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ये लेख हमारी सीरीज़, पोखरण के 25 साल: भारत के एटमी सफ़र की समीक्षा, का एक हिस्सा है.
आज जब भारत, पोखरण II एटमी परीक्षण की 25वीं सालगिरह मना रहा है, तो परमाणु हथियार आज भी अंतरराष्ट्रीय राजनीति का केंद्र बने हुए हैं. यूक्रेन के ख़िलाफ़ इस वक़्त चल रहे युद्ध के दौरान रूस ने कई बार परमाणु हमले की धमकी दी, जिससे दुनिया बेहद नाराज़ हुई. परमाणु हथियारों की तबाही लाने वाली भयावह क्षमता ने लगातार चिंताओं और आशंकाओं को बनाए रखा है और विश्व राजनीति पर इसका लंबे समय तक गहरा असर रहा है. हम इस बात की उम्मीद कर सकते हैं कि मौजूदा भू-राजनीतिक पेचीदगियां, जो परमाणु हथियारों के जोखिमों और चुनौतियों से भरी हैं, वो परमाणु हथियारों पर नियंत्रण और एटमी अप्रसार की व्यवस्था और परमाणु निरस्त्रीकरण के भविष्य पर गहरा असर डालती रहेंगी. निश्चित रूप से भारत इन अधर में लटके निष्कर्षों से ख़ुद को अलग नहीं रख सकता है. सवाल ये है कि परमाणु हथियारों पर नियंत्रण के लिए भारत क्या कर सकता है?
जब भारत ने 1998 में परमाणु बम का परीक्षण किया था, तो बड़ी ताक़तों के बीच मुक़ाबला दुनिया के केंद्र में था और परमाणु हमले की धमकियों के बीच सैन्य ताक़त का इस्तेमाल देशों की सरहदें बदलने के लिए किया जा रहा था. इसके बाद भी दुनिया ने देखा था कि 11 और 13 मई 1998 को एटमी धमाके करने के फ़ौरन बाद भारत ने अपने आप ही भविष्य में परमाणु परीक्षण न करने का फ़ैसला न करने का एलान किया था. इस तरह, भारत ने दुनिया को विश्वास दिलाने वाला एक अहम क़दम उठाया था कि वो भविष्य में कोई परमाणु परीक्षण तब तक नहीं करेगा, जब तक उसके राष्ट्रीय हितों को कोई ख़तरा न हो. भारत द्वारा परमाणु परीक्षण न करने के ऐलान के पीछे की वजह हथियारों के होड़ की भारी क़ीमत से बचना और सामरिक स्थिरता में सुधार लाना थी. इससे परमाणु युद्ध का ख़तरा सीमित हो जाता है, जिसे कोई भी देश नहीं लड़ना चाहता. शस्त्र नियंत्रण का मक़सद, ‘हालात की अंतर्निहित स्थिरता में सुधार लाना’ और युद्ध के कारणों को कमज़ोर करना था.
आज़ादी के बाद से ही भारत, निरस्त्रीकरण और शस्त्र नियंत्रण का कट्टर समर्थक रहा है. परमाणु परीक्षणों पर पाबंदी लगाने और परमाणु हथियार बनाने के लिए ज़रूरी तत्वों के उत्पादन में कटौती का प्रस्ताव करने वाला भारत दुनिया का पहला देश था.
दिलचस्प बात ये है कि ये पहली बार नहीं था जब भारत ने बड़ी सक्रियता से हथियारों पर क़ाबू पाने के उपायों का समर्थन किया था. आज़ादी के बाद से ही भारत, निरस्त्रीकरण और शस्त्र नियंत्रण का कट्टर समर्थक रहा है. परमाणु परीक्षणों पर पाबंदी लगाने और परमाणु हथियार बनाने के लिए ज़रूरी तत्वों के उत्पादन में कटौती का प्रस्ताव करने वाला भारत दुनिया का पहला देश था. 1963 में भारत ने आंशिक परीक्षण पर प्रतिबंध की संधि पर दस्तख़त करके उस पर मुहर लगाई थी. इस संधि के तहत पृथ्वी के वातावरण में, बाहरी अंतरिक्ष और पानी के नीचे परमाणु परीक्षणों पर रोक लगाई गई थी. हालांकि, परमाणु अप्रसार संधि (NPT) को लेकर भेदभावपूर्ण राजनीति और NPT की धारा VI के प्रति परमाणु शक्ति संपन्न देशों की प्रतिबद्धता न होने के कारण, शस्त्र नियंत्रण के उपायों का भारत द्वारा बिना शर्त समर्थन करने के उपायों को झटका लगा.
