Author : Sohini Nayak

Published on Jul 31, 2023 Updated 0 Hours ago

पिछली कई बाधाओं के बावजूद, एमसीसी-नेपाल कॉम्पैक्ट को अंत में हरी झंडी दे दी गई.

अमेरिका के मिलेनियम चैलेंज कॉरपोरेशन (MCC) द्वारा समर्थित नेपाल कॉम्पैक्ट को मिली मंज़ूरी
अमेरिका के मिलेनियम चैलेंज कॉरपोरेशन (MCC) द्वारा समर्थित नेपाल कॉम्पैक्ट को मिली मंज़ूरी

मिलेनियम चैलेंज़ कॉर्पोरेशन (एमसीसी) जो कि एक  द्विपक्षीय अमेरिकी विदेश अनुदान एजेंसी है, इसकी स्थापना वर्ष 2004 में अमेरिकी कांग्रेस द्वारा की गई थी. इस कार्यक्रम का प्रमुख उद्देश्य यह रहा है कि वे निम्न और मध्यमवर्गीय देशों में ग़रीबी और आर्थिक विपन्नता को काम करने हेतु, यथोचित सहायता प्रदान करें. इसके लिए, विभिन्न क्षेत्रों को लक्षित किया गया है, जैसे शिक्षा क्षेत्र, स्वास्थ्य, सड़क और परिवहन की आधारभूत संरचना, ईंधन और कृषि जो कि विकास के सबसे मज़बूत स्तम्भ रहे हैं, और जिन्हें आर्थिक सहायता के लिए सबसे मज़बूत पात्र माना गया है. वर्ष 2019 से, एमसीसी ने 13 बिलियन अमेरिकी डॉलर की राशि के अनुकूल 37 समझौतों को मंज़ूरी दी है. जिनमें कुल 29 देश शामिल हैं. 

नीति निर्माताओं के बीच इसको लेकर लगातार चर्चाएं हो रही हैं क्योंकि अगर नेपाल इस समझौते के लिये राज़ी होता है तो दक्षिण एशिया में ऊपरी तौर पर नेपाल की जो गुटनिरपेक्ष होने का कूटनीतिक स्टैंड है वो खतरे में आ सकता है. ऐसा इसलिये हो सकता है क्योंकि पेश की गई ये अवधारणा अमेरिका के साथ सीधे तौर पर संबंध होने की ओर इशारा करती है.

वर्तमान में, हिमालय की तलहटी में बसे देश नेपाल को साझेदारी का प्रस्ताव मिला है, हालांकि लंबे समय में इसकी उपयोगिता के बारे में अनिर्णय की स्थिति की वजह से इसमें काफी विलंब हो चुका है. नीति निर्माताओं के बीच इसको लेकर लगातार चर्चाएं हो रही हैं क्योंकि अगर नेपाल इस समझौते के लिये राज़ी होता है तो दक्षिण एशिया में ऊपरी तौर पर नेपाल की जो गुटनिरपेक्ष होने का कूटनीतिक स्टैंड है वो खतरे में आ सकता है. ऐसा इसलिये हो सकता है क्योंकि पेश की गई ये अवधारणा अमेरिका के साथ सीधे तौर पर संबंध होने की ओर इशारा करती है. 

चूंकि, 20 में से 16 पॉलिसी इंडीकेटर्स के लिए पात्रता हासिल करने वाले चंद देशों में से सबसे पहला देश नेपाल ही था, इसे लेकर सालों से देश में बहस और विचार-विमर्श की शुरूआत हो चुकी थी, जो अंतरदलीय राजनीतिक कलह को हवा दे रहा था, जहां सभी दल इस मुद्दे को अपने-अपने फायदे के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं. बहरहाल, कई आशंकाओं और अटकलों के बावजूद, नेपाली संसद नें वर्षों की देरी के बाद इस समझौते को अंततः पारित किया. इस हेतु, एक 12-सूत्रीय व्याख्यात्मक घोषणापत्र टेबल पर रखा गया, उसके बाद एमसीसी को सफलतापूर्वक प्रस्तावित कर दिया गया.   

पाल को 500 मिलियन अमेरिकी डॉलर की सहायता अनुदान प्रदान की गई, जिसमें से 130 मिलियन अमेरिकी डॉलर खासकर नेपाल के कनेक्टिविटी और एनर्जी सेक्टर के सुधार पर खर्च किए जाएंगे.

