Nepal election: नेपाल में संपन्न हुए चुनावों से मिले संकेत?
नेपाल (Nepal) में लोकतंत्र रोमांचक ढंग से विकसित हो रहा है. माओवादियों (maoists) के द्वारा एक दशक लंबे ख़ूनी विद्रोह और फिर राजनीतिक अस्थिरता के एक दशक के बाद नेपाल ने 2015 में नये संविधान को अपनाया. नये संविधान को भेदभाव और पक्षपात से भरा, विशेष रूप से मधेश क्षेत्र में रहने वाले लोगों के लिए, बताए जाने के बावजूद नेपाल की चुनी हुई संसद ने अपना पांच वर्ष का कार्यकाल पूरा किया. हालांकि, इन पांच वर्षों के दौरान सरकार में बदलाव भी देखा गया. राजनीतिक इतिहास पर विचार करते हुए देखा जाए तो अस्थिरता में बिना किसी योगदान के सरकार में ये बदलाव नेपाल के द्वारा पिछले पांच वर्षों में हासिल महत्वपूर्ण उपलब्धि को कमज़ोर नहीं कर सकता है. वैसे भद्दा आंतरिक सत्ता संघर्ष और राजनीतिक पार्टियों के द्वारा पाला बदलना सिर्फ़ नेपाल तक सीमित नहीं है लेकिन पिछले दिनों हिमालय में बसे इस गणराज्य में हुआ चुनाव (elections) यहां के लोकतंत्र (democracy) के लिए महत्वपूर्ण संकेत देता है. जिस समय दक्षिण एशिया (south asia) के कुछ देश सरकारों और सरकारी तंत्र के ध्वस्त होने के साथ आगे बढ़ने के लिए संघर्ष कर रहे हैं, उस समय संघीय संसद और प्रांतीय विधानसभाओं के लिए 20 नवंबर 2022 को नेपाल में हुए मतदान का गहरा विश्लेषण करना ज़रूरी है.
वैचारिक आधार पर सबसे कम चुनौतीपूर्ण इस चुनाव में राष्ट्रीय स्वतंत्र पार्टी और दूसरे निर्दलीय उम्मीदवारों की भूमिका को खारिज नहीं किया जा सकता क्योंकि मई 2022 में काठमांडू के मेयर के चुनाव में ऐसे उम्मीदवार ने बड़ी जीत हासिल की थी.
मुक़ाबला और उसके भागीदार
नेपाल में चुनावी मुक़ाबला दोतरफ़ा था. एक तरफ़ सत्ताधारी पांच पार्टियों का गठबंधन था जिसका नेतृत्व नेपाली कांग्रेस ने किया. इस गठबंधन को मुख्य विपक्षी नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी- एकीकृत मार्क्सवादी-लेनिनवादी (CPN-UML) के नेतृत्व वाले गठबंधन ने चुनौती दी. वैचारिक आधार पर सबसे कम चुनौतीपूर्ण इस चुनाव में राष्ट्रीय स्वतंत्र पार्टी और दूसरे निर्दलीय उम्मीदवारों की भूमिका को खारिज नहीं किया जा सकता क्योंकि मई 2022 में काठमांडू के मेयर के चुनाव में ऐसे उम्मीदवार ने बड़ी जीत हासिल की थी. हालांकि, सत्ताधारी और विपक्षी पार्टियों का गठबंधन बनावटी लगता है क्योंकि साफ़ तौर पर देखा जा सकता है कि इस गठबंधन के पीछे हताशा से भरे राजनीतिक अवसरवाद की बड़ी भूमिका थी. लगता है कि सत्ताधारी गठबंधन में शामिल महत्वपूर्ण सदस्य और मधेश में सक्रिय दोनों पार्टियां- लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनमोर्चा- इस क्षेत्र में लोगों का समर्थन काफ़ी हद तक गंवा चुकी हैं. सत्ताधारी गठबंधन के कम्युनिस्ट सदस्यों- नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (एकीकृत समाजवादी) जिसका नेतृत्व पूर्व प्रधानमंत्री माधव नेपाल कर रहे हैं और नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी सेंटर) जिसका नेतृत्व पुष्प कमल दहल कर रहे हैं- ने खड़गा प्रसाद ओली के नेतृत्व वाले विपक्षी गठबंधन की चुनावी