Published on Oct 27, 2022 Updated 0 Hours ago

इटली में जो नई गठबंधन सरकार बनी है उसे लेकर रूस के ख़िलाफ़ यूरोप की एकजुटता में दरार पड़ने की जो आशंकाएं जताई जा रही हैं, वो कुछ हद तक तो सही हैं. लेकिन इन आशंकाओं को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जा रहा है.

क्या रूस के ख़िलाफ़ एकजुट यूरोप की कमज़ोर कड़ी साबित होगा इटली?

ठीक 100 साल पहले इटली के तानाशाह बेनिटो मुसोलिनी ने रोम में एक मार्च निकाला था, जिसके ज़रिए उसने इटली पर अपनी राष्ट्रीय फ़ासीवादी पार्टी की सत्ता का शिकंजा कसा था. अब सितंबर 2022 में आते हैं और ये देखते हैं कि यूरोप और बाक़ी दुनिया ये देखकर डरी हुई है कि G-7 देशों के आर्थिक रूप से तीसरे सबसे ताक़तवर देश इटली में दूसरे विश्व युद्ध के बाद पहली बार एक कट्टर दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी सत्ता चलाने के लिए चुनी गई है.

इटली में जियोर्जी मेलोनी और उनकी ब्रदर्स ऑफ़ इटली पार्टी ने देश के आम चुनावों में जीत हासिल करके एक दक्षिणपंथी रूढ़िवादी गठबंधन सरकार बनाई है. मेलोनी और उनकी पार्टी की जड़ें, उस फ़ासीवादी सोच से जुड़ी हैं, जो इटली में विश्व युद्ध के बाद चलाए गए समाजवादी आंदोलन से पैदा हुई थी. इस दक्षिणपंथी गठबंधन में मैटियो साल्विनी की लीग और पूर्व प्रधानमंत्री सिल्वियो बर्लुस्कोनी की फोर्ज़ा इटालिया पार्टी भी शामिल है.इस साल 24 फ़रवरी को जब रूस ने यूक्रेन पर आक्रमण किया था, तब से अब तक यूरोपीय देशों ने पूरी मज़बूती से अपनी एकजुटता बनाए रखी है और वो यूक्रेन का समर्थन कर रहे हैं. यूरोपीय देश, इस युद्ध में यूक्रेन की मदद के लिए अब तक आठ दौर के पैकेज को मंज़ूरी दे चुके हैं. ये पैकेज उन प्रतिबंधों की शक्ल में पारित किए गए हैं, जिनके ज़रिए रूस की अर्थव्यवस्था को चोट पहुंचाने और पुतिन के संसाधनों को कमज़ोर करने की कोशिशें की जा रही हैं.

इस साल 24 फ़रवरी को जब रूस ने यूक्रेन पर आक्रमण किया था, तब से अब तक यूरोपीय देशों ने पूरी मज़बूती से अपनी एकजुटता बनाए रखी है और वो यूक्रेन का समर्थन कर रहे हैं. यूरोपीय देश, इस युद्ध में यूक्रेन की मदद के लिए अब तक आठ दौर के पैकेज को मंज़ूरी दे चुके हैं.

हालांकि, जब यूक्रेन के प्रति मज़बूत जज़्बा रखने वाले प्रधानमंत्री मारियो द्राघी की सरकार जुलाई में अपनी नीतियों के कारण गिरी, तो केवल यूरोपीय एकता के विरोधी पूर्व प्रधानमंत्री ग्यूसेप कॉन्टे के फाइव स्टार मूवमेंट (जिसने हाल के चुनावों में बेहद ख़राब प्रदर्शन किया) जैसे अन्य दक्षिणपंथी मौक़ापरस्त संगठनों ने ही द्राघी की सरकार गिरने का जश्न नहीं मनाया. शायद रूस के राष्ट्रपति पुतिन ने भी द्राघी सरकार गिरने पर ख़ुशी मनाई. रूस पर यूरोप द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों को तैयार करने में मारियो द्राघी ने अपनी टेक्नोक्रैटिक क़ाबिलियत के चलते बेहद अहम भूमिका निभाई थी. वो यूक्रेन को हथियारों की आपूर्ति के भी पक्के समर्थक थे. द्राघी सरकार गिरने के कारण इटली में मध्यावधि चुनाव कराए गए, जिसमें पुतिन के मुरीदों से भरे दक्षिणपंथी दलों के गठबंधन को जीत हासिल हुई.

