ऐतिहासिक रूप से, सार्वजनिक स्वास्थ्य संबंधी चिंताओं ने स्टेट द्वारा राजनीतिक कार्रवाइयों को आमंत्रित किया है. जबकि चिकित्सा विज्ञान में प्रगति स्वास्थ्य संबंधी चिंताओं से निपटने के लिए एक आवश्यक फैक्टर बन गया है, स्टेट इसके लिए एक सुविधा के रूप में काम करता है और चिकित्सा बुनियादी ढांचे, सीमाओं पर नियंत्रण और निगरानी और अपने नागरिकों के बीच सद्भाव बनाए रखने के लिए भी ज़िम्मेदार है. 20वीं शताब्दी के बाद से, तकनीक़ी वृद्धि के साथ-साथ माल और सेवाओं के साथ दुनिया का परस्पर जुड़ाव बढ़ा है. मुख्य रूप से देश के आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्र को प्रभावित करते हुए स्वास्थ्य के ग्लोबल गवर्नेंस पर वैश्वीकरण का अहम प्रभाव रहा है. लोगों की आवाजाही का मतलब था कि राष्ट्र पहले के मुक़ाबले सार्वजनिक स्वास्थ्य ख़तरों और कमज़ोरियों को लेकर जोख़िम उठा रहे थे. इसने भविष्य में किसी भी अंतर्राष्ट्रीय सार्वजनिक स्वास्थ्य चिंताओं के लिए एक समन्वित और सामूहिक प्रतिक्रिया तंत्र को स्थापित करने की अपील की. विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO), जिसे 1948 में स्थापित किया गया था, कई राष्ट्रों के नागरिकों के स्वास्थ्य संबंधी चिंताओं पर चर्चा करने और विचार-विमर्श करने के लिए महत्वपूर्ण मंचों में से एक बन गया. इन चर्चाओं के महत्वपूर्ण परिणामों में से एक इंटरनेशनल हेल्थ रेग्युलेशन (International Health Regulations) की स्थापना थी, जो आज तक असरदार है.
अमेरिका और चीन के बीच मौज़ूदा व्यापारिक प्रतिस्पर्द्धा के प्रभाव और पूर्व राष्ट्रपति ट्रम्प के डब्ल्यूएचओ फंडिंग को रोकने के नीतिगत फैसले ने डब्ल्यूएचओ की चीन की पैंतरेबाज़ी और आईएचआर (2005) के उल्लंघन की जांच करने की अमेरिकी मांग के अलावा विश्व स्वास्थ्य संगठन को फंड बंद करने और इस संगठन से बाहर निकलने के रवैए को दुनिया ने देखा है.
आईएचआर―अंतर्राष्ट्रीय सार्वजनिक स्वास्थ्य चिंताओं को लेकर एक अनिवार्य हिस्सा
आईएचआर 1969 से अंतर्राष्ट्रीय सार्वजनिक स्वास्थ्य चिंताओं को लेकर एक अनिवार्य हिस्सा रहा है. वर्ल्ड हेल्थ असेंबली (विश्व स्वास्थ्य सभा) ने हैजा, प्लेग, येलो फीवर, चेचक, रिलेप्सिंग फीवर और टाइफस जैसी स्वास्थ्य सुरक्षा चिंताओं से निपटने के लिए इसे पेश किया. हालांकि 1973, 1981, 1995 और अंत में, 2005 में बीमारियों के अंतर्राष्ट्रीय प्रसार के उद्भव और फिर से उभरने को लेकर नियमों में संशोधन किया गया था. इन वर्षों में मानवता ने कई अंतर्राष्ट्रीय स्वास्थ्य चिंताओं का सामना किया है जैसे कि 2009 एच1एन1 इन्फ्लूएंजा महामारी, 2014 में वाइल्ड पोलियोवायरस और इबोला वायरस, और सबसे हाल में कोरोना और मंकीपॉक्स.
कोरोना महामारी ने स्वास्थ्य में ‘रणनीतिक स्वायत्तता’ की लहर को विस्तार दिया, यानी, किसी देश की स्वतंत्र रूप से कार्य करने की क्षमता, पूरी तरह से उसके राष्ट्रीय हितों द्वारा निर्देशित होती है, इसके बावजूद अन्य सरकारों द्वारा इसे लेकर क्या रुख़ अख़्तियार किया जाता है.
