Published on Oct 25, 2023 Updated 0 Hours ago

वैसे तो, सही मायने में भारत में बिजली का बाज़र मौजूद नहीं है, लेकिन पम्प्ड हाइड्रो स्टोरेज (PHS) को लंबी अवधि में कामयाब होने के लिए तकनीकी व्यावहारिकता और पर्यावरण संबंधी लाभ के भरोसे नहीं रह सकता है.

भारत में जल विद्युत की मौजूदा स्थिति

ये लेख हमारी, कॉम्प्रिहेंसिव एनर्जी मॉनिटर: इंडिया एंड  दि वर्ल्ड सीरीज़ का एक भाग है.


1947 में भारत के कुल बिजली निर्माण क्षमता में पनबिजली की हिस्सेदारी 37 प्रतिशत और बिजली उत्पादन में लगभग 53 प्रतिशत थी. 1960 के दशक में कोयले से बिजली उत्पादन ने पनबिजली की हिस्सेदारी घटानी शुरू कर दी और जल विद्युत निर्माण और इसकी क्षमता में नाटकीय ढंग से बदलाव आना शुरू हो गया था. अगस्त 2023 में भारत की 46,865 मेगावाट (MW) पनबिजली बनाने की क्षमता, कुल बिजली निर्माण क्षमता का मोटा-मोटी 11 फ़ीसद हिस्सा थी. 2022-23 में कुल बिजली निर्माण में जल विद्युत की हिस्सेदारी लगभग 12.5 प्रतिशत थी. 2023 भारत के पास सक्रिय पम्प्ड स्टोरेज क्षमता 4745.6 मेगावट थी, और 57,345 मेगावाट पम्प्ड स्टोरेज की क्षमता निर्माण और जांच-परख के अलग अलग चरणों में है.

आज की तारीख़ में पूरी दुनिया में नवीनीकरण योग्य ऊर्जा का सबसे बड़ा स्रोत पनबिजली है. 2021 में दुनिया भर में जल विद्युत निर्माण की स्थापित क्षमता 26 गीगावाट बढ़कर 1360 गीगावाट (GW) पहुंच गई.

आज की तारीख़ में पूरी दुनिया में नवीनीकरण योग्य ऊर्जा का सबसे बड़ा स्रोत पनबिजली है. 2021 में दुनिया भर में जल विद्युत निर्माण की स्थापित क्षमता 26 गीगावाट बढ़कर 1360 गीगावाट (GW) पहुंच गई. दुनिया भर में पनबिजली से 4,250 टेरावाट प्रति घंटे (TWh) स्वच्छ ईंधन निर्मित किया गया था, जो यूरोपीय संघ (EU) की कुल बिजली खपत से डेढ़ गुना अधिक है, जो नवीनीकरण योग्य ऊर्जा के अन्य सभी स्रोतों को मिला दें, तो उनसे भी ज़्यादा है. हालांकि, इतना उत्पादन भी अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (IEA) द्वारा बताए गए उस लक्ष्य से 45 गीगावाट क्षमता कम है, जो 2050 तक दुनिया के औसत वार्षिक तापमान में वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने के लिए आवश्यक है. तापमान में वृद्धि को 2 डिग्री सेल्सियस तक सीमत रखने के लिए हर साल पनबिजली उत्पादन 30 गीगावाट बढ़ाने की ज़रूरत होगी. 2021 में दुनिया भर में स्थापित की गई पनबिजली उत्पादन क्षमता का 80 प्रतिशत अकेले चीन में हुआ था. ग्रिड में 4.7 गीगावाट पम्प्ड स्टोरेज पनबिजली क्षमता जोड़ी गई थी, जो 2020 के मुक़ाबले तीन गुना अधिक थी. 2021 में दुनिया में जल विद्युत उत्पादन क्षमता में केवल 1.9 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई थी, जो पेरिस समझौते के तहत तय किए गए लक्ष्यों को हासिल करने के लिए आवश्यक 2 प्रतिशत सालाना वृद्धि के क़रीब है.

