सेना प्रमुख जनरल बिपिन रावत ने अफगानिस्तान को लेकर बड़ा बयान दिया है। उन्होंने कहा कि जब कई प्रमुख देश तालिबान के साथ वार्ता में शामिल हो रहे हैं तो भारत उससे अलग नहीं रह सकता। अफगानिस्तान में भारत के हितों को आगे बढ़ाने के लिए वार्ता जरूरी है। तालिबान के साथ कई देश बातचीत कर रहे हैं। उन्होंने ‘रायसीना संवाद’ में अपने संबोधन में अफगानिस्तान के साथ वार्ता का समर्थन किया था।
भारत ने अफगानिस्तान में विकास कार्य करने वाला इस क्षेत्र का सबसे बड़ा देश है जो वहां तीन अरब डॉलर की लागत से सड़क निर्माण से लेकर संसद तक और अस्पताल से लेकर सिंचाई परियोजना लगाने का काम कर रहा है।
हाल ही में ट्रम्प ने अफगानिस्तान में तैनात अपने 14,000 अमेरिकी सैनिकों में से लगभग आधे को वापस बुलाने की घोषणा की है। वर्ष 2002 के बाद से, अफगानिस्तान में अमेरिकी सैन्य उपस्थिति अपने न्यूनतम स्तर पर है। ट्रम्प के इस फैसले ने काबुल में सहयोगियों, राजनयिकों और अधिकारियों को हैरान कर दिया। इसके बाद वहां के रक्षा मंत्री जेम्स मैटिस ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया। अपने पत्र में उन्होंने इस बात का स्पष्ट रूप से संकेत दिया कि ट्रंप के साथ उनके मत नहीं मिलते। माना जा रहा है कि मैटिस ट्रम्प के सीरिया से सेना निकालने के फैसले से भी नाराज थे। रिपब्लिकन पार्टी से सीनेटर लिंडसे ग्राहम ने ट्वीट कर इसे जोखिम भरा कदम बताते हुए कहा कि ऐसा कर के एक और 9/11 का मार्ग प्रशस्त किया जा रहा है । ट्रंप के रुख में आए बदलाव का एक कारण यह भी है कि अफगानिस्तान एक ऐसी जगह है जहां अमेरिका सबसे ज्यादा पैसा खर्च कर रहा है। पिछले 17 सालों में अमेरिका ने वहां 840 अरब डॉलर से ज्यादा की रकम राहत और पुनर्निर्माण में खर्च की है।
जिन हालात में अमेरिका अपने सैनिकों को अफगानिस्तान से वापस बुला रहा है वो कुछ सवाल खड़े करता है। जब अफगानिस्तान में अमेरिका की भूमिका कम हो जायेगी तो क्या तालिबान एक मजबूत स्थिति में उभरकर सामने आ सकता है? क्योकि तालिबान के खिलाफ अमेरिका के ठोस हवाई हमलों के बावजूद, अमरीकी सैन्य रिपोर्ट्स से पता चलता है कि अफगानिस्तान के एक बड़े भू-भाग पर तालिबान का नियंत्रण है- जबकि बीबीसी की स्टडी में पाया गया कि तालिबान देश के 70 फ़ीसदी इलाके में सक्रिय थे।
अफगानिस्तान में तालिबान की मौजूदगी
तालिबान के मज़बूत होने से इस उप-महाद्वीप पर सबसे ज्यादा नकारात्मक असर भारत पर पड़ सकता है जबकि चीन और पाकिस्तान लाभकारी स्थिति में रहेंगे। अफगानिस्तान में सैनिकों की संख्या कम करने के अमेरिका के निर्णय पर चीन की तरफ से हुआ ने कहा है कि “सैनिकों को हटाने के कदम का निर्णय अमेरिका द्वारा ही किया जाना चाहिए।” उन्होंने कहा, “चीन का हमेशा से ही मानना रहा है कि सैन्य तरीके से अफगानिस्तान मुद्दे का समाधान नहीं हो सकता। अफगान के नेतृत्व वाली और अफगान के स्वामित्व वाली राजनीतिक सुलह प्रक्रिया ही एकमात्र व्यावहारिक रास्ता है।”
तालिबान के मज़बूत होने से इस उप-महाद्वीप पर सबसे ज्यादा नकारात्मक असर भारत पर पड़ सकता है जबकि चीन और पाकिस्तान लाभकारी स्थिति में रहेंगे।
गौरतलब है कि अफगानिस्तान में पहले भी पाकिस्तान समर्थित तालिबान का शासन रहा था जिसका नुकसान भारत को उठाना पड़ा था। तालिबान ने भारत के सहयोग से बनी हर इमारत को तबाह कर दिया था। वर्त्तमान समय में, भारत वहां तीन अरब डॉलर की मदद से कई बड़ी परियोजनाओं को लागू कर चुका है।
अमेरिकी सैनिकों के चले जाने से, तालिबानी प्रोपगैंडा को और बढ़ावा मिलेगा जिससे की वह इस बात का दावा कर सकता है कि अमेरिका से बिना किसी शांति समझौते के ही उसने देश से अमेरिकी सैनिकों को बाहर करने में कामयाबी हासिल की है। स्पेशल इंस्पेक्टर जनरल फ़ॉर अफगानिस्तान रिकंस्ट्रक्शन (सिगार) की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि, पिछले कुछ महीनों में तालिबान का अफगानिस्तान पर नियंत्रण बढ़ा है। अफगान में हिंसा का स्तर बढ़ रहा है। हिंसा के इस बढ़ते स्तर को तालिबानी हिंसा के रूप में देखा जा रहा है और यह अफ़ग़ान सुरक्षाबलों की कमज़ोर स्थिति को दर्शाता है। अफ़ग़ान सैनिकों पर भी इसका एक मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ेगा, उन्होंने वहां बहुत संघर्ष किया है इसलिए उनके लिए यह फ़ैसला निराशाजनक होगा।
अगर तालिबान का प्रभाव बढ़ता है तो इससे भारतीय हितों को क्षति पहुंच सकती है।
अन्तराष्ट्रीय मंचों से भारत और अफगानिस्तान एक स्वर में पाकिस्तान समर्थित आतंकवाद का खुला विरोध करते है। ऐसे में अगर तालिबान का प्रभाव बढ़ता है तो इससे भारतीय हितों को क्षति पहुंच सकती है।
भारत की अफगानिस्तान नीति के दो प्रमुख उद्देश्य हैं: पहला, काबुल में इस्लामाबाद के प्रभाव को कम करना और पाकिस्तान के सरकारी और सरकार के बाहर से काम करने वाले एजेंटों को भारतीय हितों के खिलाफ साजिश रचने से वंचित रखना और दूसरा, मध्य एशिया में विशाल ऊर्जा बाजारों तक पहुँचने का रास्ता पाना। इन उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए, भारत हमेशा से ही अफगानिस्तान में एक मजबूत और स्वतंत्र सरकार के कट्टर समर्थकों में से एक रहा है।
अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिको के वापस बुलाने के निर्णय से भारत के लिए दूरगामी प्रभाव हो सकते है। अफगानिस्तान में तालिबान का प्रभाव बढ़ने से कश्मीर घाटी की सुरक्षा पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है। इस समय इस्लामिक स्टेट बैकफुट पर है, तालिबान कश्मीर में पुनरुत्थानवादी विद्रोह की वैचारिक प्रेरणा बन सकता है। अफगानिस्तान में भारत के वाणिज्य दूतावासों की सुरक्षा को लेकर अतिरिक्त चिंता है।
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