जिस कोरोना महामारी के ख़िलाफ़ पूरी दुनिया को वैक्सीन का इंतज़ार था उसे अब वैज्ञानिकों ने मुमकिन कर दिखाया है. वैक्सीन के ईज़ाद होने के साथ ही भारत समेत अब कई देशों में वैक्सीनेशन का कार्यक्रम पूरे जोर शोर से चलाया जा रहा है. ऐसे में जहां एक तरफ बड़े स्तर पर टीकाकरण को सफल बनाने में ज़रूरी लॉजिस्टिक और स्पलाई चेन की चुनौती सबसे बड़ी बनी हुई है तो वैक्सीनेशन को लेकर समाज में फैली भ्रामक जानकारी इसकी राह में सबसे बड़ा रोड़ा बन कर खड़ा है. इससे पहले कि अमेरिका और ब्रिटेन में वैक्सीनेशन की प्रक्रिया शुरू होती, इन देशों में सोशल मीडिया पर लोग वैक्सीन को लेकर तमाम तरह के कयास लगाने लगे और वैक्सीन के संभावित साइड इफ़ेक्ट से लेकर इसके असरदार होने तक को लेकर तरह तरह की चर्चा करने लगे. इस तरह की धारणा को ख़ास कर उन लोगों ने ज़्यादा बल दिया जो लॉकडाउन का विरोध कर रहे थे, मास्क पहनने के पक्ष में नहीं थे. यहां तक कि दिग्गज नेता भी वैक्सीन के प्रभावी होने या ना होने को लेकर कई तरह की भ्रातियों को समाज में फैलाने का काम कर रहे थे. इस कड़ी में सबसे ताज़ा मिसाल ब्राजील के राष्ट्रपति जैर बोल्सोनारो का है जिन्होंने फाइजर वैक्सीन को लेकर बेहद असंवेदनशील और लापरवाही भरी टिप्पणी की “यह लोगों को मगरमच्छ बना देगा”. बेहद लापरवाही से की गई इस टिप्पणी ने सोशल मीडिया चैनलों पर जमकर लोगों का ध्यान खींचा. इस तरह वैक्सीन लगाने को लेकर लोगों में हिचक बढ़ना एक बड़ी चुनौती है तो इसके प्रभाव और साइड इफेक्ट को लेकर लोगों के बीच भ्रामक जानकारी देना, टीकाकरण की महत्वाकांक्षी योजना की रफ़्तार को घटा सकती है. कोविड 19 महामारी को लेकर भ्रामक जानकारी की बाढ़ आने से तेजी से बढ़ती इस महामारी की रोकथाम में कई तरह की बाधाएं पैदा करती है.
ब्राजील के राष्ट्रपति जैर बोल्सोनारो का है जिन्होंने फाइजर वैक्सीन को लेकर बेहद असंवेदनशील और लापरवाही भरी टिप्पणी की “यह लोगों को मगरमच्छ बना देगा”. बेहद लापरवाही से की गई इस टिप्पणी ने सोशल मीडिया चैनलों पर जमकर लोगों का ध्यान खींचा.
इतना ही नहीं, इसके ऑरिजिन से संबंधित ग़लत ख़बर का जो विस्तार हुआ है और जिस तरह का जोख़िम इससे पैदा होता है उससे बड़े हों या छोटे हर देश प्रभावित हुए हैं. उदाहरण के तौर पर वैक्सीन कॉन्फिडेंस प्रोजेक्ट (वीसीपी) द्वारा की गई एक स्टडी में बताया गया कि सिर्फ मार्च महीने में कोविड 19 को लेकर 240 मिलियन मैसेज आए जो पूरी तरह से फ़ेक न्यूज़ थे और इसका मक़सद पूरी तरह से आम जनता में भ्रम फैलाना था. ऐसी स्थिति के चलते कई देशों ने आनन फानन में सोशल मीडिया चैनल से स्पष्टीकरण की मांग कर दी और उन्हें चेतावनी जारी किया.
