Published on Sep 04, 2021 Updated 0 Hours ago

एक तरफ़ कोरोना वायरस ‘तीसरी लहर’ के रूप में फिर से उभरने की चेतावनी दे रहा है, तो दूसरी तरफ़ चीन ने हिमालय की चोटियों पर मोर्चे बना लिए हैं, जिससे वो अपने रियल एस्टेट और क्षेत्र में इज़ाफ़ा कर सके.

कोविड-19 महामारी के दौरान भारत की सामरिक सुरक्षा संबंधी विकल्प और चीन की चुनौती
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2020 के दशक की शुरुआत से ही भारत अपने यहां वायरस के भयंकर प्रकोप और सीमा पर बेलगाम होती पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (PLA) की चुनौती का सामना कर रहा है. पिछले साल जब भारत उस महामारी से निपटने की कोशिश कर रहा था, जो वुहान से फैली थी, उसी समय उसे हिमालय की चोटियों पर चीन के आक्रमण से निपटने के लिए अपने सैन्य बलों की तैनाती करनी पड़ी थी. दोनों ही संकटों में लोगों की जान गई और अभी भी ये ख़तरे टले नहीं हैं. एक तरफ़ तो कोरोना वायरस, ‘तीसरी लहर’ के रूप में सिर उठाने की चेतावनी दे रहा है. वहीं, दूसरी तरफ़ चीन ने तो चोटियों पर मोर्चेबंदी के लिए खाइयां खोद डाली हैं, जिससे वो उन रियल एस्टेट और क्षेत्रों पर क़ब्ज़ा कर सके, जो चीन की नज़र में उसके बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव (BRI) के लिए ज़रूरी हैं, और जिनसे उसे अरब सागर में हर मौसम में चलने वाले बंदरगाह तक पहुंच हासिल हो जाएगी. ये एशिया का जियोपॉलिटिकल नक़्शा बदलने की चीन की व्यापक योजना के लिहाज़ से बेहद अहम है. हालांकि, भारत और चीन ने सीमा पर पीछे हटने जैसे मामूली क़दम उठाए हैं. लेकिन, सैन्य और कूटनीतिक स्तर पर हो रही वार्ताओं से कोई ठोस नतीजा अब तक नहीं निकला है.

जून 2021 में ख़बरें आईं कि चीन, तिब्बत सीमा पर अपना मूलभूत ढांचा मज़बूत बना रहा है. इसके बाद क़रीब दो लाख भारतीय सैनिकों को सीमा पर तैनात करना पड़ा है. यानी 2020 की तुलना में भारत ने 40 प्रतिशत ज़्यादा सैनिक इस साल तैनात किए हैं. भारत के लिए चीन सबसे बड़ा ख़तरा बन गया है. अपनी उत्तरी सीमा पर चीन के रूप में एक विस्तारवादी और लड़ाका पड़ोसी से निपटने के लिए भारत को न सिर्फ़ सुरक्षा की अपनी परिकल्पना को नए सिरे से ढालना पड़ा है, बल्कि उसे अपने राजनीतिक और कूटनीतिक संसाधन भी नए सिरे से झोंकने पड़े हैं. अभी हाल के वर्षों तक हालात ऐसे नहीं थे.

भारत के लिए चीन सबसे बड़ा ख़तरा बन गया है. अपनी उत्तरी सीमा पर चीन के रूप में एक विस्तारवादी और लड़ाका पड़ोसी से निपटने के लिए भारत को न सिर्फ़ सुरक्षा की अपनी परिकल्पना को नए सिरे से ढालना पड़ा है, बल्कि उसे अपने राजनीतिक और कूटनीतिक संसाधन भी नए सिरे से झोंकने पड़े हैं. 

