‘हम अपने भाग्य को यूरोप के किसी भी हिस्से से जोड़कर, अपनी शांति और समृद्धि को यूरोप की महत्वाकांक्षा, आपसी होड़, उनके हितों, ज़िद या सनक के साथ मिलाने से हमें क्या हासिल होगा?’ ये बयान अमेरिका के पहले राष्ट्रपति जॉर्ज वॉशिंगटन ने 1796 में अपने विदाई भाषण में दिया था. आज इस बयान को बड़ी आसानी से विकासशील देशों, जैसे कि भारत, मेक्सिको, दक्षिण अफ्रीका या ब्राज़ील के नेताओं का बयान और यूक्रेन में चल रहे युद्ध को लेकर उनका रुख़ बताया जा सकता है.
1796 में दिए गए भाषण का एक वाक्य आज साल 2022 में भी उतना ही प्रासंगिक हो, ये किसी भी देश की विदेश नीति के बुनियादी मिज़ाज की कहानी कहने जैसा है. अपने हितों की रक्षा करने और वैश्विक मामलों में अपनी स्वायत्तता बनाए रखने के लिए इस रास्ते पर चलना ज़रूरी हो जाता है. ये बात जितनी 1796 में सच थी उतनी ही आज भी दुरुस्त है.
अपने हितों की रक्षा करने और वैश्विक मामलों में अपनी स्वायत्तता बनाए रखने के लिए इस रास्ते पर चलना ज़रूरी हो जाता है. ये बात जितनी 1796 में सच थी उतनी ही आज भी दुरुस्त है.
हर देश के अपने अनूठे हित होते हैं और वो उनकी हर मुमकिन हिफ़ाज़त के लिए अपनी नीतियां बनाता है. आज यूक्रेन में चल रहे युद्ध को लेकर ज़्यादातर विकासशील देशों और ख़ास तौर से भारत, लैटिन अमेरिका और अफ्रीका ने जो रुख़ अपनाया है, उसके पीछे यही तर्क दिया जा सकता है. ज़्यादातर विकासशील देश इस वक़्त कोविड-19 महामारी के बाद दोबारा आर्थिक विकास को रफ़्तार देने और अपने यहां के दूसरे घरेलू मसलों को लेकर ज़्यादा फ़िक्रमंद हैं. क्योंकि दुनिया में अनाज और वित्तीय बाज़ारों में ज़बरदस्त उथल-पुथल मची हुई है. आज विश्व के अधिकतर देश, कृषि उत्पादों और अनाज की रिकॉर्ड क़ीमतों और ऊर्जा उत्पादों के बेतहाशा बढ़े दामों की चुनौती से जूझ रहे हैं.
यूक्रेन को लेकर भारत और लैटिन अमेरिका का रुख़ समझने की कोशिश
यूक्रेन युद्ध को लेकर भारत के रवैये को लेकर काफ़ी परिचर्चा हो चुकी है. भारत का रुख़ मुख्य रूप से रूस के साथ उसके ऐतिहासिक संबंधों से परिभाषित होता है, जो पुतिन से पहले से चले आ रहे हैं. इसके अलावा भारत ऊर्जा और हथियारों की आपूर्ति जैसे अपने आर्थिक हितों को भी तरज़ीह दे रहा है. ऐसे में, जैसी कि उम्मीद थी, भारत को अपने इस रुख़ को लेकर कड़ी आलोचना का सामना करना पड़ रहा है. रूस के आक्रामक रुख़ की आलोचना न करने पर भारत को ख़ास तौर से निशाना बनाया जा रहा है. फिर भी भारत का जो रवैया है, उसे लेकर किसी को हैरानी नहीं होनी चाहिए: भारत के स्वतंत्र विदेश नीति पर चलने का लंबा इतिहास रहा है, जो अक्सर पश्चिमी देशों या किसी भी अन्य गुट से अलग रहता आया है. पहले ये ‘गुट निरपेक्षता’ थी; आज ये ‘सामरिक स्वायत्तता’ है, और हो सकता है कि आने वाले समय में भारत, ‘बहु-पक्षीय संबंधों’ को आधार बना ले.
