भारतीय विदेश सचिव हर्षवर्धन श्रृंगला के साथ कोलंबो में व्यापक वार्ता के बाद श्रीलंका के विदेश मंत्री जे एल पेरिस ने इस बात को स्वीकार किया कि दोनों पक्षों ने त्रिंकोमाली के पूर्वी बंदरगाह शहर में द्वितीय विश्व युद्ध विंटेज के दो तेल टैंकों के विकास में भविष्य के सहयोग पर चर्चा की. वित्त मंत्री बासिल राजपक्षे, जो श्रीलंका की सत्ता की चौकड़ी बनाने वालों के भाईयों में से एक हैं, उन्होंने श्रृंगला के साथ द्विपक्षीय आर्थिक मसलों पर चर्चा की और बयान दिया कि पिछली सरकारों के चलते नौ प्रांतीय काउंसिल(पीसी) के चुनाव में देरी हो गई है, जो साल 2022 की पहली तिमाही में आयोजित किया जाएगा.
यही वो दो अहम बिंदु थे जिन्हें विदेश सचिव हर्षवर्धन ने मेजबान देश के विदेश मंत्री के साथ चर्चा के दौरान सामने रखा था. मेजबानी करने वालों में राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे, प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे और उनके समकक्ष एडमिरल (रिटायर्ड) जयंत कोलोम्बेग शामिल थे. अगर दोनों पक्षों ने श्रीलंका में जारी खाद्य और विदेशी पूंजी संकट के बारे में चर्चा की थी, तो आधिकारिक दस्तावेज और अख़बारों के रिपोर्ट में इसे शामिल नहीं किया गया था. पहले ऐसी ख़बरें थी कि श्रृंगला के दौरे में इन्हीं दो मुद्दों पर चर्चा की जाएगी, ख़ास कर तब जबकि कुछ हफ्ते पहले ही विदेश मंत्री जे एल पेरिस ने अपने भारतीय समकक्ष एस जयशंकर से संयुक्त राष्ट्र महासचिव सम्मेलन(यूएनजीए) के दौरान मुलाकात की थी.
दो स्तरीय संदेश
भारतीय बयान का दो स्तरीय सार था : पहला, कोलंबो को उन सभी वादों के बारे में भारत से बात करनी चाहिए जो उसने बहुआयामी मुद्दों पर नई दिल्ली समेत स्थानीय स्तर पर किया था. बाद की चिंता के शीर्ष पर नस्लीय मुद्दों का राजनीतिक समाधान था जो एलटीटीई से युद्ध ख़त्म होने के बाद भी जस का तस बना हुआ है. प्रांतीय काउंसिल के शुरुआती चुनावों के लिए भारत का संदर्भ इसके मामले में प्रासंगिक लगता है.
श्रीलंका के संविधान में साल 1987 में 13 वें संशोधन ( 13-ए) के आरंभकर्ता के तौर पर नई दिल्ली का मानना है कि श्रीलंका की सरकारों ने अपने तमाम सैद्धान्तिक वंशावली और राजनीतिक समझ के बावजूद अपनी प्रतिबद्धता को अक्षुण्ण नहीं रखा. युद्ध के बाद राजपक्षे की तत्कालीन सरकार ने तमिल वोटरों द्वारा पूरी तरह नकार दिए जाने के बावजूद भी इसे अधूरे मन से जारी रखा.
एक बार फिर राजपक्षे परिवार सत्ता में कम से कम 2019 के बाद से पांच वर्षों के लिए वापसी कर चुका है. विदेश सचिव श्रृंगला को दी गई एक महत्वपूर्ण जानकारी के तहत राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे ने 13-ए की कमजोरी और ताकत को समझने को लेकर तत्काल आवश्यकता को नज़रअंदाज़ किया. इससे पहले की सरकारों द्वारा इस संबंध में उठाए गए कदम की तुलना में यह अलग था जो एक बेहतर शुरुआत थी. हालांकि 13-ए को रद्द करने के लिए गृह मंत्री (रिटायर्ड) रियर एडमिरल शरथ वीराशिकरा ने अपने सख़्त रूख़ में बदलाव किया. इसका मकसद यह स्पष्ट करना था कि ‘13 – ए के ‘नकारात्मक हिस्से’ को रद्द किया जाएगा’. हालांकि उन्होंने इससे आगे कुछ भी विस्तार से नहीं बताया.
