Published on Sep 29, 2022 Updated 0 Hours ago

बदलती विश्व व्यवस्था ने ईरान के लिए शंघाई सहयोग संगठन के दरवाजे तो खोल दिए हैं लेकिन क्या यह देश के लिए उपयोगी साबित होगा, यह अभी देखा जाना बाकी है.    

एससीओ में ईरान का शामिल होना: समय के अनुसार सही लेकिन अपर्याप्त दांव

क़रीब 15 वर्षों के बाद, 16 सितंबर को, 22वें शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) शिखर सम्मेलन के दौरान ईरान के बतौर स्थायी सदस्य एससीओ में शामिल होने की आधिकारिक घोषणा की गई. संगठन की पूर्ण सदस्यता के लिए “कमिटमेंट डॉक्युमेंट (प्रतिबद्धता दस्तावेज)” पर हस्ताक्षर करके, ईरान का एससीओ में पूरी तरह शामिल होना अप्रैल 2023 तक प्रभावी होने की उम्मीद है, जब भारत अध्यक्ष के रूप में एससीओ का कार्यभार संभालेगा.

हवा की रुख को मोड़ देना

ईरान साल 2005 से एक पर्यवेक्षक के तौर पर एससीओ का सदस्य रहा है लेकिन संयुक्त राष्ट्र के प्रतिबंधों की वज़ह से पूर्ण सदस्यता प्राप्त करने की उसकी लगातार कोशिशें अबतक नाकाम होती रही हैं. लेकिन अब ऐसा लगता है कि एससीओ के स्थायी सदस्य, विशेष रूप से रूस और चीन, उभरते हुए अंतरराष्ट्रीय  माहौल और कम होती पश्चिम-केंद्रित बहुध्रुवीय दुनिया में ईरान की स्थिति को लेकर एक जैसी राय नहीं रखते हैं. हालांकि प्रमुख एससीओ सदस्य देशों में बढ़ते पश्चिमी-विरोधी नैरेटिव के बीच वो ख़ुद को नीतियों के संदर्भ में अलग तरीक़े से प्रकट करते रहे हैं, इसलिए तेहरान का लंबे समय से चल रहा संशोधनवाद अब नए भू-राजनीतिक और रणनीतिक माहौल में ईरान, रूस और चीन को क़रीब ला सकता है. दुनिया के सबसे बड़े क्षेत्रीय संगठन के रूप में – जिसमें दुनिया की आबादी का 40 प्रतिशत और वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद का 30 प्रतिशत शामिल है – एससीओ ईरान को संयुक्त राज्य अमेरिका (यूएस) और उसके सहयोगियों द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों को ख़त्म करने के लिए बहुपक्षीय संस्थागत क्षमता प्रदान कर सकता है.

विदेश मंत्री होसैन अमीर-अब्दुल्लाहियन के अनुसार, “ईरान की एससीओ में सदस्यता एक कूटनीतिक जीत है जो “संतुलित, स्मार्ट, सक्रिय और गतिशील” विदेश नीति के दृष्टिकोण और ‘एशियाई बहुपक्षवाद’ के विचार को आगे बढ़ाने में तेहरान की कोशिशों को साबित करती है.”

रायसी प्रशासन के कार्यभार संभालने के साथ ही ईरान की विदेश नीति का आदर्श वाक्य “ना तो पूर्व और ना ही पश्चिम” बदलने लगा है, क्योंकि तेहरान भू-राजनीतिक और भू-आर्थिक रूप से “पूर्व की ओर” नीति का अनुसरण करता है. ईरान के सर्वोच्च नेता अयातुल्ला ख़ामेनेई ने रायसी की पूर्वी नीति का समर्थन करते हुए कहा कि, “विदेश नीति में आज हमारी प्राथमिकताओं में से पश्चिम के मुक़ाबले पूर्व को प्राथमिकता देना और पड़ोसी देशों की अपेक्षा दूरदराज़ के देशों को अहमियत देना है.” अपनी पूर्व की ओर नीति के तौर पर ईरान नए भू-राजनीतिक माहौल में अपनी भू-रणनीतिक स्थिति की वज़ह से वैश्विक व्यवस्था को बदलने में सक्रिय भूमिका निभाना चाहता है. दरअसल ईरान की पूर्व की ओर नीति के तीन मुख्य पहलू हैं : प्रतिबंधों के असर को समाप्त करना और ईरान के आर्थिक संकट को कम करना ; पड़ोसियों के साथ संबंध सुधारना; और रूस और चीन के साथ शक्तिशाली गठबंधन के ज़रिए पश्चिम विरोधी ब्लॉक का निर्माण कर अमेरिकी क्षेत्रीय हस्तक्षेप को चुनौती देना. ईरान के आशावादियों के लिए एससीओ में पूर्ण सदस्यता इन सभी रणनीतिक लक्ष्यों को प्राप्त करने का ज़रिया बन सकती है.

