इस वक़्त विश्व इतिहास के एक महत्वपूर्ण मोड़ पर खड़ा है. इस स्थिति में जलवायु परिवर्तन से निपटने की अत्यावश्यकता में अब देरी नहीं की जा सकती है या इसे केवल आकांक्षात्मक नहीं माना जा सकता है. जलवायु परिवर्तन के चलते होने वाली आपदाएं और उनकी बढ़ती गंभीरता अब एक वास्तविकता बन चुकी है. इन आपदाओं ने श्रीलंका, सोलोमन द्वीप, मालदीव, इंडोनेशिया, भारत आदि निम्न और मध्यम आय वाले देशों को असमान रूप से प्रभावित किया है. UNDDR की एक हालिया रिपोर्ट में पाया गया कि जलवायु से संबंधित प्राकृतिक आपदाएं 2000 और 2019 के बीच दोगुनी हो गई है. इन आपदाओं की वज़ह से वैश्विक स्तर पर लगभग 2.97 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर का आर्थिक नुक़सान होने का अनुमान है. आपदा की घटनाओं से प्रभावित शीर्ष 10 देशों में से 8 विकासशील देश एशिया के हैं. अत: इस मसले से अब एक रेखीय शमन पद्धति अपनाकर ध्यान देने से ही समस्या का हल नहीं निकाला जा सकता. इस समस्या का हल निकालने के लिए अब अनुकूलन और लचीलापन पैदा करने को प्राथमिकता देनी होगी.
यह बात उस वक़्त और भी महत्वपूर्ण हो जाती है जब इस समूह की अध्यक्षता भारत कर रहा है. इसका कारण यह है कि भारत ने हमेशा से ही जलवायु लचीलेपन में असमानताओं से निपटने पर ध्यान केंद्रित किया है.
UNEP की एडाप्टेशन गैप रिपोर्ट के निष्कर्षों के अनुसार, भले ही UN फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (UNFCCC) में शामिल 84 प्रतिशत साझेदारों ने COP26 से पहले अनुकूलन योजनाएं और नीतिगत ढांचे विकसित कर लिए थे, लेकिन ये योजनाएं पर्याप्त निवेश के बिना प्रभावी साबित नहीं हो सकती हैं. रिपोर्ट के अनुसार प्रबंधनीय संपत्ति के वैश्विक स्टॉक पर जलवायु परिवर्तन के कारण पड़ने वाला प्रभाव 2105 तक इसके जोख़िम को लगभग 43 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर तक बढ़ा सकता है. G20 समूह, सीमित हरित वित्त के मुद्दे को कम करने के लिए व्यावहारिक वैश्विक समाधान ख़ोजने में सहायक साबित हो सकता है. यह बात उस वक़्त और भी महत्वपूर्ण हो जाती है जब इस समूह की अध्यक्षता भारत कर रहा है. इसका कारण यह है कि भारत ने हमेशा से ही जलवायु लचीलेपन में असमानताओं से निपटने पर ध्यान केंद्रित किया है.
अनुकूलन वित्त व्यवस्था पर त्वरित निर्णय ज़रूरी
COP27 डिबेट्स में मुख्यतः ‘एवर्टिंग अर्थात बचाव, मिनिमाइज अर्थात न्यूनतम रखना और एड्रेसिंग अर्थात संबोधित करना’ का विचार ही उभरकर सामने आया था. इन तीन सूत्री कार्यक्रम पर एक डिफाइंड ग्रीन टैक्सोनॉमी अर्थात परिभाषित हरित वर्गीकरण के बिना कैसे अमल किया जा सकता है? इसका उचित समाधान एक मज़बूत वित्त पोषण रणनीति हो सकती है. इसलिए, निधियों का संग्रह, बीमा योजनाएं और मानवीय सहायता सभी जोख़िम प्रबंधन रणनीतियों पर केंद्रित हैं. बाली एक्शन प्लान 2007 ने जोख़िम वित्त साधनों के माध्यम से बीमा और लॉस एंड डैमेजेस् अर्थात हानि और क्षति (L&D) के माध्यम से अनुकूलन के महत्व पर प्रकाश डाला था. लेकिन यह अनुकूलन नीतियों के तहत बगैर किसी स्पष्ट ज़िम्मेदारियों अथवा लक्ष्यों के कारण समाहित होकर ही रह गई. ऐसे में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का असमान रूप से बोझ उठाने वाले G20 और V20 देशों में सामाजिक सुरक्षा, पुनर्प्राप्ति और पुनर्वास के लिए इसके क्या मायने है?
