एक तीसरे मेज़बान देश को लेकर भारत दूसरे देश के साथ भिड़ गया है, जिसे अभूतपूर्व कहा जा सकता है. ट्वीट्स की एक शृंखला में, कोलंबो स्थित भारतीय उच्चायोग (आईएचसी) ने इस मेज़बान के ‘उत्तरी पड़ोसी’ के ख़िलाफ़, चीन के श्रीलंका में राजदूत ची झेंगहोंग के ‘परोक्ष इशारों’ का खंडन किया है और कहा है कि इस राष्ट्र को ‘समर्थन की ज़रूरत है, न कि दूसरे देश का एजेंडा साधने के लिए अनचाहे दबाव या गैरज़रूरी विवादों की.’
आईएचसी ने अपने ट्वीट में व्यक्तिगत कोण जोड़ते हुए (यह भी शायद पहली बार है) कहा, ‘हमने चीनी राजदूत की टिप्पणियों पर ध्यान दिया है. उनके द्वारा बुनियादी राजनयिक शिष्टाचार का उल्लंघन उनकी व्यक्तिगत विशेषता हो सकती है या एक व्यापक राष्ट्रीय रवैये का प्रतिबिंब हो सकता है.’ ट्वीट्स में आगे कहा गया, ‘श्रीलंका के उत्तरी पड़ोसी के बारे में उनके विचार उनके अपने देश के व्यवहार करने के ढंग से प्रभावित हो सकते हैं. हम उन्हें आश्वस्त करते हैं कि भारत बहुत भिन्न है.’ इसी तरह, आईएचसी ने बैलिस्टिक मिसाइल से लैस चीन के अनुसंधान/जासूसी जहाज़ ‘युआन वांग-5’ (जिसने 99 साल के चीनी क़ब्ज़े में आये दक्षिणी हंबनटोटा बंदरगाह पर लंगर डाला) की हालिया यात्रा का हवाला देते हुए कहा, ‘एक कथित वैज्ञानिक अनुसंधान पोत की यात्रा के लिए उनका [चीन के राजदूत का] भू-राजनीतिक संदर्भों को ज़िम्मेदार ठहराना उनकी पोल खोलता है.’
ची ने ‘युआन वांग-5’ के लंगर डालने पर भारत की आपत्ति में मंशा को अध्यारोपित किया और कहा कि बीजिंग और कोलंबो ने संयुक्त रूप से एक दूसरे की ‘संप्रभुता, स्वतंत्रता और क्षेत्रीय अखंडता’ की हिफ़ाज़त की है.
आईएचसी चीनी राजदूत के भारत पर उस हमले को लेकर प्रतिक्रिया दे रहा था, जिसे ढका-छिपा तो हरगिज़ नहीं कहा जा सकता. इसमें उन्होंने बिना किसी सबूत वाली तथाकथित सुरक्षा चिंताओं पर आधारित ‘बाहरी अड़चन’ के बारे में बात की, और इसे श्रीलंका की संप्रभुता और स्वतंत्रता में एक ‘गंभीर दख़लअंदाज़ी’ क़रार दिया. अपने बयान में, ची ने ‘युआन वांग-5’ के लंगर डालने पर भारत की आपत्ति में मंशा को अध्यारोपित किया और कहा कि बीजिंग और कोलंबो ने संयुक्त रूप से एक दूसरे की ‘संप्रभुता, स्वतंत्रता और क्षेत्रीय अखंडता’ की हिफ़ाज़त की है.
सच कहा जाए तो, श्रीलंका या दूसरे पड़ोसियों के संबंध में अपनी सुरक्षा चिंताओं को नयी दिल्ली शायद ही कभी तीसरे देशों या यहां तक कि अन्य दक्षिण एशियाई देशों के साथ चर्चा करती है. नयी दिल्ली ने हमेशा सुनिश्चित किया है कि संवेदनशील विषयों पर अपनी राजनयिक चर्चाओं पर सार्वजनिक बयान न दिये जाएं. बीते कुछ सालों में, जो सामने नज़र आ रहा है या जो सार्वजनिक दायरे में है, उसके अलावा चल रही द्विपक्षीय गतिविधियों तक घरेलू या अंतरराष्ट्रीय मीडिया की बहुत कम या कोई पहुंच नहीं रही है.
आरंभिक-औपनिवेशिक चरण
पड़ोसी भारत के साथ श्रीलंका के ऐतिहासिक रिश्तों के पुराने घावों (जैसा कि ची का मानना हो सकता है) को खोलने की कोशिश में, ची ने बिना कोई फ़ेहरिस्त दिये उत्तर से हुए ’17 आक्रमणों’ का ज़िक्र किया. स्वाभाविक रूप से, बीजिंग में उनके आका भी पूरे श्रीलंका में भारत के समर्थन में बढ़ते उस आम जनमत को लेकर अत्यधिक चिंतित लगते हैं, जो मौजूदा आर्थिक संकट के चरम पर उत्तरी पड़ोसी द्वारा भोजन, ईंधन और दवाओं की आपूर्ति के ज़रिये श्रीलंका को ‘ज़िंदगी की सांस’ मुहैया कराने के बाद बना है.
