Author : Kabir Taneja

Published on Jul 06, 2021 Updated 0 Hours ago

पिछले कुछ वर्षों में भारत और फ्रांस के रिश्तों में बहुत मज़बूती आई है, दोनों देश वैश्विक मुद्दों पर सहयोग कर रहे हैं, जिनमें भारत-प्रशांत क्षेत्र भी शामिल है-

भारत-फ्रांस दोस्ती का तीसरा और मज़बूत पक्ष बनकर उभर सकते हैं खाड़ी के देश
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इस साल की शुरुआत में भारत और फ्रांस की वायुसेना ने राजस्थान के जोधपुर एयरबेस पर पांच दिवसीय लंबा अभ्यास शुरू किया.  यह सिर्फ दोनों देशों के बीच रक्षा रिश्तों के मजबूत होने की एक और मिसाल भर नहीं है. वैसे, जुलाई 2020 में भारत और फ्रांस के रिश्ते पर तब मज़बूती की मुहर लगी थी, जब धूमधड़ाके के साथ भारतीय वायुसेना को दैसॉ के राफेल लड़ाकू विमान मिले थे. उस वक्त भारत लद्दाख में पिछले कई दशकों में चीन की ओर से सबसे खतरनाक घुसपैठ की चुनौती का सामना कर रहा था. इन हालात में फ्रांस ने समय से पहले इस लड़ाकू विमान की आपूर्ति भारत को की, जिससे भारत का फ्रांस पर भरोसा और बढ़ा. असल में पिछले कुछ वर्षों में दोनों देशों के बीच सहयोग तेज़ी से बढ़ा है. दोनों साझे हित वाले वैश्विक मुद्दों पर एक-दूसरे का साथ दे रहे हैं, जिनमें भारत-प्रशांत क्षेत्र भी शामिल है. इस सिलसिले में फ्रांस ने कहा है कि ‘भारत-प्रशांत को मुक्त और खुला रखना दोनों देशों का स्वाभाविक साझा लक्ष्य है.’ इतना ही नहीं, दोनों देशों के बीच सहयोग इतनी तेज़ी से बढ़ा है कि जानकार यह तक कहने लगे हैं कि  कहीं भारत-फ्रांस की साझेदारी भारत-अमेरिका से बड़ी न हो जाए.

हिंद महासागर और पश्चिम एशिया में चीन की बढ़ती महत्वाकांक्षाओं का अहसास यूरोप को काफी देर से हुआ. अरब सागर भी उसकी नजरों से दूर नहीं है. इस बीच, भारत-प्रशांत में सक्रिय हर देश और इसे लेकर हो रहे हर विमर्श में आज यह बात शामिल है. 

हिंद महासागर और पश्चिम एशिया में चीन की बढ़ती महत्वाकांक्षाओं का अहसास यूरोप को काफी देर से हुआ. अरब सागर भी उसकी नजरों से दूर नहीं है. इस बीच, भारत-प्रशांत में सक्रिय हर देश और इसे लेकर हो रहे हर विमर्श में आज यह बात शामिल है. व्यापार के रास्तों से लेकर, पेट्रोलियम गुड्स की सप्लाई पक्की करने तक, क्षेत्रीय सुरक्षा और समुद्री क्षेत्र में आतंकवाद को रोकने तक, भारत और फ्रांस के बीच कई क्षेत्रों में सहयोग की संभावना है. इसके बावजूद मैं इस आलेख को पढ़ने वालों को याद दिलाना चाहता हूं कि आपसी रिश्ते साझे हित पर आधारित होते हैं, न कि अंधभक्ति पर या समान विचारधारा पर. यानी, आपको इस रिश्ते को ऐसे समझना होगा कि फ्रांस के लिए भारत हथियारों का बड़ा बाजार है. भारत को हथियार बेचने के लिए कई देशों में प्रतिस्पर्धा होती रही है और फ्रांस पहले उसमें पिछड़ जाता था. भारत की नज़र से देखें तो उसे अहम सैन्य तकनीक की ज़रूरत है क्योंकि उसका देशी रक्षा उद्योग संघर्ष कर रहा है और रक्षा बजट पर दिनों-दिन दबाव भी बढ़ता जा रहा है।