असंभव कार्य
रिपोर्ट्स के मुताबिक विदेश सचिव हर्षवर्धन श्रृंगला ने तमिल नेशनल अलायंस (टीएनए) के एक प्रतिनिधिमंडल, जो उनसे कोलंबो में मिला था, उसे सुझाव दिया कि सभी तमिल पहले तो एकजुट हों. उन्हें भरोसा था कि उन्होंने यही संवाद तमिल प्रभुत्व वाले उत्तरी प्रांत की राजधानी जाफना में डिनर में शामिल हुए मेहमानों को देने में सफलता हासिल की होगी. कुछ गैर टीएनए तमिल नेताओं ने गोटाबाया राज के दौरान कुछ और मामलों पर असहमति जताई.
तमिल समुदाय और सियासत के उदारवादी वर्ग जो कि अलग राष्ट्र की मांग को लेकर नहीं चल रहे हैं, उनके अंदर भी इस बात को लेकर शायद ही स्वीकारोक्ति है कि अगर जंग में विजेता के तौर पर उभरे राजपक्षे सिंहाला बुद्ध राष्ट्रवादियों के हितों की रक्षा नहीं कर सकते हैं तब आने वाले समय में सत्ता में बैठे कोई भी ऐसे राजनीतिक दल या नेता नहीं हैं जो ऐसा कर पाएं. हर दिन बीतने के साथ ‘तमिल एकता’ भी नामुमकिन सा प्रतीत होने लगा है
दोहरा मानदंड
विदेश सचिव हर्षवर्धन श्रृंगला ने दूसरे जिस महत्वपूर्ण मुद्दे पर श्रीलंकाई नेतृत्व से चर्चा की वह श्रीलंका के दोहरे मानदंड को लेकर है. उदाहरण के तौर पर, जब भारत के मुक़ाबले चीन के प्रोजेक्ट के क्लियरेंस को लेकर कोई बात होती है. सबसे हाल में जो मुद्दा सबसे ज़्यादा चर्चित रहा वह कोलंबो बंदरगाह पर तीनों देशों के पूर्वी कंटेनर टर्मिनल (ईसीटी) प्रोजेक्ट हैं जिसमें जापान भी शामिल है और जिसे पिछले साल अक्टूबर में गोटाबाया सरकार ने रद्द कर दिया. इससे पहले सिरिसेना – विक्रमशिंघे सरकार ने इसे लेकर एमओयू पर हस्ताक्षर किया था.
इस सूची में ट्राइंको तेल संवर्धन क्षेत्र भी आता है, जैसा कि ट्रेड यूनियन सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी इंडियन ऑयल कॉरपोरेशन (आईओसी) को 35 साल की लीज़ बढ़ाने के ख़िलाफ़ हो गए. दरअसल यह लीज़ 1987 में किए गए भारत-श्रीलंका समझौते का ही एक हिस्सा था, जिसका लक्ष्य इस बात का बचाव करना था कि श्रीलंकाई ज़मीन भारत विरोधी ताकतों के हाथ में ना चली जाए. हालांकि राष्ट्रपति गोटाबाया ने पेट्रोलियम मंत्री उदय गम्मनपिला को इसे लेकर समाधान की प्रक्रिया शुरू करने के निर्देश दिए थे, ख़ास कर टैंकों की क्षमता और उनकी आयु को देखते हुए टैंक संवर्धन को एक साथ विकसित करना बड़ी चुनौती है, या फिर इसे देखकर ऐसा लगा.
हाल के दिनों में निवेश को लेकर असमानता में बढ़ोतरी होने से भारत की नाराज़गी बढ़ी है, ख़ास कर तब जब से दुश्मन मुल्क चीन ने हंबनटोटा बंदरगाह पर अपना आधिपत्य जमा लिया है. जहां उसे पूर्ववर्ती राजपक्षे (2005-15) सरकार के दौरान निर्माण समेत रियायत हासिल हो गई और चीन को यह बंदरगाह 99 सालों के लिए लीज पर दे दिया गया जबकि विपक्षी सिरिसेना-विक्रमशिंघे की जोड़ी तब सत्ता (2015-19) पर काबिज़ थी. इसकी शुरुआत नोरोचकोलाई कोयला आधारित बिजली परियोजना में चीन को स्वतंत्र गवितिधियों के अधिकार मिलने से शुरू हुआ था और फिर महिंदा राजपक्षे की सरकार ने भारत के उस प्रस्ताव से हाथ खींचना शुरू कर दिया था जिसके तहत भारत पूर्वी शामपुर को विकसित करता जिसके लिए राजनीतिक कारणों को ज़िम्मेदार बताया जाता है जो महज बहाना है.