विदेश मंत्री होसैन अमीर-अब्दुल्लाहियन के अनुसार, “ईरान की एससीओ में सदस्यता एक कूटनीतिक जीत है जो “संतुलित, स्मार्ट, सक्रिय और गतिशील” विदेश नीति के दृष्टिकोण और ‘एशियाई बहुपक्षवाद’ के विचार को आगे बढ़ाने में तेहरान की कोशिशों को साबित करती है.” एससीओ में शामिल होने का भू-आर्थिक महत्व है; यह पूर्व-पश्चिम और उत्तर-दक्षिण ट्रांजिट कॉरिडोर में केंद्रीय भूमिका निभाकर ईरान को “हब कंट्री” बनने के उसके दीर्घकालिक लक्ष्य को प्राप्त करने में मदद कर सकता है. ईरान ने एससीओ सदस्यों को उत्तर-दक्षिण गलियारे पर सुरक्षित, स्थिर और विश्वसनीय रास्ता उपलब्ध कराने का भरोसा दिया है और साथ ही, अपने दक्षिणी बंदरगाह, ख़ास तौर पर चाबहार बंदरगाह में बुनियादी ढांचे को मज़बूत किया है. साल 2021 में, एससीओ सदस्य देशों के साथ ईरान का व्यापार 37 बिलियन अमेरिकी डॉलर को पार कर गया, जो देश के कुल विदेशी व्यापार का लगभग 30 प्रतिशत है. इसी अवधि के दौरान, एससीओ सदस्य देशों के साथ ईरान का निर्यात 20.5 बिलियन अमेरिकी डॉलर और आयात 16.5 बिलियन अमेरिकी डॉलर रहा. दुर्भाग्य से, एससीओ प्राथमिक तौर पर सीमित आर्थिक लाभ के साथ एक सुरक्षा और भू-राजनीतिक संगठन है क्योंकि इसमें सदस्यों के बीच व्यापार को बढ़ावा देने के लिए औपचारिक आर्थिक तंत्र की कमी है.

पश्चिमी देशों के साथ बिगड़ते संबंध

एससीओ का सदस्य बनने के ईरान की रणनीतिक दृष्टि से परे, ईरान की सदस्यता के बारे में रूस और चीन के रुख़ में बदलाव भी अहम है क्योंकि मौज़ूदा वक़्त में पश्चिमी देशों के साथ दोनों राष्ट्रों के संबंध में ज़्यादा तल्ख़ी है. वर्षों से, चीन और रूस ख़ास तौर पर ईरान के पश्चिम-विरोधी होने की वज़ह से एससीओ में उसकी सदस्यता के ख़िलाफ़ थे लेकिन अब, यूक्रेन पर आक्रमण को लेकर रूस और नॉर्थ अटलांटिक ट्रिटी ऑर्गनाइजेशन (नेटो) के बीच बढ़ते तनाव और चीन के साथ अमेरिका के ख़राब होते संबंध के साथ, एससीओ की भू-राजनीतिक पहचान और सुरक्षा क्षमताएं पूर्व की दो महान शक्तियों के लिए बेहद साफ हो चुकी हैं. रूस और चीन ने पश्चिमी ख़तरों को संतुलित करने में ईरान के रणनीतिक महत्व को महसूस किया है. इसलिए, यह दावा किया जा सकता है कि एससीओ में ईरान की सदस्यता मॉस्को और बीजिंग की राजनीतिक इच्छाशक्ति का नतीजा है.

यूक्रेन पर हमले के बाद, रूस ने सभी क्षेत्रीय संगठनों – विशेष रूप से एससीओ को – नेटो विरोधी के रूप में फ्रेम करने की मांग की है और एससीओ को रूस और चीन के नेतृत्व वाले पश्चिमी विरोधी ब्लॉक के तौर पर देखा जाए.

