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अभी हाल तक जर्मनी और इटली, G7 के अकेले ऐसे देशों में थे जिनके पास अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति (NSS) नहीं थी. बहरहाल, 14 जून के बाद जर्मनी के साथ अब ऐसी बात नहीं रह गई है. चांसलर ओलाफ स्कोल्ज़ ने देश की बहुप्रतीक्षित राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति से पर्दा हटा लिया है. द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के इतिहास में जर्मनी की ओर से की गई ये ऐसी पहली क़वायद है. “मज़बूत, लचीला और टिकाऊ” सूत्रवाक्य के तहत 76 पन्नों का दस्तावेज़ तेज़ी से अस्थिर होते अंतरराष्ट्रीय वातावरण में जर्मनी की सुरक्षा प्राथमिकताओं को बताता है.
वैसे तो रणनीति का मसौदा तैयार करने का निर्णय रूस-यूक्रेन संघर्ष से पहले तब लिया गया था जब दिसंबर 2021 में ट्रैफिक-लाइट गठबंधन ने पदभार संभाला था. बहरहाल, युद्ध के मद्देनजर इस मामले ने अधिक तात्कालिक रूप ले लिया. इसने सुरक्षा मामलों के प्रति जर्मनी के दशकों पुराने संकोच को तोड़ दिया और ‘‘ज़ीटेनवेंडे’’ या निर्णायक मोड़ का नतीजा ले लिया. इसके तहत जर्मनी ने अपने सकल घरेलू उत्पाद का 2 प्रतिशत उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन (नेटो) को देने की प्रतिबद्धता जताई है. साथ ही जर्मनी के सशस्त्र बलों बुंडेसवेहर को मज़बूत करने के लिए एक विशेष कोष बनाने की बात कही गई है. हथियारों के निर्यात पर लंबे समय से लगे प्रतिबंधों को भी संशोधित करने का इरादा जताया गया है.
जर्मनी के सशस्त्र बलों बुंडेसवेहर को मज़बूत करने के लिए एक विशेष कोष बनाने की बात कही गई है. हथियारों के निर्यात पर लंबे समय से लगे प्रतिबंधों को भी संशोधित करने का इरादा जताया गया है.
कई क्षेत्रों में ये रणनीति वही बताती है जो पहले से आम जानकारी में मौजूद है. ये नेटो और यूरोपीय संघ (EU) ढांचे के प्रति जर्मन प्रतिबद्धता के साथ-साथ अमेरिका और फ्रांस के साथ जर्मनी की प्रमुख द्विपक्षीय साझेदारी को रेखांकित करती है. रणनीति में रूस को “निकट भविष्य” में “यूरो-अटलांटिक क्षेत्र में शांति और सुरक्षा के लिए सबसे अहम ख़तरे” के तौर पर पहचाना गया है. बुंडेसवेहर को मज़बूत करने की आवश्यकता पर ज़ोर देते हुए ये दस्तावेज़ सुरक्षा से जुड़े परंपरागत दृष्टिकोण में ज़रूरी झुकाव लाने की वक़ालत करता है. इस कड़ी में जलवायु परिवर्तन, महामारी, साइबर सुरक्षा, स्वास्थ्य सेवा, आपूर्ति श्रृंखला लचीलापन और आपदा राहत से संबंधित चुनौतियों को समेटने के लिए एक समग्र ‘दृष्टिकोण’ अपनाया गया है. विदेश मंत्री एनालेना बेयरबोक ने सितंबर 2022 में बयान दिया था कि “हमने रूसी गैस के प्रत्येक घन मीटर के लिए हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा का दोगुना या तीन गुना अधिक भुगतान किया है”. ताज़ा रणनीति इसी बयान से मेल खाती है. इसमें आर्थिक और सुरक्षा दायरों को जोड़कर काफी विलंबित रूप से मान्यता दी गई है.
दरअसल, चीन से जुड़ी नीति से लेकर यूक्रेन को हथियार भेजने तक के मुद्दों पर स्कोल्ज़ की सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी, बेयरबोक की ग्रीन्स पार्टी और वित्त मंत्री क्रिश्चियन लिंडनर की फ्री डेमोक्रेटिक पार्टी के बीच अनेक मतभेद हैं. ऐसे में राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति तक पहुंचना कोई मामूली उपलब्धि नहीं थी. इन तमाम मसलों में सबसे विवादास्पद मुद्दा था केंद्रीकृत निर्णय प्रक्रिया के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद की स्थापना. बहरहाल, परिषद के स्थान को लेकर चांसलर और विदेश मंत्रालय के बीच असहमतियों के चलते ये क़वायद ज़मीन पर उतर पाने में नाकाम रही है.
चीन से जुड़ी नीति से लेकर यूक्रेन को हथियार भेजने तक के मुद्दों पर स्कोल्ज़ की सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी, बेयरबोक की ग्रीन्स पार्टी और वित्त मंत्री क्रिश्चियन लिंडनर की फ्री डेमोक्रेटिक पार्टी के बीच अनेक मतभेद हैं. ऐसे में राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति तक पहुंचना कोई मामूली उपलब्धि नहीं थी.
