Published on Sep 10, 2021 Updated 0 Hours ago

शिक्षा नीति से व्यक्ति से व्यक्ति तक के संबंध मज़बूत होते है; हालांकि, इसे कभी भी सांस्कृतिक आदान-प्रदान, भाषा ज्ञान प्राप्त करने, और शिक्षकों के सहयोग तक ही सीमित नहीं करनी चाहिए

भारत-ताईवान संबंध: शिक्षा कूटनीति के ज़रिये दोनों देशों के रिश्तों को मिल सकता है नया आयाम

किन्हीं भी दो राष्ट्रों के बीच के आपसी संबंधों को और भी ज्य़ादा मज़बूत, लाभकारी और पारस्परिक बनाने के लिये, शिक्षा-कूटनीति तो एक अहम प्रक्रिया माना जाता है. किसी भी दो राष्ट्र के बीच के पारस्परिक संबंध को मज़बूती प्रदान करने की दिशा में शिक्षा कूटनीति का रास्ता अख़्तियार करना कहीं न कहीं एक सफ़ल मॉडल साबित हुआ है. उच्च शिक्षा के समावेशी स्वरूप ने कई मौकों पर नये अवसर के लिये समान पृष्टभूमि तैयार की है जिससे नये अवसर पैदा हुए हैं; इसलिए इस आलेख की मंशा भारत और ताइवान के बीच एक मजबूत पारस्परिक संबंध कायम करने के लिए शिक्षा कूटनीति को एक नाजुक परंतु प्रभावशाली हथियार के तौर पर इस्तेमाल करने के लिये प्रेरित करने की है.

शिक्षा नीति से व्यक्ति से व्यक्ति तक के संबंध मज़बूत होते है; हालांकि, इसे कभी भी सांस्कृतिक आदान-प्रदान, भाषा ज्ञान प्राप्त करने, और शिक्षकों के सहयोग तक ही सीमित नहीं करनी चाहिए. भारत-ताइवान द्विपक्षीय संबंध की वजह से छात्रों के गतिशीलता में काफी तेज़ी आई है, जहां पहले लगभग ना के बराबर छात्र ताइवान पढ़ाई के लिए जाना चाहते थे से अब संतोषजनक 2,398 भारतीय छात्र, (56 प्रतिशत बढ़त के साथ) ताइवान में पढ़ाई कर रहे हैं, जो इस बात कि ओर इशारा कर रही है कि संबंधों को सुदृढ़ करने मे ये सेक्टर कितनी सकारात्मक भूमिका अदा कर रही है. इस शिक्षा नीति को सिर्फ़ छात्रों तक ही सीमित रखने के बजाये, इसके पंख अन्य कार्यक्रमों के ज़रिये फैलाने की ज़रूरत है जिसमें संयुक्त अनुसंधान परियोजना, दोनों तरफ से अंतरसांस्कृतिक समझ के विकास पर केंद्रित शोध छात्रों की नेटवर्किंग जिसमें क्षमता और अक्षमता पर पूरा ध्यान दिया जाये; और ‘फुलब्राइट’ या ‘इरैसमस मूंडस’ जैसे मोबिलिटी कार्यक्रम जिसमें शोधार्थियों को रिसर्च का मौका दिया जाता हो.

इस शिक्षा नीति को सिर्फ़ छात्रों तक ही सीमित रखने के बजाये, इसके पंख अन्य कार्यक्रमों के ज़रिये फैलाने की ज़रूरत है जिसमें संयुक्त अनुसंधान परियोजना, दोनों तरफ से अंतरसांस्कृतिक समझ के विकास पर केंद्रित शोध छात्रों की नेटवर्किंग जिसमें क्षमता और अक्षमता पर पूरा ध्यान दिया जाये

ताइवान का एक फेलोशिप प्रोग्राम (स्कॉलर्स मोबिलिटी प्रोग्राम) है, जो वहाँ के विदेश मंत्रालय द्वारा प्रायोजित है, जहां अन्य राष्ट्रों के छात्र एवं शोधार्थी रिसर्च करते हैं. उसी तरह से नई साउथ बाउंड नीति (NSP), का अनुकरण करते हुए ताइवान को कुछ इसकी तरीके के मोबिलिटी प्रोग्राम जैसी नीति को बढ़ावा देकर भारत के साथ अपने संबंध प्रगाढ़ बनाने और एक ज्ञान आधारित माहौल बनाने की कोशिश करनी चाहिए. हालांकि, ये प्रयास एक-तरफा नहीं होना चाहिए, और भारत को भी शिक्षा नीति की गंभीरता को समझ कर इसके विकास मे सहयोग करना चाहिए. इस पहल की शुरुआत भारत की तरफ़ से ताइवान के मेधावी छात्रों को छह महीने से एक साल तक के समय के लिये भारत आमंत्रित कर के किया जा सकता है. ये वो फॉर्मूला है जो दोनों देशों के बीच पब्लिक कूटनीति की एक नई श्रेणी की शुरुआत कर सकता है. इस तरह से एजुकेश्नल डिप्लोमेसी या शिक्षा कूटनीति भारत और ताइवान के बीच के पारस्परिक और सांस्कृतिक संबंधों का एक पारगमन साबित हो सकता है, इसके अलावा ये दोनों देशों के बीच सॉफ्ट़ पॉवर की स्थापना कर सकता है.

