Author : Steven Blockmans

Published on Feb 11, 2022 Updated 0 Hours ago

दोनों पक्षों के मज़बूत ताल्लुक़ात से न सिर्फ़ पारस्परिक हित पूरे होंगे बल्कि भारत और यूरोपीय संघ को वैश्विक चुनौतियों से मिलकर निपटने में भी मदद मिलेगी 

भारत, यूरोपीय संघ और अंतरराष्ट्रीय बहुपक्षीय व्यवस्था का भविष्य!

आज की उभरती अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के प्रमुख ध्रुवों में एक रिश्ता ऐसा है जो अपनी क्षमता के मुताबिक नतीजे नहीं दे रहा है. वो रिश्ता है भारत और यूरोप का. दोनों पक्षों के मज़बूत ताल्लुक़ात से न सिर्फ़ पारस्परिक हित पूरे होंगे बल्कि भारत और यूरोपीय संघ को वैश्विक चुनौतियों से मिलकर निपटने में भी मदद मिलेगी. इनमें जलवायु परिवर्तन, डिजिटलाइज़ेशन और अंतरराष्ट्रीय संगठनों के उम्मीदों पर खरे नही उतरने जैसी चुनौतियां शामिल हैं. 

द्विपक्षीय रिश्तों में पहले की सुस्ती के अनेक कारण है. दरअसल, 1945 के बाद से यूरोप अपने मसलों में ही उलझा रहा है. एकीकरण की प्रक्रिया को और गहरा और विस्तृत बनाकर यूरोपीय संघ (ईयू) ने अपने यहां स्थिरता ला दी है. अमेरिका के साथ जुड़कर अटलांटिक के आर-पार स्थापित ये रिश्ता दोनों महादेशों के बीच सामाजिक-आर्थिक तानेबाने की बेहद मज़बूत डोर बन गई है. निश्चित रूप से विदेशी मामले और सुरक्षा नीतियां राष्ट्रीय हितों के हिसाब से तय होते हैं. बाक़ी दुनिया की ओर यूरोप का नज़रिया इसी सामरिक गठजोड़ के हिसाब से तैयार होता है. ईयू ने नियम आधारित बहुपक्षीय व्यवस्था के अपने कूटनीतिक मॉडल को अपने सदस्यों और दूसरे देशों तक फैलाया है. व्यापार के क्षेत्र में ये क़वायद ख़ासतौर से नज़र आती है. हालांकि, अपनी संप्रभुता को दृढ़ता के साथ सामने रखने वाले राष्ट्रों के साथ इस नीति पर आगे चलने में यूरोपीय संघ को बेहद मुश्किल पेश आती रही है. 

ईयू ने नियम आधारित बहुपक्षीय व्यवस्था के अपने कूटनीतिक मॉडल को अपने सदस्यों और दूसरे देशों तक फैलाया है. व्यापार के क्षेत्र में ये क़वायद ख़ासतौर से नज़र आती है. 

भारतीय उपमहाद्वीप भी ऐतिहासिक रूप से अपने घरेलू मसलों में उलझा रहा है. यूरोप के साथ भारत का पारंपरिक रुख़ ईयू की बजाए व्यक्तिगत तौर पर देश के हिसाब से तय होता रहा है. हालांकि, भारत को एहसास हो चुका है कि सामूहिक रूप से यूरोप व्यापार और निवेश में उसका सबसे बड़ा साझीदार है. साथ ही यूरोपीय संघ भारत का एक अहम तकनीकी भागीदार भी है. हिंद महासागर और मध्य पूर्व के विस्तृत इलाक़े में धीरे-धीरे यूरोप एक अहम संतुलनकारी किरदार बन गया है. लिहाज़ा भारत अपने तेवर में बदलाव ला रहा है. वैश्विक पुनर्व्यवस्था की शक्तियों के नतीजे के तौर पर और अधिक मुखर और संस्थागत सुरक्षा वार्ताओं (ख़ासतौर से सामुद्रिक दायरे में) के माहौल में थोड़ा सुधार हुआ है. इसके अलावा द्विपक्षीय व्यापार वार्ताओं में भी नयापन आया है. अब इस सिलसिले में अलग-अलग सेक्टरों के लिए आयात शुल्कों में कमी लाने से इतर दूसरे मसलों पर ध्यान दिया जाने लगा है. 15 जुलाई 2020 को भारत और ईयू के बीच वर्चुअल माध्यम से हुए शिखर सम्मेलन में इन्हीं क्षेत्रों में भागीदारी की उम्मीदों में नई जान फूंकी गई. 

यूरोप मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल के कट्टर हिंदू-राष्ट्रवादी रुख को लेकर चिंताएं जताता रहा है. दोनों पक्षों ने मानव अधिकारों पर वार्ता शुरू करने पर रज़ामंदी जताई है. हालांकि बदलते भूराजनीतिक परिदृश्य में आगे बढ़ने के लिए ईयू द्वारा निरंतर विकसित होते यथार्थवादी रुख़ अपनाए जाने से इन क़वायदों के ढीले पड़ जाने के आसार हैं. स्पष्ट रूप से पहचान में आने वाले रुख़ रखने वाले किरदारों के बीच वार्ता प्रक्रियाओं को आगे बढ़ाना आसान होता है. लिहाज़ा बढ़ता राष्ट्रवाद और यथार्थवाद असलियत में बहुपक्षीयवाद में नई जान फूंकने में मददगार साबित हो सकता है. छोटे आकार वाले यूरोपीय संघ को निश्चित रूप से घिसे-पिटे गठजोड़ों से इतर नए गठबंधन बनाने की दिशा में काम करना चाहिए. ऐतिहासिक तौर पर अलग दायरों वाले देशों के साथ तालमेल की कोशिश की जानी चाहिए. बहुध्रुवीय दुनिया में उभरती शक्ति के तौर पर भारत को भी पहले से ज़्यादा बहुपक्षीयवाद की ज़रूरत है. स्थिर वातावरण की सुरक्षा और विकास को टिकाऊ बनाने के लिहाज़ से ये बेहद ज़रूरी है.  