लेकिन शायद ही भारत छोड़कर कोई अन्य देश कोरोना महामारी को लेकर फैली भ्रातियों से इतना ज़्यादा प्रभावित हुआ होगा. जनवरी में जब कोरोना संक्रमण का पहला मामला दर्ज हुआ था तब इसके ऑरिजिन और इसे रोकने से संबंधित तमाम तरह की फ़ेक न्यूज़ संवाद के हर मुमकिन प्लेटफॉर्म पर अपनी मौज़ूदगी का अहसास कराने लगे थे. इससे पहले से इस वैश्विक महामारी से जूझ रही सरकार के लिए अतिरिक्त चुनौती पैदा हो गई. वैसे तमाम देश जो कोरोना महामारी से संबंधित ग़लत और भ्रामक जानकारी की जाल में फंसे थे उनके मुक़ाबले भारत का संकट काफी ज़्यादा था. इसकी एक बड़ी वज़ह देश में बढ़ती धार्मिक और राजनीतिक ध्रुवीकरण होने के साथ साथ सोशल मीडिया चैनल पर फ़ेक न्यूज़ फैलाने को लेकर किसी तरह की पाबंदी का अभाव है. यहां यह ध्यान देने योग्य है कि सोशल मीडिया चैनल ख़ास कर फेसबुक और ट्विटर पर 400 मिलियन से ज़्यादा सक्रिय यूजर्स हैं. इतना ही नहीं इंटरनेट और डिजिटल मीडिया तक इस संख्या के दोगुने लोगों की पहुंच है. ऐसे में भारत ज़्यादा से ज़्यादा बड़ी तकनीक़ी कंपनियों और सोशल मीडिया कंपनियों के रडार पर था. हालांकि कई देशों के मुक़ाबले फ़ेक न्यूज़ और भ्रामक जानकारी को लेकर भारतीय सबसे ज़्यादा प्रभावित होने वाले हैं.
कुछ प्रमुख घटनाओं पर नज़र
इस बात को बताने के लिए कैसे भ्रामक जानकारी ने कोरोना महामारी के ख़िलाफ़ भारत के जंग में रोड़ा पैदा किया इसके लिए हमें पिछले 10 महीनों की प्रमुख घटनाओं पर नज़र दौड़ाना होगा. जनवरी में पहली बार जब भारत में कोरोना संक्रमण का मामला दर्ज़ हुआ तब देश की सोशल मीडिया सर्कल में रिकॉर्ड स्तर पर तमाम तरह की फ़ेक न्यूज़ का विस्तार देखा गया. ग़लत तरीक़े से बनाए गए वीडियो से लेकर फ़ेक इंटरव्यू और भ्रामक डॉक्यूमेंटरी की तादाद अचानक सोशल मीडिया पर बढ़ गई. एक प्रमुख फ़ेक मैसेज़ जो लगातार सोशल मीडिया पर सर्कुलेट किया गया वो विटामिन सी के इस संक्रमण से लड़ने की शक्ति को लेकर था. इसे ज़्यादा से ज़्यादा प्रामाणिक बनाने के लिए कई तरह के फ़ेक वीडियो बनाए गए और उन्हें मशहूर डॉक्टर देवी शेट्टी से जोड़ कर बताया जाने लगा.
इसी प्रकार सभी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर इस बात को लेकर भ्रामक दावा देखने को मिला कि गोमूत्र द्वारा कोरोना संक्रमण का सफल इलाज़ किया जा सकता है. इस तरह की ख़तरनाक और ग़लत जानकारी के चलते देश की सबसे प्रमुख मेडिकल बॉडी आईसीएमआर (इंडियन कॉउन्सिल फॉर मेडिकल रिसर्च) ने लोगों से अपील जारी की कि वो किसी भी सूरत में ऐसी भ्रामक जानकारी के चलते ख़ुद से ऐसा इलाज़ नहीं करें. यही नहीं अधिकारियों को लोगों द्वारा कोविड 19 महामारी से जुड़े अप्रैल फूल जोक्स की भरमार को रोकने के लिए प्रिंट और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर तमाम शिकायत और नोटिस जारी करनी पड़ गई. हालांकि इन चेतावनी का कोई ख़ास सकारात्मक असर नहीं हुआ क्योंकि अप्रैल में ऐसे कई ग़लत तरीक़े से बनाए गए वीडियो सोशल मीडिया पर पाए गए जिसमें सरकार द्वारा आपातकाल लगाने और सेना के हाथ में देश की सत्ता चले जाने को लेकर तमाम दावे देखने को मिले.