जबकि इस तरह की स्वास्थ्य संबंधी चिंताओं से निपटने के तंत्र को कई वर्षों से लागू माना जाता रहा है लेकिन अंतर्राष्ट्रीय संगठन अक्सर ऐसी चुनौतियों का सामना करने की तैयारी में सतर्क रहते हैं. हाल ही में कोरोना महामारी ने अंतर्राष्ट्रीय संगठनों और विश्व जनसंख्या के स्वास्थ्य से संबंधित नियमों में सुधार की आवश्यकता को रेखांकित किया है. हालांकि यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि ये संगठन और रेग्युलेशन साइलो में नहीं, बल्कि एक गतिशील और अस्थिर भू-राजनीतिक वातावरण में कार्य करते हैं. कोरोना ने तानाशाही प्रवृति के नेताओं द्वारा शोषण में बढ़ोतरी की है, वहीं चीन द्वारा व्यापक निगरानी तकनीक़ों का उपयोग, और रूसी सरकार द्वारा राष्ट्रपति पद की सीमा बढ़ाने की पुतिन की योजना के विरोध को रोकना जैसे मामले मानवाधिकारों की स्थिति को लेकर कई सवाल खड़े करते हैं.
महामारी की भू-राजनीति
महामारी की भू-राजनीति ने अंतर्राष्ट्रीय स्वास्थ्य सहयोग में भी समस्याएं पैदा की हैं, संयुक्त राज्य अमेरिका और चीन शक्ति संतुलन के खेल में मुख्य किरदार बने हुए हैं. अमेरिका और चीन के बीच मौज़ूदा व्यापारिक प्रतिस्पर्द्धा के प्रभाव और पूर्व राष्ट्रपति ट्रम्प के डब्ल्यूएचओ फंडिंग को रोकने के नीतिगत फैसले ने डब्ल्यूएचओ की चीन की पैंतरेबाज़ी और आईएचआर (2005) के उल्लंघन की जांच करने की अमेरिकी मांग के अलावा विश्व स्वास्थ्य संगठन को फंड बंद करने और इस संगठन से बाहर निकलने के रवैए को दुनिया ने देखा है. रूस-यूक्रेन युद्ध ने अंतर्राष्ट्रीय स्वास्थ्य सहयोग में भी तनाव पैदा कर दिया है, जैसा कि लिथुआनिया और बांग्लादेश के मामले में दूसरों के फैसलों को प्रभावित करने के लिए एक वैक्सीन को पॉलिटिकल टूल के रूप में इस्तेमाल किया गया. आईएचआर और डब्ल्यूएचओ चीन-ताइवान संघर्ष के भी गवाह रहे हैं, जहां ताइवान की भू-राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं – डब्ल्यूएचओ जैसे अंतर्राष्ट्रीय मंच पर इसकी भागीदारी में परिलक्षित होती है – जो एक संघर्ष का हिस्सा रहा है, भले ही कोरोना के दौरान ताइवान की सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था काफी बेहतर तरीक़े से काम आई. इस प्रकार, चूंकि स्वास्थ्य एक राजनीतिक सरोकार है, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय दोनों स्तरों पर, भू-राजनीतिक वातावरण का आत्मनिरीक्षण जिसमें ये अंतर्राष्ट्रीय संगठन और रेग्युलेशन कार्य करते हैं बेहद ज़रूरी हो जाता है.
‘रणनीतिक स्वायत्तता’ की लहर
दुनिया में आईएचआर तब आया जब एक्शन में कन्वर्जेंस समय की मांग थी. एक सामूहिक कार्रवाई ने संसाधनों की एक दूसरे पर आश्रित होने और राष्ट्रों के बीच पूंजी और वित्त के प्रवाह को बढ़ावा दिया ताकि वे विशिष्ट सार्वजनिक स्वास्थ्य चुनौतियों का सामना कर सकें. हालांकि, जैसे-जैसे साल बीतते गए कई राष्ट्रों के बीच स्ट्रैटेजिक एलाइनमेंट (रणनीतिक संरेखण) की यह स्थिति और वैश्वीकरण के साथ महानगरीयता की धारणा दुनिया भर में बदल गई है. ज़्यादातर स्टेट एक्टर्स, विशेष रूप से जिन्होंने एक खुली अर्थव्यवस्था और व्यापार से होने वाले फायदों को बढ़ावा दिया था, अब लोकलुभावन नीतियों के साथ राष्ट्रवाद का झंडा उठाते नज़र आ रहे हैं. शॉर्ट टर्म इकोनॉमिक सेल्फ इंटरेस्ट ड्रिवन राजनीतिक एज़ेंडा के वास्तविक राजनीतिक दृष्टिकोण के साथ काम करने वाले देशों के साथ, अंतर्राष्ट्रीय संगठनों और नियमों को तेजी से चुनौती दी गई है. हाल ही में कोरोना महामारी ने स्वास्थ्य में ‘रणनीतिक स्वायत्तता‘ की लहर को विस्तार दिया, यानी, किसी देश की स्वतंत्र रूप से कार्य करने की क्षमता, पूरी तरह से उसके राष्ट्रीय हितों द्वारा निर्देशित होती है, इसके बावजूद अन्य सरकारों द्वारा इसे लेकर क्या रुख़ अख़्तियार किया जाता है. इस प्रकार, राष्ट्रवाद और लोकलुभावनवाद और भू-राजनीतिक तनाव के युग में स्ट्रैटेजिक अलाइनमेंट (रणनीतिक संरेखण) से रणनीतिक स्वायत्तता के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्वास्थ्य संबंधी चिंताओं के प्रतिमान में बदलाव ने मानवीय और महामारी विज्ञान के मुद्दों को ठीक करने में आईएचआर सुधारों को ज़रूरी बना दिया है.