जैसा कि भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने अपनी किताब ‘द इंडियन वे’ में लिखा है, ‘गुट निरपेक्षता से शुरुआत करके कई बाहर बहुपक्षीयता की बात करना उपयोगी लगता है. पहले की तरह ग़ैरहाज़िर होने या शिरकत न करने की तुलना में ये तर्क ज़्यादा ऊर्जावान और भागीदारी वाला लगता है. मुश्किल ये है कि ये कई बार ज़्यादा मौक़ापरस्ती वाला रवैया भी लगता है. लेकिन सच ये है कि भारत असल में फ़ौरी सुविधा देखने के बजाय अपने सामरिक हितों का मेल तलाश रहा होता है’. जहां तक पश्चिमी देशों की बात है, तो वो यूक्रेन पर रूस के हमले को एक लोकतांत्रिक देश के ख़िलाफ़ रूस का तानाशाही रवैया मानते हैं. लेकिन, भारत की नज़र में इस तर्क की अहमियत नहीं है, क्योंकि भारत कई दशकों से तानाशाही और सैन्य अधिकारियों की अगुवाई वाली सरकारों से संवाद के लिए मजबूर होता रहा है. ख़ास तौर से अपने पड़ोसी देशों, चीन, म्यांमार या पाकिस्तान में. जैसा कि विद्वान क्रिज़स्टॉफ इवानेक ने अपने हालिया पेपर में यूक्रेन युद्ध को लेकर भारत की मीडिया ख़बरों का विश्लेषण किया है, उनसे साफ़ हो जाता है कि ‘ज़्यादातर भारतीय जानकारों की नज़र में यूक्रेन युद्ध राष्ट्रों के अलग अलग हितों के टकराने का नतीजा है. ये सिर्फ़ वैचारिक मतभेदों से पैदा हुआ युद्ध या संघर्ष नहीं है.’ उससे भी अहम बात ये कि भारत में वामपंथी हो, दक्षिणपंथी या फिर मध्यमार्गी मीडिया, सबके सब इस बात पर सहमत हैं कि भारत को अपने राष्ट्रीय हितों का ध्यान रखते हुए ही आगे बढ़ना चाहिए और पश्चिमी देशों के अलावा रूस के साथ अपनी ऐतिहासिक दोस्ती को भी तरज़ीह देनी चाहिए.
भारत के स्वतंत्र विदेश नीति पर चलने का लंबा इतिहास रहा है, जो अक्सर पश्चिमी देशों या किसी भी अन्य गुट से अलग रहता आया है. पहले ये ‘गुट निरपेक्षता’ थी; आज ये ‘सामरिक स्वायत्तता’ है, और हो सकता है कि आने वाले समय में भारत, ‘बहु-पक्षीय संबंधों’ को आधार बना ले.
निश्चित रूप से यूक्रेन युद्ध को लेकर ऐसा रवैया अपनाने वाला भारत इकलौता देश नहीं है. लैटिन अमेरिकी क्षेत्र ने भी यूक्रेन को लेकर यही रुख़ अपनाया है. जिस तरह, भारत रूस को संयुक्त राष्ट्र की मानव अधिकार परिषद से बाहर निकालने को लेकर हुए मतदान से ग़ैरहाज़िर रहा था. उसी तरह ब्राज़ील और मेक्सिको जैसे लैटिन अमेरिकी देश भी थे. ब्राज़ील ने तो 2 मार्च को संयुक्त राष्ट्र महासभा के रूस की आलोचना वाले प्रस्ताव के पक्ष में मतदान किया था. लेकिन, तब भी संयुक्त राष्ट्र में ब्राज़ील के स्थायी प्रतिनिधि ने, ‘बेलगाम तरीक़े से प्रतिबंध लगाने’ की मुख़ालफ़त की थी और ये कहा था कि ऐसे क़दम, ‘सकारात्मक कूटनीतिक संवाद दोबारा शुरू करने के लिए हमवार साबित नहीं होंगे. बल्कि इनसे तनाव और बढ़ेगा, जिसके पूरे क्षेत्र ही नहीं बाक़ी दुनिया पर पड़ने वाले असर का हम अंदाज़ा भी नहीं लगा सकते हैं.’
