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हम लैंगिक भेदभाव को समाप्त करने की 2030 की समय सीमा के नज़दीक पहुंच रहे हैं, ऐसे में अब महिलाओं के विरुद्ध हिंसा को समाप्त करने के लिए की जा रही कोशिशों में तेज़ी लाने की ज़रूरत है.
हर साल, 25 नवंबर को अंतर्राष्ट्रीय महिला हिंसा उन्मूलन दिवस मनाया जाता है और इसके बाद अगले 16 दिनों तक यानी 10 दिसंबर तक वैश्विक समुदाय द्वारा सक्रियता के साथ दुनियाभर में महिलाओं और लड़कियों के ख़िलाफ़ हिंसा को समाप्त करने के प्रयासों में तेज़ी लाई जाती है. वैश्विक स्तर पर महिलाओं एवं लड़कियों के विरुद्ध हिंसा से जुड़े आंकड़े लिंग-आधारित हिंसा की घटनाओं की ओर ध्यान खींचते हैं. इसके साथ ही याद दिलाते हैं वर्ष 2030 तक लिंग-आधारित हिंसा की घटनाओं पर लगाम लगाने की वैश्विक प्रतिबद्धता को पूरा करने के लिए कुछ ही साल बचे हैं और इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए समय तेज़ी से फिसल रहा है.
महिलाओं के विरुद्ध भेदभाव को समाप्त करने पर यूनाइटेड नेशन्स कन्वेंशन (CEDAW) की ओर से दशकों से काम किया जा रहा है, लेकिन जिस प्रकार से महिलाओं के विरुद्ध हिंसा की घटनाएं बढ़ी हैं, उससे स्पष्ट है कि इस दिशा में जितनी प्रगति होनी चाहिए थी, दुर्भाग्यवश उतनी प्रगति नहीं हुई है.
दुनिया में युद्धों की सूची में एक और जंग शामिल हो चुकी है, साथ ही भारत-प्रशांत क्षेत्र में लगातार बढ़ते तनाव के बीच जलवायु संकट का मुद्दा भी विकराल होता जा रहा है, यानी कुल मिलाकर पूरी दुनिया एक भारी उथल-पुथल के मुहाने पर पहुंच चुकी है. आने वाले दिनों में इन संकटों के बढ़ने से जहां लिंग-आधारित हिंसा में भी बढ़ोतरी हो रही है, वहीं निश्चित तौर पर महिलाओं के शारीरिक, मनोवैज्ञानिक, यौन और आर्थिक जीवन पर भी बेहद विपरीत असर पड़ रहा है. महिलाओं के विरुद्ध भेदभाव को समाप्त करने पर यूनाइटेड नेशन्स कन्वेंशन (CEDAW) की ओर से दशकों से काम किया जा रहा है, लेकिन जिस प्रकार से महिलाओं के विरुद्ध हिंसा की घटनाएं बढ़ी हैं, उससे स्पष्ट है कि इस दिशा में जितनी प्रगति होनी चाहिए थी, दुर्भाग्यवश उतनी प्रगति नहीं हुई है.