हिंद-प्रशांत की साझेदारी पर नज़र

हिंद-प्रशांत नैरेटिव को लेकर साझेदारी का जो विस्तार हो रहा है, उससे कथित तौर पर भारत को पश्चिम एशिया में भी सामरिक सहयोग बढ़ाने का मौका मिल सकता है. एक रिपोर्ट कहती है कि फ्रांस से तीन भारतीय राफ़ेल लड़ाकू विमानों का जो अगला जत्था आएगा, यात्रा के बीच में उसमें ईंधन संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) की वायुसेना डालेगी. इससे न सिर्फ़ यूएई और भारत की नज़दीकियां और बढ़ेंगी बल्कि यह पूरे खाड़ी क्षेत्र के साथ भारत के रिश्तों के लिहाज़ से भी अच्छा कदम होगा. इस पहल में फ्रांस की अहम भूमिका है, जिसने भू-राजनीतिक रणनीति के साथ अपने मार्केटिंग कौशल का इस्तेमाल किया है. असल में यूएई, फ्रांस का सामरिक सहयोगी है. वह भारत के राफेल विमानों में ईंधन डालने के लिए यूएई के एयरबस केसी-30ए एमआरटीटी टैंकरों का इस्तेमाल करने जा रहा है. फ्रांस, भारतीय वायुसेना को भी ये टैंकर ऑफर कर रहा है और ये अभी जोधपुर भी आए हुए हैं.

यूरोप (एक हद तक) हिंद-प्रशांत को लेकर चल रही बहस में अपने हितों की रक्षा के लिए नियम आधारित व्यवस्था की वकालत कर रहा है, इसी बीच खाड़ी देश तेज बदलाव से गुजर रहे हैं. वहां भी भू-राजनीतिक मुद्दों पर फैसले में आर्थिक सच्चाइयों का पलड़ा भारी पड़ रहा है. वहां अब अलगाव-वादी राजनीति, धर्म या लंबे समय से चले आ रहे पारंपरिक रिश्तों की भूमिका घट रही है. सऊदी अरब और पाकिस्तान के बीच तनाव और खाड़ी देशों की अर्थव्यवस्था पर चीन के बढ़ते प्रभाव से इसे समझा जा सकता है. इनसे यह भी पता चलता है कि अमेरिका के प्रभुत्व को इस क्षेत्र में भी चुनौती मिल रही है.

भारत-फ्रांस-यूएई की साझेदारी भारत के लिए कई मोर्चों पर फ़ायदेमंद हो सकती है. पहली बात तो यह है कि यूएई और फ्रांस के बीच क़रीबी राजनीतिक और सैन्य संबंध रहे हैं. इस संदर्भ में लीबिया युद्ध में फ्रांस और यूएई की संयुक्त भूमिका का भी ज़िक्र किया जा सकता है

भारत-फ्रांस-यूएई की साझेदारी भारत के लिए कई मोर्चों पर फ़ायदेमंद हो सकती है. पहली बात तो यह है कि यूएई और फ्रांस के बीच करीबी राजनीतिक और सैन्य संबंध रहे हैं. इस संदर्भ में लीबिया युद्ध में फ्रांस और यूएई की संयुक्त भूमिका का भी ज़िक्र किया जा सकता है, जिसकी काफ़ी आलोचना हुई थी. दोनों ही देश लीबिया में जनरल खलीफ़ा हफ्त़ार का समर्थन कर रहे हैं. दूसरी ओर, मोटे तौर पर फ्रांस और यूएई दोनों ही ने कश्मीर पर प्रैक्टिकल अप्रोच रखा है. फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों की सरकार तो कई बार संकेत दे चुकी है कि पाकिस्तान में अभी जिन फ्रांसीसी हथियारों का इस्तेमाल हो रहा है, वह उन्हें अपग्रेड नहीं करेगी, न ही उनकी मरम्मत करेगी. पाकिस्तान के पास ऐसे रक्षा उपकरणों में मिराज III/V लड़ाकू विमान और पनडुब्बियां शामिल हैं.

