भारत-चीन-भूटान त्रि-जंक्शन, विशेषकर सिक्किम-तिब्बत-भूटान के संधिस्थल पर वर्तमान टकराव के बारे में यह जान पाना आसान नहीं है कि आखिर वहां हो क्या रहा है।
लेकिन इस टकराव के संबंध में तीनों देशों की ओर से कुछ अस्भाविक प्रतिक्रियाएं देखने को मिली है। पहला, चीन ने खुद को पीड़ित पक्ष करार देते हुए भारत के प्रति औपचारिक कूटनीतिक विरोध प्रकट करने की बात कही है। दूसरा, ऐसे मामलों पर आमतौर पर खामोश रहने वाले भूटान ने चुप्पी तोड़ते हुए भारत में अपने राजदूत जनरल वी. नामग्याल के जरिए कहा है कि चीन ने रॉयल भूटान आर्मी कैम्प की तरफ वाले क्षेत्र में सड़क का निर्माण करके 1998 के समझौते की सीमा पर यथास्थिति बहाल रखने से संबंधित शर्तों का उल्लंघन किया है। तीसरा, आमतौर पर साफ बोलने वाले भारत ने अब तक सोची-समझी खामोशी ओढ़ रखी है।
सामान्य गूगल मैप वे स्थान नहीं दिखाता, जहां यह कार्य किया जा रहा है। डोकलाम पठार कहां है, इसे लेकर कुछ दुविधा है।
ज्यादातर मानचित्र त्रि-जंक्शन से कुछ दूरी पर यादोंग के उत्तर पूर्व में 269 वर्ग किलोमीटर हिस्से को चीन और भूटान के बीच विवादित क्षेत्र के रूप में दर्शाते हैं। हालांकि चीन ने 30 जून को एक मानचित्र जारी कर इस क्षेत्र को त्रि-जंक्शन के दक्षिण में दर्शाया है और यह, स्पष्ट रूप से एक समस्या है।
रॉ के पूर्व अधिकारी और चीन विशेषज्ञ जयदेव राणाडे का कहना है कि “ढोका (दोका)ला” त्रि-जंक्शन पर है, हालांकि उनके अनुसार, चीन “गायेमोचेन (गामोचेन) तक भूटान के भूभाग से होकर गुजरने वाली सड़क का निर्माण करने की कोशिश कर रहा है, जो त्रि-जंक्शन के निचले छोर के समीप है।” उनके अनुसार चीन का दावा है कि गामोचेन त्रि-जंक्शन है, जबकि भारतीय मानचित्र दर्शाते हैं कि यह त्रि-जंक्शन, इस क्षेत्र से लगभग 6.5 किलोमीटर (बिल्कुल सीधा रास्ता) उत्तर में बातांग ला में है। इनमें से एक भी विशेषता सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध मानचित्रों में दिखाई नहीं देती और इन्हें ढूंढने के लिए प्रयास करने पड़ते हैं। लेकिन यह बिल्कुल स्पष्ट है कि बातांग ला त्रि-जंक्शन है, जो वहां बहने वाली नदियों के बहाव से जाहिर है। हालांकि जमीन पर 15-20 किलोमीटर का अंतर चीन को भूटान की उस घाटी के बेहद करीब ले आता है, जो हमारी सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण संवेदनशील सिलीगुड़ी गलियारे में खुलती है।
चीनी यह नहीं कह रहे कि सिक्किम-तिब्बत सीमा किसी तरह की कोई समस्या है। वे कह रहे हैं कि डोकलाम पठार “निर्विरोध” रूप से उनका इलाका है और उनका आरोप है कि भारतीय सुरक्षा बलों ने सड़क का निर्माण रोकने के लिए दोनों देशों द्वारा स्वीकृत सरहद को पार किया है। भारतीय सैनिकों द्वारा इस पर प्रतिक्रिया व्यक्त किए जाने की वजह बिल्कुल साफ है। चीन की कार्रवाई का लक्ष्य भारत-चीन-भूटान त्रि-जंक्शन को थोड़ा और दक्षिण गामोचन की तरफ की खिसकाना है और क्योंकि ऐसा भूटान में सड़क निर्माण के जरिए किया जा रहा है, यह सीधे तौर पर भारतीय सुरक्षा को प्रभावित करता है।
