Published on Jun 20, 2022 Updated 29 Days ago

बढ़ते घरेलू उथल-पुथल के बीच नेपाल किस तरह इस क्षेत्र में पैदा होती भू-राजनीतिक चुनौतियों का निपटारा करेगा?

आर्थिक और राजनैतिक बदलाव से गुज़रता पड़ोसी देश ‘नेपाल’

ये लेख ओआरएफ़ पर छपे सीरीज़, भारत के पड़ोस में अस्थिरता: एक बहु-परिप्रेक्ष्य अवलोकन का हिस्सा है.


लोकतांत्रिक बदलाव की तरफ़ नेपाल की यात्रा एक जैसी नहीं रही है. 40 के दशक के आख़िरी हिस्से से शुरू होकर 70 वर्षों के इतिहास में नेपाल ने सात संविधान देखे हैं और तब से किसी भी निर्वाचित प्रधानमंत्री ने अपना कार्यकाल पूरा नहीं किया है. इस संबंध में कमसेकम तीन तरह की अस्थिरताएं देखी जा सकती है: कार्यकारी, विधायी और संवैधानिक. अब अगर नज़र डालें तो लगता है कि नेपाल के ताज़ा संविधान, जिसका मसौदा संविधान सभा के ज़रिए तैयार किया गया था और जिसकी घोषणा 2015 में की गई थी, ने कुछ महत्वपूर्ण राजनीतिक मुद्दों का समाधान किया है लेकिन आर्थिक विकास से जुड़े बड़े सवालों का समाधान करना अभी भी बाक़ी है. आर्थिक कायाकल्प से जुड़े मुद्दे पार्टी के बाहर और भीतर के संघर्षों की वजह से फीके पड़ जाते हैं. ये संघर्ष सिर्फ़ बहुदलीय लोकतंत्र की छवि को नुक़सान पहुंचा रहे हैं बल्कि राजनीतिक प्रणाली में लोगों के भरोसे पर भी असर डाल रहे हैं. इसी तरह पूंजी निर्माण की पूरी प्रक्रिया पर कुलीन या पूंजीवादी तबके के छोटे से लोगों का एकाधिकार/कब्ज़ा हो गया है जो सिर्फ़ अर्थव्यवस्था बल्कि दलगत राजनीति पर भी नियंत्रण करते हैं

ये लेख नेपाल में सफल राजनीतिक एवं आर्थिक परिवर्तन के विषय में राजनीति, भू-राजनीति, अर्थव्यवस्था एवं दूसरे कारणों के बीच इंटरफेस की चर्चा करता है. 

इसके अलावा कुछ बाहरी कारण भी हैं जिनका घरेलू राजनीति को (फिर से) तय करने में बड़ा योगदान है. इसकी मुख्य वजह नेपाल की भौगोलिक स्थिति है जो दो बड़ी शक्तियोंचीन और नेपाल के बीच है. विकास और दूसरी गतिविधियों के लिए बाहरी दुनिया पर नेपाल की भारी निर्भरता हालात को और भी ख़राब बनाती है क्योंकि इसकी वजह से अंतर्राष्ट्रीय राजनीति एवं नीति में नेपाल को अपनी बात रखने का मौक़ा नहीं मिल पाता. ये लेख नेपाल में सफल राजनीतिक एवं आर्थिक परिवर्तन के विषय में राजनीति, भू-राजनीति, अर्थव्यवस्था एवं दूसरे कारणों के बीच इंटरफेस की चर्चा करता है. 

राजनीति और भू-राजनीति के बीच इंटरफेस

2015 में संविधान की औपचारिक घोषणा के बाद नेपाल ने नई राजनीतिक व्यवस्था को चुना और सभी तीन स्तरों– संघीय, प्रांतीय और स्थानीय स्तर पर नेपाल में चुनाव हुए. 2018 में नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (एनसीपी) के नेतृत्व में नई सरकार का गठन हुआ लेकिन 90 के दशक की तरह ये सरकार भी मुख्य रूप से एनसीपी के आंतरिक संघर्षों की वजह से कार्यकाल पूरा होने से पहले ही गिर गई. एनसीपी के संघर्ष की वजह से पार्टी दो भागों में बंट गई थीनेपाल कम्युनिस्ट पार्टी एकीकृत मार्क्सवादी एवं लेनिनवादी (सीपीएनयूएमएल) और नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी माओवादी केंद्र. 2018 में दोनों गुटों ने एक होने का फ़ैसला लिया और एनसीपी का गठन हुआ. वैसे तो जब से कम्युनिस्ट पार्टियां नेपाल के राजनीतिक परिदृश्य में आई हैं, तब से उनका पूरा इतिहास बंटवारे और फिर से एकीकरण से भरा हुआ है. शायद यही वजह है कि ज़्यादातर कम्युनिस्ट पार्टियां अपने नाम के आगेयूनाइटेड’ (एकीकृत) शब्द लगाती हैं

नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर का संघर्ष इतना गंभीर हो गया कि उसने उत्तर, दक्षिण और पश्चिम के दूर-दराज़ के देशों जैसे अमेरिका और उसके सहयोगियों को इस चर्चा में खींच लिया जहां वास्तविक और काल्पनिक- दोनों तरह के मुद्दों को कम करके आंका गया.

नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर का संघर्ष इतना गंभीर हो गया कि उसने उत्तर, दक्षिण और पश्चिम के दूर-दराज़ के देशों जैसे अमेरिका और उसके सहयोगियों को इस चर्चा में खींच लिया जहां वास्तविक और काल्पनिक- दोनों तरह के मुद्दों को कम करके आंका गया. इसने केवल एक से ज़्यादा तरीक़ों से भूराजनीति को और भी बढ़ाया. तब भी नेपाल के लिए इस भूराजनीतिक बवंडर से बाहर निकलना मुश्किल लगने लगा. इसकी वजह ये है कि नेपाल की भूराजनीति पर राजनीतिक दलों द्वारा अपनाई जाने वाली वैचारिक स्थिति का ज़्यादा असर है. ये वो समय भी था जब नेपाल ने चीन की बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) के साथसाथ अमेरिका के द्वारा शुरू किए गए मिलेनियम चैलेंज कॉरपोरेशन (एमसीसी) पर भी दस्तख़त किए. इन दोनों योजनाओं का उद्देश्य नेपाल में आधारभूत ढांचे का निर्माण करना है, कमसेकम सैद्धांतिक स्तर पर, लेकिन इसमें भूराजनीतिक और भूआर्थिक पहलुओं की भी भूमिका है. कारण अच्छा हो या ख़राब लेकिन इसकी वजह से नेपाल की राजनीति इस हद तक बंट गई कि राजनीतिक परिवर्तन के समय के दौरान सभी दूसरे महत्वपूर्ण मुद्दों को नज़रअंदाज़ कर दिया गया. इस भूराजनीतिक प्रतियोगिता का परिणाम अक्सर पड़ोस के देशों के साथ नेपाल के संबंधों पर भी पड़ा. इसका एक प्रमुख उदाहरण है 2020-2021 में भारत के साथ सीमा विवाद और बाद में चीन के साथ भी सीमा विवाद. कई लोगों का मानना है कि इस सीमा विवाद का समय निश्चित रूप से इस क्षेत्र में व्यापक भूराजनीतिक प्रतियोगिता के मुताबिक़ था. तब भी इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता है कि दोनों देशों के साथ नेपाल का सीमा विवाद है. 2020-21 में जो हुआ वो 90 के दशक में हुई राजनीतिक घटनाओं को फिर से दोहराने की तरह है. उस वक़्त विदेश नीति का इस्तेमाल आंतरिक राजनीति में औज़ार की तरह किया गया था. एक साथ देखा जाए तो हाल के वर्षों में हुई घटनाओं की वजह से दो बार संसद को भंग किया गया. हालांकि दिलचस्प बात ये है कि 2020-21 में दोनों ही बार सर्वोच्च न्यायालय ने संसद को फिर से बहाल कर दिया. लेकिन इसकी वजह से एनसीपी के नेतृत्व वाली दो-तिहाई बहुमत की सरकार गिर गई और बाद में नेपाली कांग्रेस पार्टी (एनसी), जिसके पास 275 सदस्यों के सदन में सिर्फ़ 61 सांसद थे, ने गठबंधन के सहयोगियों के साथ मिलकर सरकार बनाई. नेपाली कांग्रेस पार्टी के ज़्यादातर सहयोगी वामपंथी विचारधारा को मानने वाले हैं और अब इन सहयोगी दलों की मदद से 2018 में निर्वाचित नेपाल की संसद पहली बार अपना कार्यकाल पूरा करने जा रही है

पश्चिमी देशों ने नेपाल में लोकतंत्रीकरण और विकास के मामले में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है लेकिन उनका रवैया इस तरह की मदद का इस्तेमाल अपने सामरिक हितों को पूरा करने वाला रहता है. इसके लिए वो नेपाल को लॉन्चिंग पैड की तरह उपयोग करते हैं जिसका असर फिर से वहां की आंतरिक राजनीति में भी देखा जा सकता है. 

