस नीति को जारी रखेगी. 

भूटान भारत के साथ अपने संबंधों को लेकर कोई समझौता कर सकता, वहीं चीन के साथ रणनीतिक संबंध हैं. ऐसा दो कारणों से है: चीन के साथ सीमा विवाद को सुलझाना और उससे आर्थिक लाभ उठाना.

बांग्लादेश में, अगर आवामी लीग सत्ता में आती है तो वह नई दिल्ली की चिंताओं का तो सम्मान करेगा, साथ ही चीन, भारत और रूस के साथ बेहतर संबंधों के लिए भी प्रयास करेगा. हालांकि, पश्चिम और संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ उसके संबंध चुनाव के परिणाम की बजाय उसके तौर-तरीकों पर निर्भर करेंगे. अमेरिका स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने के लिए प्रतिबंधों और वीज़ा नीतियों के माध्यम से सरकार पर दबाव बनाने की कोशिश कर रहा है और ढाका के ऐसा करने में असफल रहने पर पश्चिम द्वारा और अधिक आक्रामक कार्रवाई की जाएगी. हालांकि, निष्पक्ष चुनावों के परिणामस्वरूप अगर हसीना सरकार की जीत होती है तो इससे अमेरिका और शेष पश्चिम के साथ बांग्लादेश के संबंध और मज़बूत होंगे. वहीं दूसरी ओर, विपक्ष (बीएनपी और जमात) के चीन और पाकिस्तान के साथ घनिष्ठ संबंध हैं और अगर उन्हें चुनावी जीत मिलती है तो उनका झुकाव उनकी ओर हो सकता है. इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि दिल्ली में यह सोच हावी है कि सरकार में बदलाव से भारत के लिए नई मुसीबतें खड़ी हो सकती हैं. हालांकि, यह इकलौती संभावना नहीं है. चीन की बढ़ती आक्रामकता, पाकिस्तान की संकटग्रस्त आर्थिक और राजनीतिक स्थिति और म्यांमार के साथ बढ़ते तनाव को देखते हुए, बीएनपी भी भारत के साथ दुश्मनी करने और उसको अलग-थलग करने की कोशिश नहीं करना चाहेगा. जिस तरह से बांग्लादेश अपने आर्थिक विकास पर ध्यान केंद्रित कर रहा है, उसे हरित संक्रमण, द्विपक्षीय और अंतर-क्षेत्रीय कनेक्टिविटी के लिए भारत जैसे पड़ोसी देश की ज़रूरत है क्योंकि वह क्षेत्र में राजनीतिक और आर्थिक रूप से स्थिर एकमात्र देश है.

जिस तरह से कोरोना महामारी ने देशों की कमजोरियों को उजागर किया है और क्षेत्र में भूराजनीतिक प्रतिस्पर्धा बढ़ती जा रही है, ऐसे में दक्षिण एशियाई देशों को अपनी नीतियों और कार्रवाईयों पर पुनर्विचार की ज़रुरत है. मालदीव, भूटान और बांग्लादेश में चुनाव होने वाले हैं, और वे लोकतंत्र के प्रति प्रतिबद्ध हैं, अपनी कमजोरियों को दूर करने का इरादा रखते हैं, और विभिन्न देशों के साथ संतुलित संबंध बनाए रखने का प्रयास कर रहे हैं. इस रुझान पर नज़र रखना दिलचस्प होगा क्योंकि अन्य दक्षिण एशियाई देशों जैसे पाकिस्तान, भारत और श्रीलंका में अगले साल (2024) में चुनाव होने वाले हैं.

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Aditya Gowdara Shivamurthy

Aditya Gowdara Shivamurthy

Aditya Gowdara Shivamurthy is an Associate Fellow with ORFs Strategic Studies Programme. He focuses on broader strategic and security related-developments throughout the South Asian region ...

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