इस क्षेत्र में चीन के कई उद्देश्य हैं
पहला, वह यादोंग क्षेत्र के विकास को बढ़ावा देना चाहता है, जो एक राजमार्ग के जरिए ल्हासा से जुड़ा है और जल्द ही वहां शिगात्से से चीन-तिब्बत रेलवे की ब्रांच होगी। कोलकाता तक जाने वाला ल्हासा-कलिंगपोंग मार्ग, काठमांडू के रास्ते वाले मार्ग से एक-तिहाई छोटा है। यह ट्रांस-हिमालियन क्षेत्र में तिब्बत की भूराजनीतिक केंद्रीयता को पुन:स्थापित करने संबंधी चीन के लक्ष्य से जुड़ा है। याद रहे कि वह हिमालच के दक्षिण में, पूरे अरूणाचल प्रदेश पर भी दावा करता है।
दूसरा, वह भूटान के साथ औपचारिक संबंध कायम करना चाहता है और थिम्पू में अपने दूतावास की स्थापना करने का इच्छुक है। साथ ही वह इस दक्षिण एशियाई देश के साथ सीधे कारोबारी संबंध स्थापित करना चाहता है, जो अब तक इसकी आगे बढ़ने की कोशिशों को टालता आया है। दक्षिण एशिया में भारत के साथ इसकी स्पर्धा में भूटान-भारत संबंधों को तोड़ना, इसका एक महत्वपूर्ण भूराजनीतिक लक्ष्य होगा।
तीसरा, वह इस क्षेत्र में सैन्य रुख अख्तियार करना चाहता है, जिससे यह सुनिश्चित होगा कि वह किसी भी सैन्य संघर्ष में भारत को मात दे सकता है। सिक्किम और उससे सटे क्षेत्र में भारत की मजबूत स्थिति को देखते हुए डोकलाम पठार का नियंत्रण इसकी सेना को भूटान के रास्ते सिलीगुड़ी गलियारे तक जाकर भारत के पूर्वोत्तर राज्यों का सम्पर्क काटने की संभावनाएं प्रदान करता है।
इस उद्देश्य के लिए, भूटान के साथ विचार-विमर्श के दौरान चीन लक्ष्यों को बदलते हुए अपने चारित्रिक हथकंडे आजमा रहा है और सैन्य नियंत्रण को कूटनीतिक और आर्थिक प्रलोभनों के साथ मिला रहा है। साथ ही, वह भूटान की सहायता करने के भारत के प्रयासों को भी नियंत्रित करना चाहता है।
भूटान 1984 से, उत्तर में चीन के साथ 470 किलोमीटर की सीमा साझा करता है, वह अपनी विवादित भूमि को 1128 वर्ग किलोमीटर से घटाकर महज 269 वर्ग किलोमीटर करने के लिए चीन के साथ संवाद करता रहा है, लेकिन ऐसा केवल भूटान द्वारा माउंट कुला कांगड़ी सहित स्वैच्छा से अपने इलाके छोड़ देने पर ही मुमकिन हो सका। लेकिन चीन ने सात क्षेत्रों पर अपना दावा बरकरार रखा है और वह डोकलाम क्षेत्र में बहुत जोर लगा रहा है। उसने चुम्बी घाटी तक नेटवर्क या सड़कों का निर्माण किया है और जो भी जगह उसे उचित लगती है, वह भूटानी इलाकों में अतिक्रमण करके वहां नेटवर्क या सड़के बनवा रहा है।
बीजिंग में 1996 में हुई भूटान-चीन वार्ता के दौरान, चीन ने पश्चिमी भूटान में 269 किलोमीटर जमीन, जिस पर वह दावा करता है, की एवज में पासमलुआंग और जकारलुंग घाटियों का 495 किलोमीटर स्थान लेने की पेशकश की। ऐसी खबरें थीं भूटान यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया है, लेकिन ये खबरें गलत साबित हुईं। हालांकि 1998 में, दोनों पक्षों ने एक समझौते पर हस्ताक्षर किए। इस समझौते में यह तय किया गया कि वे भूटान-चीन सीमा पर अमन और शांति कायम रखेंगे। इस संधि के अनुच्छेद 3 में कहा गया है कि जब तक इस समस्या का पूरी तरह समाधान नहीं हो जाता, दोनों देश “सीमा की मार्च 1959 से पहले की स्थिति बहाल रखेंगे।”