इसके अलावा बाहरी माहौल नेपाल के लिए हमेशा प्रतिकूल रहे हैं और इसकी वजह इस क्षेत्र में भूराजनीतिक उपक्रमों के उच्च स्तर हैं. इसके कारण नेपाल के दोनों बड़े पड़ोसी देशों: चीन और भारत को मजबूर होकर राजनीतिक प्रणाली और नेपाल के साथ संबंधों को लेकर अपना विचार बनाना पड़ता है. पश्चिमी देशों ने नेपाल में लोकतंत्रीकरण और विकास के मामले में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है लेकिन उनका रवैया इस तरह की मदद का इस्तेमाल अपने सामरिक हितों को पूरा करने वाला रहता है. इसके लिए वो नेपाल को लॉन्चिंग पैड की तरह उपयोग करते हैं जिसका असर फिर से वहां की आंतरिक राजनीति में भी देखा जा सकता है. इस प्रकार लोकतांत्रिक राजनीति और राजनीतिक स्थिरता का भविष्य इस बात पर निर्भर करेगा कि किस तरह राजनीतिक दल घरेलू राजनीति और अंतर्राष्ट्रीय संबंधों, जिनमें चीन, भारत और पश्चिमी देशों के साथ संबंध शामिल हैं, के बीच संतुलन स्थापित करते हैं. जहां नेपाल की भौगोलिक स्थिति और सांस्कृतिक अपनापन उसके दो महत्वपूर्ण पड़ोसियों– भारत और चीन के साथ नज़दीकी संबंध और बारीक संतुलन की अपेक्षा रखते हैं, वहीं लोगों की आजीविका अब धीरेधीरे इस क्षेत्र से आगे की ओर बढ़ रही है. इसकी वजह राजनीतिक अर्थव्यवस्था के द्वारा लाया गया बदलाव है. नेपाल को पश्चिमी देशों के साथ भी मैत्रीपूर्ण संबंध बरकरार रखने हैं जो सिर्फ़ लंबे समय से विकास के मामले में उसका साझेदार रहे हैं बल्कि पश्चिमी देशों में नेपाली के प्रवासी नागरिकों की संख्या और बातचीत के स्तर में भी असाधारण बढ़ोतरी हुई है. साथ ही जहां तक बात चीन और भारत के साथ नेपाल के संबंधों की है तो वो दोनों देशों के बीच सभ्यता और सांस्कृतिक नज़दीकी की वजह से उनके साथ समान संबंध रखने का ख़तरा नहीं उठा सकता है

आर्थिक पहेली

नेपाल की आर्थिक स्थिति संतोषजनक नहीं है. नेपाल के संविधान में 31 मौलिक अधिकार दिए गए हैं लेकिन नौजवानों की बढ़ती आबादी को देखते हुए अधिकार आधारित संविधान की न्यूनतम आवश्यकताओं को तो छोड़ दीजिए, पर्याप्त आर्थिक गतिविधियां भी नहीं हो रही हैं. वैसे तो संविधान की प्रस्तावना में एकसामाजिकलोकतांत्रिक राज्यपर ज़ोर दिया गया है लेकिनसामाजिक अंशया तो ग़ायब हैं या उन्हें नीतियों और कार्यक्रमों के ज़रिए यदाकदा ही लागू किया जाता है. साथ ही सामाजिक सेवाओं को लेकर काफ़ी ज़्यादा असमानता है. उदाहरण के लिए, जहां राजनीतिक नेताओं को सरकारी खर्च पर विदेशों में बीमारी के इलाज की मुफ़्त सुविधा मिलती है वहीं आम लोगों को प्राइवेट अस्पतालों पर निर्भर रहना पड़ेगा जिनका मालिकाना हक़ आम तौर पर राजनीतिक वर्ग और उनके सहयोगियों के पास होता है. इस तथ्य को निश्चित रूप से, जैसा कि गैरेट हार्डिन ने कहा था, ‘आम लोगों की त्रासदीकहा जा सकता है. ये बात शिक्षा और रोज़गार समेत दूसरी सेवाओं पर भी लागू होती है. इसके बावजूद तथ्य ये है कि अगर हर राजनीतिक प्रणाली आम लोगों के लिए सिर्फ़त्रासदीका निर्माण करती है तो शायद लोकतंत्रीकरण की प्रक्रिया को सफलतापूर्वक आगे ले जाना मुश्किल होगा

