Published on Jan 09, 2023 Updated 0 Hours ago

G20 को टिकाऊ और समावेशी समुदाय बनाने के लिए हमारी कृषि खाद्य व्यवस्थाओं में निवेश की रफ़्तार बढ़ाने के साझा वादे पर खरा उतरना होगा.

G20 और टिकाऊ कृषि- खाद्य व्यवस्था को मज़बूत बनाने में सार्वजनिक विकास बैंकों की भूमिका
G20 और टिकाऊ कृषि- खाद्य व्यवस्था को मज़बूत बनाने में सार्वजनिक विकास बैंकों की भूमिका

लगातार विभाजित होती दुनिया, भुखमरी की बढ़ती असमानता, ग़रीबी, कोविड-19 महामारी के आर्थिक दुष्प्रभावों और जलवायु परिवर्तन जैसे संकटों के चलते आज दुनिया मुश्किलों के भंवर में फंस गई है. यूक्रेन के संकट ने खाद्य आपूर्ति श्रृंखलाओं को बाधित किया है और अनाज, खाने के मुख्य कृषि उत्पादों, तेल और रासायनिक खाद के दाम बेक़ाबू होकर आसमान छू रहे हैं. साल 2020 में हिंसा और जलवायु परिवर्तन के जोखिमों के चलते पूरी दुनिया में 4.05 करोड़ लोग अपने ही देश में बेघर हो गए और बेहद चिंताजनक खाद्य असुरक्षा के शिकार हो गए. इससे भी ज़्यादा चिंता की बात, दुनिया में तेज़ी से बढ़ रही भुखमरी है. वर्ष 2021 में 82.8 करोड़ लोग हर रात भूखे पेट सोने को मजबूर थे. हाल ही में जारी की गई स्टेट ऑफ़ फूड सिक्योरिटी ऐंड न्यूट्रिशन इन द वर्ल्ड (SOFI) रिपोर्ट के ताज़ा संस्करण के मुताबिक़, ये संख्या 2020 के आंकड़ों से 4.6 करोड़ और कोविड-19 महामारी की शुरुआत के समय से 15 करोड़ अधिक है.

हाल ही में जारी की गई स्टेट ऑफ़ फूड सिक्योरिटी ऐंड न्यूट्रिशन इन द वर्ल्ड (SOFI) रिपोर्ट के ताज़ा संस्करण के मुताबिक़, ये संख्या 2020 के आंकड़ों से 4.6 करोड़ और कोविड-19 महामारी की शुरुआत के समय से 15 करोड़ अधिक है.

G20 और माटेरा की घोषणा

दुनिया में बढ़ती खाद्य असुरक्षा के चलते पैदा हुई चुनौतियों से निपटने के लिए G20 देशों के विदेश और विकास मंत्रियों ने खाद्य सुरक्षा, पोषण और खाद्य व्यवस्थाओं पर माटेरा की घोषणा को अपनाया था. G20 देशों के बीच इस अंतरराष्ट्रीय सहयोग को कोविड-19 की आपातकालीन फंडिंग और लक्ष्य आधारित राष्ट्रीय बहाली योजना में टिकाऊ खाद्य व्यस्थाओं, ग़रीबी उन्मूलन, कृषि में विविधता और क्षेत्रीय विकास के लिए ज़रूरी बताया गया था. G20 की इस महत्वाकांक्षी योजना का शायद इस लिहाज़ से विश्लेषण करना उपयोगी होगा कि इसने लचीली खाद्य मूल्य संवर्धन श्रृंखलाएं विकसित करने के लिए निवेश बढ़ाने, नीतिगत सुधारों और संसाधनों के बेहतर प्रबंधन के लिए क्य किया. इसका एक मुख्य एजेंडा, निजी निवेश बढ़ाने, बाज़ार के जोखिम कम करने और ख़ास तौर से छोटे और मध्यम दर्जे के उद्योगों को आर्थिक मदद देने में सार्वजनिक विकास बैंकों (PDBs) की भूमिका बढ़ाने पर ज़ोर देना था. भारत ने ये कहते हुए पहले ही अपनी स्थिति साफ़ कर दी थी कि ये एजेंडा, छोटे और मध्यम दर्जे के किसानों के कल्याण को लेकर उसकी चिंता और कृषि विविधता को बढ़ाने की उसकी योजना से मेल खाता है. G20 के विकास मंत्रियों ने अपने बयान में, अंतराष्ट्रीय कृषि विकास फंड(IFAD) के नेतृत्व में टिकाऊ खाद्य व्यवस्थाएं ‘साझा रूप से वित्तीय व्यवस्था’ के कार्यकारी समूह के गठन का स्वागत किया था. इस कार्यकारी समूह में उत्पादकता, आमदनी और छोटे स्तर के उत्पादकों के बीच लचीलापन बढ़ाने में निजी निवेश बढ़ाने; खाद्य और पोषण सुरक्षा बेहतर बनाने, और; रोज़गार पैदा करने के लिए सार्वजनिक विकास बैंकों को एक साथ लाने की बात कही गई है. सच तो ये है कि भारत इकलौता ऐसा देश है, जिसे महिलाओं के सशक्तिकरण और सामाजिक उद्यम वाली परियोजनाओं के लिए IFAD से क़र्ज़ हासिल हुआ है.

