Published on Aug 01, 2023 Updated 0 Hours ago

बिग टेक कंपनियों के एकाधिकार से राष्ट्रीय संप्रभुता, स्वस्थ प्रतिस्पर्धा, नवाचार के प्रसार, उपभोक्ता अधिकारों, निजता, बाज़ार कुशलता, अर्थव्यवस्था और इंसानी तरक़्क़ी पर असर पड़ता है. अपनी तकनीक नीति को सुरक्षित बनाने के लिए भारत को तत्काल क़दम उठाने होंगे.

भारत में टेक्नॉलजी पॉलिसी को ताक़तवर, नवाचार के अनुकूल और सुरक्षित बनाने का तरीक़ा क्या हो?
भारत में टेक्नॉलजी पॉलिसी को ताक़तवर, नवाचार के अनुकूल और सुरक्षित बनाने का तरीक़ा क्या हो?

क्या हम घरेलू नवाचार को बढ़ावा देने, संतुलित विकास को आगे बढ़ाने और राष्ट्रीय संप्रभुता की रक्षा के लिए कभी भी बड़ी तकनीकी कंपनियों पर नकेल कस पाएंगे? क्या व्यापक जनहित की रक्षा में हम नियमों का संतुलित समूह और एक स्पष्ट ढांचा सुनिश्चित कर सकते हैं? क्या हम संतुलित साइबर सुरक्षा और डेटा गवर्नेंस के ढांचे को सुरक्षित बनाकर इंटरनेट को हथियार की तरह इस्तेमाल करने की प्रवृति पर लगाम लगा सकते हैं? क्या हम दूसरी कंपनियों के साथ-साथ गूगल (अल्फ़ाबेट); एप्पल; फ़ेसबुक (मेटा); एमेज़ॉन और माइक्रोसॉफ़्ट को और अधिक ज़िम्मेदार और लचीला बना सकते हैं?

सर्च और विज्ञापनों से जुड़ी मध्यस्थता में एकाधिकार और मोबाइल ऑपरेटिंग सिस्टम में 2 कंपनियों के प्रभुत्व और नियंत्रण से संप्रभुता को ख़तरा पैदा हो गया है. बिग टेक द्वारा डेटा और सर्विस पर दबदबा जमा लेने से ताक़त का केंद्रीकरण हद से ज़्यादा बढ़ जाता है.

चारों ओर नज़र दौड़ाकर देखें तो हम पाते हैं कि हमारी ज़िंदगी के साथ अटूट रूप से जुड़े और हर जगह और हमेशा हमारे साथ रहने वाली ज़्यादातर डिजिटल सेवाओं का संचालन यही बिग टेक कंपनियां करती हैं. हमारे ज़ेहन, अर्थव्यवस्था, राष्ट्रीय सुरक्षा, लोकतंत्र और तरक़्क़ी को छिपे तौर पर चंद टेक्नोलॉजी कंपनियां ही नियंत्रित करती हैं. ये कंपनियां सरकारों से भी ज़्यादा ताक़तवर बन गई हैं. मिसाल के तौर पर अल्फ़ाबेट (गूगल), मेटा (फ़ेसबुक) और ऐमेज़ॉन के प्लेटफ़ॉर्म वैश्विक डिजिटल विज्ञापन पर 74 फ़ीसदी ज़ेहनी हिस्से और प्रभाव के साथ अपना दबदबा क़ायम किए हुए हैं.

सर्च और विज्ञापनों से जुड़ी मध्यस्थता में एकाधिकार और मोबाइल ऑपरेटिंग सिस्टम में 2 कंपनियों के प्रभुत्व (एपल और गूगल) और नियंत्रण से संप्रभुता को ख़तरा पैदा हो गया है. बिग टेक द्वारा डेटा और सर्विस पर दबदबा जमा लेने से ताक़त का केंद्रीकरण हद से ज़्यादा बढ़ जाता है. इससे अर्थव्यवस्थाएं बुरी तरह से उनके आसरे हो जाती हैं. नतीजतन वित्तीय व्यवस्थाओं, अर्थव्यवस्था और भूराजनीति में अड़चनें पैदा हो जाती हैं. अक्सर इससे उचित कारोबारी बर्ताव, प्रतिस्पर्धा, डेटा सुरक्षा और डेटा शेयरिंग का काम भी बाधित हो जाता है