शिक्षा: एक ’ खोजी गई संभावना

इस बात में कोई शक नहीं है कि, वैसे भारतीय छात्र जो ताइवान में पहले से पढ़ाई कर रहे हैं या जो भविष्य में ताइवान जाकर उच्च शिक्षा हासिल करने को इच्छुक हैं, वो कड़ी या गलियारा है जिसने दोनों देशों के बीच के संबंधों को मज़बूत किया है. लेकिन इसके बाद भी दोनों देशों के बीच संबंध अभी और बेहतर किये जा सकते हैं. साई-इंग वेन के नेतृत्व में ताइवान अपनी आर्थिक संभावनाओं को बेहतर करने की कोशिश में प्रयासरत है ताकि वो खुद को एक ‘एजुकेशन हब’ के तौर पर दुनिया के सामने पेश कर सके. इसलिये ये पूरी तरह से मुमकिन है कि शिक्षा कूटनीति वो दहलीज़ बन जाये जिसके सारे इस क्षेत्र में ताइवान का असर बढ़ जाये, ख़ासकर भारत में. भारतीय युवाओं को आकर्षित करना संभावना से परिपूर्ण फैसला साबित हो सकता है, क्योंकि ये युवा छात्र देश के बाहर बेहतर शिक्षा हासिल करने के अवसर ढूंढते रहते हैं. एक आंकड़े के अनुसार, चीन के बाद, दूसरे नंबर पर भारत है, जहां से सन 2019-2020 मे,18 प्रतिशत (1.93.124) छात्र अमेरिकी संस्थानों मे पढ़ाई करने के लिए वहाँ गए. बिल्कुल यही स्थिति यूके, सिंगापूर और दक्षिण कोरिया जैसे देशों की भी है जहां भारतीय छात्र पढ़ रहे है. हालांकि, ये काफी प्रतिस्पर्धात्मक है, फिर भी ताइवान के पास एक अवसर है, कि वो भारतीय प्रतिभाओं के बीच, अपने यहां की कम लागत, बेहतर लैब इंफ्रास्ट्रक्चर, सस्ती जीवन शैली और बेहतर रोज़गार के अवसर को लेकर ज़रूरी जागरूकता अभियान चलाए. भारतीय छात्रों को अपनी ओर आकर्षित करने की दिशा में, टॉप क्यूएस वर्ल्ड यूनिवर्सिटी  रैंकिंग (2021) में 16 ताईवानी यूनिवर्सिटी का और टॉप 300 क्यूएस एशिया रैंकिंग लिस्ट मे 35 ताईवानी यूनिवर्सिटी का नाम दर्ज होना, भी एक उल्लेखनीय उपलब्धि हो सकता है.

सामाजिक विज्ञान के शोध छात्रों में ताइवान को लेकर जो समझ है वो दोनों देशों के बीच बेहतर संबंध स्थापित करने में काफी अहम् भूमिका निभा सकता है. ये छात्र न सिर्फ़ दोनों देशों के संबंधों को बेहतर करने की दिशा में एक व्यवहारिक भूमिका निभा सकते हैं बल्कि जागरूक भी कर सकते हैं