चुनौतियां

विशाल भंडारण क्षमता वाली पनबिजली परियोजनाएं कम कार्बन उत्सर्जन वाली बिजली ज़रूर बनाते हैं, लेकिन, पर्यावरण और सामाजिक लागत के लिहाज़ से ये बेहद महंगे होती हैं. ऐसी परियोजनाओं से हजारों लोग विस्थापित होते हैं. नदी की पारिस्थितिकी (Ecology) में बाधा पड़ती है, बड़े पैमाने पर जंगल काटे जाते हैं. इन परियोजनाओं से जलीय और ज़मीनी जीव जंतुओं को नुक़सान होता है. ये खाद्य व्यवस्थाओं, पानी की क्वालिटी और खेती पर नकारात्मक असर डालते हैं. बड़े  बांधों से पर्यावरण को और सामाजिक रूप से होने वाले नुक़सान की वजह से यूरोप औऱ अमेरिका में बांध हटाने की मुहिम शुरू हो गई. जबकि 1970 के दशक तक ये दोनों बड़े बांधों के निर्माता रहे थे अब उत्तरी अमेरिका और यूरोप में जितने नए बांध बनाए नहीं जा रहे, उससे कहीं ज़्यादा हटाए जा रहे हैं. यहां तक कि विकासशील देशों में जहां अभी भी बांध बनाए जा रहे हैं, वहां इनके निर्माण की गति धीमी पड़ती जा रही है, क्योंकि बांध बनाने की सबसे मुफ़ीद जगहों पर पहले ही काम हो चुका है और नीतिगत तवज्जो और निवेश के लिहाज़ से नवीनीकरण योग्य ऊर्जा के अन्य स्रोत जैसे कि सौर और पवन ऊर्जा हावी हो रहे हैं.

उत्तरी अमेरिका और यूरोप में जितने नए बांध बनाए नहीं जा रहे, उससे कहीं ज़्यादा हटाए जा रहे हैं. यहां तक कि विकासशील देशों में जहां अभी भी बांध बनाए जा रहे हैं, वहां इनके निर्माण की गति धीमी पड़ती जा रही है

हिमालय के नाज़ुक पहाड़ों में जहां भारत की ज़्यादातर नई पनबिजली परियोजनाओं का निर्माण हो रहा है, वहां तबाही लाने वाली बाढ़ और भूस्खलन की बढ़ती घटनाओं ने जल विद्युत योजनाओं से जुड़े जोखिम बढ़ा दिए हैं. फरवरी 2021 में उत्तराखंड के चमोली ज़िले में धौलीगंगा, ऋषिगंगा और अलकनंदा नदियों में अचानक आई बाढ़ ने बहुत लोगों की जान ले ली और कई पनबिजली परियोजनाओं को भारी नुक़सान पहुंचाया था. केंद्रीय बिजली प्राधिकरण (CEA) के मुताबिक़, जुलाई 2023 में भारी बारिश और उसके बाद पनबिजली परियोजनाओं को क्षति के बाद उनको बंद करने से कुल 1.6 अरब रुपयों का नुक़सान हुआ था. वैसे तो 2021 में अचानक आई बाढ़ के कारणों (ग्लेशियर टूटना, एवलांच या भू-स्खलन) को लेकर मतभेद हैं, लेकिन इस बात पर आम सहमति है कि पर्याप्त विश्लेषण किए बग़ैर पनबिजली परियोजनाओं, हाईवे , रेलवे लाइनें बनाने और खनन करने और इन योजनाओं के सामूहिक असर और इनसे तबाही होने का मूल्यांकन करने की अनदेखी करने से तबाही का स्तर बढ़ता जा रहा है.