चीन को लेकर भले ही एक अलग रणनीति पर काम चल रहा हो, फिर भी जर्मन राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति में ड्रैगन के मसले पर यूरोपीय संघ (EU) के दृष्टिकोण को ही दोहराया गया है. यूरोपीय संघ चीन को “प्रतिस्पर्धी, व्यवस्थागत प्रतिद्वंदी और भागीदार” मानता है, हालांकि EU इस बात पर ज़ोर देता है कि हाल ही में प्रतिस्पर्धा और प्रतिद्वंदिता से जुड़े पहलुओं ने अधिक प्रमुखता हासिल कर ली है. पिछले महीने चीनी प्रधानमंत्री ली कियांग सरकारी विचार-विमर्श के लिए जर्मनी की यात्रा पर पहुंचे थे. जर्मन राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति इस यात्रा से चंद दिन पहले ही जारी की गई थी. जर्मन रणनीति में चीन को “एक ऐसा भागीदार, जिसके बग़ैर वैश्विक चुनौतियों का समाधान नहीं किया जा सकता” क़रार दिया गया है. चीन, जर्मनी का सबसे बड़ा आर्थिक साझेदार है, इसके बावजूद जर्मन रणनीति में उसको लेकर थोड़ी सख़्त भाषा का प्रयोग किया गया है. रणनीति में ज़ोर देकर कहा गया है कि चीन “बार-बार हमारे हितों और मूल्यों के विपरीत काम कर रहा है” और “राजनीतिक लक्ष्यों तक पहुंचने के लिए अपनी आर्थिक शक्ति का उपयोग कर रहा है”. दस्तावेज़ में कच्चे माल के लिए निर्भरता कम करने और आपूर्ति श्रृंखला में लचीलापन लाने की वक़ालत की गई है, जो मुमकिन तौर पर दबे-छिपे रूप से चीन के संदर्भ में ही कही गई है. चीन पर निर्भरता कम करके आर्थिक विविधताओं की ओर आगे बढ़ने और बीजिंग के प्रति जोख़िम-मुक्त (de-risking) नीति अपनाने को लेकर जर्मन रणनीति में यूरोपीय संघ और G7 की भाषा अपनाई गई है. इसके बावजूद जर्मनी ऐसी संतुलनकारी नीति को लेकर जद्दोजहद कर रहा है. जर्मन उद्योगों का चीनी बाज़ारों से ज़बरदस्त रूप से घालमेल वाला स्वभाव इसकी प्रमुख वजह है.
कुल मिलाकर ये पूरा दस्तावेज़ ऐसा है जिसके बारे में आसानी से पूर्वानुमान लगाया जा सकता है. जर्मनी के व्यापक दृष्टिकोण को सामने रखते हुए इसमें कोई बड़ी हैरान करने वाली बात नहीं छिपी है. हालांकि इसमें कुछ गंभीर चूक ज़रूर हुई है.
शुरुआती तौर पर, 2020 में जारी जर्मनी की हिंद-प्रशांत रणनीति के अनुरूप ताज़ा दस्तावेज़ जर्मनी की सुरक्षा को दुनिया के अन्य क्षेत्रों की सुरक्षा ओर स्थिरता से जोड़ता है. फिर भी इसमें हिंद-प्रशांत का केवल एक बार संदर्भ दिया गया है, और इस कड़ी में अपने सहयोगियों (भारत, दक्षिण कोरिया और जापान समेत) का ज़िक्र तक नहीं किया गया है. आश्चर्यजनक रूप से इसमें ताइवान का भी कोई संदर्भ नहीं है, जो सुरक्षा के नज़रिए से एक गंभीर मसला है. रणनीति में मौजूद इस तरह के अपवाद दुनिया भर में फैले जर्मनी के भागीदारों के बीच भ्रामक संकेत भेज सकते हैं.
जर्मन रणनीति में फ्रांस के राष्ट्रपति मैक्रां की पसंदीदा परियोजना ‘यूरोपीय सामरिक स्वायत्तता ’ के लक्ष्य की ओर भी इशारा नहीं है. इस लक्ष्य के प्रति जर्मनी में उत्साह का अभाव रहा है. वैसे तो NSA में यूरोप में अमेरिका की भूमिका का समर्थन किया गया है, लेकिन यूरोपीय सुरक्षा के अनिश्चित भविष्य से जुड़े सवाल का जवाब नहीं दिया गया है. दरअसल अमेरिका में अगले साल चुनाव होने वाले हैं, और वहां के भावी राजनीतिक समीकरणों को लेकर यूरोप में इस तरह की आशंकाएं पैदा हो रही हैं.