मौजूदा रूस यूक्रेन संघर्ष से सबक़

इस सिलसिले में हम मौजूदा रूस-यूक्रेन संघर्ष से जुड़ी मिसाल ले सकते हैं. इस दौरान इंटरनेट पर पाबंदियों, धमकी भरे बर्तावों और इंटरनेट के मुक्त प्रवाह को रोकने या टुकड़ों में बांटने के रुझान (splinternet) देखे जा रहे हैं. इसमें कोई शक़ नहीं है कि वैश्वीकरण की प्रक्रिया ढलान पर है और दुनिया के देश इससे पलटी मार रहे हैं. नस्ल, मजहब, राष्ट्रीयता या ज़ुबानी जुड़ावों के हिसाब से डिजिटल दीवारें खड़ी की जा रही हैं. टेक्नोलॉजी की मध्यस्थता वाली प्रक्रिया पर क़ाबू पाने के लिए इंटरनेट को टुकड़ों में बांटा जा रहा है.

अमेरिका स्थित बिग टेक कंपनियों ने रूस के सॉवरिन इंटरनेट पर लोगों, चुनावों और समाज को नियंत्रित करने का आरोप लगाया है. दूसरी ओर रूस ने अमेरिका पर राष्ट्रीय और साइबर सुरक्षा को लेकर आक्रामक रणनीति अपनाने का इल्ज़ाम लगाते हुए ख़ुद को इससे सुरक्षित रखने की क़वायद पर ज़ोर दिया है

भरोसे में आई ये खाई चौड़ी होती जा रही है. इसके सबूत भी दिखाई दे रहे हैं. अमेरिका स्थित बिग टेक कंपनियों ने रूस के सॉवरिन इंटरनेट (Runet) पर लोगों, चुनावों और समाज को नियंत्रित करने का आरोप लगाया है. दूसरी ओर रूस ने अमेरिका पर राष्ट्रीय और साइबर सुरक्षा को लेकर आक्रामक रणनीति अपनाने का इल्ज़ाम लगाते हुए ख़ुद को इससे सुरक्षित रखने की क़वायद पर ज़ोर दिया है. जवाबी तौर पर रूस ने मेटा के फ़ेसबुक और इंस्टाग्राम और ट्विटर की पहुंच बाधित कर दी है. एपल, माइक्रोसॉफ़्ट और नेटफ़्लिक्स ने भी रूस में अपनी मौजदूगी सीमित कर ली है.

इस सिलसिले में 2 कंपनियों- एपल और गूगल के दबदबे की मिसाल ले सकते हैं. दोनों कंपनियां बाज़ार पर अपने दबदबे के बूते लोगों को अपने इकोसिस्टम के दायरे में फांस लेती हैं. ये हालात तमाम क्षेत्रों और उपकरणों के मामले में उपभोक्ताओं, प्रतिस्पर्धा और नवाचार के लिए नुक़सानदेह हैं. इंटरनेट के इन पहरेदारों को मुक्त, स्वतंत्र और सहयोगकारी डिजिटल बाज़ारों को बढ़ावा देना चाहिए. साथ ही नागरिकों को केंद्र में रखते हुए तमाम तरह की पहल शुरू करनी चाहिए.

नियामक व्यवस्थाओं में ख़ामियों के चलते डिजिटल बाज़ारों के शासन-प्रशासन में किसी तरह की ढिलाई कतई मंज़ूर नहीं की जा सकती. देशों की सरहदों के आर-पार निजी डेटा के कारोबार के ज़रिए नागरिकों के अधिकारों और पसंद को चोट पहुंचाने की इजाज़त नहीं दी जा सकती. बड़ी तकनीकी कंपनियों की बाज़ार शक्ति को सीमित करने के लिए घरेलू विकल्पों की दरकार है. डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म सेवाओं को बाधित करने वाले व्यवस्थागत मसलों का निपटारा ज़रूरी है. इससे हमें अपने ब्राउज़र्स, वर्चुअल असिस्टेंट्स और मैसेजिंग या सोशल मीडिया ऐप्स को तटस्थ और पूर्वाग्रह रहित बनाने में मदद मिल सकेगी.