प्रक्रिया के असहज सार को समझना 

नेपाल के उस वक्त के प्रधानमंत्री के. पी. शर्मा ओली के नेतृत्व में, नेपाल की पूर्व सत्तासीन पार्टी – नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी (एनसीपी), एमसीसी के मुद्दे पर पहले पूरी तरह से एकमत नहीं थे. यहाँ ये उल्लेख किया जाना ज़रूरी है कि इस द्विपक्षीय समझौते का एक भाग बनने का ऑफर उस वक्त आया जब नेपाल में नेपाली काँग्रेस (एनसी) का शासन था. समानार्थी रूप से नेपाली काँग्रेस ने अपने दीक्षांत समारोह में सत्ता में पुनःवापसी के बाद, सीपीएन-यूएमएल के लाख बहस करने के बावजूद शुरुआती दौर का सबसे पहला सकारात्मक द्विपक्षीय दृष्टिकोण था जो इस देश ने दर्शाया. हालांकि, ओली ने एमसीसी के अपनाए जाने के बाद अपने त्वरित वक्तव्य में यह कहने में ज़रा भी देर नहीं की कि यह मुद्दा ‘जानबूझ कर भ्रमित करने वाली कार्यवाही है.’ उन्होंने अपने उल्लेख में आगे कहा, “ये विवाद इस तरह से आगे बढ़ता गया की इसने नेपाली राष्ट्र और नेपाली आत्मसम्मान दोनों की अवहेलना की. इसने इस देश के सारे नेताओं के खिलाफ़, जो कि देश से प्रेम करते हैं और देश के विकास और समृद्धि की परिकल्पना करते हैं, उनके ख़िलाफ़ जनता में नफ़रत को बढ़ावा दिया है.” पुनः, ऐसे कई नेता हैं जैसे नारायण मान बिजुक्छे, जो नेपाल वर्कर एंड पीसेन्ट पार्टी के चेयरमैन हैं, उन्होंने सीपीएन (माओवादी सेंटर) के चेयरमैन पुष्पकमल दहल पर आरोप लगाते हुए कहा कि, वे इस प्रस्ताव को लेकर इसलिए भी सहमत हुए हैं ताकि वो खुद को अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के प्रकोप से बचा सके. ये तब बात है जब दहल विद्रोही माओवादी नेता हुआ करते थे, और बाद में आगे जाकर देश के प्रधानमंत्री भी बने, लेकिन जिन्हें देश में हुए गृह युद्ध के दरम्यान कई हज़ार निर्दोष लोगों की मौत के लिए ज़िम्मेदार माना जाता रहा है.   

इसके साथ ही, आर्थिक एजेंडे के अलावा बहुत मुमकिन है कि अमेरिका वहां आगे बढ़कर सैन्य सहायता देने की कोशिश करे जो पड़ोसी देशों में आशंका और संदेह पैदा करने का काम करेंगे. 

आगे जाकर, वॉशिंगटन में, भूतपूर्व वित्तमंत्री ज्ञानेन्द्र बहादुर कार्की और अमेरिकी डिप्टी सचिव जॉन सुलिवन की उपस्थिति में, नेपाल के पूर्व संयुक्त सचिव  बैकुंठ अरयाल और एमसीसी के कार्यवाहक मुख्य कार्यकारी अधिकारी ने समझौते पर हस्ताक्षर किए. जिसके बाद नेपाल को 500 मिलियन अमेरिकी डॉलर की सहायता अनुदान प्रदान की गई, जिसमें से 130 मिलियन अमेरिकी डॉलर खासकर नेपाल के कनेक्टिविटी और एनर्जी सेक्टर के सुधार पर खर्च किए जाएंगे. 

हालांकि, स्थायी समिति की बैठक बिना किसी बाधा के संपन्न हो गई थी, लेकिन इसका कोई रचनात्मक समाधान नहीं हो सका.  एमसीसी के पुनर्विवेचना किए जाने की महत्वपूर्ण वजह अमेरिका और नेपाल के बीच, हिंद महासागर के मसले पर नेपाल की कथित अंतरलिप्तता का आरोप और उसकी वजह से अमेरिका-नेपाल के बीच फैली गलतफ़हमी थी. इसके साथ ही दोनों के बीच संवादहीनता भी उपजे मतभेद का एक कारण रहा, जिसका अमेरिका ने आधिकारिक तौर पर इंडो-पैसेफिक डॉक्ट्रीन में स्पष्ट उल्लेख किया गया है. हालांकि नेपाल ने इन तर्कों को सीधे तौर पर नकार दिया और यह उसकी भू-रणनीतिक छवि के पक्ष में भी नहीं था, क्योंकि  कथित तौर पर उसने इस बाबत कोई आधिकारिक घोषणा नहीं की थी. चूंकि, अमेरिकी विदेश विभाग में दक्षिण एशिया के सहायक सचिव डेविड जे. रैंज यूएस स्टेट डिपार्टमेंट के सामने दिये गये अपने विस्तृत वर्णन में एमसीसी को इंडो-पैसिफिक स्ट्रैटेजिक रिपोर्ट के हिस्से के तौर पर पेश किया है, इसलिये अब ये सवाल उठ खड़ा हुआ है कि ये कॉम्पैक्ट नेपाल को वैश्विक मंच पर किस तरह से पेश करेगा? इसने कहीं न कहीं लोगों की भूकुटियां तानने का काम किया है. इसके साथ ही, आर्थिक एजेंडे के अलावा बहुत मुमकिन है कि अमेरिका वहां आगे बढ़कर सैन्य सहायता देने की कोशिश करे जो पड़ोसी देशों में आशंका और संदेह पैदा करने का काम करेंगे. 