सिक्किम और तिब्बत के बीच वाली 220 किलोमीटर की सीमा, 4,000 किलोमीटर लम्बी चीन-भारत सरहद का एकमात्र परिसीमित और सीमांकित हिस्सा है। बाकि हिस्सा अनुमानित वास्तविक नियंत्रण रेखा द्वारा परिभाषित है। यह 1890 की एंग्लो-चायनीज़ संधि का निष्कर्ष है, जिसमें सीमा को भारत की ओर बहने वाली तीस्ता नदी और तिब्बत की ओर बहने वाली मोचू नदी को अलग करने वाले पर्वत के शिखर के रूप में परिभाषित किया गया है। इस संधि की शब्दावली के अनुसार, सिक्किम-तिब्बत सीमा रेखा “भूटान सीमा पर माउंट जिपमोची से शुरू होती है, उपरोक्त जल-बंटवारे का उस बिंदु तक अनुसरण करती है, जहां वह नेपाल से मिलता है।”
इसके बाद, इसका परिसीमन जमीन पर किया गया और सीमा पर लगे खम्बों द्वारा उसे चिन्हित किया गया। यह सच है कि हाल के वर्षों में, कुछ खम्बों की वास्तविक स्थिति के बारे में कुछ मसले रहे हैं और वर्ष 2007 तथा 2014 में चीन के राष्ट्रपति शी की भारत यात्रा के दौरान इससे मिलती-जुलती घटनाएं हुईं। सीमा का कहां है, इसका पता लगाना इस बात पर विचार करते हुए काफी हद तक आसान हो जाएगा कि यह संभवत: उस जगह है, जहां माउंट गिपमोची से जल विभाजन हो रहा है। हालांकि जब भी कभी सीमा का, वह भी विशेषकर चीन के साथ सीमा का मसला आता है, कुछ भी आसान नहीं रहता।
हालांकि चीन, तिब्बत और सिक्किम के बारे में 19वीं सदी के अंत और 20वीं सदी के आरंभ में चिंग साम्राज्य के साथ ब्रिटिश साम्राज्य के समझौतों को मान्यता देता है, लेकिन वह 1974 में सिक्किम के भारतीय संघ में शामिल होने को स्वीकार नहीं करता। वर्ष 2003 में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की चीन यात्रा के दौरान ही दोनों पक्षों में इस बारे में समझौता हुआ। चीन ने सिक्किम को भारतीय राज्य के रूप में मान्यता दी, जबकि भारत ने “तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र” को चीन के अंग के रूप में मान्यता देने की बात स्वीकार की। इसके बावजूद, सिक्किम को भारत का अंग दिखाने के लिए अपने मानचित्रों में औपचारिक रूप से बदलाव करने और सीमा-पार व्यापार के लिए खोलने पर राजी होने में चीन को तीन साल लग गए।
और यहीं से चीन द्वारा भारतीय तीर्थयात्रियों को नाथु ला से गुजरने की इजाजत देने से इंकार किए जाने की शुरूआत हुई। 2006 में नाथु ला को यातायात के लिए खोला जाना चीन-भारत संबंधों को सामान्य बनाने के प्रयासों का एक महत्वपूर्ण भाग था। यह पुराना मार्ग ल्हासा को सबसे करीबी बंदरगाह तक पहुंच उपलब्ध कराता है। नाथु ला सीमा का एकमात्र ऐसा हिस्सा है, जिसे दोनों पक्षों द्वारा मान्यता प्राप्त है, इसलिए चीन ने कैलाश-मानसरोवर जाने वाले तीर्थयात्रियों के लिए लिपू लेख से होकर गुजरने वाले कठिनाइयों भरे मार्ग के विकल्प के तौर पर इसे खोलने की इजाजत देने पर सहमति प्रकट की। तीर्थयात्रियों का रास्ता अवरूद्ध करके चीन धीरे-धीरे, लेकिन स्पष्ट रूप से चीन-भारत संबंधों को अतीत जैसा बना रहा है।
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