नीचे दिए गए आंकड़ों से साफ पता चलता है कि पूरी दुनिया में ही महिलाओं एवं लड़कियों के ख़िलाफ़ हिंसा के मामले भरे पड़े हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के मुताबिक़ घरेलू हिंसा के साथ ही यौन हिंसा के बढ़ते मामले भी महिलाओं के स्वास्थ्य और उनके मानवाधिकारों के सामने एक बड़ी चनौती हैं. वैश्विक स्तर पर देखें, तो हर तीन में से एक महिला और लड़की ने अपने जीवनकाल में कम से कम एक बार किसी क़रीबी या फिर बाहरी व्यक्ति द्वारा किसी न किसी प्रकार की शारीरिक या यौन हिंसा को झेला है. अक्सर महिलाओं के विरुद्ध उनके अपने घरों में और परिवार के भीतर ही हिंसक घटनाओं को अंज़ाम दिया जाता है. आंकड़ों के मुताबिक़ हर 11 मिनट में एक महिला या लड़की को उसके नज़दीकी या फिर पारिवारिक सदस्य द्वारा मौत के घाट उतार दिया जाता है. कोरोना महामारी की वजह से लगाए गए लॉकडाउन की अवधि के आंकड़ों पर नज़र डालें तो उस दौरान लिंग-आधारित हिंसा की घटनाओं में ज़बरदस्त बढ़ोतरी दर्ज़ की गई थी. इसके साथ ही मानवीय संकट, युद्ध एवं जलवायु परिवर्तन की जो भी परिस्थितियां हैं, वो भी महिलाओं के विरुद्ध हिंसा में वृद्धि कर रही हैं. अब इसमें कोई दोराय नहीं है कि महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा को समाप्त करने के लिए गंभीरता से कार्य करने की ज़रूरत है. इसके अलावा, इस दिशा में किए गए वादों को धरातल पर उतारने की ज़रूरत है, साथ ही 2030 एजेंडा को मुकम्मल करने के लिए और अधिक प्रयास करने की आवश्यकता है.
चित्र 1: महिलाओं के ख़िलाफ़ वैश्विक हिंसा का संयुक्त अनुमान, 2018
स्रोत - WHO, 2021
पिछले एक दशक की बात की जाए, तो पूरी दुनिया में सतत विकास लक्ष्यों (SDGs) को हासिल करने के लिए काफ़ी कुछ किया गया है और इसका फायदा भी हुआ है. हालांकि, अगर इस दिशा में समग्र प्रगति को देखा जाए, तो यह बहुत धीमी बनी हुई है. महिलाओं के विरुद्ध हिंसा उन्मूलन को लेकर संयुक्त राष्ट्र महिला (UN Women) की ताज़ा रिपोर्ट बेहद चिंताजनक है. इस रिपोर्ट के अनुसार जिस गति से इस दिशा में कार्य किया जा रहा है, उससे लैंगिक समानता का लक्ष्य प्राप्त करने में 286 साल लग सकते हैं.
सत्ता या सरकारों में उच्च पदों पर आसीन महिलाओं को भी इसी तरह से दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ता है. सभी पांच रीजनों में 82 प्रतिशत महिला सांसदों ने अपने पद पर रहने के दौरान किसी न किसी प्रकार के मनोवैज्ञानिक उत्पीड़न या दुर्व्यवहार का सामना करने की शिकायत की है.
चित्र-2 न केवल SDG 5 के बारे में विस्तार से बताता है, बल्कि 2030 की समय सीमा के समक्ष आने वाली कुछ चुनौतियों को भी प्रदर्शित करता है. ख़ासकर जब लैंगिक विशेष सूचकों की बात सामने आती है, तो ये चुनैतियां बहुत व्यापक दिखती हैं. पूरी दुनिया में 162 देशों द्वारा घरेलू हिंसा पर लगाम लगाने के लिए क़ानून बनाया गया है, बावज़ूद इसके विश्व में 600 मिलियन महिलाएं ऐसी हैं, जिन्हें घरेलू हिंसा के ख़िलाफ़ समुचित सुरक्षा नहीं मिली हुई है. इतना ही नहीं, दुनिया के सिर्फ़ 147 देश ऐसे हैं, जहां कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न से निपटने के लिए क़ानून हैं. तमाम अध्ययनों के मुताबिक़ दुनिया के कई देशों में महिलाओं के विरुद्ध घरेलू हिंसा और यौन हिंसा की घटनाओं को रोकने के लिए पर्याप्त क़ानून तो हैं, लेकिन इनमें से कई क़ानून ऐसे हैं, जो अभी भी अंतर्राष्ट्रीय मापदंडों के मुताबिक़ नहीं है. इसके अलावा इन क़ानूनों को उचित तरीक़े से कार्यान्वित भी नहीं किया गया है. क़ानूनों के लचर कार्यान्वयन की वजह से ही न केवल महिलाएं अक्सर घरेलू हिंसा का शिकार बनती हैं, बल्कि इनमें से 40 प्रतिशत से भी कम मामलों में पीड़ित महिलाएं पुलिस तक शिकायत दर्ज़ कराने पहुंचती है या फिर अस्पतालों में अपना इलाज कराने जा पाती हैं. वैश्विक स्तर पर देखें, तो लगभग 6 प्रतिशत महिलाएं ऐसी हैं, जो शिकायत दर्ज़ कराती हैं कि उनके साथ हिंसा को पति या पार्टनर के अलावा दूसरे लोगों द्वारा अंज़ाम दिया गया है. इस प्रकार की हिंसा को लेकर समाज में जो नकारात्मक अवधारणा बनी हुई है, उसको देखते हुए ऐसी हिंसा जिसमें पति या पार्टनर लिप्त नहीं होते हैं, की संख्या और ज़्यादा बढ़ने की संभावना है.