यूरोपीय संघ में चिंता के बादल

दूसरा विश्व युद्ध ख़त्म होने के बाद के 77 वर्षों में इटली में अलग अलग विचारधाराओं वाली 69 सरकारें बन चुकी हैं. ये इटली के बिखरे और बटें हुए राजनीतिक हालात की सबसे बड़ी मिसाल है. फिर भी, सत्ता में आया मौजूदा गठबंधन, दूसरे विश्व युद्ध के बाद इटली की पहली कट्टर दक्षिणपंथी सरकार है.

भले ही इस सरकार के सत्ता में आने से पुतिन ने ख़ुशी मनाई हो. लेकिन यूरोपीय संघ इटली को लेकर और चिंतित हो गया है, और इसकी वजह का अंदाज़ा लगाना इतना मुश्किल भी नहीं है. इटली में सत्ता परिवर्तन का असर पूरे यूरोप पर देखने को मिल सकता है और ख़ास तौर से यूरोप की विदेश नीति पर तो इसका गहरा असर हो सकता है. इटली में नई सरकार बनने से यूरोपीय एकता और रूस- यूक्रेन युद्ध को लेकर यूरोप की नीतियों भी इसका प्रभाव पड़ने का अंदेशा जताया जा रहा है. इसकी वजह ये है कि प्रतिबंध लगाने जैसे क़दम उठाने के लिए यूरोपीय संघ के 27 देशों के बीच आम सहमति बनाने की ज़रूरत होती है. रूस से तेल के आयात पर प्रतिबंध लगाने की यूरोपीय संघ की कोशिशों का हंगरी द्वारा विरोध किया गया था. जिसके चलते यूरोपीय संघ को प्रतिबंधों को नरम करना पड़ा था और आख़िर में यूरोपीय संघ केवल रूस से समुद्री जहाज़ के ज़रिए तेल के आयात पर प्रतिबंध लगा सका था. वहीं, उसे पाइपलाइन से तेल का आयात जारी रखने को मंज़ूरी देनी पड़ी थी. वो यादें यूरोपीय संघ के ज़हन में आज भी ताज़ा हैं.

इटली में सत्ता परिवर्तन का असर पूरे यूरोप पर देखने को मिल सकता है और ख़ास तौर से यूरोप की विदेश नीति पर तो इसका गहरा असर हो सकता है. इटली में नई सरकार बनने से यूरोपीय एकता और रूस- यूक्रेन युद्ध को लेकर यूरोप की नीतियों भी इसका प्रभाव पड़ने का अंदेशा जताया जा रहा है.

वैसे तो इटली की नई प्रधानमंत्री जियोर्जी मेलोनी यूरोपीय एकता के ख़िलाफ़ अपनी कट्टर दक्षिणपंथी और जनवादी नीतियों को पीछे छोड़ आई हैं. मेलोनी उन दिनों से भी सियासी तौर पर काफ़ी आगे निकल चुकी हैं, जब वो पुतिन को ‘यूरोपीय मूल्यों का रक्षक’ बताते हुए उनकी तारीफ़ों के पुल बांधा करती थीं. आज मेलोनी ख़ुद को एक नरमपंथी, यूरोपीय संघ, नेटो, अमेरिका के साथ अच्छे संबंध की समर्थक और भूमंडलीकरण की हामी के तौर पर पेश करती हैं. हालांकि उनकी अपनी पार्टी के विचार अभी भी नव-फ़ासीवाद की जड़ों से जुड़े हैं और ख़ुद मेलोनी भी अपने आपको हंगरी के विक्टोर ओर्बान की बहुत बड़ी मुरीद बताती रही हैं. मेलोनी ने यूक्रेन का मज़बूती से समर्थन किया है और वो अब तक यूक्रेन को लेकर मारियो द्राघी की नीतियों की भी समर्थक रही हैं. इनमें रूस पर प्रतिबंध लगाने, यूक्रेन को हथियार देने और रूस से आयातित गैस के दाम पर पाबंदी लगाने जैसे उपायों का समर्थन भी शामिल है. यहां तक कि यूरोपीय संसद में भी कट्टर दक्षिणपंथी गुटों के बजाय, मेलोनी की ब्रदर्स ऑफ इटली पार्टी ने मध्यमार्गी दक्षिणपंथी यूरोपीय रूढ़िवादियों और सुधारवादी समूहों के साथ गठबंधन किया हुआ है. इस गठबंधन में कट्टर पुतिन विरोधी पोलिश लॉ ऐंड जस्टिस पार्टी जैसे दल भी शामिल हैं, जो दक्षिणपंथी नीतियों के समर्थक हैं.