भारत ने ये कहते हुए पहले ही अपनी स्थिति साफ़ कर दी थी कि ये एजेंडा, छोटे और मध्यम दर्जे के किसानों के कल्याण को लेकर उसकी चिंता और कृषि विविधता को बढ़ाने की उसकी योजना से मेल खाता है.

सार्वजनिक विकास बैंक भुखमरी ख़त्म करने की मुहिम के संभावित अगुवा हो सकते हैं

संयुक्त राष्ट्र के व्यापार और विकास सम्मेलन (UNCTAD) ने कहा है कि 2015 से 2030 के बीच कृषि और खाद्य सुरक्षा में 480 अरब डॉलर के निवेश की ज़रूरत होगी और अभी भी इसमें 260 अरब डॉलर की कमी है (UNCTAD 2014). कोविड-19 महामारी के चलते खाद्य सुरक्षा और पोषण का समेकित माहौल और ख़राब ही हुआ है. ऐसे में मध्यम दर्जे की आमदनी वाले देशों के ग़रीब अपनी कम बचत और निवेश की सीमित क्षमताओं के चलते इसका सबसे ज़्यादा झटका झेल रहे हैं. उनके लिए सभी क्षेत्रों से सहयोग जुटाना सबसे अहम होगा. क्योंकि, ऐसे हालात में बाज़ार कीक नाकामी से बचाने और ग़रीबी के दुष्चक्र से उबारने जैसे बड़े जोखिमों से निपटने की अपनी ज़्यादा क्षमता के कारण, अन्य वित्तीय संस्थानों की तुलना में सार्वजनिक विकास बैंकों की भूमिका और भी अहम हो जाती है. फाइनेंस इन कॉमन के मुताबिक़, दुनिया में 420 सार्वजनिक विकास बैंक हैं, जो बहुपक्षीय, क्षेत्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर काम कर रहे हैं. ये बैंक वित्त और सार्वजनिक नीति लागू करने के बीच तालमेल बिठाते हैं. इन बैंकों के पास व्यापक वित्तीय ताक़त है, जो ग्रामीण क्षेत्र में ग्रीन रिकवरी और अधिकतम सामाजिक प्रभाव के लिए निजी निवेश जुटाने के प्रयासों को मज़बूत बना सकते हैं.

दिलचस्प बात ये है कि, कृषि क्षेत्र के संगठित वित्त में सार्वजनिक विकास बैंकों का दो तिहाई हिस्सा है. कृषि क्षेत्र में काम करने वाले सार्वजनिक विकास बैंकों का पूंजीगत आधार, कार्य का अधिकार और व्यवस्थाओं में काफ़ी विविधता है.