चित्र 2: SDG और महिलाओं के विरुद्ध हिंसा से संबंध
स्रोत- यूएन महिला, वादों को कार्य में बदलना: सतत विकास के लिए 2030 में लैंगिक समानता, 2018
लिंग-आधारित हिंसा (GBV) के सामाजिक और आर्थिक प्रभाव बहुत व्यापक हैं. इसकी वजह यह है कि लैंगिक आधार पर होने वाली हिंसा की घटनाओं से महिलाएं कहीं न कहीं अलग-थलग पड़ सकती हैं, कोई भी काम करने में अयोग्य हो सकती हैं, साथ ही ऐसी घटनाओं से महिलाओं की प्रतिष्ठा, गरिमा और आत्मविश्वास व मनोबल को भी झटका लग सकता है.
महामारी ने भी महिलाओं पर बहुत बुरा असर डाला है. इसके चलते, जिस प्रकार से वैश्विक स्तर पर ग़रीबी की दर में वृधि हुई है और स्कूल बंद हुए हैं, उसके फलस्वरूप वर्ष 2030 तक लगभग और 13 मिलियन ज़्यादा बाल विवाह होने की संभावना है. एक नए अध्ययन के अनुसार, कोरोना महामारी की वजह से व्यापक स्तर पर बढ़ी ग़रीबी का फायदा मानव तस्करों ने उठाया है, साथ ही ऑनलाइन माध्यमों से ग़रीबी से पीड़ित लोगों तक अपना जाल बिछाने का काम किया है. महिलाएं और लड़कियां मानव तस्करी की सबसे आसान शिकार होती हैं. मानव तस्करी से जुड़े वर्ष 2020 के आंकड़ों पर नज़र डालें तो वैश्विक स्तर पर खोजे गए प्रत्येक पीड़ितों में, लगभग चार महिलाएं और दो बच्चियां शामिल थीं.
सत्ता या सरकारों में उच्च पदों पर आसीन महिलाओं को भी इसी तरह से दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ता है. सभी पांच रीजनों में 82 प्रतिशत महिला सांसदों ने अपने पद पर रहने के दौरान किसी न किसी प्रकार के मनोवैज्ञानिक उत्पीड़न या दुर्व्यवहार का सामना करने की शिकायत की है. इस तरह के दुर्व्यवहार में महिलाओं के प्रति नफ़रत और घृणा से जुड़ी टीका-टिप्पणी, महिलाओं को अनुचित तरीक़े से पेश करना और सोशल मीडिया मंचों के माध्यम से उन पर गैरमुनासिब बयानबाज़ी और दूसरे तरह के ख़तरे शामिल हैं. आंकड़ों पर गौर करें, तो 65 प्रतिशत पीड़ित महिला सांसद कहीं न कहीं संसद के भीतर पुरुष सांसदों की ओर से की जाने वाली अभद्र और अश्लील टिप्पणियों का शिकार थीं.