संभावना को मात देने में पूरी ताक़त लगा दी. वहीं 2017 के चुनाव में शानदार बहुमत के साथ सत्ता में आने वाली कम्युनिस्ट पार्टियों के नेता अब पूरी तरह बंटे हुए हैं. CPN-UML के नेतृत्व वाले विपक्षी गठबंधन में शायद ही कोई महत्वपूर्ण साझेदार है. हिंदू राष्ट्रवाद और राजतंत्र का समर्थन करने वाली राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी (RPP) को 2017 के चुनाव में सिर्फ़ एक संसदीय सीट पर जीत मिली थी और महज़ 2.06 प्रतिशत वोट मिले थे. इसी तरह मधेश आधारित एक और दल जनता समाजवादी पार्टी (JSP), जो सीटों के बंटवारे को लेकर असहमति के बाद सत्ताधारी गठबंधन से बाहर होकर विपक्ष के साथ मिल गई थी, भी एक बड़ी ताक़त के रूप में नहीं दिखी. 2017 के चुनाव में बहुमत हासिल करने वाली CPN-UML अब बंट चुकी है. पार्टी के एक बड़े नेता माधव कुमार नेपाल ने CPN-UML से अलग होकर CPN (एकीकृत समाजवादी) पार्टी का गठन किया और उन्होंने CPN-UML को सत्ता से दूर रखने के लिए पूरी ताक़त लगा दी. पांच बार के प्रधानमंत्री और सत्ताधारी पार्टी के अध्यक्ष के तौर पर शेर बहादुर देउबा के राजनीतिक क़द को देखते हुए नेपाली कांग्रेस ने इस चुनाव में पिछले चुनाव के मुक़ाबले काफ़ी अच्छा प्रदर्शन किया है. दिसंबर 2021 में नेपाली कांग्रेस के 14वें पार्टी सम्मेलन के दौरान पार्टी ने कोइराला ख़ानदान के शेखर कोइराला के मुक़ाबले शेर बहादुर देउबा को पार्टी की अध्यक्षता सौंपने को प्राथमिकता दी. लेकिन इसके बावजूद नेपाली कांग्रेस के भीतर आंतरिक संघर्ष से पूरी तरह इनकार नहीं किया जा सकता है. हालांकि इस चुनाव के नतीजों में नेपाली कांग्रेस के इस आंतरिक संघर्ष का ज़्यादा असर नहीं दिखाई दिया.
राजनीतिक दलों के चुनावी घोषणापत्र को क़रीब से देखने पर पता चलता है कि आंतरिक राजनीतिक और आर्थिक मुद्दों पर किए गए वादों के साथ चुनाव से पहले बड़े अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर भी काफ़ी चर्चा हुई. ये कोई हैरानी की बात नहीं है कि CPN-UML ने नेपाल के दक्षिणी पड़ोसी भारत के साथ नेपाल की प्रादेशिक अखंडता के मुद्दे को उठाया.
चुनाव के मुद्दे और चुनावी घोषणापत्र
राजनीतिक दलों के चुनावी घोषणापत्र को क़रीब से देखने पर पता चलता है कि आंतरिक राजनीतिक और आर्थिक मुद्दों पर किए गए वादों के साथ चुनाव से पहले बड़े अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर भी काफ़ी चर्चा हुई. ये कोई हैरानी की बात नहीं है कि CPN-UML ने नेपाल के दक्षिणी पड़ोसी भारत के साथ नेपाल की प्रादेशिक अखंडता के मुद्दे को उठाया. केपी ओली ने ख़ुद को भारत के दबाव के ख़िलाफ़ खड़ा होने वाला और नेपाल का नया नक्शा, जिसमें कथित तौर पर भारतीय कब्ज़े वाले कुछ क्षेत्र शामिल हैं, अपनाने वाला इकलौता नेता घोषित करते हुए दावा किया कि वो भारत के ‘नियंत्रण’ वाले ‘नेपाल के क्षेत्र’ को हासिल करके रहेंगे. हालांकि केपी ओली को दिखावे के अलावा इस दावे से कुछ ख़ास हासिल नहीं हुआ. इसके उलट नेपाली कांग्रेस ने चीन के साथ नेपाल के ज़मीनी विवाद को अपने चुनावी घोषणापत्र में शामिल किया. ज़मीन पर दावे, जो कि राजनीतिक दिखावे का एक