दिलचस्प बात ये है कि, कृषि क्षेत्र के संगठित वित्त में सार्वजनिक विकास बैंकों का दो तिहाई हिस्सा है. कृषि क्षेत्र में काम करने वाले सार्वजनिक विकास बैंकों का पूंजीगत आधार, कार्य का अधिकार और व्यवस्थाओं में काफ़ी विविधता है. ये बातें ग़रीबी उन्मूलन और असमानताओं को पाटने के लिए बहुत अहम हैं और आगे चलकर 2030 के विकास के एजेंडे को लागू करने में काफ़ी मददगार साबित होने वाली हैं. सार्वजनिक विकास बैंक सालाना लगभग 1.4 ख़रब डॉलर का निवेश करते हैं. उनके पास टिकाऊ विकास को बढ़ावा देने का अधिकार है. ऐसे में कृषि को उबारने और तरक़्क़ी की राह पर ले जाने में इन बैंकों की भूमिका बहुत अहम होने वाली है. हालांकि. जलवायु परिवर्तन से निपट सकने वाली तकनीक, और जानकारी तक पहुंच बनाने, वित्त देने और आविष्कार की व्यवस्था के डिजिटलीकरण की अपनी क़ीमत होती है. एक मोटे अनुमान के मुताबिक़, सार्वजनिक विकास बैंकों को अगले एक दशक में इस मद में 300 से 350 अरब डॉलर की रक़म ख़र्च करनी होगी. हालांकि यहां ध्यान देने वाली बात ये है कि ये जोखिम भरी राह हो सकती है क्योंकि लेन-देन की भारी लागत और खाद्य व कृषि क्षेत्र के जोखिम अक्सर वित्तीय संस्थानों के लिए गले की हड्डी बन सकते हैं. ख़ास तौर से तब और जब ये बैंक छोटे स्तर के उन किसानों को मदद देते हैं, जिनके पास न तो क़र्ज़ लेने का कोई रिकॉर्ड होता है और न ही क़र्ज़ के बदले में गिरवी रखने लायक़ सामान.

राह की ऐसी चुनौतियों से निपटने के लिए अहम सियासी और वित्तीय शक्ति का इस्तेमाल किया जा सकता है, ताकि ठोस नतीजे हासिल किए जा सकें. ऐसे में G20 की भूमिका बहुत अहम हो सकती है. क्योंकि, ये संगठन पूरी वित्तीय व्यवस्था में बदलाव लाने के लिए सार्वजनिक विकास बैंकों की मदद कर सकता है और इसके दायरे में विकास के पूरे चक्र को लाया जा सकता है. परिस्थितियों में बदलाव के लिए लैंगिक विविधता को बढ़ावा देना, अब सार्वजनिक विकास बैंकों के समावेशी विकास के बड़े लक्ष्य का ज़रूरी हिस्सा बनता जा रहा है. डिजिटल और मिले जुले समाधानों का एक विकल्प मुहैया कराने और जवाबदेही वाले निजी और सार्वजनिक क्षेत्र के निवेश को बढ़ावा देकर सार्वजनिक विकास बैंक, ऐसे टिकाऊ और हरित वित्त की व्यवस्था कर सकते हैं, जो महिलाओं, युवाओं, सूक्ष्म, लघु और मध्यम दर्जे के उद्यमियों और छोटे किसानों की मदद कर सकते हैं, ताकि वो ग़रीबी के दुष्चक्र से ऊपर उठ सकें, और मज़बूत खाद्य सुरक्षा नेटवर्क का विकास कर सकें. IFAD के नेतृत्व में खाद्य और कृषि क्षेत्र में दूरगामी निवेश को मज़बूत बनाने के लिए सार्वजनिक विकास बैंकों को G20 विकास संबंधी कार्यकारी समूह का हिस्सा बनाया गया है, जिसकी स्थापना 2010 के टोरंटो सम्मेलन में की गई थी. G20 के तीसरे विकास संबंधी कार्यकारी समूह की बैठक (जो पिछले साल इंडोनेशिया में तीन बार विचार विमर्श के लिए जुटा था) से उभरे साझा समझौतों ने इंडोनेशिया के बेलिटुंग में 7 से 9 सितंबर तक हुए G20 विकास मंत्रियों की बैठक में विकास के क्षेत्र में सहयोग की परिचर्चा को आगे बढ़ाने की बुनियाद रखी है.

जनधन योजना, आधार और मोबाइल की त्रिवेणी (JAM) भी वित्तीय समावेश बढ़ाने का एक गेम चेंजर साबित हुआ है. अब आगे चुनौती इस बात की है कि महिलाओं की उस भारी मांग को पूरा किया जाए जिसके तहत लैंगिक समानता और जलवायु परिवर्तन के बीच की खाई को पाटा जा सके.

