Published on Jan 10, 2023 Updated 0 Hours ago

मिशन लाइफ में अनौपचारिक ई-कचरा प्रबंधन क्षेत्र में काम कर रहीं महिलाओं को सशक्त बनाने की क्षमता है क्योंकि इसका उद्देश्य कचरे को कम करने के स्थायी उपायों को अपनाना है.

मिशन LiFE और महिलाओं से जुड़ी ई-अपशिष्ट प्रबंधन की चुनौतियाँ

नए-नए तक़नीकी सहायता उपकरणों को खरीदने की बेलगाम होड़ ने ई-मलबे (बेकार उपकरणों) पहाड़ खड़ा कर दिया है. ई-कचरे में रोजमर्रा के इस्तेमाल के उपकरण जैसे प्लग, स्मार्टफोन और एलईडी टीवी शामिल हैं जिन्हें इस्तेमाल के बाद फेंक दिया जाता है. ग्लोबल ई-वेस्ट मॉनिटर 2020 के अनुसार, 2019 में 5.6 करोड़ टन ई-कचरे का उत्पादन हुआ, जिसमें से केवल 17.4 प्रतिशत को आधिकारिक रूप से एकत्रित और पुनर्चक्रित किया गया था. बाकी कचरा लैंडफिल में जमा होता है, कबाड़ी बाज़ार पहुंचता है या फिर अनौपचारिक बाजारों द्वारा रिसाइकिल किया जाता है. ई-कचरा उत्पादन में चीन और अमेरिका के बाद भारत का तीसरा स्थान है, जहां 2019-20 में ही 1,014,961.21 टन कचरा उत्पन्न हुआ, जिसमें से महज़ 22.7 प्रतिशत कचरे को ही इकट्ठा करके रिसाइकिल किया गया या फिर उसका निपटान किया गया. अनौपचारिक अपशिष्ट क्षेत्र में काम करने वाली लगभग 13 करोड़ महिलाओं के लिए ई-कचरा (वेस्ट इलेक्ट्रिक एंड इलेक्ट्रॉनिक इक्विपमेंट, डबल्यूईईई) सबसे ज्य़ादा कीमती होता है क्योंकि स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिए हानिकारक होने के बावजूद उसमें रिसाइकिल योग्य कीमती धातुएं होती हैं.

अनौपचारिक अपशिष्ट क्षेत्र में काम करने वाली लगभग 13 करोड़ महिलाओं के लिए ई-कचरा सबसे ज्य़ादा कीमती होता है क्योंकि स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिए हानिकारक होने के बावजूद उसमें रिसाइकिल योग्य कीमती धातुएं होती हैं.

अनौपचारिक अपशिष्ट क्षेत्र में काम करने वाले जो लोग हमारे शहरों में जमा ई-कचरे के ढेर से उसे बीनने, छांटने, टुकड़े करने और मरम्मत करने का काम करते हैं, वे कचरे से जुड़े लिंग आधारित पहलू को उजागर करते हैं, और इस तरह हमारे समाज की जड़ों में मौजूद गैर-बराबरी की परंपरा और मजबूत होती है. यही कारण है कि सतत विकास लक्ष्य 2030 कचरा प्रबंधन के मुद्दे को प्रमुखता से जगह देता है और न्यायसंगत अपशिष्ट क्षेत्र की स्थापना के लिए उसके लिंग और वर्ग आधारित पहलुओं को रेखांकित करता है. बाली में G-20 नेताओं की घोषणा में पर्यावरण के दृष्टि से उचित अपशिष्ट प्रबंधन को बढ़ाने की आवश्यकता को स्वीकार किया गया, इससे बात की संभावना है कि आगामी G-20 दिल्ली शिखर सम्मेलन में ई-कचरा प्रबंधन के मुद्दे पर भी विचार-विमर्श हो सकता है, जिससे भारत के प्रमुख कार्यक्रम मिशन लाइफ (लाइफस्टाइल फॉर एन्वायरमेंट) को बढ़ावा मिलेगा, परिणामस्वरूप इस क्षेत्र में सुधार लाने और महिला कर्मचारियों में निवेश के माध्यम से इसकी क्षमता के पूर्ण दोहन का अवसर प्रदान करेगा.