कोविड 19 को लेकर सबसे ज़्यादा भ्रम मार्च महीने में हुए तबलीगी समाज प्रकरण से फैली. दिल्ली में आयोजित हुए विवादास्पद तबलीग़ी जमात के सम्मेलन के चलते देश भर में कोरोना संक्रमण के मामलों में बढ़ोत्तरी दर्ज़ की गई
सबसे ग़लत जानकारी तो मांसाहारी भोजन को लेकर था, ख़ासकर कि कोरोना संक्रमण अंडे और चिकन खाने से तेजी से फैलता है. इस ग़लत और भ्रामक दावे पर कई लोगों ने भरोसा कर लिया जिसका नतीज़ा ये हुआ कि इससे पॉल्ट्री कारोबार को भारी धक्का लगा. इस एपिसोड के चलते कई पॉलट्री कारोबारियों को लाखों चिकन की जान लेनी पड़ी तो कई कारोबारियों ने पक्षी को मुक्त छोड़ दिया. एक अनुमान के मुताबिक पॉलट्री कारोबार को क़रीब 2000 करोड़ का नुकसान उठाना पड़ा.
हालांकि, कोविड 19 को लेकर सबसे ज़्यादा भ्रम मार्च महीने में हुए तबलीगी समाज प्रकरण से फैली. दिल्ली में आयोजित हुए विवादास्पद तबलीग़ी जमात के सम्मेलन के चलते देश भर में कोरोना संक्रमण के मामलों में बढ़ोत्तरी दर्ज़ की गई ये भ्रामक और ख़तरनाक दावा सोशल मीडिया ग्रुप खासकर व्हाट्सएप पर तेजी से फैलने लगा जिसे सच साबित करने के लिए ग़लत तरीक़े से बनाई गई कई तरह की वीडियो और फ़ेक मैसेज़ को सर्कुलेट किया गया जिससे ये धारणा बनाई गई कि तबलीगी समाज के लोग ही देश में कोरोना संक्रमण के वाहक थे. इसी तरह कई तरह से भ्रामक और ग़लत तरीक़े से बनाए गए वीडियो सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर तेजी से फैलने लगे जिसमें दावा किया गया कि तबलीगी समाज के लोग क्वारंटीन सेंटर में डॉक्टरों और नर्सों पर थूक फेंक रहे हैं ताकि कोरोना संक्रमण ज़्यादा से ज़्यादा फैल सके. इस भ्रामक जानकारी ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर नेताओं के साथ साथ मशहूर ब्लॉगर्स को ट्विटर पर कोरोना जिहाद और कोरोना विलेन्स जैसे हैशटैग को चलाते देखा जिससे एक खास समुदाय के लोगों को कुछ लोगों की ग़लतियों की वज़ह से टारगेट किया जाने लगा. इससे भी ख़तरनाक बात तो ये सामने आने लगी कि मुस्लिम समुदाय के बीच ग़लत तरीक़े से तैयार किए गए वीडियो का प्रचार-प्रसार किया जाने लगा जिसमें दावा किया गया कि सरकार मुस्लिम युवाओं को क्वांरटीन सेंटर में कोरोना वायरस से संक्रमित करने की साज़िश रच रही है. इस तरह की भ्रातियों और अल्पसंख्यकों को टारगेट बनाए जाने का यह नतीज़ा हुआ कि इंदौर जैसे शहर में फ्रंटलाइन वर्कर्स के ऊपर कई जगह हमले तक किए गए. कुल मिलाकर कोविड 19 को लेकर फैलाई गई ग़लत जानकारी और भ्रामक दावों के चलते भारत में काफी प्रतिकूल असर देखने को मिला.
वैक्सीन से जुड़े ग़लत दावों से लड़ने की चुनौती
अब जबकि भारत में कोरोना वैक्सीन इज़ाद हो चुकी है और पूरे देश भर में वैक्सीनेशन की प्रक्रिया चल रही है तो ऐसे में युद्ध स्तर पर कोरोना वैक्सीन को लेकर भ्रामक दावों के ख़िलाफ़ जंग लड़ने की ज़रूरत है. वैक्सीनेशन को लेकर भारत का अब तक का जो इतिहास रहा है वह काफी चुनौतीपूर्ण रहा है जिसमें आबादी का एक बड़ा हिस्सा टीकाकरण के ख़िलाफ़ रहा है तो ऐसे में कोरोना वैक्सीन के साइड इफेक्ट और इसकी क्षमता पर कई लोग झूठे दावे करने और साज़िश की थ्योरी को आगे बढ़ाने में जुटे हुए हैं. ऐसा ही ट्रेंड पहले से अमेरिका में भी देखा गया है जहां वैक्सीनेशन की प्रक्रिया सबसे पहले ही शुरू हुई है. इससे पहले कि वैक्सीनेशन की प्रक्रिया को रॉल आउट किया जाता लोकल सर्किल द्वारा किए गए एक सर्वे में पाया गया कि क़रीब 59 फ़ीसदी आबादी भारत में कोरोना वैक्सीन को लगवाने में संकोच कर रही है.