इसके बावजूद 1998 के परमाणु परीक्षणों के बाद भारत ने 1999 में अपने परमाणु सिद्धांत के ड्राफ्ट में बिना शर्त पहले एटमी हमला न करने (NFU) की नीति पर अमल की बात कही. 2003 में भारत ने अपनी आधिकारिक न्यूक्लियर डॉक्ट्रिन में भी पहले परमाणु हमला न करने की बात दोहराई. पहले एटमी हमला न करने की भारत की नीति का आग़ाज़ 1994 में हुआ था, जब उसने पाकिस्तान के साथ ‘नो फर्स्ट यूज़ ऑफ न्यूक्लियर कैपेबिलिटी’ का समझौता करने का प्रस्ताव दिया था. अफ़सोस की बात ये है कि शीत युद्ध के दौर के मुश्किल तजुर्बों ने कोई अर्थपूर्ण सबक़ नहीं सिखाए और दक्षिण एशियाई पड़ोसियों के बीच नो फर्स्ट यूज़ (NFU) की द्विपक्षीय संधि नहीं हो सकी.
दक्षिणी पूर्वी एशिया के भौगोलिक विस्तार को बढ़ाते हुए देखें तो भारत और चीन दोनों एटमी ताक़त से लैस पड़ोसी हैं और दोनों देशों के बीच 1950 के दशक से ही सीमा विवाद के चलते संबंध अस्थिर बने हुए हैं. एटमी शक्ति वाले दोनों देश जटिल रूप से एक दूसरे पर निर्भर हैं, जो व्यापार के लिहाज़ से दोनों देशों के लिए फ़ायदेमंद हो सकती है. लेकिन, सीमा के अनसुलझे विवाद ने भारत और चीन के रिश्तों में ख़लल डाला है और आम तौर पर दोनों देशों में एक दूसरे के प्रति अविश्वास का भाव रहता है. ख़ुद को एशिया में दबदबे वाले देश के तौर पर स्थापित करने की चीन की महत्वाकांक्षा, भारत की ऐसी ही महत्वाकांक्षा से टकराती है. इस प्रतिद्वंदिता ने दोनों देशों के बीच व्यापक सहयोग में अड़ंगा लगा रखा है और दुश्मनी वाली महत्वाकांक्षाओं को बल दिया है. चीन ने भारत के एटमी शक्ति वाले राष्ट्र के दर्जे को भी मान्यता नहीं दी है. और इसलिए, वो भारत के साथ परमाणु हथियारों पर नियंत्रण के किसी भी उपाय में साझेदारी को लेकर अनिच्छुक बना हुआ है.
दक्षिणी एशिया परमाणु हथियारों की जटिल राजनीति के केंद्र में है. भारत के दो पड़ोसी देश ऐसे हैं जो परमाणु हथियारों से लैस हैं और उसके प्रति दुश्मनी भरा नज़रिया रखते हैं. भारत इन दोनों देशों के साथ युद्ध लड़ चुका है और अभी भी ग़ैर पारंपरिक युद्ध लड़ रहा है. ऐसे में इस क्षेत्र को असरदार परमाणु शस्त्र नियंत्रण के उपायों की सख़्त ज़रूरत है, जिससे एटमी स्थिरता, परमाणु हमले का जोखिम घटाने और परमाणु हथियारों को लेकर विश्वास बढ़ाने का काम किया जा सके. इस फौरी ज़रूरत का आधार कई कारण हैं. पहला, भारत और पाकिस्तान में परमाणु युद्ध की संभावना को लेकर बिल्कुल अलग अलग सोच है. भारत में ये सोच है कि पाकिस्तान, भयंकर पलटवार के डर से परमाणु युद्ध नहीं शुरू करेगा. इसीलिए, पाकिस्तान के साथ पारंपरिक और ग़ैर-पारंपरिक संघर्ष किया जा सकता है. और, चूंकि पाकिस्तान के पास कोई तय न्यूक्लियर डॉक्ट्रिन नहीं है, जो उसके एटमी हमले की तैयारी को रेखांकित करे, तो दोनों देशों के बीच परमाणु युद्ध किन हालात में शुरू हो सकता है, इसे लेकर कई तरह की अटकलें लगाई जाती रही हैं. हो सकता है कि न्यूक्लियर डेटरेंस यानी परमाणु युद्ध का भय दिखाने के लिए ये बात उपयोगी हो. लेकिन, इससे परमाणु हमले का ख़तरा भी बढ़ जाता है. अतीत में पाकिस्तान की तरफ़ से कई बार परमाणु हमले की धमकियां दी गई है, जिसने सामरिक सुरक्षा और स्थिरता को काफ़ी नुक़सान पहुंचाया है. पाकिस्तान के उकसावे वाले बयान, दक्षिणी एशिया में परमाणु हमले के ख़तरे को काफ़ी नज़दीकी बना देते हैं और इनसे बेइरादा हादसों का ख़तरा भी बढ़ जाता है. चीन और पाकिस्तान द्वारा अपने एटमी हथयारों के ज़ख़ीरे का लगातार आधुनिकीकरण करने और परमाणु हथियारों के क्षेत्र में नज़दीकी गठजोड़ ने भारत के सामरिक और सुरक्षा हलकों में गंभीर चिंताओं को जन्म दिया है.