महत्वपूर्ण स्रोत है, को भारत और चीन के बारे में अलग-अलग विचार होने के बावजूद पार्टियों के बीच एक समानता के रूप में देखा जाना चाहिए. इसी तरह चुनाव में एक दूसरे के विरोधी गठबंधनों का विदेशी मदद और कर्ज़ के मामले में भी अलग-अलग रुख़ दिखा. नेपाली कांग्रेस अपने चुनावी घोषणापत्र में चीन के बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) के मुक़ाबले अमेरिका के द्वारा 500 मिलियन अमेरिकी डॉलर वाले मिलेनियम चैलेंज कॉरपोरेशन (MCC) के अनुदान का पक्ष लेती नज़र आई. नेपाल के पूर्व राजा बीरेंद्र के द्वारा नेपाल को शांति का एक क्षेत्र प्रस्तावित किया गया था. ये बात CPN (माओवादी-सेंटर), CPN-UML और राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी के चुनावी घोषणापत्र में दिखी. CPN (माओवादी-सेंटर) इस मुद्दे को उठाकर कथित रूप से अन्य देशों, अगर विशेष रूप से चीन के साथ नहीं, के साथ नेपाल के संबंधों को भारत के साथ संतुलित करना चाहती है. लोगों को जिन दिक़्क़तों और आर्थिक कठिनाइयों से गुज़रना पड़ा और उन चिंताओं का समाधान करने में सरकार की सीमित भूमिका को ज़्यादातर निर्दलीय उम्मीदवारों ने उठाया.
ये दलील दी जा सकती है कि नेपाल में चुनाव को प्रभावित करने में भारत और चीन की भूमिका से पूरी तरह इनकार नहीं किया जा सकता है लेकिन नतीजों को घरेलू शासन व्यवस्था और आर्थिक मुद्दों के साथ राजनीतिक समीकरण ही तय करते हैं.
क्या पता चलता है?
वैचारिक स्तर पर शायद ही किसी मेलजोल और बिना किसी साझा न्यूनतम कार्यक्रम के गठित नेपाल की पार्टियों का ये गठबंधन नेपाल के चुनाव को लेकर लोगों के सामने दिलचस्प तस्वीर पेश करता है. 2015 में भारत के द्वारा सीमा पर छह महीने लंबी नाकेबंदी के बाद कम्युनिस्ट गठबंधन ने जो भारत विरोधी माहौल तैयार किया और जिसने 2017 के चुनाव में उसकी जीत में महत्वपूर्ण योगदान दिया, वो अब ओली की काफ़ी कोशिशों के बाद भी ख़त्म होता दिख रहा है. ओली की सरकार के ख़िलाफ़ भ्रष्टाचार के आरोपों के मुद्दे, पार्टी के भीतर आंतरिक बंटवारे और संसद को भंग करने की उनकी कोशिशों ने CPN-UML की लोकप्रियता को चोट पहुंचाई है. दूसरी तरफ़, CPN-UML सरकार को बचाने की चीन की कई कोशिशों के बाद भी नाकामी मिलना इस बात की तरफ़ इशारा करता है कि नेपाल की राजनीति में चीन का असर कम हो रहा है. इसके विपरीत, नेपाल के द्वारा भारत को अरबों के बिजली निर्यात और महामारी के दौरान नेपाल को भारत के समर्थन ने भारत विरोधी भावना को थोड़ा कम कर दिया है. ये दलील दी जा सकती है कि नेपाल में चुनाव को प्रभावित करने में भारत और चीन की भूमिका से पूरी तरह इनकार नहीं किया जा सकता है लेकिन नतीजों को घरेलू शासन व्यवस्था और आर्थिक मुद्दों के साथ राजनीतिक समीकरण ही तय करते हैं. वैसे तो नतीजों में किसी एक पार्टी को बहुमत नहीं मिला है लेकिन नेपाली कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है और उसके गठबंधन को सबसे ज़्यादा सीट मिली है. ऐसे में लोग यही उम्मीद कर रहे हैं कि नेपाल एक बार फिर राजनीतिक अस्थिरता के दौर से नहीं गुज़रे.
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