शामपुर प्रोजेक्ट को दोनों तरफ से रद्द करने का निर्णय, यह देखते हुए कि कोयला आधारित प्रोजेक्ट को लेकर वैश्विक चिंताएं जाहिर की जा रही है, आखिरकार एक बड़े ईसीटी जैसे विवाद में परिणत हो गया. लेकिन इसकी जगह विकल्प के तौर पर किसी दूसरी जगह तेल आधारित पावर प्रोजेक्ट को लेकर कोई ज़िक्र नहीं हुआ, ख़ास कर तब जबकि तमिल निवासियों ने श्रीलंकाई सरकार के फैसले को ‘विनाशकारी’ बताया.
जो भी सिंहाला-बुद्ध समर्थित राजनीतिक पार्टियां या नेता कोलंबो की सत्ता में बने रहे, भारतीय मामलों को लेकर, चाहे वो नस्लीय मुद्दे हों या फिर द्विपक्षीय हों उन्हें ईमानदारी के साथ सुलझाने के प्रयास नहीं किए गए हैं. श्रीलंका की सरकारों का ऐसा रूख़ भारत को इस निष्कर्ष पर पहुंचने को विवश करता है कि हर वक़्त कोलंबो अपनी स्थिति को अपने अनुसार बदलता रहता है.
इसी तरह त्रिंकोमाली क्षेत्र में भारत के प्रयासों से बनाए जाने वाले बहुचर्चित फार्मा स्पेशल इकोनॉमिक ज़ोन को लेकर भी कोई जिक्र नहीं किया जा रहा है. जबकि इसे लेकर भारत के तत्कालीन पेट्रोलियम मंत्री आनंद शर्मा के श्रीलंका दौरे के दौरान काफी चर्चा हो रही थी. राजपक्षे विरोधी पूर्ववर्ती सरकारों ने भी इस प्रोजेक्ट को लेकर बाद में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई. इसके बाद सत्ता के ख़त्म होते ही और महिंदा सरकार के कोलंबो बंदरगाह शहर को लेकर एमओयू को एक तरफ़ा रद्द किए जाने से भारत के लिए एक और चिंता का विषय पैदा हो गया.
ये सभी बातें यह साबित करती हैं कि इसके बावजूद कि जो भी सिंहाला-बुद्ध समर्थित राजनीतिक पार्टियां या नेता कोलंबो की सत्ता में बने रहे, भारतीय मामलों को लेकर, चाहे वो नस्लीय मुद्दे हों या फिर द्विपक्षीय हों उन्हें ईमानदारी के साथ सुलझाने के प्रयास नहीं किए गए हैं. श्रीलंका की सरकारों का ऐसा रूख़ भारत को इस निष्कर्ष पर पहुंचने को विवश करता है कि हर वक़्त कोलंबो अपनी स्थिति को अपने अनुसार बदलता रहता है, जो यूएनएचआरसी प्रस्ताव के जरिए पश्चिमी देशों के रूख़ से और स्पष्ट हो जाता है, वो भी कम से कम नस्लीय मुद्दों पर नहीं तो ‘ज़िम्मेदारी के मामलों’ को लेकर तो ज़रूर.
सुरक्षा की चिंताएं
राष्ट्रपति के मीडिया डिविजन (पीएमडी) के मुताबिक, गोटाबाया ने फिर से श्रीलंकाई प्रतिबद्धता दुहराई है कि ‘श्रीलंका किसी को भी अपनी ज़मीन का इस्तेमाल इस तरह से नहीं करने देगा जिससे भारत की सुरक्षा के लिए ख़तरा हो’ .इस दस्तावेज के मुताबिक उन्होंने चीन के साथ अपने देश के संबधों को भी बताया है, हालांकि विस्तारपूर्वक इसका ज़िक्र नहीं किया है. इसकी संभावना कम है कि राष्ट्रपति ने यह दोहराया होगा कि चीन के साथ श्रीलंकाई संबंध विकास आधारित और प्रसंगवश आर्थिक हैं.