ई-कचरे का भार ढोतीं महिलाएं

इन अनौपचारिक कामगारों को अक्सर 'कचरा बीनने वाला' कहकर बुलाया जाता है, जो स्वास्थ्य सेवा तक सीमित पहुंच, खाद्य सुरक्षा, वेतन की असमानता, काम की गरिमा और संसाधन प्रबंधन जैसी वैश्विक चुनौतियों से समान रूप से प्रभावित हैं और समाज के हाशिए पर आते हैं. पारिश्रमिक के स्तर पर काफ़ी हद तक लिंग निरपेक्ष इस क्षेत्र में असमानताओं की मौजूदगी निर्णयन भूमिकाओं में आने वाली बाधाओं और ज्यादा बढ़ जाती है. इस क्षेत्र में विश्वसनीय आंकड़े जुटाना मुश्किल है, लेकिन हालिया रिपोर्टों से पता चलता है कि कूड़ा बीनने वाले लगभग 0.1 प्रतिशत लोग भारत के शहरी कार्यबल का हिस्सा हैं, और महिलाएं अर्थव्यवस्था में सबसे निचले स्तर पर कूड़ा बीनने और लैंडफिल साइटों उसे छांटने का काम करती हैं. आश्चर्यजनक रूप से, पुरुष इस क्षेत्र में प्रबंधक, मशीन संचालन, ट्रक चालक, कबाड़ी विक्रेता, मैकेनिक और रिसाइक्लिंग कारोबारी के रूप में काम करते हैं. इस अनौपचारिक क्षेत्र में समाज के सबसे कमज़ोर वर्ग के, सामाजिक-आर्थिक रूप से हाशिए पर आने वाले, गरीबी से परेशान अशिक्षित लोग काम करते हैं. वे अपने कार्यस्थलों पर असुरक्षा का सामना करते हैं, और अक्सर यौन उत्पीड़न का शिकार होते हैं क्योंकि उनके पास अपना सामान बेचने के लिए ज़रूरी सौदेबाजी की ताकत नहीं होती है. जैसे-जैसे शहरी क्षेत्र कचरे की समस्या को प्रभावी ढंग से नियंत्रित करने के लिए अपशिष्ट क्षेत्र को औपचारिक रूप देना शुरू करते हैं, ये सभी कारक मिलकर उन्हें हाशिए पर ला खड़ा करते हैं.

ई-कचरा और उसका स्वास्थ्य प्रभाव

अनौपचारिक क्षेत्र के कर्मचारी अक्सर खुले में कचरा जला कर या अम्ल निक्षालन विधि अपनाकर कचरा निपटान करते हैं, जो पर्यावरण को सीधा प्रभावित करता है और विशेष रूप से बच्चों और माताओं के स्वास्थ्य, प्रजनन, फेफड़ों, गुर्दों, और सामान्य स्वास्थ्य को गंभीर रूप से नुकसान पहुंचाता है. भारत में, कमज़ोर और वंचित समुदाय से आने वाले कई ऐसे अकुशल कर्मचारी हैं, जो इस तथ्य से अनजान हैं कि जिस "ब्लैक प्लास्टिक" को वे तात्कालिक व्यावसायिक लाभ के लिए तांबे और अन्य कीमती धातुएं निकालने के लिए जलाते हैं, उससे उन्हें दीर्घकालिक व्यावसायिक स्वास्थ्य खतरों का बोझ उठाना पड़ता है. जैसा कि रासायनिक संधियों पर एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में कहा गया कि 'दुनिया में ई-कचरे की सुनामी आ गई है', जो इस क्षेत्र की महिलाओं के स्वास्थ्य को कई तरह के जोख़िम में डालता है क्योंकि वे अपने घरों में और अक्सर बच्चों की उपस्थिति में अवशिष्ट जहरीले तत्वों के संपर्क में रहती हैं.

विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक हालिया रिपोर्ट के आंकड़े चौंका देने वाले हैं. रिपोर्ट के अनुसार, निम्न और मध्यम आय वाले देशों में कोई 1 करोड़ 80 लाख बच्चे, जिनमें से कुछ की उम्र पांच साल होती है, अक्सर अपने परिवारों के साथ ई-कचरे की लैंडफिल साइटों पर काम करते हैं. सीसे जैसी भारी धातुओं के साथ-साथ स्थायी जैविक प्रदूषक (पीओपी), जैसे डाइऑक्सिन, और ज्वाला मंदकों (पीबीडीई) को पर्यावरण में छोड़े जाने से भी वायु, मृदा और जल प्रदूषण में वृद्धि हुई है.

कोरोना महामारी के दौरान तालाबंदी के कारण इस क्षेत्र में कर्मचारियों की छंटनी बढ़ गई और उसके साथ ही ई-कचरे का भंडार भी बढ़ता गया. इस दौरान सामान्य कचरे के साथ-साथ पीपीई (पर्सनल प्रोटेक्टिव इक्विपमेंट) जैसे स्वास्थ्य संबंधी कचरे में हुई वृद्धि ने भी इस समस्या को बढ़ावा दिया, जिसके विनाशकारी स्वास्थ्य प्रभावों के प्रति जानकारी का अभाव था.