एटमी हथियारों से लैस देश, चूंकि सबसे घातक हथियारों के मालिक होते हैं, ऐसे में उनकी ये ज़िम्मेदारी बनती है कि वो समझदारी और ख़ुद पर क़ाबू रखने वाला बर्ताव करें. भारत ने हमेशा से अपने परमाणु हथियारों को लेकर संयम वाला बर्ताव किया है और परमाणु अप्रसार की व्यवस्था के नियम क़ायदों का पालन किया है. एक उत्तरदायी परमाणु शक्ति के तौर पर भारत विश्वास जगाने वाले उपायों को आगे बढ़ाने की पहल कर सकता है, जो इस क्षेत्र के एटमी ताक़त से लैस सभी देशों के लिए फ़ायदेमंद और हासिल करने लायक़ हो. इसके लिए एक त्रिपक्षीय मंच भी बनाया जा सकता है, जिसमें भारत, पाकिस्तान और चीन शामिल हों. इसी तरह, बैलिस्टिक मिसाइल डिफेंस सिस्टम से जुड़े मुद्दों, मल्टिपल इंडिपेंडेंटली टारगेट रि-एंट्री व्हीकल्स (MIRV) तकनीक, व्यापक परमाणु परीक्षण प्रतिबंध संधि (CTBT) और फिसाइल मैटीरियल कट-ऑफ ट्रीटी (FMCT) से जुड़े मुद्दों पर चर्चा की जा सकती है. भविष्य में परमाणु हथियारों के परीक्षण को प्रतिबंधि करने के लिए CTBT एक उपयोगी ज़रिया हो सकती है और इससे शस्त्र नियंत्रण को प्रभावी बनाने का काम भी लिया जा सकता है. इसी तरह, FMCT भविष्य में फिसाइल मटेरियल यानी परमाणु हथियार बनाने में काम आने वाले पदार्थ के उत्पादन को प्रतिबंधित करती है. पाकिस्तान और चीन जैसे परमाणु शक्ति संपन्न देशों द्वारा जिस तरह अपने एटमी हथियारों के ज़ख़ीरे को बढ़ाया जा रहा है, उस पर क़ाबू पाने के लिए इस संधि की फ़ौरी ज़रूरत है.
भारत और पाकिस्तान में परमाणु युद्ध की संभावना को लेकर बिल्कुल अलग अलग सोच है. भारत में ये सोच है कि पाकिस्तान, भयंकर पलटवार के डर से परमाणु युद्ध नहीं शुरू करेगा. इसीलिए, पाकिस्तान के साथ पारंपरिक और ग़ैर-पारंपरिक संघर्ष किया जा सकता है.
इनके सहायक क़दम के तौर पर थिंक टैंक, विश्वविद्यालय और दूसरे अकादमी संस्थान दक्षिणी एशिया में शस्त्र नियंत्रण पर ज़ोर देते हुए इनकी अहमियत का सुझाव दे सकते हैं. दक्षिणी एशिया में पेचीदा परमाणु राजनीति और विवादों के कारण भारत के लिए एटमी हथियारों पर नियंत्रण की दिशा में कोई भी क़दम उठाना निश्चित रूप से एक बड़ी चुनौती है. हालांकि, भारत का परमाणु सफ़र एक उत्तरदायी देश के तौर पर शुरू हुआ था और दुनिया इस बात पर भरोसा बनाए रखना चाहेगी कि भारत आज भी एक ज़िम्मेदार एटमी राष्ट्र है. ख़ास तौर से तब और जब दक्षिणी एशिया में शस्त्र नियंत्रण में बेहद कम दिलचस्पी है.
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