एससीओ को अक्सर स्वाभाविक तौर पर पश्चिमी विरोधी गुट के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, कुछ इसे नेटो विरोधी गुट भी कहते हैं. यूक्रेन पर हमले के बाद, रूस ने सभी क्षेत्रीय संगठनों – विशेष रूप से एससीओ को – नेटो विरोधी के रूप में फ्रेम करने की मांग की है और एससीओ को रूस और चीन के नेतृत्व वाले पश्चिमी विरोधी ब्लॉक के तौर पर देखा जाए. एससीओ के एक नए संभावित सदस्य के रूप में, पश्चिमी या अमेरिका विरोधी गुट के रूप में संगठन से संपर्क करने से ईरान को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अलग-थलग होने से बचाया जा सकता है. जैसा कि सात महीने के बाद भी रूस यूक्रेन में जंग जारी है, पश्चिमी शक्तियां रूस को और ज़्यादा दंडित और अलग-थलग कर सकती हैं, जिससे उसे अंतर्राष्ट्रीय अलगाव का मुक़ाबला करने के लिए वैकल्पिक राजनयिक मंच की तलाश करनी पड़ सकती है. एससीओ में ईरान की सदस्यता के साथ, पश्चिम-विरोधी रूख़ में और तेजी आएगी. 22वें एससीओ शिखर सम्मेलन में बोलते हुए, ईरानी राष्ट्रपति रायसी ने एससीओ सदस्यों से अमेरिका के एकछत्रवाद का मुक़ाबला करने के लिए नए तरीक़े खोजने का आग्रह किया. एससीओ में ईरान की सदस्यता “एशियाई लोगों को एशियाई सुरक्षा बनाए रखने” की चीनी नीति के अनुरूप है, जिसे हाल ही में एससीओ बैठक के दौरान संगठनात्मक रूप से पहचाना गया है. अफ़ग़ानिस्तान में हालात से निपटने में भी ईरान एक केंद्रीय भूमिका निभा सकता है जो एससीओ सदस्यों के लिए एक सुरक्षा चिंता का विषय है. अफ़ग़ानिस्तान फैक्टर, बढ़ते चीन-अमेरिका तनाव के साथ, चीन को एससीओ में ईरान की सदस्यता में तेजी लाने के लिए प्रेरित किया है.

ईरान को एससीओ में शामिल करने का मतलब

हालांकि बदलती विश्व व्यवस्था और उभरती हुई भू-राजनीतिक वास्तविकताओं ने ईरान को अपनी विदेश नीति को पुनर्स्थापित करने के लिए तैयार किया है और “ना तो पूर्व और ना ही पश्चिम” की उसकी पारंपरिक नीति को छोड़ने के लिए प्रेरित किया है बल्कि ईरान के पूर्वी देशों के प्रति झुकाव की रणनीति में भी कोई नई बात नहीं दिखती है. परमाणु वार्ता पर गतिरोध के बीच ईरान की विदेश नीति को पूर्व की ओर ले जाने और एससीओ में सदस्यता की तलाश में पश्चिमी दबाव और वैश्विक और क्षेत्रीय भू-राजनीति में बदलाव के अलावा यह कुछ और नहीं है. हालांकि कई लोगों की उम्मीदों के विपरीत एससीओ की सदस्यता ईरान की रणनीतिक आकांक्षाओं को पूरा करने में बहुत कुछ नहीं कर सकती है. एससीओ अपने सबसे बेहतर रूप में सदस्यों के लिए अपने द्विपक्षीय संबंधों का विस्तार करने के लिए एक फ्रेमवर्क भर है. यह ईरान के अंतर्राष्ट्रीय अलगाव के किसी भी प्रभावी संस्थागत समाधान का प्रतिनिधित्व नहीं करता है. कई आर्थिक पर्यवेक्षकों के मुताबिक़, एससीओ कम समय में प्रतिबंध-विरोधी गठबंधन के तौर पर अपनी पहचान नहीं बनाएगा. राजनीतिक या आर्थिक लाभ के बदले कम समय में इस राजनयिक सफलता से ईरान को बहुत ज़्यादा फ़ायदा अगर होगा तो वह बहुपक्षीय राजनयिक युद्धाभ्यास तक सीमित हो सकती है.

सच्चाई यह है कि ईरान एससीओ में अपने दाख़िले को ऐसे समय में अमेरिका के ख़िलाफ़ एक जीत के रूप में देखता है जबकि परमाणु वार्ता टूटने के कगार पर है. जबकि एससीओ सदस्य देश ईरान-अमेरिका के बीच बढ़ती शत्रुता में शामिल होने के लिए तैयार नहीं हैं; उन्होंने इसमें संतुलन लाने की कोशिश में सऊदी अरब, कतर और मिस्र को “संवाद भागीदार” के रूप में भी स्वीकार किया है. यह बातें एससीओ की पश्चिमी-विरोधी भू-राजनीतिक पहचान को बढ़ाने की रूसी कोशिशों के लिए भी सच है, क्योंकि सदस्य देश यूक्रेन पर रूस के आक्रमण को लेकर अभी भी बंटे हुए हैं. कम से कम कम वक़्त में एससीओ ईरान की आर्थिक और सुरक्षा प्राथमिकताओं को पूरा करने के लिए किसी भी बेहतर वैकल्पिक तंत्र की पेशकश करने की संभावना नहीं रखता है, जब तक कि ईरान की पश्चिमी देशों के साथ प्रतिबंध और दुश्मनी क़ायम रहती है. हालांकि एससीओ की सदस्यता से ईरान को अमेरिका के साथ बातचीत में अपनी सौदेबाज़ी को मज़बूत करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा और राजनीतिक लाभ की स्थिति ज़रूर हासिल होगी.

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