आर्थिक रूप से विकासशील और भू-राजनीतिक रूप से मल्टी एलाइनेंट (बहु-संरेखण) की नीति अपनाने वाले देश के रूप में, G20 की अध्यक्षता भारत के लिए अधिक न्यायसंगत आईएचआर सुधारों का लाभ उठाने और आगे बढ़ाने के लिए एक सर्वश्रेष्ठ स्थिति हो सकती है.
राजनीतिक वातावरण में बदलाव वैश्वीकरण और इसके परिणामों जैसे अंतर्राष्ट्रीय संगठनों और उनके रेग्युलेशन्स (विनियमों) के प्रति बढ़ते असंतोष से प्रेरित है. समस्याओं को संबोधित करने और उन पर अंकुश लगाने में ऐसे संगठनों की प्रभावशीलता की कमी ने डब्ल्यूएचओ और आईएचआर के कामकाज पर लोगों के संदेह को बढ़ाने में मदद किया है. आईएचआर (2005) के अनुसार, राष्ट्रों को किसी भी घटना के बारे में डब्ल्यूएचओ को सूचित करने की आवश्यकता है जो अंतर्राष्ट्रीय स्वास्थ्य चिंताओं को लेकर हेल्थ इमरजेंसी का गठन कर सकती है और इन घटनाओं के बारे में जानकारी की पुष्टि करने के अनुरोधों का जवाब दे सकती है. हालांकि, सदस्य राज्यों के बीच सामाजिक-आर्थिक, डेमोग्राफी और हेल्थ लेवल में अंतर के कारण, आईएचआर के कार्यान्वयन के लिए लिखित में स्पष्टता और राजनीतिक इच्छा की कमी एक प्रमुख चिंता का विषय रहा होगा. 192 डब्ल्यूएचओ सदस्य राष्ट्रों में से केवल 42 (22 प्रतिशत) जून 2012 में मूल समय सीमा से पहले कोर कैपेसिटी रिक्वॉयरमेंट (मुख्य क्षमता आवश्यकताओं) को पूरा करते थे. हालांकि सभी प्रासंगिक सरकारी एजेंसियों, सभी राष्ट्रीय हितधारकों और विश्व स्वास्थ्य संगठन के साथ संवाद करने के लिए एक नेशनल फोकल प्वाइंट (राष्ट्रीय केंद्र बिंदु) स्थापित करने के मामले में कुछ प्रगति हुई है. यहां तक कि घटनाओं की रिपोर्टिंग को लेकर भी पारदर्शिता बढ़ी है, 192 में से 127 राष्ट्रों ने 2015 के अंत तक सभी आईएचआर (2005) कोर कैपेसिटी स्टैंडर्ड (मुख्य क्षमता मानकों) का अनुपालन नहीं किया था. इस प्रकार, भू-राजनीतिक वातावरण में बदलाव के अलावा, जिसे पहले उजागर किया गया था, आईएचआर सुधारों के लिए अधिक समावेशी और न्यायसंगत होना महत्वपूर्ण बन जाता है.