इस संदर्भ में IFAD के संस्थापक सदस्य होने और इसका सबसे अधिक निवेश पाने वाले देश के तौर पर भारत की भूमिका बहुत अहम हो जाती है. भारत के पास ये मौक़ा है कि वो कृषि क्षेत्र में पूंजी निवेश की कमी दूरने में अपने प्रयासों की नुमाइश कर सकता है और दुनिया को ये दिखा सकता है कि एक पारदर्शी और टिकाऊ खाद्य व्यवस्था बनाने के लिए भारत अपने यहां क्या क्या कर रहा है. इनमें सबसे अहम राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक (NABARD), स्वयं सहायता समूह (SHG) और बैंकों को जोड़ने की परियोजना शामिल है, जो अब ग्रामीण क्षेत्र के ग़रीबों की छोटी वित्तीय मदद देने वाली सबसे बड़ी परियोजना है. भारत की एक और बड़ी उपलब्धि ये भी है कि आज जिस तरह ग्रामीण क्षेत्र की महिलाएं, क़र्ज़ लेने और उसे चुकाने में बेहतरीन प्रदर्शन से (95-96 फ़ीसद क़र्ज़ वापस करके) ख़ुद को एक भरोसेमंद ग्राहक के तौर पर स्थापित कर रही हैं. जनधन योजना, आधार और मोबाइल की त्रिवेणी (JAM) भी वित्तीय समावेश बढ़ाने का एक गेम चेंजर साबित हुआ है. अब आगे चुनौती इस बात की है कि महिलाओं की उस भारी मांग को पूरा किया जाए जिसके तहत लैंगिक समानता और जलवायु परिवर्तन के बीच की खाई को पाटा जा सके. इसके अलावा महिलाओं में निवेश से जलवायु परिवर्तन से निपटने में मदद मिलती है. इस बात को उच्च स्तर की बातचीत का हिस्सा बनाने के अवसर पैदा करना भी अहम होगा.

एक और सेक्टर जिसकी अनदेखी की जाती रही है और उस पर ध्यान देने की ज़रूरत है, वो है रख-रखाव की अर्थव्यवस्था. ये इसलिए ज़रूरी है, क्योंकि महामारी ने ये साबित कर दिया है कि विश्व अर्थव्यवस्था महिलाओं के बिना वेतन के किए जाने वाले काम पर निर्भर है. हालांकि, बच्चों की देख-रेख करने वालों को सरकारों द्वारा सीधे फंड देने (अमेरिका ने 39 अरब डॉलर का ऐतिहासिक फंड आवंटित किया था)के क़दम ने ये साबित किया है कि ऐसे संकटों के दौरान वित्तीय संस्थानों को किस तरह प्रोत्साहित करके मदद पहुंचाई जा सकती है. ऊपर हमने ज़िक्र किया है कि किस तरह अलग अलग सेक्टर के उच्च स्तर के मानक इस्तेमाल करके उनकी वित्तीय मदद की जा सकती है ताकि मिली जुली वित्तीय योजना के सभी तत्वों को मज़बूत किया जा सके. ऐसा करने पर ‘मटेरा घोषणा’ में जिस समावेशी अधिकार को पूरा करने की बात कही गई है, उस लक्ष्य को हासिल किया जा सकता है.

आज जब आर्थिक गिरावट के चलते हमारी खाद्य व्यवस्थाएं टूट रही हैं, तो G20 के सदस्य देशों को चाहिए कि वो अपने पुराने वादों को पूरा करने की मज़बूत इच्छाशक्ति दिखाते हुए दुनिया की अगुवाई करें और ऐसे ठोस और लाभ वाले क़दम उठाएं, ताकि टिकाऊ और लचीले कृषि खाद्य समुदायों की बेहतरी की ओर बढ़ा जा सके.

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Arundhatie Biswas

Arundhatie Biswas

Arundhatie Biswas, Ph.D is Senior Fellow at ORF. Her research traverses through multi-disciplinary research in international development with strong emphasis on the transformative approaches to ...

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