पाकिस्तान के बरक्स भारत को लेकर फ्रांस का यह रुख़ यों ही नहीं है, इसके तार रूस से भी जुड़े हुए हैं. भारत हथियार के लिए पारंपरिक रूप से रूस पर निर्भर रहा है, लेकिन इधर ख़बर आई थी कि वह पाकिस्तान को भी हथियारों की बिक्री कर सकता है. वैसे, रूस ने सितंबर 2020 में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के दौरे के बाद स्पष्ट किया कि वह ऐसा नहीं करेगा, लेकिन इससे फ्रांस को यह दिखाने का मौका मिल गया कि वह भारत का कहीं अधिक भरोसेमंद सहयोगी है.

इसके अलावा, मैक्रों ने जब सार्वजनिक तौर पर इस्लामिक अलगाववादियों से लड़ने की बात कही, तब पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान और तुर्की के राष्ट्रपति रेसेप एरर्दोगान ने उनकी तीख़ी आलोचना की. पिछले साल फ्रांस के एक स्कूल टीचर की इस्लामिक आतंकवादी के गला काट कर हत्या करने के बाद यह सब हुआ. पश्चिम एशिया में यूएई भी बेहतर सहयोगी दिख रहा है. एक तो उसकी आर्थिक ग्रोथ तेज़ है, दूसरे वह अपने प्रभाव वाले क्षेत्रों में राजनीतिक इस्लाम से दूरी बना रहा है. कच्चे तेल से अलग अधिक उदार और सामाजिक व्यवस्था में यूएई के सहयोगी सऊदी अरब की भी दिलचस्पी बढ़ रही है. ऐसे में इन दोनों ही देशों में इस्लाम की भूमिका पर पुनर्विचार हो रहा है. इस बीच, तुर्की, पाकिस्तान और मलेशिया खुद को इस्लाम के नए संरक्षक के रूप में पेश करने की कोशिश कर रहे हैं.

खाड़ी देशों की नीतियों में बदलाव

स्ट्रेटफॉर की एनालिस्ट एमिली हावथॉर्न ने सऊदी अरब के नजरिये से इसे बड़े ही स्पष्ट तरीके से समझाया है, ‘सऊदी अरब को शायद लग रहा है कि उसके लिए अर्थव्यवस्था पर ध्यान देते हुए एक आधुनिक देश बनना कहीं अधिक ज़रूरी है, न कि मुस्लिम देशों का नेतृत्व करना.’ उन्होंने कहा, ‘यह एक जुआ है, लेकिन इससे सऊदी अरब को अपना रसूख़ बढ़ाने में मदद मिल सकती है.’

दूसरी बात यह है कि ऐसे घटनाक्रम के बीच संयुक्त अरब अमीरात अपने यहां रोजगार देने के लिए भारतीय पेशेवरों को चुन रहा है. उसकी वजह है कि भारतीय बेहतर प्रशिक्षित होते हैं. इस लिहाज से खाड़ी देशों के आर्थिक भविष्य में भारत की भूमिका बढ़ रही है. एक और बात यह है कि खाड़ी देशों में भारत के जो मुसलमान काम करते हैं, वे कट्टरपंथी नहीं हैं. यूएई के सुरक्षा कारणों से पाकिस्तान के लिए वीजा सस्पेंड करने के साथ-साथ यह घटनाक्रम हुआ है. इसके साथ उसने पाकिस्तान से 3 अरब डॉलर के कर्ज का भुगतान समय से पहले करने को भी कहा है. इससे भी पाकिस्तान पर दबाव बढ़ रहा है. यूएई ने यह कर्ज 2018 में दिया था.