एक तरह से, युआन वांग-5 प्रकरण को चीन के लिए, भारत की प्रतिक्रिया के साथ-साथ अपने दोहरे उद्देश्य वाले जहाज़ों को श्रीलंका द्वारा जगह दिये जाने के आकलन के वास्ते एक शुरुआती परीक्षण के रूप में देखा जाना चाहिए. रिपोर्ट्स के मुताबिक़, 22 अगस्त को हंबनटोटा छोड़ने वाला यह चीनी जहाज़ अभी श्रीलंका के सबसे दक्षिणी बिंदु, दोंदरा हेड के 400 नॉटिकल मील (740 किमी) दक्षिण-दक्षिण पूर्व में समुद्र-तल की मैपिंग कर रहा है. इस तरह, यह जहाज़ भारतीय तट के क़तई क़रीब नहीं है (अगर उसकी पहले ही हंबनटोटा से मैपिंग न कर ली गयी हो), बल्कि डिएगो गार्सिया स्थित अमेरिकी सैन्य अड्डे के आम क्षेत्र में अवस्थित है
22 अगस्त को हंबनटोटा छोड़ने वाला यह चीनी जहाज़ अभी श्रीलंका के सबसे दक्षिणी बिंदु, दोंदरा हेड के 400 नॉटिकल मील (740 किमी) दक्षिण-दक्षिण पूर्व में समुद्र-तल की मैपिंग कर रहा है. इस तरह, यह जहाज़ भारतीय तट के क़तई क़रीब नहीं है
इसके अलावा, यह कोई नहीं जानता कि ची ने, ईसाईयत के उदय से पहले, सम्राट अशोक के बच्चों- महिंदा (महेंद्र) और संगमित्ता (संघमित्रा) द्वारा बौद्धमत को पूर्वी भारत से श्रीलंका ले जाये जाने को ‘उत्तर से सांस्कृतिक आक्रमण’ के बतौर 17 आक्रमणों की अपनी फ़ेहरिस्त में रखा है या नहीं; या उससे भी पहले पूर्वी भारत से ही राजकुमार विजय, जिन्होंने सिंहल की एक जाति के रूप में स्थापना की, का आगमन इसमें शामिल है या नहीं. बाद में 12वीं सदी में, चोल पिता-पुत्र, राजराज और राजेंद्र की संलिप्तता के बारे में आक्रमण और लूट की थिअरी का एक भारतीय-तमिल संस्करण है, जिसे श्रीलंका के दक्षिणी सिंहल बहुसंख्यकों के बीच लोकप्रिय माना जाता है. वस्तुत:, बहुत से भारतीय आगमन अधिकांशत: इन दो दक्षिण एशियाई पड़ोसियों के बीच प्रवासन की उन लहरों का एक हिस्सा थे, जिनका विस्तार सहस्राब्दियों तक था, और जहां एक समय के बाद व्यापार मुख्य उद्देश्य बन गया और सांस्कृतिक व भाषाई आदान-प्रदान कोई ज़ोर-ज़बरदस्ती किये बिना भी अपरिहार्य हो गये.
अगर ची एक बार फिर बिना नाम लिये भारतीय शांति सेना (IPKF) (1987-89) के मुद्दे पर भारत की ओर इशारा कर रहे थे, तो यह नोट करना प्रासंगिक है कि भारत ने अपने सैनिक उस श्रीलंकाई सरकार के लिखित अनुरोध पर भेजे थे, जिसने दक्षिण में जनता विमुक्ति पेरामुना के उग्रवाद और उत्तर में लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम के आतंकवाद के दोहरे ख़तरे से देश को बचाने की गुहार लगायी थी. इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि मेज़बान सरकार से सेना हटाने के लिए पहला संकेत मिलते ही नयी दिल्ली ने आईपीकेएफ को हटा लिया. मतलब, तीसरे-राष्ट्रों की आशंकाओं के विपरीत, यह बिल्कुल सुचारु और पाक-साफ़ था. यह तब स्पष्ट हो गया जब 2004 में सूनामी के बाद बचाव और पुनर्वास अभियान के लिए चंद घंटों के भीतर भारत ने अपनी नौसेना और वायुसेना को भेजा.