यह ज़ाहिर है कि महिलाओं के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार करने और उनके ख़िलाफ़ हिंसा की घटनाओं से वैश्विक अर्थव्यवस्था पर बेहद प्रतिकूल असर पड़ता है. इस सबके बावज़ूद आर्थिक गतिविधियों में महिलाओं को व्यापक स्तर पर तमाम चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है.
वैश्विक स्तर पर कोरोना महामारी के दौरान ऑनलाइन लैंगिक हिंसा के मामलों में बढ़ोतरी दर्ज़ की गई थी. इसका कारण यह था कि ज़्यादातर देशों में इस प्रकार की वारदातों से निपटने के लिए सशक्त क़ानूनी फ्रेमवर्क नहीं था और इसके चलते ये देश महिलाओं के विरुद्ध ऑनलाइन माध्यमों से होने वाले अपराधों पर लगाम लगाने में खुद को असहाय महसूस कर रहे थे. यूनेस्को की एक स्टडी के मुताबिक़ क़रीब 73 प्रतिशत महिला पत्रकारों ने लैंगिक (49 प्रतिशत), राजनीति एवं चुनावी मुद्दों (44 प्रतिशत) के बाद मानवाधिकार और सामाजिक नीतियों से संबंधित मामलों (31 प्रतिशत) जैसे विषयों पर किसी न किसी प्रकार की ऑनलाइन हिंसा का सामना किया है. 'डीपफेक' की बढ़ती हुई घटनाएं भी चिंताजनक बनती जा रही हैं, क्योंकि इसमें भी बड़ी संख्या में महिलाओं को ही निशाना बनाया जाता है. हालांकि, मौज़ूदा समय में डीपफेक के विरुद्ध कोई विशेष क़ानून नहीं है. सूचना प्रौद्योगिकी (IT) अधिनियम 2000, भारतीय दंड संहिता (IPC), 1860 और भारतीय कॉपीराइट अधिनियम, 1957 के ज़रिए डीपफेक जैसे कंटेंट से निपटा जा सकता है.
हाल-फिलहाल में भारत में जिस प्रकार से डीपफेक के मामलों के सामने आने के बाद हंगामा बरपा है, उसके बाद भारत सरकार डीपफेक से जुड़े मामलों को लेकर सख़्त हुई है. भारत सरकार को यूजर्स द्वारा रिपोर्ट किए गए किसी भी डीपफेक कंटेंट को 36 घंटों के भीतर हटाने के लिए सोशल मीडिया प्लेटफार्मों को कड़ी एडवाइजरी जारी करने के लिए भी मज़बूर होना पड़ा है. इस एडवाइजरी में कहा गया है कि अगर इसका पालन नहीं किया जाता है, तो न सिर्फ़ डीपफेक सामग्री पोस्ट करने वाले के विरुद्ध क़ानूनी कार्रवाई की जाएगी, बल्कि सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म को जो सेफ हार्बर की सुरक्षा मिली हुई है, यानी उन्हें यूजर्स द्वारा पोस्ट गई सामग्री के लिए जवाबदेह नहीं ठहराया जा सकता है, उसे भी समाप्त कर दिया जाएगा. ज़ाहिर है कि पब्लिक ट्रांसपोर्ट के साधनों, स्कूलों, कार्यस्थलों एवं घूमने-फिरने की जगहों आदि जैसे सार्वजनिक स्थानों पर महिलाएं और लड़कियां ही सबसे अधिक उत्पीड़न का शिकार बनती हैं.
SDGs के भीतर कई दूसरे लक्ष्य मौज़ूद हैं, जो न केवल महिलाओं के विरुद्ध होने वाली लैंगिक हिंसा को रोकने वाले कारकों को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं, बल्कि अंतर्निहित बुनियादी असमानताओं को कम करने में भी कारगर सिद्ध हो सकते हैं. नीचे दी गई तालिका में विभिन्न SDGs में शामिल ऐसे लक्ष्यों को दर्शाया गया है.