एजुकेशन डिप्लोमेसी के तहत जिन दूसरे कदमों से आगे बढ़ा जा सकता है उसमें शिक्षा मंत्रालय के द्वारा दी गई छात्रवृत्ति के ज़रिये ताइवान पहुंच रहे सामाजिक और प्राकृतिक विज्ञान के बीच संतुलन स्थापित करना है. निस्संदेह, भारतीय छात्र जो ताइवान में पहले से पढ़ रहे हैं अथवा वैसे छात्र जो अपनी उच्च शिक्षा के लिए ताइवान जाने को इच्छुक है, उनकी वजह से भी द्विपक्षीय संबंध काफ़ी सुदृढ़ हुए है. हालांकि, इसमें आगे और भी सुधार की गुंजाइश है. नई दिल्ली स्थित टेक (TECC) के एजुकेशन डिविज़न के डायरेक्टर पीटर्स ली चेन के मुताबिक उच्च शिक्षा के लिये भारत से ताइवान जाने वाले ज़्यादातर छात्र स्टेम (STEM) पृष्टभूमि के होते हैं, इसलिये हमें वैसे छात्रों को प्रोत्साहित करने की ज़रूरत है जो सोशल साइंस के स्ट्रीम से आते हैं. सामाजिक विज्ञान के शोध छात्रों में ताइवान को लेकर जो समझ है वो दोनों देशों के बीच बेहतर संबंध स्थापित करने में काफी अहम् भूमिका निभा सकता है. ये छात्र न सिर्फ़ दोनों देशों के संबंधों को बेहतर करने की दिशा में एक व्यवहारिक भूमिका निभा सकते हैं बल्कि जागरूक भी कर सकते हैं. ऐसा वे दोनों देशों के बीच अंतर-सांस्कृतिक पहल और मेल-मिलाप को बढ़ावा देकर कर सकते हैं जो किसी भी हाल में सामान्य विज्ञान के शोधार्थियों से कहीं ज़्यादा महत्वपूर्ण होगा. सामाजिक विज्ञान के छात्र कहीं न कहीं इस सॉफ्ट पॉवर को आगे बढ़ाने में काफी कारगर साबित होंगे, जिसका काफी आर्थिक और प्रतिष्ठात्मक फायदा हो सकता है. इसका एक उदाहरण चीन द्वारा वित्तीय दृष्टि से अफ्रीकी महाद्वीप में अपना असर बढ़ाना है. लेकिन, इस पूरी प्रक्रिया में शिक्षा भी एक पहलू बनकर उभरा है, जिसके तहत कई अफ्रीकी छात्र चीनी सरकारी स्कॉलरशिप की मदद से वहां जाकर पढ़ाई कर रहे हैं. ठीक इसी तरह से, ताइवान को भी भारत के साथ लंबे समय के लिये द्विपक्षीय संबंध बनाने के लिये कुछ ऐसी ही नीतियों का निर्माण करना चाहिये.

न की खाली जगह

भारत, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया में, चीन के कनफ्यूशियस इंस्टीट्यूट की पारदर्शिता पर उठते सवाल – जहां कुछ संस्थानों के ऊपर जासूसी और दुरुपयोग के आरोप लगे, की वजह से मैंडारिन भाषा को सिखाये जाने को लेकर उभरे हुए शून्य को भरने का बेहतरीन अवसर ताइवान के पास है. वहीं दूसरी तरफ भारत को एक गैर-प्रचारित मंदारिन प्रशिक्षक की ज़रूरत है, जो कनफ्यूशियस संस्थानों के विपरीत, पाठ्यक्रम और फेकल्टी की नियुक्ति, को नियंत्रित नहीं करेगा. अगर ऐसा हुआ तो ये भारत के लिए दोतरफ़ा जीत वाली स्थिति होगी, क्यों चीन के विपरीत, ताइवान से भारत को किसी प्रकार की सुरक्षा संबंधी खतरा नहीं है. ताइवान को चाहिए कि वो 2030 तक ख़ुद को एक बहुभाषीय राष्ट्र बनाने के प्रोग्राम के तहत भारतीय प्रतिभाओं को उनके यहां अंग्रेजी पढ़ाने की संभावनाओं को पूरा कर पाये. भारतीयों को अंग्रेजी पढ़ाने संबंधी रोज़गार के अवसर दिए जाने की वजह से भारत के जॉब मार्केट में भी ताइवान को लेकर पर्याप्त जागरूकता बढ़ाने मे मदद मिलेगी.

ताइवान को चाहिए कि वो 2030 तक ख़ुद को एक बहुभाषीय राष्ट्र बनाने के प्रोग्राम के तहत भारतीय प्रतिभाओं को उनके यहां अंग्रेजी पढ़ाने की संभावनाओं को पूरा कर पाये

संपूर्ण विश्व बड़े स्तर पर एक दूसरे से न सिर्फ़ जुड़ी हुई है बल्कि एक-दूसरे पर निर्भर भी है, और शिक्षा कूटनीति वो कड़ी है जो दोनों दोनों देशों के बीच सांस्कृतिक लेन-देन, लोगों के आदान प्रदान, विशेषज्ञता, मूल्य और ज्ञान के प्रसार के क्षेत्र में कारक की भूमिका अदा कर सकता है. अगर शिक्षा कूटनीति को दोनों तरफ़ से सही जवाब या विस्तार मिलता है तो ये भारत-ताइवान संबंधों की मज़बूती के परिप्रेक्ष्य में बहुत ही महत्वपूर्ण एवं प्रभावशाली भूमिका निभा पाएगा.

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