भारत और फ्रांस की कंपनियों के बीच खाड़ी देशों में साझेदारी की भी संभावना बन रही है. एनर्जी, वित्त और टेक्नोलॉजी जैसे क्षेत्रों में इस तरह का सहयोग हो सकता है, जिसका फायदा तीनों देशों को होगा. आखिर में, भारत के लिए फ्रांस के साथ साझेदारी एक तीसरे मोर्चे यानी ईरान के लिहाज से भी फ़ायदेमंद हो सकती है. जब डॉनल्ड ट्रंप अमेरिका के राष्ट्रपति थे तो उन्होंने कई साझेदारियां और समझौते तोड़ दिए थे. जो बाइडेन के राष्ट्रपति बनने के बाद उनमें से कई को पुनर्जीवित किया जा रहा है. इसमें 2018 की ईरान न्यूक्लियर डील भी शामिल है.

भारत को इस मामले में यह समझना भी ज़रूरी है कि अगर खाड़ी देश पाकिस्तान से दूरी बनाते हैं तो इसकी वजह यह नहीं है कि वे कश्मीर को अंतरराष्ट्रीय मुद्दा न बनाने के भारत के रुख़ से सहमत हैं, सच तो यह है कि सऊदी अरब, यूएई और यहां तक कि फ्रांस भी भारत की आर्थिक तरक्की पर दांव लगा रहे हैं

यूरोप के अन्य देशों के साथ फ्रांस JCPOA ऑर्डर को बहाल करने में अहम भूमिका निभा सकता है. न्यूक्लियर डील के लिए ईरान को तैयार करने में 2014-15 में भारत ने भी सीमित भूमिका निभाई थी. भारत ने उसे यकीन दिलाया था कि पश्चिम के साथ इस तरह का एग्रीमेंट उसके लिए फ़ायदेमंद हो सकता है. अफ़गानिस्तान संकट को देखते हुए ईरान की स्थिरता बहुत ज़रूरी है. बाइडेन सरकार ने 11 सितंबर तक अफ़गानिस्तान से अपने सैनिकों को स्वदेश बुलाने का ऐलान किया है. ऐसे में अफ़गानिस्तान के मद्देनज़र भारत को ईरान सहित इस क्षेत्र में दूसरे देशों के साथ अपनी रणनीति पर नए सिरे से काम करना होगा. तभी वह अपने हितों की रक्षा कर पाएगा.

यूएई के सऊदी अरब के मुकाबले ईरान के साथ कहीं संतुलित रिश्ते हैं.  संयुक्त अरब अमीरात व्यापार और वित्त का बड़ा वैश्विक केंद्र है. उसे पता है कि ईरान के साथ किसी भी तरह का संघर्ष उसके लिए ठीक नहीं है. ऐसा होने पर उसकी अर्थव्यवस्था और समाज दशकों पीछे जा सकता है. इसी वजह से क़तर के बाद खाड़ी देशों में यूएई अकेला मुल्क है, जिसने कोविड-19 महामारी को देखते हुई ईरान को एक से अधिक बार राहत सामग्री भेजी है. इन साझे हितों की वजह से फ्रांस-भारत-यूएई की साझेदारी भू-राजनीतिक और भू-आर्थिक नज़रिये से अच्छी होगी. भारत को इस मामले में यह समझना भी ज़रूरी है कि अगर खाड़ी देश पाकिस्तान से दूरी बनाते हैं तो इसकी वजह यह नहीं है कि वे कश्मीर को अंतरराष्ट्रीय मुद्दा न बनाने के भारत के रुख़ से सहमत हैं, सच तो यह है कि सऊदी अरब, यूएई और यहां तक कि फ्रांस भी भारत की आर्थिक तरक्की पर दांव लगा रहे हैं. ऐसे त्रिपक्षीय समझौतों की संभावना और कुछ देशों के समूह को कूटनीति का कारगर औजार बनाने के लिए भारत को अपनी अर्थव्यवस्था को मज़बूत बनाए रखना होगा और लगातार ग्रोथ की राह पर आगे बढ़ना होगा. इसके साथ ही उसे सीमा पर या देश के अंदर संघर्ष के राजनीतिक औज़ार के रूप में इस्तेमाल के प्रलोभन से बचना होगा.

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