सारांश में कहे तो, भूकंप और 2015 के ब्लॉकएड, कोविड-19 संकट, और कभी न ख़त्म होने वाली उथल-पुथल से भरे राजनीतिक परिदृश्य के बाद धीमी पड़ी अर्थव्यवस्था के विकास के लिए, नेपाल को एक आर्थिक मदद की ज़रूरत है. इस हेतु एमसीसी वो अवसर है जिसकी मदद से देश की आर्थिक परिस्थिति को संभाला जा सकता है

एमसीसी को इस देश में स्वीकृति दिए जाने के बावजूद, निस्संदेह नेपाल एक बहुत ही नाज़ुक स्थिति में है. भारत और चीन की इस देश और इसकी महत्वकांक्षा पर अपनी पैनी नज़र बनाये रखने के बाद, वो चीन के बेल्ट और सड़क परियोजना (बीआरआई) के विकास के लिए ढेरों अवसर प्रदान कर रहा है. जिसके बाद ज़ाहिर तौर पर यह देश काफ़ी ध्यानपूर्वक आगे बढ़ रहा है. इसके अलावा नेपाल के लोगों में इस बात को लेकर भी आशंका है कि एमसीसी की संविदा में अंकित चंद धाराएं उनके देश के कानून का उल्लंघन करती हैं और इस वजह से भविष्य में, चाहे कितने भी आर्थिक फ़ायदे की गुंजाइश हो, किसी प्रकार के विरोध अथवा मतभेद से इनकार नहीं किया जा सकता है.  इस मुद्दे पर, चीन ने अपनी प्रतिक्रिया में, वर्तमान समय में इस संविदा के औचित्य पर सवाल उठाते हुए सीधे तौर पर कहा कि वो अमेरिका के इस ‘ज़बरदस्ती की कूटनीति’ के खिलाफ़ है और इसके किसी भी पहलू में कोई भी राजनीतिक दायित्व को शामिल नहीं करना चाहिए. 

सारांश 

एमसीसी कॉम्पैक्ट, संभवतः अमेरिका और नेपाल के बीच के द्विपक्षीय संबंधों के लिए अपरिहार्य होगा. अमेरिकी सहायता (यूएसऐड) दस्तावेजों के प्राथमिक पुष्टि में, किए गए उल्लेख के अनुसार, इस कॉम्पैक्ट की मदद से न सिर्फ़ वो विश्व के सबसे शक्तिशाली देश के साथ अपने संबंधों को और सुदृढ़ कर पायेगा, बल्कि साल 2030 तक, उन्हें इसकी मदद से मध्यम आय वर्ग के देश के स्टेटस का  लक्ष्य प्राप्त करने में मदद मिलेगी. सारांश में कहे तो, भूकंप और 2015 के ब्लॉकएड, कोविड-19 संकट, और कभी न ख़त्म होने वाली उथल-पुथल से भरे राजनीतिक परिदृश्य के बाद धीमी पड़ी अर्थव्यवस्था के विकास के लिए, नेपाल को एक आर्थिक मदद की ज़रूरत है. इस हेतु एमसीसी वो अवसर है जिसकी मदद से देश की आर्थिक परिस्थिति को संभाला जा सकता है और आत्मनिर्भर होने के लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है. इस आधार पर, अमेरिका का महत्व, नेपाल के विकास में एक सार्थक साझेदार के रूप में अति महत्वपूर्ण है. 

हालांकि, आर्थिक मोर्चे पर आत्मनिर्भर और मज़बूत होने के क्रम में नेपाल के लिये मौजूदा समय बिल्कुल सही है, जिसका इस्तेमाल कर वो आगे बढ़ सकता है, लेकिन ऐसा करते हुए भी उसे अपने उन पड़ोसियों के साथ के संबंधों को नज़रअंदाज़ करने की भूल नहीं करनी चाहिये, जो सदियों से चली आ रही है और जिसकी मदद से उसने इस क्षेत्र में बफ़र न सही लेकिन अपनी जगह एक महत्वपूर्ण बना पाने में सफलता हासिल की है. सबसे महत्वपूर्ण बात ये कि अब काफ़ी लंबा वक्त़ हो चुका है, जब नेपाल को दक्षिण एशियाई क्षेत्र और इससे आगे के विस्तारित इलाके में एक बेहतर भविष्य की गुंजाइश को टटोलना चाहिए. 

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