चूंकि, वैश्विक अर्थव्यवस्था एक और संकट का सामना कर रही है तो काफ़ी हद तक एक-दूसरे पर निर्भर इस दुनिया में निश्चित रूप से नेपाल इससे बचा हुआ नहीं रह सकता है. नेपाल की अर्थव्यवस्था पहले से ही इस संकट को एक से ज़्यादा रूप में महसूस कर रही है. इस मामले में कुछ संकेत हैं ख़तरनाक व्यापार घाटे और भुगतान के संतुलन की वजह से लिक्विडिटी की दिक़्क़त, महंगाई की ऊंची दर, सामानों एवं ईंधन की क़ीमत में बढ़ोतरी और सप्लाई चेन में संभावित रुकावट. लेकिन तथ्य ये है कि ये सभी दिक़्क़तें एक दिन में नहीं आई हैं. नेपाल की अर्थव्यवस्था में पहले से आंतरिक संरचनात्मक समस्याएं हैं और इन संरचनात्मक समस्याओं का एक हिस्सा स्थानीय और अंतर्राष्ट्रीय विकास एजेंसियों के नीतिगत निर्देशों की वजह से है और दूसरा हिस्सा राजनीतिक अर्थव्यवस्था के बदलते स्वरूप के साथ अपनी अर्थव्यवस्था को फिर से समायोजित करने की नेपाल की नाकामी की वजह से है. लेकिन बड़ा सवाल ये है कि नेपाल एक उत्पादन आधारित अर्थव्यवस्था को विकसित नहीं कर सका और संकट के दौरान समर्थन के लिए कोई सहारा नहीं है जबकि इसके लिए काफ़ी संभावना है. उदाहरण के लिए, कृषि नेपाल के लोगों की आजीविका का सबसे बड़ा सहारा है लेकिन तथ्य ये है कि इस क्षेत्र में उपज इतना ज़्यादा नहीं है कि 3 करोड़ आबादी को पर्याप्त भोजन मिल सके. इसकी वजह से राज्य के संस्थानों की संख्या बढ़ रही है. हाल के दिनों में विश्व में आए आर्थिक संकट का नेपाल पर भी असर पड़ने की आशंका है. नेपाल सरकार ने पहले ही खर्च कम करने के लिए कुछ क़दम उठाए हैं लेकिन अगर अर्थव्यवस्था के मूलभूत तत्व नहीं बदले तो स्थिति ख़राब हो सकती है

भारत की मुद्रा के साथ नेपाल की मुद्रा को जोड़ना निश्चित रूप से उस संकट में मददगार रहेगा. साथ ही भारत के साथ खुली सीमा रखने के भी फ़ायदे हैं जिससे कि लोग सीमा के पार जाकर काम करने के साथ-साथ सामान की भी ख़रीदारी कर सकेंगे.

नेपाल में व्यापार घाटा बहुत ज़्यादा है और विदेशी मुद्रा भंडार कम होता जा रहा है. ये स्थिति उस वक़्त है जब नेपाल कई चुनाव कराने की तैयारी कर रहा है. लेकिन विश्लेषकों का ये दृष्टिकोण है कि जब तक बाहर से पैसे रहे हैं और निर्वाह के लिए कृषि स्थिर स्थिति में है तब तक नेपाल उस स्तर के आर्थिक संकट का सामना नहीं करेगा जैसा कि श्रीलंका और दूसरे देश कर रहे हैं. भारत की मुद्रा के साथ नेपाल की मुद्रा को जोड़ना निश्चित रूप से उस संकट में मददगार रहेगा. साथ ही भारत के साथ खुली सीमा रखने के भी फ़ायदे हैं जिससे कि लोग सीमा के पार जाकर काम करने के साथ-साथ सामान की भी ख़रीदारी कर सकेंगे. 

संक्षेप में नेपाल की स्थिति 

नेपाल निश्चित रूप से कई तरह की समस्याओं का सामना कर रहा है. फिर भी नेपाल की समस्याओं को बेहतर ढंग से समझा तो जाता है लेकिन उसे ठीक ढंग से लागू नहीं किया जाता है. सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों का राजनीतिकरण ज़्यादातरराजनीतिक साम्यवादके द्वारा किया जाता है जो सिर्फ़ लोगों के लिए और समाज की कट्टरता के लिए एक से ज़्यादा तरीक़ों में काम करता है. इसके बावजूद नेपाल निश्चित रूप से बेहतरी की उम्मीद कर सकता है और इसकी वजह ये है कि नेपाल ने मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था के तहत सफलतापूर्वक स्थानीय स्तर का चुनाव कराया है. ये बेशक एक अच्छे राजनीतिक भविष्य का संकेत है. ऐसा कहने के बावजूद भविष्य में दो बातें महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेंगी (1) नेपाल राष्ट्रीय राजनीति और भूराजनीति के बीच कैसे संतुलन बनाता है और (2) आने वाले समय में नेपाल किस हद तक आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनता है

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.