ऐसे में जियोर्जी मेलोनी तो नहीं, बल्कि उनके गठबंधन के साझीदार असल में यूक्रेन के ख़िलाफ़ पश्चिमी देशों की नीतियों की सबसे कमज़ोर कड़ी साबित हो सकते हैं. साल्विनी और पूर्व प्रधानमंत्री बर्लुस्कोनी के पुतिन के साथ पुराने क़रीबी रिश्ते रहे हैं और दोनों ही नेता यूरोपीय संघ को नज़रअंदाज़ करते आए हैं. मैटियो साल्विनी तो सार्वजनिक रूप से पुतिन की तस्वीरों वाली टी-शर्ट पहनकर रूस के राष्ट्रपति से अपने लगाव का इज़हार कर चुके हैं. वहीं, बर्लुस्कोनी और पुतिन की दोस्ती तो जगज़ाहिर है- बर्लुस्कोनी ने पुतिन को ‘धरती का सबसे कद्दावर नेता’ बताया था और एक अजीब-ओ-ग़रीब फ़ैसला करते हुए अपने घर के एक बेड को रूस के राष्ट्रपति का नाम दे रखा था. यूक्रेन को समर्थन का वादा करने के बाद भी दोनों नेता, रूस पर पश्चिमी देशों द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों की आलोचना करते रहे हैं. साल्विनी और बर्लुस्कोनी दोनों का ये कहना है कि इन प्रतिबंधों से रूस को कम और यूरोप को ज़्यादा नुक़सान हो रहा है.

इटली की जनता की राय से विदेश नीति और पेचीदा हो गई है

अगर, इटली की गठबंधन सरकार के तीनों साझीदार एक राय बनाकर यूक्रेन के ख़िलाफ़ यूरोपीय संघ की नीति का समर्थन भी कर देते हैं, जिसका वादा उन्होंने गठबंधन के घोषणापत्र में किया था, तो भी लोकतांत्रिक नीतियों की मजबूरियों के चलते उन्हें अपने फ़ैसले जनता की राय को ध्यान में रखकर लेने होंगे. जनता की राय का मसला तो ऐसा है जिसका तनाव पुतिन को तो अपने पूरे सियासी कैरियर में कभी नहीं लेना पड़ा.

वैसे भी पूरे यूरोप में इटली, रूस का सबसे अधिक समर्थन करने वाला देश है. दोनों देशों के बीच मज़बूत आर्थिक और सांस्कृतिक संबंध हैं. इटली में रूस समर्थक इन भावनाओं की जड़ें शीत युद्ध के दौर तक जाती हैं, जब पश्चिमी यूरोप में सबसे बड़ी कम्युनिस्ट पार्टी इटली में थी और जब इटली शायद ही रूस को अपने लिए एक ख़तरे के तौर पर देखा करता था.

विदेशी संबंधों पर यूरोपीय परिषद द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण में यूरोपीय संघ के सदस्य देशों के बीच मतभेद के कई पहलुओं को उजागर किया है. इटली के लोग सबसे कम ये मानते हैं कि यूक्रेन युद्ध के लिए रूस को ज़िम्मेदार ठहराया जाना चाहता है.

विदेशी संबंधों पर यूरोपीय परिषद द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण में यूरोपीय संघ के सदस्य देशों के बीच मतभेद के कई पहलुओं को उजागर किया है. इटली के लोग सबसे कम ये मानते हैं कि यूक्रेन युद्ध के लिए रूस को ज़िम्मेदार ठहराया जाना चाहता है. इटली के केवल 56 फ़ीसद नागरिक ही जंग के लिए रूस को ज़िम्मेदार मानते हैं. किसी अन्य यूरोपीय देशों की तुलना में इटली के लोग, यूक्रेन को सैन्य हथियार भेजने के सबसे अधिक विरोधी हैं. इटली के कम से कम 51 प्रतिशत मतदाता, रूस पर लगे प्रतिबंध इसलिए ख़त्म करना चाहते हैं, क्योंकि इन प्रतिबंधों के चलते यूरोप में रहन सहन का ख़र्च बहुत बढ़ गया है.