परियोजनाएं विकसित करने वालों द्वारा पर्यावरण संबंधी चिंताओं की बड़े पैमाने पर अनदेखी और नियामक संस्थाओं द्वारा भरोसेमंद निगरानी और नियमों का अनुपालन न कराने से जोखिमों का ख़तरा बहुत बढ़ गया है. पर, इसका ये मतलब नहीं है कि पनबिजली परियोजनाओं से पल्ला झाड़ लेना चाहिए. भारत में ऐसी कई जल विद्युत परियोजनाएं हैं, जिन्होंने बेहतरीन अंतरराष्ट्रीय मानकों को पूरा किया है. सिक्किम में स्थित तीस्ता-V जलविद्युत स्टेशन को 2019 में जल विद्युत के टिकाऊ होने की अच्छी अंतरराष्ट्रीय मिसाल का दर्जा दिया गया था. 510 मेगावाट का ये बिजली घर नेशनल हाइड्रो पावर  कॉर्पोरेशन  (NHPC) के मालिकाना हक़ वाला और उसी के द्वारा संचालित है. इसने काम के सभी 20 पैमानों पर अंतरराष्ट्रीय स्तर के बेहतरीन मानकों से भी अच्छा प्रदर्शन किया है. भारत में पनबिजली की योजनाओं को टिकाऊ बनाने के लिए सरकार  और उद्योग को सिविल सोसाइटी के साथ संपर्क करके पारदर्शिता को तरज़ीह देनी चाहिए. ख़ास तौर से उन लोगों से जो परियोजना से सीधे तौर पर प्रभावित हों. रिसर्च से पता चलता है कि पवन, सौर और पनबिजली योजनाओं के मिले-जुले मॉड्यूलर समाधान, ऊर्जा के ऐसे वैकल्पिक स्रोत मुहैया कराते हैं, जो पर्यावरण, समाज और वित्तीय रूप से मुफ़ीद होते हैं. बिजली बनाने के लिए नदी का बहाव रोकने वाले बांध निर्मित करने से ज़्यादा बेहतर विकल्प धारा के बीच टरबाइन  पार्क बनाने का है, जिसकी लागत भी बहुत कम आती है. स्थानीय और नदी के बहाव के निचले हिस्से में रहने वाले लोगों की पर्यावरण संबंधी, और सामाजिक आर्थिक चिंताओं को देखते हुए, बड़ी, ‘स्मार्ट’ जल विद्युत परियोजनायें विकसित की जा सकती हैं, जिनसे देश को आर्थिक लाभ होगा. स्मार्ट परियोजनाओं के तकनीकी प्रावधानों से जलीय और ज़मीनी जीव जंतुओं के इकोसिस्टम पर दुष्प्रभावों को भी कम किया जा सकता है. पनबिजली परियोजनाओं की मदद के लिए भारत सरकार ने 25 मेगावाट (MW) से बड़ी परियोजनाओं को नवीनीकरण योग्य ऊर्जा के खांचे में डाला है और पनबिजली ख़रीद के दायित्व (HPO) को ग़ैर सौर ऊर्जा रिन्यूएबल ख़रीद की ज़िम्मेदारी (RPO) के दर्जे में डाल दिया है. परियोजनाओं को उपयोगी बनाने के लिए भारत सरकार ने बिजली के मूल्य और परियोजना की अवधि 40 साल बढ़ाने पर टैरिफ की बैकलोडिंग, क़र्ज़ उतारने की अवधि 18 साल तक बढ़ाने और 2 प्रतिशत के बढ़ते टैरिफ को लागू किया है. इसके अलावा, जल विद्युत परियोजनाओं में मददगार मूलभूत ढांचे जैसे कि सड़कों और पुलों के निर्माण के लिए बजट आवंटन बढ़ाने और बाढ़ के प्रभाव को सीमित करने की सेवाएं भी शुरू की गई हैं.

ग्रिड की स्थिरता में योगदान

नवीनीकरण योग्य ऊर्जा के अन्य स्रोतों जैसे कि पवन और सौर ऊर्जा की तुलना में पनबिजली का सबसे अहम फ़ायदा तो ये है कि इसे कभी भी तुरंत भेजा जा सकता है, इससे बिजली वितरण व्यवस्था पर लोड में उतार-चढ़ाव होने पर जल विद्युत से संतुलन बनाया जा सकता है. भारत में पनबिजली का ये लचीलापन 5 अप्रैल 2020 को देखने को मिला  था, जब ज़्यादातर घरों ने रात के 9 बजे से लेकर नौ बजकर 9 मिनट तक बत्तियां बुझा दी थीं, जिसकी वजह से बिजली की मांग अचानक 31 गीगावाट (GW) गिर गई, तो ग्रिड संचालकों ने पनबिजली की मदद से ग्रिड को फेल होने से संभाला था. जब बत्ती बुझाने का ये सिलसिला चल रहा था, तब जल विद्युत परियोजनाओं से बेहद कम समय में बिजली उत्पादन 68 प्रतिशत तक घटा दिया गया था. ऐसा न होता, तो ग्रिड को संभाला नहीं जा सकता था.

दुनिया भर में 161 गीगावाट पंप हाइड्रो स्टोरेज (PHS) क्षमता वाले केंद्र दुनिया की सबसे विशाल ‘पानी की बैटरी’ का काम करते हैं. ये ग्रिड को स्थिर बनाने में मदद करते हैं, पूरी व्यवस्था के संचालन और उत्सर्जन की लागत कम करते हैं.