हालांकि, इन सबके बीच श्रीलंका को यह याद रखने की ज़रूरत है कि बीजिंग में शी जिनपिंग शासन को चीन की मध्ययुगीन मिंग वंश मनोवृत्ति की निरंतरता के रूप में देखा जा रहा है जो जाने का नाम नहीं लेती. विद्वान एक ‘आरंभिक-उपनिवेशवादी’ के रूप में 14वीं सदी के चीनी मिंग वंश के नपुंसक (बधिया किये गये) नौसैनिक कमांडर पर आधारित ‘झेंग हे मिथक’ का पर्दाफ़ाश कर चुके हैं. ‘दसियों हजार कर्मियों और बारूद के प्रचुर भंडारों से भरे अस्त्रागारों के साथ समुद्र यात्राएं करते हुए’ झेंग ने मलक्का के रणनीतिक सैन्य बंदरगाह पर क़ब्ज़ा किया और अपने एक सहयोगी के लिए उसका गृहयुद्ध लड़ने के बाद उसे जावा का शासक बनाया. इसके बाद उसने श्रीलंका पर क़ब्ज़ा किया.
हाल में, बैंकॉक में, विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने नयी दिल्ली के इस रुख़ को दोहराया कि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) से सहायता हासिल करने में भारत श्रीलंका का ‘समर्थन’ और सहयोग करेगा, जिसके बाद पश्चिम से योगदान की उम्मीद है.
इतिहासकारों ने दर्ज किया है कि कैसे श्रीलंका ने सुदूर स्थित चीन से बार-बार आक्रमण झेला, ख़ासकर मिंग राजवंश के समय. चीनी सम्राट की विदेशी अभियान सेनाओं और श्रीलंका के कोट्टे राजा अलकेश्वर (अलगक्कोनार सामंत परिवार के) के बीच मिंग-कोट्टे युद्ध (1410-11), पूर्ववर्ती राजपरिवार से जुड़े, चीन के सहयोगी पराक्रमबाहु चतुर्थ को शासक बनाये के साथ ख़त्म हुआ. झेंग हे के सैनिकों द्वारा श्रीलंका का औपनिवेशीकरण, राजा को बंदी बनाना (जिसमें उनका अपहरण और कुछ वर्षों के लिए चीन निर्वासित किया जाना भी शामिल है), और समुद्र के रास्ते बार-बार धावा बोलना एक सबक है, जिसे आधुनिक श्रीलंकाई लोगों को अतीत से सीखना चाहिए और इसे हंबनटोटा के अपने अनुभव के संदर्भ में रखकर देखना चाहिए.
गेंद कोलंबो के पाले में
इस अभूतपूर्व राजनीतिक और आर्थिक संकट के बीच, श्रीलंका की मदद में भारत की सीमाओं और सीमाबद्धताओं को स्वीकार किये जाने की ज़रूरत है. भोजन, ईंधन और दवाओं के मोर्चे पर भारत जो पहले ही कर चुका है और छोटी अवधि में जो मदद वह बनाये रख सकता है, उससे परे जाने में उसकी अंतर्निहित सीमाबद्धताएं हैं. हाल में, बैंकॉक में, विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने नयी दिल्ली के इस रुख़ को दोहराया कि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) से सहायता हासिल करने में भारत श्रीलंका का ‘समर्थन’ और सहयोग करेगा, जिसके बाद पश्चिम से योगदान की उम्मीद है. इस साल अप्रैल में, भारत की वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण श्रीलंका के मामले पर अपनी बात रखने के लिए वॉशिंगटन में एक विशेष सत्र में आईएमएफ के अधिकारियों से मिलीं, तब तक इस विषय में कोलंबो ने कोई प्रभावी पहल नहीं की थी.
राष्ट्रपति रानिल विक्रमसिंघे की सरकार से भी उम्मीद है कि वह आईएमएफ की शर्तों के एक हिस्से के बतौर, भारत के साथ क़र्ज़ चुकाने की समयसीमा में बदलाव करवाने में जुटेंगे. संकेत हैं कि जापान, अनुरोध पर, श्रीलंका के ऋणदाताओं की एक बैठक की मेज़बानी करेगा. श्रीलंका पर कुल बकाया रकम 51 अरब अमेरिकी डॉलर है. यह देखना बाकी है कि क्या चीन (शायद अकेले सबसे बड़े ऋणदाता के रूप में) इसमें हिस्सा लेगा और सहयोग करेगा, लेकिन ज़्यादा मित्रतापूर्ण भारत द्वारा श्रीलंका के लिए बैठक आयोजित करने का मतलब चीन की ओर से साफ़ मनाही हो सकती थी.