ई-कचरे से जुड़े कानून

ई-कचरे से उत्पन्न खतरे के बावजूद, कई देशों में अभी भी इसे विनियमित करने के लिए कोई विधायी उपाय नहीं अपनाए गए हैं. अनौपचारिक क्षेत्र में प्रतिबंधित ई-कचरे का आयात अभी भी काफ़ी मात्रा में किया जा रहा है क्योंकि ई-कचरे और उपयोग में आने लायक पुराने इलेक्ट्रॉनिक सामानों के निर्यात के बीच के अंतर को लेकर स्पष्टता की कमी है. बेसल, रॉटरडैम और स्टॉकहोम कन्वेंशन जैसी अंतर्राष्ट्रीय संधियों का उद्देश्य देशों के बीच खतरनाक सामानों की आवाजाही को विनियमित करना था, लेकिन ये संधियां भी ऐसे सामानों के अवैध व्यापार और ई-कचरे को दूसरे देशों में फेंकने जैसी गतिविधियों पर रोक लगा पाने में अधिकांशतः असफल रही हैं क्योंकि ऐसे सामान उन देशों में "पुराने उपकरणों" के रूप में प्रयोग में आने लगते हैं.

भारत के पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (एमओईएफसीसी) ने 2016 में ई-अपशिष्ट (प्रबंधन) नियम जारी किए, जो ई-कचरे का वर्गीकरण करने, विस्तारित उत्पादक उत्तरदायित्व (ईपीआर) और संग्रह की सीमा तय करने के अलावा खतरनाक ई-कचरे के आयात पर प्रतिबंध लगाते हैं. यह कानून शहरों को स्वच्छ बनाने में अनौपचारिक अर्थव्यवस्था के योगदान को स्वीकार करने के साथ-साथ अपशिष्ट प्रबंधन में उन्हें शामिल करता है, और इसके साथ ही भारत के स्वच्छ भारत अभियान, स्मार्ट सिटी मिशन और अमृत मिशन (कायाकल्प और शहरी परिवर्तन के लिए अटल मिशन) जैसी योजनाओं के अलावा प्रौद्योगिकी और पीपीपी मॉडल के उपयोग के साथ गहराई से जुड़ा हुआ है. उम्मीद है कि संशोधित ई-अपशिष्ट (प्रबंधन) मसौदा नियम, 2022 अगले साल की शुरुआत में लागू हो जाएगा, जिसमें चक्रीय अर्थव्यवस्था में पुनर्चक्रण योग्य अपशिष्ट (एंड ऑफ लाइफ कचरा) में सुधार पर भी जोर दिया गया है. हालांकि, इन प्रगतिशील नीतियों में अनौपचारिक पुनर्चक्रणकर्ताओं की भूमिकाओं को लेकर स्पष्ट दिशा-निर्देश मौजूद नहीं हैं, और ख़ासतौर पर महिलाओं की भूमिका को पूरी तरह नज़रअंदाज किया है, जिनसे समतापूर्ण विकास की संभावनाएं कम होती हैं. उल्लेखनीय है कि बीजिंग प्लेटफ़ॉर्म ऑफ़ एक्शन में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि उचित ढंग से तैयार की गई ई-कचरा प्रसंस्करण प्रणाली आर्थिक और पर्यावरणीय दोनों लक्ष्यों को पूरा करने में सक्षम है और इस तरह से अनौपचारिक अर्थव्यवस्था में महिलाओं की स्थिति में सुधार लाया जा सकता है. सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से विविध समाजों में ऐसी किसी प्रणाली को लागू करके दुनिया भर के सबसे बेहतरीन कार्यक्रमों और उनकी सफ़लता से जुड़ी कहानियों को जांच सकेंगे.