चीन के दृष्टिकोण के अलावा, द्विपक्षीय सुरक्षा मुददे भी हैं. अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान राज की वापसी के साथ दोनों ही देशों में इस्लामिक आतंकी संगठनों का मनोबल बढ़ा है, ऐसे में भारतीय महासागर क्षेत्र में सुरक्षा ख़तरों को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है. इस साल मार्च महीने में भारतीय कोस्ट गार्ड के जवानों ने पूर्व एलटीटीई तत्वों की गिरफ्तारी की जो बड़े स्तर पर ड्रग्स की स्मगलिंग में शामिल थे, और जिनके पास से हथियारों की बरामदगी हुई उसे किसी सूरत में नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है.
अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान राज की वापसी के साथ दोनों ही देशों में इस्लामिक आतंकी संगठनों का मनोबल बढ़ा है, ऐसे में भारतीय महासागर क्षेत्र में सुरक्षा ख़तरों को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है.
इसके साथ ही चीन का ये प्रोपेगैंडा फैलाना कि तमिल समुदाय भारत को निशाना बनाने को तैयार है, ख़ास कर दक्षिण तमिलनाडु में दोस्ताना राजनीतिक विरोधों के जरिए, जो मौजूदा समय में ख़ामोश पड़ा हुआ है. समस्याओं की संभावनाओं को देखते हुए, ख़ास कर हाल ही में एक एलटीटीई इंटेलिजेंस ऑपरेटिव की गिरफ़्तारी को लेकर, तमिलनाडु पुलिस ने इन चुनौतियों से निपटने के लिए आंतरिक चर्चा शुरू कर दी है और सलाह भी लेना शुरू कर चुकी है, इससे पहले कि कहीं ऐसी समस्याएं फिर से सिर उठाने लगे.
इस परिप्रेक्ष्य में द्विपक्षीय बैठक, जो अक्सर अंतर्राष्ट्रीय मैरिटाइम बाउंड्री लाइन (आईएमबीएल) पर आयोजित की जाती है, इसमें दोनों देशों की नौसेना ने फिशिंग वेसल को ड्रग्स और प्रतिबंधित दवाओं के स्मगलिंग में इस्तेमाल करने को लेकर चर्चा की. हालांकि कोरोना महामारी के चलते यह ऑनलाइन मामला बन गया. जैसा कि इसे संयोग ही कहा जा सकता है कि, जिस दिन राष्ट्रपति गोटाबाया और भारत के विदेश सचिव हर्षवर्धन श्रृंगला आपस में मुलाक़ात कर रहे थे तब दोनों देशों की सेना श्रीलंका के पूर्वी आमपारा के कॉम्बैट ट्रेनिंग स्कूल में 12 दिनों तक चले काउंटर टेरेरिज़्म अभ्यास को पूरा किया था.
यह सभी मैरिटाइम पर तीनों देशों के बीच समझौते के तरह होने वाली गतिविधियों का हिस्सा थी, जिसमें मालदीव भी शामिल था. इस समझौते पर मालदीव के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए) ने पिछले साल नवंबर में कोलंबो में हस्ताक्षर किया था. इस समझौते से बाहर भी यह कहा गया था कि ये देश आपस में द्विपक्षीय सहयोग बढ़ाएंगे. हालांकि लंबे समय तक इस तरह की संचालन समझदारी दोनों देशों में सेना के तीनों स्तर तक जारी रही लेकिन यह कोलंबो के नेतृत्व और वहां की नौकरशाही के लिए ज़रूरी है कि वो आपसी भरोसा, जो अभी भी कम है, उसे कायम रखने के लिए आपसी सहयोग बढ़ाएं – ख़ास कर जब बात चीन की आती है. यही सबसे बुनियादी संदेश था जिसे विदेश सचिव श्रृंगला ने कोलंबो में दिया, जो हमेशा से भारत के पूर्ववर्ती वार्ताकारों ने देना चाहा है.
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