NSA में यूरोप में अमेरिका की भूमिका का समर्थन किया गया है, लेकिन यूरोपीय सुरक्षा के अनिश्चित भविष्य से जुड़े सवाल का जवाब नहीं दिया गया है. दरअसल अमेरिका में अगले साल चुनाव होने वाले हैं, और वहां के भावी राजनीतिक समीकरणों को लेकर यूरोप में इस तरह की आशंकाएं पैदा हो रही हैं.
नेटो के लिए अपने सकल घरेलू उत्पाद का 2 प्रतिशत ख़र्च करने की बात कही गई है. 2022 में ये रकम अनुमानित तौर पर 75 अरब यूरो थी. हालांकि दस्तावेज़ में इस सिलसिले में एक अस्पष्ट प्रतिवाद (caveat) जोड़कर कहा गया है कि “बहु-वर्षीय अवधि में औसत के रूप में” ऐसा योगदान किया जाएगा. इन प्रतिबद्धताओं की फंडिंग के तौर-तरीक़ों से जुड़े सवाल अब भी अनसुलझे हैं. लिंडनर के दावे के मद्देनज़र ये हालात ख़ासतौर से चिंताजनक हैं. लिंडनर ने ज़ोर देकर कहा है कि “कुल मिलाकर संघीय बजट में बिना कोई अतिरिक्त बोझ डाले” इस रणनीति को लागू किया जाएगा.
इतना ही नहीं, किसी निकाय या ढांचे की मौजूदगी के बिना इस रणनीति को कार्रवाई योग्य नीति में तब्दील करना मुश्किल हो सकता है. हालांकि तमाम एजेंसियों के बीच समन्वय के लिए इसमें राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद जैसी संस्था की परिकल्पना शामिल की गई है.
साझेदारी के संदर्भ में यूनाइटेड किंगडम (UK) और पोलैंड जैसे प्रासंगिक देशों को रणनीति में स्थान नहीं दिया गया है, जबकि ये तमाम देश रूस के ख़िलाफ़ यूरोप की लड़ाई में सबसे आगे हैं. दूसरी ओर, इस साल मार्च में जारी UK के इंटीग्रेटेड रिव्यू रिफ्रेश में द्विपक्षीय साझेदारी पर ज़बरदस्त रूप से ध्यान केंद्रित किया गया था. इसमें एक “सहयोगी” के रूप में जर्मनी का कई बार संदर्भ दिया गया है. बहरहाल जर्मन रणनीति में यूरोपीय संघ और नेटो जैसी संस्थाओं और G7 और G20 जैसे बहुपक्षीय मंचों पर अधिक ध्यान केंद्रित किया गया है. अलेक्ज़ेंडर डोब्रिंड जैसे विपक्षी नेताओं ने NSA की प्राथमिकताएं तय करते वक़्त रणनीति की संवेदनशीलताओं पर सवाल उठाए हैं. उनका कहना है कि इसमें ‘चीन’ का केवल छह बार लेकिन ‘जलवायु’ का 71 बार उल्लेख किया गया है.
भले ही परिणाम निराशाजनक साबित हों, मगर जर्मनी पर नज़र रखने वाले कई पर्यवेक्षकों के लिए सबसे अहम बात रणनीति में मौजूद सामग्री नहीं बल्कि शायद ये तथ्य है कि आख़िरकार ऐसी रणनीति जारी हो पाई. दरअसल जर्मनी के परंपरागत शांतिवादी रुख़ को देखते हुए एक मज़बूत जर्मन रणनीतिक संस्कृति के विकास की दिशा में ये एक ऐतिहासिक पल है. NSA दर्शाता है कि जर्मन नीति-निर्धारण और विचार प्रक्रिया में सुरक्षा अब सबसे आगे है. इस रणनीति को लेकर तीन दलों के गठबंधन के तहत तमाम मंत्रालयों में वार्ताएं हुईं, यहां तक कि आम जनता और सर्व-समाज के सदस्यों (जैसे वैज्ञानिक और सिविल सोसाइटी के किरदारों) को भी मसौदा तैयार किए जाने की प्रक्रिया में शामिल किया गया. इस रणनीति ने लंबे अर्से से लंबित बौद्धिक बदलाव को सक्रिय कर दिया है, जो बेहद ज़रूरी दिशा प्रदान करने को लेकर बड़ी राजनीतिक उपलब्धि है. जैसा कि स्कोल्ज़ ने दोहराया है, “ये रणनीति कोई समापन बिंदु नहीं, बल्कि एक शुरुआती बिंदु है”.
आज जब जर्मनी आत्मनिरीक्षण की प्रक्रिया जारी रखे हुए है, “ज़िटेनवेंडे” भी बेशक़ पूरी रफ़्तार में है. उम्मीद है कि आगामी चीन रणनीति और जवाब मुहैया कराएगी और उससे जर्मनी की चीन नीति के इर्द-गिर्द मौजूद कुछ अस्पष्टताओं का निपटारा हो सकेगा.
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शायरी मल्होत्रा ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के स्ट्रैटेजिक स्टडीज़ प्रोग्राम में एसोसिएट फेलो हैं.
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