1947 में आज़ादी मिलने के बाद से ही भारत के ज़हन में पाकिस्तान हावी रहा है. भारत के जम्मू-कश्मीर राज्य के एक हिस्से पर पाकिस्तान का अवैध क़ब्ज़ा, भारत से असमान युद्ध लड़ने की नीति के तहत पाकिस्तान द्वारा सीमा पार से आतंकवादी भेजना और उसके परमाणु प्रसार को देखते हुए हमेशा भारत ने पाकिस्तान को अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए सबसे बड़े ख़तरे के रूप में देखा. अपनी भड़काऊ हरकतों के बावजूद, चीन लंबे समय से भारत की बारीक़ पड़ताल से बचता रहा. जब मई 1992 में तत्कालीन राष्ट्रपति आर. वेंकटरमण चीन की राजकीय यात्रा पर गए थे, तभी चीन ने परमाणु परीक्षण किया था. इस एटमी परीक्षण का साफ़ मक़सद भारत को संदेश देना था. लेकिन, भारत के सुरक्षा तंत्र ने इसकी खुलकर आलोचना नहीं की थी. भारत के तत्कालीन रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडिस ने इस सदी की शुरुआत में भविष्यवाणी सी करते हुए कहा था कि, ‘भारत के लिए पाकिस्तान नहीं, बल्कि चीन, सबसे बड़ा ख़तरा है.’ हालांकि, तब फर्नांडिस के इस बयान को भारत के सामरिक समुदाय के बीच बहुत ज़्यादा तवज़्ज़ो नहीं दी गई थी.

नेताओं ने दिया दुनिया को धोखा

अपने सार्वजनिक बयानों में चीन के नेता हमेशा कहते थे कि उनका पूरा ध्यान अपनी जनता की भलाई पर है. चीन के नेता हमेशा इस बात पर ज़ोर दिया करते थे कि चीन एक ज़िम्मेदार क़िस्म का देश है, जो हमेशा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर टकराव से बचता आया है. आज पीछे मुड़कर देखें, तो चीन के नेता दुनिया को ये धोखा देने में पूरी तरह सफ़ल रहे. रिटर्न की ख़्वाहिश रखने वाले अमेरिका के निवेशकों से लेकर यूरोप और एशिया के सियासी नेताओं तक, हर कोई चीन की आर्थिक तरक़्क़ी में से अपना हिस्सा चाहता था. उन सबने चीन के इस छलावे पर आंख मूंदकर यक़ीन किया. भारत के लिए चीन के साथ रिश्ते बनाकर चलना इसलिए भी ज़रूरी था, क्योंकि दोनों देश 1962 में सीमा पर एक युद्ध लड़ चुके थे. इसके बाद दोनों देशों के रिश्तों पर जमी बर्फ़ चौथाई सदी बाद जाकर पिघली थी. जब 1988 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी चीन के दौरे पर गए, तब भारत और चीन के बीच द्विपक्षीय शांति और स्थिरता के समझौतों की राह खुली. वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC) पर हालात स्थिर करने के लिए ये समझौते 1993 और 1996 में हुए थे.

सीमा पर स्थिरता क़ायम होने के बाद दोनों देशों के बीच व्यापार और सांस्कृतिक संबंध फलने- फूलने लगे. सीमा समझौते के तहत ये सहमति बनी थी कि दोनों देश सरहद पर भारी तादाद में सेनाओं की तैनाती नहीं करेंगे, और दोनों ही देश इकतरफ़ा तौर पर सीमा पर यथास्थिति बदलने की कोशिश भी नहीं करेंगे. भारत के नीति नियंताओं को लगा कि इससे ‘हमारे दौर में अमन क़ायम रहेगा.’ मूर्खों की तरह खुली आंखों से ख़्वाब देखने का नतीजा ये हुआ कि भारत ने अपने बहुपक्षीय नौसैनिक युद्धाभ्यास कम कर दिए और चीन के साथ लगने वाली सीमा के अहम इलाक़ों में मूलभूत ढांचे का विकास भी धीमा कर दिया. मनमोहन सिंह सरकार के दौर (2004- 2014) के दौरान अहम लोगों का ये मानना था कि अगर भारत के सुरक्षा संबंधी हित इसी में हैं कि वो चीन को छेड़े नहीं.