मारियो द्राघी ने देश की ऊर्जा ज़रूरतें पूरी करने के लिए कोयले और नवीनीकरण योग्य ऊर्जा स्रोतों पर ज़ोर देने के साथ साथ, अल्जीरिया, अंगोला और कॉन्गो गणराज्य के साथ तेज़ी से ऊर्जा संबंधी समझौते भी किए थे. फिर भी अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष का आकलन है कि रूसी गैस पर प्रतिबंध लगने से इटली की अर्थव्यवस्था पांच प्रतिशत तक सिकुड़ सकती है. इसकी वजह ये है कि इटली की ऊर्जा खपत में गैस की हिस्सेदारी बहुत अधिक है और इटली पहले रूस से मिलने वाली गैस पर चालीस प्रतिशत तक निर्भर था.

ऐसे में बढ़ती महंगाई, ऊर्जा की भारी क़ीमतों, रहन सहन के बढ़ते ख़र्च और क़र्ज़ के भारी बोझ के बीच इटली की जनता की राय अपने साथ बनाए रखना बहुत बड़ा काम होगा. इसी से ये भी पता चलता है कि यूक्रेन में चल रहे युद्ध के बाद भी इटली के 63 प्रतिशत नागरिक नहीं चाहते कि उनकी सरकार रक्षा बजट को बढ़ाए.

बदलाव की उम्मीद कम

भले ही गठबंधन सरकार की अंदरूनी खींचतान, जियोर्जी मेलोनी के सामने चुनौतियां खड़ी करे. मगर, युद्ध को लेकर इटली के नज़रिए में कोई बदलाव आने की संभावना कम ही है. इसके बजाय इस ख़ास मुद्दे पर इटली पुरानी नीतियों पर ही चलता रहेगा और यूरोपीय संघ और नेटो की नीतियों के साथ तालमेल बनाए रखेगा.

वैसे भी ये कोई पहली बार नहीं है, जब इटली की गठबंधन सरकार के साझीदारों ने रूस पर प्रतिबंध लगाने का विरोध किया है. यहां तक कि 2018 में जब लीग और फाइव स्टार मूवमेंट का गठबंधन सत्ता में था, तो वो चाहते थे कि क्राइमिया पर क़ब्ज़े के बाद रूस पर लगे प्रतिबंधों में ढील दी जाए. हालांकि, आख़िर में वैसा कुछ हुआ नहीं. आज भी पुतिन के साथ गर्मजोशी भरे रिश्तों के बावुजूद, गठबंधन में शामिल तीनों दलों ने फिनलैंड और स्वीडन को नेटो का सदस्य बनाने के समर्थन में मतदान किया था. जैसा कि विश्लेषक इमैन्युअल शिमिया कहते हैं कि, ‘इटली की हर नई सरकार अमेरिका और नेटो से तालमेल बनाए रखती है.’ यूनिवर्सिटी ऑफ़ सिएना के प्रोफ़ेसर मॉरिज़ियो कोट्टा यही बात दोहराते हुए कहते हैं कि, ‘इटली के लोग इस महाद्वीप में अकेले पड़ जाने से बहुत डरते हैं.’