भारत की तरह लैटिन अमेरिका ने भी रूस पर पश्चिमी देशों द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों में भागीदार बनने से मना कर दिया है. स्पेन की पूर्व विदेश मंत्री और यूरोपीय संसद की एक सदस्य एना पलाशियो ने हाल ही में एक लेख में इस बात की तस्दीक़ करते हुए लिखा था कि, ‘लैटिन अमेरिका के बहुत से देशों ने रूस पर लगाए गए पश्चिमी देशों के प्रतिबंधों का हिस्सा बनने से इनकार कर दिया है. इससे इन अटकलों को बल मिल रहा है कि लैटिन अमेरिका ख़ुद को शीत युद्ध के दौर की तरह ही फिर से गुट निरपेक्षता के सांचे में ढाल रहा है.’ बहुत से जानकार लैटिन अमेरिकी देशों के इस रवैये को एक बड़ी तस्वीर का हिस्सा मान रहे हैं. उनके मुताबिक़, लैटिन अमेरिकी देश ख़ुद को उस ‘नए शीत युद्ध’ से बचाने की कोशिश कर रहे हैं, जो आज अमेरिका और चीन के बीच चल रहा है. इक्वेडोर के पूर्व विदेश मंत्री गुइलॉम लॉन्ग मज़बूती से तर्क देते हुए कहते हैं कि, ‘आगे जाकर आप देखेंगे कि लैटिन अमेरिका के बहुत से देश इस नए शीत युद्ध में किसी एक पक्ष के साथ खड़े नहीं होना चाहेंगे क्योंकि लैटिन अमेरिका में चीन आज प्रभावी ढंग से मौजूद है. आप लैटिन अमेरिका में वो पुरानी तस्वीर नहीं देखने वाले हैं, जो सोवियत संघ और अमेरिका के बीच शीत युद्ध के दौरान दिखी थी, जब लैटिन अमेरिका के बहुत से देश, सोवियत संघ के ख़िलाफ़ अमेरिकी ख़ेमे का हिस्सा थे.’
भारत में वामपंथी हो, दक्षिणपंथी या फिर मध्यमार्गी मीडिया, सबके सब इस बात पर सहमत हैं कि भारत को अपने राष्ट्रीय हितों का ध्यान रखते हुए ही आगे बढ़ना चाहिए और पश्चिमी देशों के अलावा रूस के साथ अपनी ऐतिहासिक दोस्ती को भी तरज़ीह देनी चाहिए. निश्चित रूप से यूक्रेन युद्ध को लेकर ऐसा रवैया अपनाने वाला भारत इकलौता देश नहीं है.
यूक्रेन युद्ध को लेकर भारत और लैटिन अमेरिका का रवैया पश्चिमी देशों द्वारा इस संघर्ष को लेकर पेश की जा रही तस्वीर से बिल्कुल अलहदा है. हालांकि एक बात यक़ीनी तौर पर सही है: जहां पश्चिमी देश इस युद्ध को नियम आधारित विश्व व्यवस्था के लिए ख़तरा मानते हैं. वहीं, भारत और लैटिन अमेरिका के अधिकतर देशों की नज़र में ये एक इलाक़ाई जंग है जो यूरोप तक भले सीमित है, मगर इसका दुनिया भर के वित्तीय बाज़ारों और अनाज- ईंधन की क़ीमतों पर गहरा असर देखने को मिल रहा है.