पम्प्ड हाइड्रो स्टोरेज (PHS) केंद्र, बांध के ऊपर की तरफ़ जलाशय में बिजली को पानी के रूप में जमा करके रखते हैं, जिसे नीचे की ओर बने जलाशय में पंप किया जाता है. जब बिजली की मांग बहुत अधिक होती है, तो इस जमा पानी को टरबाइन  के ज़रिए ठीक उसी तरह गुज़ारकर बिजली बनाई जाती है, जैसा किसी आम पनबिजली केंद्र में होता है. जब बिजली की मांग कम होती है, तो ऊपरी जलाशय को ग्रिड से कम लागत वाली बिजली की मदद से रिचार्ज किया जाता है. तब पानी को दोबारा ऊपरी जलाशय में पंप किया जाता है. PHS परियोजनाएं, सामान्य जल विद्युत परियोजनाओं से इस संदर्भ में अलग होती हैं कि नीचे के जलाशय से ऊपर की तरफ़ पानी पंप करने के दौरान हाइड्रोलिक  और बिजली का जो नुक़सान होता है, उससे ये बिजली की विशुद्ध उपभोक्ता बन जाती हैं. हालांकि, आम तौर पर ये बिजलीघर बेहद कारगर होते हैं और पूरी बिजली व्यवस्था में लोड बढ़ने पर संतुलन बनाने के काम आते हैं. पीक और ऑफ पीक समय के बीच बिजली की क़ीमत में अंतर की वजह से, पंप से भंडारण वाले केंद्र बहुत मुनाफ़े वाले साबित होते हैं, क्योंकि ये ग्रिड और उससे जुड़ी दूसरी अहम सेवाएं भी देते हैं. वैश्विक स्तर पर अपनी लगभग 94 प्रतिशत स्थापित ऊर्जा भंडारण क्षमता के कारण, दुनिया भर में 161 गीगावाट पंप हाइड्रो स्टोरेज (PHS) क्षमता वाले केंद्र दुनिया की सबसे विशाल ‘पानी की बैटरी’ का काम करते हैं. ये ग्रिड को स्थिर बनाने में मदद करते हैं, पूरी व्यवस्था के संचालन और उत्सर्जन की लागत कम करते हैं. भारत में आठ PHS प्लांट हैं, जिनकी कुल क्षमता 4,745 मेगावाट है और 2,780 मेगावाट  क्षमता के चार PHS प्लांट बनाए जा रहे हैं. इस समय कुल 4,745 मेगावाट में से केवल 2,600 मेगावाट की कुल क्षमता वाले पांच प्लांट ही पंपिंग मोड में चलाए जा रहे हैं. PHS प्लांट स्थापित करने के 63 स्थान चिन्हित  किए गए हैं, जिनमें 96,500 मेगावाट बिजली बनाने की क्षमता आंकी गई है. 2020 में सोलर एनर्जी कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया (SECI) ने दुनिया के सबसे बड़े नवीनीकरण योग्य एवं ऊर्जा भंडारण की बिजली ख़रीद के टेंडर की रिवर्स नीलामी की थी. ये टेंडर ग्रीनको ग्रुप ने हासिल किया था, जिसमें शीर्ष मांग पर सौर ऊर्जा और PHS से बनी बिजली की दर 6.12 रूपए प्रति किलोवाट घंटे (kWh) तय की गई है.

PHS का अर्थशास्त्र

ऊर्जा का कोई भी समाधान बाज़ार के वास्तविक और प्रतिद्वंदी दबाव के बाहर कारगर साबित नहीं हो सकता है. वैसे तो सही मायनों में भारत में बिजली के बाज़ार का कोई अस्तित्व नहीं है. लेकिन, लंबे दौर में कामयाब होने के लिए PHS, तकनीकी व्यावहारिकता  और पर्यावरण को होने वाले लाभ के भरोसे नहीं रह सकते. PHS की आमदनी का पारंपरिक स्रोत, ख़रीद फ़रोख़्त का रहा है: जब मांग अधिक हो तो ज़्यादा से ज़्यादा बिजली उत्पादन किया जाए और जब मांग कम हो तो पंपिंग की जाए. लेकिन, ये बात भी बिजली के बाज़ार में एक हद तक ऐसे उतार-चढ़ाव पर निर्भर होती है, जिसका अंदाज़ा हो और ये उतार-चढ़ाव भविष्य में जारी रहे. PHS से बिजली के फ्रीक्वेंसी पर नियंत्रण, अक्रियता और फॉल्ट होने पर कंट्रोल जैसी नेटवर्क की सेवाएं भी देते हैं, जिससे सौर और पवन ऊर्जा से बनने वाली बिजली के मुक़ाबले, ये प्लांट ग्रिड को स्थिर बनाने में बहुमूल्य योगदान देते हैं. नेटवर्क में सहयोग की इन सेवाओं के लिए इस समय तो भारत में कोई बाज़ार नहीं है. पर, भविष्य में इन सेवाओं की ज़रूरत उस हद तक बढ़ने की संभावना है, जब बाज़ार इसका मूल्य चुकाने को तैयार होगा.

Source: International Hydropower Association

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.

Authors

Akhilesh Sati

Akhilesh Sati

Akhilesh Sati is a Programme Manager working under ORFs Energy Initiative for more than fifteen years. With Statistics as academic background his core area of ...

Read More +
Vinod Kumar Tomar

Vinod Kumar Tomar

Vinod Kumar, Assistant Manager, Energy and Climate Change Content Development of the Energy News Monitor Energy and Climate Change. Member of the Energy News Monitor production ...

Read More +
Lydia Powell

Lydia Powell

Ms Powell has been with the ORF Centre for Resources Management for over eight years working on policy issues in Energy and Climate Change. Her ...

Read More +