इसके अलावा, यूरोपीय आयोग की योजना है कि वो इटली को आर्थिक मदद के नाम पर 200 अरब यूरो की रक़म देगा. नेक्स्टजेनरेशनईयू नाम से महामारी के बाद आर्थिक विकास में मदद के लिए बनी योजना के 800 अरब यूरो के फंड में से इटली को दी जाने वाली ये रक़म सबसे अधिक है. हालांकि, इस रक़म को यूरोपीय आयोग की अध्यक्ष उर्सुला वॉन डर लिएन द्वारा, यूरोप में पुतिन के समर्थन में बग़ावत रोकने के ‘हथियार’ के तौर पर इस्तेमाल करने के रूप में देखा जाता है. ये रक़म हासिल करने के लिए इटली को कुछ सुधारवादी क़दम उठाने का वादा पूरा करना होगा. फिर भी ये रक़म इतनी तो है कि सरकार की विचारधारा कुछ भी हो, वो इटली की अर्थव्यवस्था का संकट सुधारने में काम आने वाली इस मदद की अनदेखी कर सकेगी. क्योंकि आज इटली की कुल जीडीपी की तुलना में उस पर क़र्ज़ का अनुपात 150 प्रतिशत पहुंच चुका है. हंगरी और पोलैंड द्वारा यूरोपीय संघ के फंड तक पहुंच बना पाना मुश्किल हो रहा है, क्योंकि दोनों देश लोकतंत्र के पैमाने और क़ानून के राज के मामले में पीछे हटते दिख रहे हैं. इसीलिए उम्मीद यही है कि जियोर्जी मेलोनी, यूरोपीय संघ से झगड़ने के बजाय इटली की ऊर्जा और आर्थिक चुनौती से निपटने को अधिक तरज़ीह देंगी. क्योंकि उनका देश आर्थिक रूप से संघ पर अधिक निर्भर है.

हालांकि नई सरकार से ये उम्मीद लगाना ग़लत होगा कि वो मारियो द्राघी की तरह रूस के ख़िलाफ़ कड़ा रुख़ अपनाएगी. जैसा कि ये गठबंधन पहले भी कह चुका है कि वो रूस पर और नए प्रतिबंध लगाने और यूक्रेन को हथियार देने का विरोध करेगा. इससे मामला थोड़ा पेचीदा हो सकता है. हालांकि, इन प्रस्तावों के समर्थन के बदले में इटली की नई सरकार यूरोपीय संघ से कुछ और विवादित मसलों जैसे कि अप्रवासियों के मुद्दे पर  मोल-भाव कर सकती है.

निश्चित रूप से ये सारे सवाल तो तब पैदा होंगे, जब मेलोनी की गठबंधन सरकार बचती है, क्योंकि इटली की राजनीति लंबे वक़्त से मौक़ापरस्ती, बार-बार पाला बदलने और घोटालों जैसी चुनौतियों की शिकार रही है. फिर इस गठबंधन में भी कई दरारें दिख रही हैं. मेलोनी को इस बात का फ़ायदा मिल सकता है कि उनकी पार्टी ने इस गठबंधन में सबसे अधिक सीटें जीती हैं. मेलोनी की पार्टी को 26 प्रतिशत वोट मिले हैं, जो उनके गठबंधन के साझीदारों को मिले 9 फ़ीसद वोट से कहीं ज़्यादा हैं. लेकिन मेलोनी को अपने गठबंधन के साझीदारों के साथ कई मुद्दों पर समझौते करने होंगे और हो सकता है कि ये साझीदार उन्हें कमज़ोर करने की कोशिश करें और नया संकट पैदा कर दें. फिर भी, जियोर्जी मेलोनी के मामले में केवल समय ही बताएगा कि रूस को लेकर उनके रुख़ में आया बदलाव, अपने विरोधियों से ख़ुद को अलग दिखाने के लिए एक मौक़ापरस्त चुनावी दांव था या फिर वो चुनाव जीतने के बाद दोबारा पुतिन की तारीफ़ करने वाली राजनीति की ओर लौट जाएंगी.

कम से कम अभी तो इटली में दक्षिणपंथी गठबंधन के सत्ता में आने के चलते रूस के ख़िलाफ़ यूरोपीय एकता में दरार की आशंका निर्मूल साबित होगी. हालांकि ये आशंका पूरी तरह से ग़लत नहीं है. इटली और यूरोपीय संघ के बीच रूस और युद्ध को लेकर जो विदेश नीति संबंधी मतभेद हैं, उनके और बढ़ने की आशंका कम ही है. आज जब यूरोप दूसरे विश्व युद्ध के बाद के सबसे ख़तरनाक दौर से गुज़र रहा है, तो इटली में मारियो द्राघी की यूक्रेन समर्थक नीति के आगे भी जारी रहने की संभावना अधिक है. हालांकि इसमें वो इज़्ज़त शामिल नहीं होगी, जो मारियो द्राघी ने यूरोप के मंच पर हासिल की थी.

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