Table 1: यूक्रेन युद्ध को लेकर भारत, लैटिन अमेरिका और पश्चिमी देशों का रुख़
जैसा कि ऊपर की सारणी से साफ़ है, यूक्रेन युद्ध को लेकर भारत और लैटिन अमेरिका की रणनीति एक समान है. इनमें से कोई भी ख़ुद को इस युद्ध में और अर्थपूर्ण ढंग से फंसाने का इरादा नहीं रखता है. दोनों ही पक्ष इस यूरोपीय युद्ध में किसी एक का साथ देने से बच रहे हैं. उनकी अपनी घरेलू चुनौतियां और क्षेत्रीय संघर्ष हैं, जिनसे निपटना उनकी पहली प्राथमिकता है.
जहां पश्चिमी देश इस युद्ध को नियम आधारित विश्व व्यवस्था के लिए ख़तरा मानते हैं. वहीं, भारत और लैटिन अमेरिका के अधिकतर देशों की नज़र में ये एक इलाक़ाई जंग है जो यूरोप तक भले सीमित है, मगर इसका दुनिया भर के वित्तीय बाज़ारों और अनाज- ईंधन की क़ीमतों पर गहरा असर देखने को मिल रहा है.
आज भारत जिसे सामरिक स्वायत्तता कहता है, उसे लैटिन अमेरिका में ‘कट्टर गुट निरपेक्षता’ कहा जाता है, जैसा कि होर्ग हीन, कार्लोस फोर्टि और कार्लोस ओमिनामी ने अपनी नई किताब, ‘एक्टिव नॉन एलाइनमेंट ऐंड लैटिन अमेरिका: ए डॉक्ट्रिन फॉर द न्यू सेंचुरी में लिखा है’. दोनों ही मामलों में सभी देश अपनी स्वायत्तता बनाए रखकर अपने हितों को साधने की कोशिश कर रहे हैं.
निष्कर्ष
जैसा कि भारत के सबसे तजुर्बेकार राजनयिकों में से एक चिन्मय आर. ग़रेख़ान ने कहा था कि, एक स्वतंत्र विदेश नीति का मतलब ये है कि, ‘सरकार को अंतरराष्ट्रीय मामलों में सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने राष्ट्रीय हितों के हिसाब से कोई रुख़ अपनाना चाहिए. उसे इस बात की बिल्कुल भी चिंता नहीं करनी चाहिए कि बाक़ी देशों की सरकारें उसके नज़रिए पर क्या रुख़ अपनाएंगी या फिर नाख़ुश होने पर वो क्या क़दम उठाएंगी.’ फिर भी ख़ुद चिन्मय ग़रेख़ान ने माना था कि, ‘शायद ये कहना उचित होगा कि जो देश जितना ही घरेलू मोर्चे पर एकजुट और अपने मूल्यों में विश्वास करने वाला होगा और आर्थिक, सामाजिक और सैन्य लिहाज़ से मज़बूत होगा, उसके लिए तुलनात्मक रूप से स्वतंत्र विदेश नीति का पालन करना उतना ही आसान हो जाएगा.’ हम ये अंदाज़ा लगा सकते हैं कि भविष्य में होने वाले किसी संघर्ष में भी भारत और लैटिन अमेरिका वैसा ही रवैया अपनाएंगे, जैसा उन्होंने यूक्रेन युद्ध को लेकर अपनाया है और शायद वो बहुपक्षीय गठबंधन की नीति पर भी चलें. लेकिन, जैसा कि ग़रेख़ान ने इशारा किया है कि लंबी अवधि में इन देशों की स्थिति तब और बेहतर होगी अगर वो अपने घरेलू संस्थानों को मज़बूत बनाएं और आर्थिक, सामाजिक और सैन्य स्तर पर अधिक स्वतंत्र हो जाएं.
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ये लेखक के अपने विचार हैं और इसे किसी भी तरह से कोलंबिया सरकार का नज़रिया नहीं नहीं कहा जा सकता.
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