ई-अपशिष्ट क्षेत्र को और अधिक लैंगिक समावेशी बनाने के उपाय

ई-अपशिष्ट प्रबंधन क्षेत्र को व्यापक स्तर पर लैंगिक रूप से संवेदनशील बनाने के लिए सबसे पहले ज़मीनी स्तर पर महिलाओं की विशेष ज़रूरतों और उनकी चुनौतियों के बारे में पता लगाने की आवश्यकता है. ई-अपशिष्ट क्षेत्र में लिंग असमानता की जड़ें काफ़ी गहरी और जटिल हैं. पीढ़ीगत और परिवार आधारित आजीविका वाले इस क्षेत्र में श्रम का लैंगिक विभाजन काफ़ी स्पष्ट होता है, जहां औरतें और बच्चे कूड़ा बीनने और छांटने का काम करते हैं, और पुरुष इनके परिवहन, सामानों को लेकर सौदेबाजी और अंततः वित्त पर नियंत्रण रखते हैं. इस क्षेत्र से जुड़ी सामाजिक कलंक की भावना ही आगे चलकर भेदभाव और गरिमा की हानि के रूप में प्रकट होती है. अपशिष्ट प्रसंस्करण इकाईयों की कर्ता-धर्ता होने के बावजूद महिलाएं मूल्य श्रृंखला में सबसे आखिर पायदान पर खड़ी होती हैं, और अपना खुद का व्यवसाय शुरू करने के लिए उनके पास पूंजी का अभाव होता है. अशिक्षितों को शिक्षित करने के लिए सिर्फ़ प्रशिक्षण दस्तावेज तैयार कर देना ही काफ़ी नहीं है, बल्कि ज़मीनी स्तर पर ऐसे कौशल विकास कार्यक्रमों और ई-कचरे को लेकर जागरूकता अभियानों की ज़रूरत है, जहां श्रमिकों के रोजमर्रा के कामों में बाधा डाले बिना उनकी भागीदारी सुनिश्चित किए जाने की ज़रूरत है. इसके अलावा लिंग आधारित आंकड़ों की कमी इन सभी कारकों के साथ मिलकर एक गंभीर समस्या पैदा करती है, जिसके जवाब में लिंग आधारित बजट बनाने की आवश्यकता है ताकि एक समावेशी ई-अपशिष्ट (प्रबंधन) व्यवस्था का निर्माण किया जा सके.

चूंकि मिशन लाइफ के बहाने विकास की चक्रीय अर्थव्यवस्था केंद्रीय स्थान ले रही है, उसकी सफ़लता शायद इस बात पर निर्भर करती है कि वह महिलाओं के अनुभवों को देखते हुए उनकी आवश्यकताओं के अनुरूप अपना काम करे ताकि आत्मनिर्भरता आधारित एक उत्पादन श्रृंखला में उनकी भागीदारी को सुनिश्चित किया जा सके.

चूंकि मिशन लाइफ के बहाने विकास की चक्रीय अर्थव्यवस्था केंद्रीय स्थान ले रही है, उसकी सफ़लता शायद इस बात पर निर्भर करती है कि वह महिलाओं के अनुभवों को देखते हुए उनकी आवश्यकताओं के अनुरूप अपना काम करे ताकि आत्मनिर्भरता आधारित एक उत्पादन श्रृंखला में उनकी भागीदारी को सुनिश्चित किया जा सके. सौभाग्य से, भारत का नागरिक समाज कूड़ा बीनने और छांटने का काम कर रही महिलाओं के लिए कई सालों से आवाज़ उठाता रहा है. उनमें से कुछ ने स्थायी अपशिष्ट प्रबंधन प्रणालियों के निर्माण के लिए अनुसंधान, नीति हस्तक्षेप, क्षमता निर्माण और उपभोक्ताओं एवं निर्माताओं की जिम्मेदारियों से जुड़े जागरूकता अभियानों जैसे कई कार्यक्रमों को एकीकृत करने का प्रयास किया है. इनमें से कुछ सफ़ल उदाहरणों को शहरी नगरपालिकाओं, उत्पादकों, उपभोक्ताओं एवं अन्य हितधारकों के लिए ऐसे अवसरों के रूप में पेश किया जा सकता है, जहां वे ई-अपशिष्ट संग्रहण श्रृंखला के साथ मिलकर काम करने के अलावा नए तकनीकी हस्तक्षेपों की शुरुआत कर सकते हैं ताकि वर्तमान में अपशिष्ट संग्रहण और पुनर्चक्रण के बीच मौजूद अंतराल में कमी लाने के साथ-साथ पर्यावरण के प्रति अनुकूल नौकरियां पैदा की जा सकें. मिशन लाइफ 3R (रिड्यूस, रियूज, रिसाइकिल) की अवधारणा पर आधारित है, जिसके तहत एक जिम्मेदार अपशिष्ट प्रबंधन अर्थव्यवस्था के निर्माण में महिलाओं को मुख्यधारा में लाने के लिए उनमें निवेश करने के अलावा "जीरो वेस्ट (शून्य अपशिष्ट)" के अंतिम उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए अपशिष्ट की मात्रा में कमी लाने में उनकी भूमिका को पहचानने की जरूरत है. जीवनचक्र दृष्टिकोण को अपनाते हुए इसे महिला अपशिष्ट-कर्मियों को भारत द्वारा एक मजबूत, प्रगतिशील और लचीली ई-अपशिष्ट प्रबंधन प्रणाली की स्थापना हेतु किए जा रहे प्रयासों में शामिल होने और उसमें अपनी बराबर भागीदारी देने के अवसर के रूप देखा जा सकता है.

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