भारत के नीति नियंताओं को लगा कि इससे ‘हमारे दौर में अमन क़ायम रहेगा.’ मूर्खों की तरह खुली आंखों से ख़्वाब देखने का नतीजा ये हुआ कि भारत ने अपने बहुपक्षीय नौसैनिक युद्धाभ्यास कम कर दिए और चीन के साथ लगने वाली सीमा के अहम इलाक़ों में मूलभूत ढांचे का विकास भी धीमा कर दिया.  

इन हालात में बदलाव 2013 में जाकर आया, जब डेपसांग में चीन के सैनिकों की घुसपैठ का कूटनीतिक और सैन्य स्तर पर जवाब दिया गया. लेकिन, यहां भी सरकार के ऊपरी स्तर पर बहुत चर्चा और वाद- विवाद हुआ. इस मामले में तस्वीर 2014 में जाकर साफ़ हुई, जब नवनिर्वाचित प्रधानमंत्री नरेंद्र मदी के नेतृत्व वाले भारत को लद्दाख में चीन की घुसपैठों का उस वक़्त सामना करना पड़ा, जब चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग, शिखर सम्मेलन के लिए भारत आए हुए थे. एक के बाद एक हुई घुसपैठ की दो घटनाओं से ये कहना सही होगा कि, अपने उत्तरी पड़ोसी को लेकर भारत की सोच में ये बदलाव उस पर थोप दिया गया था.

बदलती विश्व व्यवस्था और क्वॉड देश

हाल के वर्षों में भारत, चीन को लेकर अपने नज़रिए में उस वक़्त भी काफ़ी हद तक बदलाव करने में कामयाब रहा है, जब विश्व व्यवस्था बदल रही है. अमेरिका और भारत के बीच साझेदारी तेज़ी से आगे बढ़ी है. अमेरिका ने, जम्मू-कश्मीर के मसले का अंतरराष्ट्रीयकरण करने की चीन की कोशिशों को रोकने में भारत की मदद की है. वो भारत के परमाणु विश्व व्यवस्था का हिस्सा बनने की कोशिशों में भी मददगार बना है और पाकिस्तान पर आतंकवाद के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने का दबाव बनाया है. क्वॉड समूह के रूप में हिंद प्रशांत क्षेत्र को मुक्त और समावेशी बनाने की भारत और अमेरिका की कोशिशों में, जापान और ऑस्ट्रेलिया भी साझीदार बने हैं. अब क्वॉड ,चीन के बीआरआई के विकल्प उपलब्ध कराने की दिशा में काम कर रहा है और एक साथ कई लचीली व्यवस्थाएं बनाने की कोशिश भी कर रहा है. इसमें तकनीक की आपूर्ति श्रृंखला शामिल है. सबके लिए क्वॉड वैक्सीन की योजना भी शुरू होने वाली है, और दुनिया के अहम मसलों पर अन्य देश भी क्वाड के साझीदार बनने पर विचार कर रहे हैं.

बंगाल की खाड़ी में ‘ला पेरूज़’ नौसैनिक युद्धाभ्यास के ज़रिए फ्रांस भी क्वॉड सदस्यों के साथ जुड़ा है और ऑस्ट्रेलिया फ्रांस और भारत के बीच मंत्रि-स्तरीय संवाद इस बात की गवाही है कि क्वॉड प्लस का विचार और उसके आदर्श दिनों-दिन मज़बूत हो रहे हैं. ब्रिटेन ने 5G और उभरती तकनीकों से जुड़े ऐसे मसलों, जिनका सामूहिक सुरक्षा पर असर हो सकता है, से निपटने के लिए ‘डेमोक्रेसी 10’ के नाम से दस लोकतांत्रिक देशों का समूह बनाने का प्रस्ताव रखा है, जिसमें क्वॉड देश शामिल हैं. ब्रिटेन ने अपने आर्थिक, सुरक्षा और कूटनीतिक हितों की जो हालिया समीक्षा की है, उससे वो आने वाले समय में हिंद प्रशांत क्षेत्र में भारत के साथ संपर्क बढ़ाता दिख सकता है. भारत से सुरक्षा समीकरणों में यूरोपीय देश निश्चित रूप से अहम जगह हासिल कर रहे हैं.