डेटा सुरक्षा नियमन

भारत दुनिया में मुक्त इंटरनेट के सबसे बड़े बाज़ारों में से एक है. इस नाते भारत डिजिटल अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने के लिए निजी डेटा को सुरक्षित रखते हुए डेटा सुरक्षा के एक व्यापक ढांचे पर काम कर रहा है. निजी डेटा सुरक्षा बिल पर दो वर्षों की चर्चा के बाद संयुक्त संसदीय समिति ने 16 दिसंबर 2021 को अपनी रिपोर्ट पेश की. इस सिलसिले में बनने वाले नियमों में सुरक्षा मानकों के कठोर उपायों को अमल में लाए जाने पर ज़ोर दिया जा रहा है. ये एक स्वागतयोग्य क़दम है. दरअसल डेटा सुरक्षा क़ानूनों के ‘सुनहरे मानकों’ जैसे जनरल डेटा प्रोटेक्शन रेगुलेशन (GDPR) के मुक़ाबले भारत के नियम-क़ायदे कमज़ोर हैं. डेटा की मदद से तैयार मूल्य के आवंटन को ज़्यादा से ज़्यादा न्यायोचित बनाने के लिए विदेशी सरकारों द्वारा भारतीय डेटा पर नाजायज़ तरीक़े से पहुंच बनाने की क़वायद से बचाव सुनिश्चित करना ज़रूरी है. भारत को स्मार्ट गैजेट्स, वस्तुओं और मशीनरी में तैयार उपभोक्ता और कॉरपोरेट डेटा के इस्तेमाल के अधिकारों और दायित्वों को स्पष्ट रूप से सामने रखना चाहिए. पहले से ज़्यादा स्मार्ट और आपस में जुड़े उपकरणों का उपयोग करने वालों के लिए उनके द्वारा तैयार किए गए डेटा तक पहुंच सुनिश्चित किया जाना चाहिए. अगर वो इसे दूसरी कंपनियों के साथ साझा करना चाहें तो उन्हें इसकी भी सहूलियत मिलनी चाहिए.

डेटा की मदद से तैयार मूल्य के आवंटन को ज़्यादा से ज़्यादा न्यायोचित बनाने के लिए विदेशी सरकारों द्वारा भारतीय डेटा पर नाजायज़ तरीक़े से पहुंच बनाने की क़वायद से बचाव सुनिश्चित करना ज़रूरी है. 

हमारे पास ये विकल्प है कि हम यथास्थिति बरकरार रखें और सिर्फ़ ज़ुबानी जमाख़र्च करते रहें. इसके उलट हम वैश्विक स्तर पर अपनाए जा रहे बेहतरीन तौर-तरीक़ों को भी अपना सकते हैं. इस तरह हम साझा, स्वतंत्र, ग़ैर-राजनीतिक और तटस्थ डिजिटल साइबर इंफ्रास्ट्रक्चर खड़ा कर सकते हैं. साथ ही मज़बूत एलगोरिदमिक ऑडिट ढांचा और क़ानून पालना के मानक भी तैयार कर सकते हैं. समाज में फ़ैसले लेने की इंसानी प्रक्रिया की जगह आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस (AI) और डीप एनालिटिक्स तकनीक की अहमियत लगातार बढ़ती जा रही है. ऐसे में मशीन लर्निंग एलगोरिदम्स, क़ायदों और नियमनों के खुलेपन, नैतिकता, उद्देश्य और दायित्व को लेकर तरह-तरह के सवाल खड़े किेए जाने लगे हैं. स्वचालित निर्णय-प्रक्रिया को पूर्वाग्रहमुक्त और भेदभावपूर्ण नतीजों से बचाने के लिए एलगोरिदम्स का पारदर्शी होना अनिवार्य है.

​बिग टेक प्लेटफ़ॉर्मों पर नकेल कसने के लिए एलगोरिदम की प्रक्रिया में पारदर्शिता लाना ज़रूरी है. उनके द्वारा तैयार रैंकिंग्स-  जैसे शीर्ष पर दिखाई देने वाले समाचारों या सुझाए गए उत्पादों- स्पष्ट व्याख्या पर आधारित होने चाहिए. इसके लिए डेटा साझा करने की प्रक्रिया की बाधाएं दूर करना ज़रूरी है. साथ ही, विभिन्न क्षेत्रों में सूचनाओं के आदान-प्रदान से जुड़े मानकों का विकास भी निहायत ज़रूरी  है.

आत्मनिर्भर बनने के लिए सरकार को इन फ़र्मों की मदद करते हुए उन्हें आर्थिक सहायता पहुंचानी चाहिए. इससे ये फ़र्म AI के अत्याधुनिक ऐप के काम को आगे बढ़ा सकेंगे. इस सिलसिले में चीन के बायडू, अलीबाबा, टेंसेंट, आईफ़्लाईटेक और वीचैट या रूस के यांडेक्स (रूसी गूगल), वीके (रूसी फ़ेसबुक) या रुनेट (रूसी इंटरनेट) से चंद सबक़ सीखे जा सकते हैं.

आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस (AI) आज धरती पर बौद्धिक कौशल का सबसे प्रचलित स्वरूप बन गया है. इससे इंसानी नस्ल का भविष्य प्रभावित हो रहा है. दुनिया में आर्थिक प्रतिस्पर्धा और राष्ट्रीय सुरक्षा के क्षेत्र में जारी वर्चस्व की लड़ाई में फ़तह हासिल करने के लिए AI में सबसे आगे निकलना ज़रूरी है. टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में दमदार, आत्मनिर्भर और वैश्विक ताक़त बनने के लिए भारत को राष्ट्रीय नज़रिए से काम करना होगा. भारत को 2025 तक तकनीक और नवाचार में राष्ट्रीय स्तर पर अपना परचम लहराने वालों की एक टीम तैयार करनी होगी. यही टीम AI के क्षेत्र में हमारी अगुवाई करेगी. आत्मनिर्भर बनने के लिए सरकार को इन फ़र्मों की मदद करते हुए उन्हें आर्थिक सहायता पहुंचानी चाहिए. इससे ये फ़र्म AI के अत्याधुनिक ऐप के काम को आगे बढ़ा सकेंगे. इस सिलसिले में चीन के बायडू, अलीबाबा, टेंसेंट, आईफ़्लाईटेक और वीचैट या रूस के यांडेक्स (रूसी गूगल), वीके (रूसी फ़ेसबुक) या रुनेट (रूसी इंटरनेट) से चंद सबक़ सीखे जा सकते हैं.

स्टार्ट अप्स के ज़रिए तकनीकी नवाचार को प्रोत्साहित करने की ज़रूरत

विश्व मंच पर अपना सिक्का जमा चुकी सर्वश्रेष्ठ कंपनियों के मानकों के हिसाब से आगे बढ़ना ही कामयाबी का इकलौता तरीक़ा है. मिसाल के तौर पर यूरोपीय संघ के नए डिजिटल बाज़ार अधिनियम में कई ऐसे पहलू हैं जिन्हें भारत भी अपना सकता है. हालांकि राजनीतिक आम सहमति के बग़ैर ये मुमकिन नहीं होगा. सर्च इंजनों पर एकाधिकार और ऐप स्टोर्स या उपकरणों पर महज़ 2 कंपनियों के क़ब्ज़े की बदौलत ये प्लेटफ़ॉर्म इंटरनेट तक पहुंच बनाने की क़वायद को नियंत्रित करते हैं. ऐसे में भारत को घरेलू स्तर पर स्टार्ट अप्स के ज़रिए तकनीकी नवाचार को प्रोत्साहित करना चाहिए. इसके लिए मज़बूत बुनियादी ढांचा और मुक्त APIs और साइबर सुरक्षा का कमांड सेंटर तैयार करना ज़रूरी है.

भारत को घरेलू स्तर पर स्टार्ट अप्स के ज़रिए तकनीकी नवाचार को प्रोत्साहित करना चाहिए. इसके लिए मज़बूत बुनियादी ढांचा और मुक्त APIs और साइबर सुरक्षा का कमांड सेंटर तैयार करना ज़रूरी है.

साइबर संसार से जुड़े न्यायशास्त्र को नए सिरे से गढ़ने के लिए फ़ौरन क़दम उठाने होंगे. तत्काल ये देखना होगा कि साइबर जगत में वैधानिकता हासिल करने में क़ानूनों के ज़रिए किस तरह की मदद मिल सकती है. इस क्षेत्र में क़ानूनी ख़ामियों को दूर करना भी बेहद ज़रूरी है. इन ज़िम्मेदारियों को महज़ शिगूफ़ा बना देने से राष्ट्रीय स्तर पर अस्तित्व का ख़तरा पैदा हो सकता है. इससे सोच-विचार करने की हमारी क्षमता प्रभावित हो सकती है. भारत के सामने अपनी तकनीकी नीति को शक्तिशाली और नवाचार के अनुकूल और सुरक्षित बनाने का विराट अवसर है. इससे राष्ट्रीय संप्रभुता की सुरक्षा, निष्पक्ष प्रतिस्पर्धा और समावेशी नवाचार के विस्तार के साथ-साथ उपभोक्ता अधिकारों, निजता, बाज़ार कुशलता, आर्थिक वृद्धि और इंसानी तरक़्की सुनिश्चित की जा सकती है.

ऐसे में ये सवाल जस का तस है कि क्या हम आत्मनिर्भर इंटरनेट के लिए तैयार हैं?

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