ग़लत जानकारी से लड़ने का जो अनुभव अतीत और वर्तमान में मिला है उसके मुताबिक़ तो सरकार (केंद्र और राज्य) को वैक्सीनेशन को लेकर फैलाई जा रही ऐसी भ्रामक जानकारी और दावे को रोकने के लिए ज़ल्द से ज़ल्द कदम उठाने चाहिए.
इससे पहले ही देश भर में पोलियो टीकाकरण कार्यक्रम भी ग़लत जानकारी और साज़िश की थ्योरी के चलते प्रभावित हुआ. उदाहरण के तौर पर उत्तर प्रदेश में मुस्लिम समुदाय के लोग हाल में साल 2000 तक पोलियो के ओरल वैक्सीन डोज़ का विरोध इस बात को लेकर करते रहे कि इससे नपुंसकता बढ़ती है. इसी तरह की ग़लत जानकारी की वज़ह से साल 2016 में केरल में डिप्थीरिया के ख़िलाफ़ चलाए गए वैक्सीन कार्यक्रम को भी प्रभावित होते पाया गया था. इतना ही नहीं कर्नाटक और तमिलनाडु में चेचक और रूबेला वायरस के ख़िलाफ़ चलाए गए टीकाकरण अभियान को भारी नुकसान तब उठाना पड़ा था जब इसके वायरस को लेकर यह ग़लत दावा किया गया कि इसमें पशुओं के मांस से संबंधित कई तत्व ऐसे शामिल किए गए हैं जिनपर मुस्लिम धर्म में पाबंदी है. कुल मिलाकर ग़लत जानकारी से लड़ने का जो अनुभव अतीत और वर्तमान में मिला है उसके मुताबिक़ तो सरकार (केंद्र और राज्य) को वैक्सीनेशन को लेकर फैलाई जा रही ऐसी भ्रामक जानकारी और दावे को रोकने के लिए ज़ल्द से ज़ल्द कदम उठाने चाहिए.
सरकार और इसकी एजेंसियों के लिए इसका सबसे बेहतर तरीक़ा यह है कि सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर जिस तरीक़े से कोरोना महामारी के अलग अलग चरण में कोविड 19 संक्रमण को लेकर ग़लत जानकारी और भ्रम फैलाई गई उस पर पैनी नज़र रखे. इसके लिए सरकार को तकनीकी कंपनियों, सोशल मीडिया कंपनियों और इनसे जुड़े अन्य प्लेटफॉर्म पर प्रोएक्टिव होकर सहयोग बढ़ाना चाहिए जिससे कि कोरोना वैक्सीन को लेकर कोई भी ग़लत जानकारी वायरल होने से रोकी जा सके. ये एक बेहतर संकेत है कि फेसबुक और ट्विटर जैसी सोशल मीडिया कंपनियों ने यह घोषणा की है कि वो अपने प्लेटफॉर्म से वैक्सीनेशन को लेकर किए जा रहे ऐसे तमाम ग़लत दावों को हटा देंगे. फिर भी भारत के लिए असल चुनौती व्हाट्सएप जैसे प्लेटफॉर्म पर फैलाए जा रहे भ्रामक दावे और जानकारी को रोकने की होगी. निष्कर्ष के तौर पर कहा जा सकता है कि कोविड 19 को लेकर भारत में चलाए जा रहे टीकाकरण अभियान की सबसे बड़ी चुनौती लॉजिस्टिक या फिर सप्लाई चेन नहीं है बल्कि वैक्सीन को लेकर फैलाई जा रही फ़ेक न्यूज़ और भ्रामक जानकारी पर लगाम लगाने की है.
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