भारत से सुरक्षा समीकरणों में यूरोपीय देश निश्चित रूप से अहम जगह हासिल कर रहे हैं. इस मामले में भारत के बदलते नज़रिए की एक मिसाल नैटो के महासचिव जेन्स स्टोल्टेनबर्ग का रायसीना डायलॉग 2021 में दिया गया वो बयान है, जिसमें उन्होंने सहयोग बढ़ाने पर ज़ोर दिया था.

इस मामले में भारत के बदलते नज़रिए की एक मिसाल नैटो के महासचिव जेन्स स्टोल्टेनबर्ग का रायसीना डायलॉग 2021 में दिया गया वो बयान है, जिसमें उन्होंने सहयोग बढ़ाने पर ज़ोर दिया था. नैटो की नज़र में चीन के उभार का सुरक्षा पर गंभीर प्रभाव पड़ रहा है और वो इस मामले में भारत को एक साझीदार के तौर पर देखता है. प्रधानमंत्री मोदी ने यूरोपीय संघ और उसके 27 सदस्य देशों के साथ ऐतिहासिक पोर्टो शिखर सम्मेलन किया था. इससे दोनों पक्षों के बीच आतंकवाद और समुद्री सुरक्षा को बढ़ावा देने में मदद मिली है. यूरोपीय संघ और भारत के बीच ‘कनेक्टिविटी की साझेदारी’ का मक़सद अन्य देशों की परियोजनाओं को वित्तीय मदद देकर चीन के बीआरआई का विकल्प उपलब्ध कराना है.

अब जबकि भारत पश्चिमी देशों के साथ अपने रिश्तों को नई दिशा और मज़बूती दे रहा है, तो इसमें रूस की भूमिका अहम हो जाती है. अमेरिका के साथ भारत की नज़दीकियों से रूस नाख़ुश है. अगर दुनिया में दो नए ध्रुव उभरते हैं- जिसमें एक तरफ़ अमेरिका और उसके साथी देश और दूसरी तरफ़ चीन और रूस की धुरी हो- तो भारत के लिए दोनों के बीच तालमेल बिठा पाना बहुत मुश्किल हो जाएगा. भारत को इस बात का अच्छे से एहसास है और वो रूस के साथ रिश्ते मज़बूत करने पर काफ़ी ज़ोर दे रहा है, जो पिछले कई दशकों से भारत को हथियारों का सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता रहा है. भारत ने रूस के राष्ट्रपति पुतिन को इस बात के लिए राज़ी करना पड़ा कि भारत के साथ द्विपक्षीय रिश्तों से उन्हें काफ़ी लाभ होगा. पर्दे के पीछे भारत ने अमेरिका और रूस के रिश्ते सुधारने पर भी काफ़ी काम किया है और उसने यूरोपीय संघ को भी ये समझाया है कि रूस को शी जिनपिंग के पाले में धकेलना ख़तरनाक और नुक़सानदेह साबित हो सकता है. उम्मीद है कि बाइडेन और पुतिन के बीच हुए शिखर सम्मेलन से इस दिशा में कुछ संभावनाएं बेहतर हुई होंगी.

ताक़तवर होते चीन की एशिया में अपनी दादागीरी स्थापित करने की योजना और उसके साथ यूरोप में दरार डालकर वहां अपना प्रभुत्व जमाने की कोशिश, भारत की सुरक्षा के लिए सबसे बड़ी चुनौती है. एशियाई सदी का भविष्य हिंद प्रशांत क्षेत्र की तय करेगा. भारत ने अटलांटिक व्यवस्था के अपने साथी भागीदारों को हिंद प्रशांत क्षेत्र में साथ काम करने, और इस क्षेत्र की चुनौतियों से मिलकर निपटने के लिए राज़ी करके काफ़ी चतुराई से काम लिया है.

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