हालांकि, चीनी दूतावास ने फ़िलहाल दावा किया है कि बीजिंग ने तीन महीने पहले ही कोलंबो के साथ क़र्ज़ों पर बातचीत के लिए इच्छा ज़ाहिर की थी, लेकिन कोलंबो ने कोई जवाब नहीं दिया था. ‘डेली मिरर’ ने एक दूतावास अधिकारी के हवाले से कहा, ‘गेंद कोलंबो के पाले में है.’ ठीक इसी समय, एक चीनी कंपनी ने – जिसे पूर्ववर्ती राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे की अत्यंत अलोकप्रिय शेख चिल्ली नुमा योजना के तहत उस ‘जैविक खाद’ की आपूर्ति का ठेका दिया गया था जो घटिया निकल गयी थी – इस सौदे को रासायनिक खाद के लिए बदलने से इनकार कर दिया है. यह देखते हुए कि इससे पहले वर्णित मुद्दे पर चीनी दूतावास ने ख़ूब जोश दिखाया था, इस मामले में बीजिंग की आधिकारिक लाइन द्विपक्षीय संबंधों पर दबाव अब और बढ़ा सकती है.
प्रसंगवश, श्रीलंका की यात्रा की योजना बना रहे अपने नागरिकों के लिए आसामान्य भारतीय ‘ट्रैवेल एडवाइजरी’- जो कोई अत्यावश्यक यात्रा शुरू करने से पहले सावधानी बरतने, ख़ासकर उस देश में मुद्रा की परिवर्तनीयता और ईंधन की स्थिति जैसे कारकों पर ग़ौर करने की सलाह देती है – को दक्षिणी पड़ोस में अच्छे भाव से नहीं लिया गया है. स्थानीय लोग अज्ञानतावश या अन्य कारण से नयी दिल्ली के निर्देश को ‘युआन वांग-5’ प्रकरण से जोड़ रहे हैं. हालांकि, एडवाइजरी को लेकर भारतीय यात्रियों की प्रतिक्रिया का अध्ययन किया जाना बाकी है. भारतीय एडवाइजरी एक ऐसे वक़्त में आयी है जब बीते ‘संकटपूर्ण महीनों’ के किसी भी समय के मुक़ाबले श्रीलंका में सभी मोर्चों पर स्थिति अपेक्षाकृत स्थिर हुई है, और जब ब्रिटेन ने इस तरह की ट्रैवल एडवाइजरी वापस ले ली है.
श्रीलंका पर ‘धौंस’
मानवाधिकारों के मोर्चे पर श्रीलंका का साथ देने में भारत की समान रूप से अंतर्निहित सीमाबद्धताएं हैं, ख़ासकर ‘अंतरराष्ट्रीय समुदाय’ को प्रभावित करने के मामले में. यह देखा जाना बाकी है कि क्या विक्रमसिंघे के प्रधानमंत्री रहने के समय (2014-19) के ‘सह-लिखित प्रस्ताव’ की तर्ज़ पर कोई समझौता संभव है, और क्या भारत की बैक-चैनल कूटनीति (जैसा कि इसे समझा जाता है) इस बार भी प्रभावी होगी.
चीन की ओर से, राजदूत ची ने ‘श्रीलंका गार्डियन’ में लिखे एक लेख में, इस बार भी संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद (यूएनएचआरसी) के सत्र में कोलंबो को समर्थन जारी रखने का वादा किया है. उन्होंने इस द्वीपीय राष्ट्र पर ‘धौंस जमाने’ के लिए ‘पास और दूर’ के देशों की आलोचना की. अतीत में, चीन ने यूएनएचआरसी में श्रीलंका के लिए खुलकर समर्थन मांगा, हालांकि यह पर्याप्त परिणाम नहीं दे पाया.
श्रीलंका के दृष्टिकोण से, रूस के साथ चीन पर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में अपने ‘वीटो’ का इस्तेमाल करने के लिए भरोसा किया जा सकता है, जो अंतिम निर्णायक है. दूसरी तरह भारत एक स्थायी (पी-5) सदस्य नहीं है. श्रीलंकाई राज्य के निर्णय, रणनीतिक समुदाय की सोच, और जनमत एक हद तक इस भू-राजनीतिक सच्चाई से अनुकूलित होते हैं.
इस तरह, भारत के क्वॉड मित्र अमेरिका, तथा अमेरिका के उत्तर अटलांटिक संधि संगठन (नेटो) व गैर-नेटो सहयोगियों को पीछे हटने के लिए तैयार होना चाहिए तथा दक्षिण एशिया और हिंद महासागर क्षेत्र को ‘भारत के पारंपरिक प्रभाव-क्षेत्र’ के रूप में स्वीकार करना चाहिए, चाहे उनकी घरेलू चुनावी बाध्यताएं कुछ भी हों, जो उनमें से कुछ देशों में प्रवासी श्रीलंकाई तमिलों से उपजी हो सकती हैं. भारत ने इसी तरह से पूर्व सोवियत संघ के साथ मामलों को प्रबंधित किया था, जिसका बचा-खुचा प्रभाव दिल्ली-मॉस्को संबंधों पर अब भी है, जिसे पूरी दुनिया देखती और महसूस करती है.
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