आईएचआर में सुधारों की ज़रूरत
जैसा कि आईएचआर में सुधारों की ज़रूरत और इसे लागू करने की पहचान की गई है, ऐसे में इसे पूरा करने के लिए साधनों का पता लगाना आवश्यक है. संकट को सुलझाने वाला समूह होने के नाते, जी 20 को अपनी विरासत पर खरा उतरना होगा और ग्लोबल हेल्थ गवर्नेंस (वैश्विक स्वास्थ्य शासन) के मुद्दों को हल करने के लिए दिशा-निर्देश प्रदान करना होगा. भारत 2023 में जी20 की अध्यक्षता के लिए उत्सुक है, यह अंतर्राष्ट्रीय स्वास्थ्य सुधारों को आगे बढ़ाने में एक महत्वपूर्ण एक्टर के तौर पर उभरा है. अब जबकि 2021 ग्लोबल हेल्थ सिक्युरिटी इंडेक्स (वैश्विक स्वास्थ्य सुरक्षा सूचकांक) के मुताबिक आईएचआर रिपोर्टिंग अनुपालन और आपदा जोख़िम में कमी लाने को लेकर भारत को 192 देशों में से 49 वां स्थान हासिल हुआ है, तो यह इसके कम लागत वाले कुशल मानव संसाधन और मज़बूती से तैयार की गई मैन्युफैक्चरिंग बेस (विनिर्माण आधार) का ही योगदान है जो इसे दवा सुरक्षा और स्वास्थ्य कूटनीति के क्षेत्र में एक अहम किरदार बनाता है. भारत अपने भू-राजनीतिक रुख़ और मल्टी एलाइनेंट (बहु-संरेखण) के दृष्टिकोण के कारण आईएचआर में सुधारों को आगे बढ़ाने के लिए एक आदर्श उदाहरण है, जिसमें “अपने पक्ष में शक्ति संतुलन बनाए रखने के लिए सभी प्रमुख शक्तियों के साथ बातचीत करते हुए स्ट्रैटेजिक हेजिंग” का लक्ष्य शामिल है. आर्थिक रूप से विकासशील और भू-राजनीतिक रूप से मल्टी एलाइनेंट (बहु-संरेखण) की नीति अपनाने वाले देश के रूप में, G20 की अध्यक्षता भारत के लिए अधिक न्यायसंगत आईएचआर सुधारों का लाभ उठाने और आगे बढ़ाने के लिए एक सर्वश्रेष्ठ स्थिति हो सकती है.
अंतर्राष्ट्रीय संगठनों और रेग्युलेशंस (विनियमों) में सुधार की भारत की तलाश दिसंबर 2020 में तेज हुई, जब भारत ने औपचारिक रूप से संगठन के कामकाज, वित्तपोषण, पारदर्शिता, जवाबदेही में सुधार और कोरोना महामारी के टीकों के उचित, सस्ती और समान पहुंच सुनिश्चित करने के लिए डब्ल्यूएचओ सुधारों को लेकर नौ-सूत्री योजना के बारे में संगठन को बताया. नौ सूत्री सिफारिशों में आईएचआर के कार्यान्वयन में सुधार एक अनिवार्यता थी. इसके अलावा भारत सरकार आईएचआर कार्यान्वयन की स्वैच्छिक समीक्षा जारी रखने, विकासशील देशों को सहायता प्रदान करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय सहयोग बढ़ाने, सार्वजनिक स्वास्थ्य को वैश्विक भलाई के रूप में पहचानने और स्वास्थ्य आपात स्थिति की क्षेत्रीय घोषणा के लिए एक सिस्टम तैयार करने की वकालत करती है. स्वास्थ्य और आईएचआर सुधारों के ग्लोबल गवर्नेंस (वैश्विक शासन) में हिस्सा लेने की इस प्रतिबद्धता ने अपना असर डाला है क्योंकि 13 वीं आईएचआर आपातकालीन समिति की बैठक के बाद के बयान भारत सरकार द्वारा प्रदान की गई सिफारिशों के मुताबिक़ नज़र आते हैं. जिनेवा में आयोजित 75वीं विश्व स्वास्थ्य सभा ने भी आईएचआर में संशोधन की आवश्यकता को मान्यता दी है और आईएचआर (2005) के स्टेट पार्टीज ऑफ आईएचआर के प्रस्तावों को आमंत्रित किया है. जैसा कि जनवरी 2023 तक आईएचआर सुधारों की उम्मीद है, भारत को जी 20 देशों के साथ मौज़ूदा भू राजनीतिक संघर्षों के बीच ही एक्शन प्लान बनाने की ज़रूरत है जो भविष्य की महामारियों को रोकने के लिए एक मज़बूत तंत्र बनाने में भारत और अन्य देशों को शामिल कर सके.
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