बहुध्रुवीय दुनिया में उभरती शक्ति के तौर पर भारत को भी पहले से ज़्यादा बहुपक्षीयवाद की ज़रूरत है. स्थिर वातावरण की सुरक्षा और विकास को टिकाऊ बनाने के लिहाज़ से ये बेहद ज़रूरी है.  

नये दौर में भी पुरानी समस्यायें हावी

इन हालातों को दो कारक और गंभीर बना रहे हैं: गठन के 75 से भी ज़्यादा वर्ष बीतने के बाद आज संयुक्त राष्ट्र की विश्वसनीयता काफ़ी कम हो गई है. साथ ही दुनिया की बड़ी ताक़तों ने विश्व व्यापार संगठन (WTO) और दूसरे अंतरराष्ट्रीय संगठनों से मुंह फेर लिया है. विशिष्टतावाद (exceptionalism) के प्रसार से नियम आधारित अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था की हवा निकल रही है. भले ही दुनिया के सामने खड़ी चुनौतियां नई और पहले के मुक़ाबले अधिक विकट हैं, लेकिन मानवीय व्यवहार की बुनियाद जस की तस है: लालच, डर और ताक़त की हवस. अगर राज्यसत्ताएं बहुपक्षीय व्यवस्था को उन्नत करने की बजाए उन्हें हाथ से निकलने देती हैं तो एक ऐसी दुनिया तैयार होने की आशंका रहेगी जिसमें कमज़ोर के ताक़तवर के हाथों प्रताड़ित होने का ख़तरा रहेगा. एक साधन के तौर पर बहुपक्षवाद में सुधार की दरकार है. इस दिशा में भारत और यूरोपीय संघ द्वारा क़दम उठाए जाने की ज़रूरत है. 

आज के ज़माने में अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में चीन और अमेरिका के बीच बढ़ती रस्साकशी का दबदबा बढ़ता जा रहा है. ऐसे में समान सोच वाली मझौली ताक़तों में साझे तौर पर वैश्विक बोझ उठाने के लिए सहयोग की और भी ज़्यादा ज़रूरत खड़ी हो गई है.

नए क्षेत्रों में वैश्विक नियम तैयार करने में ईयू बढ़चढ़कर प्रयास कर रहा है. निजी डेटा की हिफ़ाज़त के लिए इसने वैश्विक स्तर पर बहस की शुरुआत की है. ईयू आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस के इस्तेमाल के नैतिक, मानवीय-केंद्रित मानकों के वैश्विक प्रतिमान की स्थापना के लक्ष्य को लेकर आगे बढ़ रहा है. साथ ही वो डिजिटल दुनिया में टैक्स व्यवस्था पर अपने मत को नया रूप देने के लिए आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (OECD) में काफ़ी सक्रिय है. WTO के भीतर नए तौर-तरीक़ों की उम्मीद और चीन पर बंदिश लगाने की आस में औद्योगिक सब्सिडियों के नए मानकों पर यूरोपीय संघ की अमेरिका और जापान के साथ सहमति बन गई है. दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत के साथ मिलकर यूरोप कनेक्टिविटी और नई टेक्नोलॉजी में वैश्विक अवसर तैयार करने के लिए समान तरह के बहुपक्षीय इंतज़ामों की तलाश कर सकता है. 

अगर राज्यसत्ताएं बहुपक्षीय व्यवस्था को उन्नत करने की बजाए उन्हें हाथ से निकलने देती हैं तो एक ऐसी दुनिया तैयार होने की आशंका रहेगी जिसमें कमज़ोर के ताक़तवर के हाथों प्रताड़ित होने का ख़तरा रहेगा.

 

मौजूदा वक़्त में दुनिया के सामने खड़ी समस्याएं वही पुरानी हैं. इनमें आतंकवाद के ख़िलाफ़ जंग से लेकर सामुद्रिक सुरक्षा, राज्यसत्ता के नाज़ुक हालात से लेकर प्रवास, पर्यावरण के नुकसान से लेकर सार्वजनिक स्वास्थ्य तक के मसले शामिल हैं. भारत और ईयू को सार्वजनिक अहमियत वाले सामानों की हिफ़ाज़त के लिए राजनीतिक और सुरक्षा सहयोग के ज़्यादा से ज़्यादा नए अवसरों की तलाश करनी चाहिए. आज के ज़माने में अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में चीन और अमेरिका के बीच बढ़ती रस्साकशी का दबदबा बढ़ता जा रहा है. ऐसे में समान सोच वाली मझौली ताक़तों में साझे तौर पर वैश्विक बोझ उठाने के लिए सहयोग की और भी ज़्यादा ज़रूरत खड़ी हो गई है. 2021-22 में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद और 2022-23 में जी20 में भारत की अध्यक्षता से इस संयुक्त विचार को साझा कार्ययोजना में बदलने के अवसर मिल रहे हैं. 

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