चित्र 3: SDGs में शामिल अन्य लक्ष्य जिनका लिंग आधारित हिंसा को रोकने में परोक्ष रूप से प्रभाव पड़ता है
स्रोत - Babu and Kusuma, 2016
महिलाओं के साथ दशकों से भेदभावपूर्ण बर्ताव किया जा रहा है और इसके चलते समाज में महिलाओं की स्थिति कमज़ोर हुई है, साथ ही इसने सामाजिक और आर्थिक ताने-बाने में महिलाओं को हाशिए पर धकेलने का काम किया है. इन सारी परिस्थितियों की वजह से हिंसा की घटनाओं का मुक़ाबला करने की महिलाओं की क्षमता प्रभावित हुई है, साथ ही वो अपने ख़िलाफ़ हुई हिंसा की शिकायत भी दर्ज़ कराने में हिचकिचाती हैं. पुरुषों से तुलना की जाए, तो महिलाओं के पास भूमि और संपत्ति से जुड़े स्वामित्व के अधिकार बहुत कम होते हैं. पूरी दुनिया में केवल 12.8 प्रतिशत महिलाओं के पास ही कृषि भूमि का स्वामित्व है. महिलाओं को ऐसे कार्यों को करने में तमाम दिक़्क़तों का सामना करना पड़ता है, जो उनकी गरिमा व प्रतिष्ठा के अनुकूल हों और उन्हें स्वंत्रता व समानता का बोध कराते हैं. महिलाएं अधिकतर ऐसे कार्यों में ही लगी रहती हैं, जिनका अर्थव्यवस्था में एवं उनकी खुद की आर्थिक उन्नति में योगदान बहुत कम होता है. जैसे कि महिलाओं को घरेलू कार्यों को करना पड़ता है एवं बच्चों की देखभाल करनी पड़ती है, ये सारे कार्य अवैतनिक होते हैं और इनसे पुरुषों की तुलना में उनकी इनकम प्रभावित होती है. यह ज़ाहिर है कि महिलाओं के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार करने और उनके ख़िलाफ़ हिंसा की घटनाओं से वैश्विक अर्थव्यवस्था पर बेहद प्रतिकूल असर पड़ता है. इस सबके बावज़ूद आर्थिक गतिविधियों में महिलाओं को व्यापक स्तर पर तमाम चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है. विश्व बैंक की एक स्टडी यह साफ तौर पर बताती है कि वैश्विक स्तर पर 2.7 मिलियन से अधिक महिलाओं को पुरुषों के समान नौकरियां हासिल करने से क़ानूनी रूप से रोका गया है. वर्ष 2018 में जिन 180 देशों को इस स्टडी में शामिल किया गया था, उसमें यह पता चला है कि 104 देशों में इस तरह के क़ानून हैं, जो महिलाओं को कुछ विशेष पेशों या नौकरियों का चुनाव करने से रोकते हैं. इतना ही नहीं 18 देशों में तो आज भी पतियों के पास यह अधिकार है कि वे अपनी पत्नियों को काम करने से रोक सकते हैं. महिलाएं सामाजिक सुरक्षा एवं मातृत्व लाभ से भी वंचित है, यहां तक कि महिलाओं को अक्सर बुनियादी स्वास्थ्य देखभाल के साथ ही यौन एवं प्रजनन से संबंधित इलाज के लिए भी कई ख़तरों को झेलना पड़ता है. महिलाओं की गिनती विश्व के सबसे अशिक्षित लोगों में होती है. इतना ही नहीं STEM यानी साइंस, टेक्नोलॉजी, इंजीनियरिंग और मैथ जैसे विषयों तक पुरुषों की तुलना में महिलाओं की पहुंच कम है, इसके अलावा इंटरनेट तक भी महिलाओं की पहुंच बेहद सीमित है. ताज़ा अनुमानों से जो संकेत मिलता है, उसके अनुसार महिलाओं के ग़रीबी के दुष्चक्र में फंसने की संभावना बढ़ती जा रही है, जिससे वे यौन शोषण और हिंसा के लिहाज़ से आसान शिकार बनती जा रही हैं. जलवायु परिवर्तन आज पूरी दुनिया में एक चिंताजनक मुद्दा है और इसका भी लैंगिक लिहाज़ से महिलाओं पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है. बार-बार पड़ने वाले सूखे के चलते अक्सर पशुओं के बदले में लड़कियों को कम उम्र में विवाह के लिए बेच दिया जाता है. इतना ही नहीं लड़कियों के पढ़ाई के दौरान बीच में ही स्कूल छोड़ने की दर में भी बढ़ोतरी हुई है, क्योंकि उन्हें पानी लाने के लिए अधिक समय देना पड़ता था. इसके अतिरिक्त, महिलाएं और लड़कियां भोजन और पानी लाने के लिए लगातार दूर-दूर तक आती-जाती हैं, वो भी ऐसी परिस्थितियों में, जबकि उन्हें हिंसा और उत्पीड़न का आसान शिकार माना जाता है.
महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा को उकसाने वाली सामाजिक मानसिकता में बदलाव लाने के लिए तत्काल कार्रवाई करने के साथ ही इससे जुड़े विभिन्न हितधारकों के बीच मेलजोल को बढ़ाने की भी ज़रूरत है.
ज़ाहिर है कि इस प्रकार की लैंगिक असमानताओं का मुक़ाबला करने के लिए और इन्हें समाप्त करने के लिए ज़रूरत इस बात की है कि वैश्विक समुदाय न केवल एकजुट होकर महिलाओं और लड़कियों के विरुद्ध होने वाली हिंसा को रोकने के लिए कार्य करे, बल्कि ऐसी घटनाओं के ख़िलाफ़ अपनी सशक्त प्रतिक्रिया भी दे. ज़ाहिर है कि यह 2023 UniTE अभियान के अंतर्गत महिलाओं और लड़कियों के ख़िलाफ़ हिंसा को रोकने के लिए कार्य करने की थीम के अनुरूप है. महिलाओं एवं लड़कियों के ख़िलाफ़ होने वाले इस क्रूर और अमानवीय व्यवहार का मुक़ाबला करने के लिए बहुत कुछ किया जाना ज़रूरी है. जैसे कि इसकी रोकथाम के लिए कार्रवाई योग्य कोशिशों में तीव्रता लाकर, महिला हिंसा से जुड़े हर छोटे-बड़े आंकड़ों को एकत्र करके और इन आंकड़ों का सिलसिलेवार तरीक़े से विशेषण करके, यानी उनके विरुद्ध होने वाली हिंसा की व्यापकता की वास्तविक तस्वीर को पेश करने वाले आंकड़ों को समझ कर ही इस समस्या से निपटा जा सकता है. इसके साथ ही ऐसी जेंडर बजटिंग और सरकारी वित्तपोषण को बढ़ाने की ज़रूरत है, जो महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा उन्मूलन पर केंद्रित हो. फिलहाल जो राशि आवंटित की जा रही है, वो इस समस्या की व्यापकता के अनुरूप नहीं है, यानी बहुत कम है. वर्ष 2030 की समय सीमा तक महिला हिंसा उन्मूलन के लक्ष्य को हासिल करने के लिए न सिर्फ़ मज़बूत राजनीतिक इच्छाशक्ति की आवश्यकता है, बल्कि महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा को उकसाने वाली सामाजिक मानसिकता में बदलाव लाने के लिए तत्काल कार्रवाई करने के साथ ही इससे जुड़े विभिन्न हितधारकों के बीच मेलजोल को बढ़ाने की भी ज़रूरत है. इसमें अब कोई लापरवाही नहीं चलेगी और पुरज़ोर तरीक़े से इस कार्य में जुटना ही होगा.
अरुंधती बिस्वास ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में सीनियर फेलो हैं.
ये लेखक के निजी विचार हैं.
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Arundhatie Biswas Kundal was a Senior Fellow Observer Research Foundation India ...
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