जलवायु परिवर्तन के प्रति अनुकूल होने की भारी लागत की व्यवस्था करना
विशेषत: निम्न-मध्यम-आय वाले देशों (LMIC) के लिए पारंपरिक अर्थव्यवस्था से एक अधिक हरित अर्थव्यवस्था को अपनाने के लिए बड़े पैमाने पर वित्तपोषण की आवश्यकता होती है. लेकिन वर्तमान में स्वीकृत राशियों के माध्यम से यह वित्तपोषण पूरा करना संभव नहीं दिखाई देता. अंतरराष्ट्रीय समुदाय को ‘‘मल्टीलेटरलिज्म 2.0 अर्थात बहुपक्षवाद 2.0’’ की आवश्यकता है. और इसके लिए इम्लिमेंटेशन-फोक्स्ड क्लायमेट फाइनांस ओरिएंटेशन अर्थात कार्यान्वयन-केंद्रित जलवायु वित्त अभिविन्यास ज़रूरी है. भारत ने सदैव ही साझा वैश्विक समृद्धि के लक्ष्य को लेकर ‘‘विकास भागीदारों’’ का साथ मांगा है. ऐसे में अब जब वह G20 की अध्यक्षता कर रहा है तो उस दिशा में अर्थात ‘‘विकास भागीदारों’’ का साथ हासिल करने की उसकी कोशिशों को गति मिल सकती है. एक व्यापक L&D वित्तपोषण रणनीति के इर्द-गिर्द समाधान-आधारित आख्यान के लिए तीन प्रतिमान हैं, जिन्हें अपनी सर्वोत्तम क्षमताओं के अनुसार संचालित किया जाना चाहिए.
सबसे पहले, L&D के लिए जलवायु वित्त के संचालन के लिए एक पूरी तरह से नई व्यवस्था की स्थापना करनी होगी. इसका मतलब यह होगा कि मज़बूत वित्तीय बाज़ारों के लिए पद्धतिगत कठोरता और तकनीकी प्रभावकारिता की ख़ोज में तेजी लाने की आवश्यकता होगी. इससे भी आगे बढ़कर अध्ययनों से पता चलता है कि प्रति व्यक्ति कम GDP अर्थात सकल घरेलू उत्पाद वाले देशों को जलवायु परिवर्तन के कारण स्थायी नुक़सान और क्षति के उच्च जोख़िम का सामना करना पड़ता है. तत्काल परिवर्तनकारी परिवर्तन के केंद्र में रिस्क असेसमेंट अर्थात जोख़िम मूल्यांकन, रिडक्शन अर्थात कमी, ट्रान्सफर अर्थात हस्तांतरण और रिटेंशन अर्थात प्रतिधारण के लिए संदर्भ-विशिष्ट ढांचा होना चाहिए. विश्व को L&D के लिए एक व्यापक जोख़िम प्रबंधन परिप्रेक्ष्य पर ध्यान देना चाहिए. यह L&D वित्तपोषण के मौजूदा ढांचे से गृहीत तत्काल संचालन के उन ठोस तरीकों के साथ आना चाहिए, जो पहले से ही कार्यान्वित किए जा रहे हैं. यहीं पर भारत जैसे विकासशील देश और छोटे द्वीप देश अपनी विशेषज्ञता की वज़ह से अहम हो जाते हैं. G20 और V20 सहयोग कार्यान्वयन, क्षतिपूर्ति और बीमा प्रस्तावों की एक सुचारु व्यवस्था स्थापित करने में उपयोगी साबित हुए हैं. InsuResilience जलवायु और आपदा जोख़िम वित्त और बीमा से संबंधित समाधानों के एकीकृत सहयोग और कार्यान्वयन के लिए सबसे महत्वपूर्ण मंच है.
सबसे पहले, L&D के लिए जलवायु वित्त के संचालन के लिए एक पूरी तरह से नई व्यवस्था की स्थापना करनी होगी. इसका मतलब यह होगा कि मज़बूत वित्तीय बाज़ारों के लिए पद्धतिगत कठोरता और तकनीकी प्रभावकारिता की ख़ोज में तेजी लाने की आवश्यकता होगी.
जोख़िम की पहचान, मूल्यांकन, और जलवायु आरोपण और न्याय सभी की परिकल्पना की जा चुकी है. अत: विभिन्न देशों को अब इंटीग्रेटेड असेसमेंट मॉडल्स (IAM) अर्थात एकीकृत आकलन मॉडल के मौजूदा ज्ञान आधारों पर ध्यान देना चाहिए. ऐसा करते हुए उन्हें यह देखना चाहिए कि कैसे सैंटियागो नेटवर्क ऑन लॉस एंड डैमेजेस् (SNLD) के संचालन और वित्त पोषण को सुनिश्चित करने के लिए उन्हें संश्लेषित किया जा सकता है. संयुक्त राष्ट्र के महासचिव, एंटोनियो गुटेरेस, अनुकूलन आवश्यकताओं के लिए वित्तपोषण की मात्रा और गुणवत्ता दोनों में एक महत्वपूर्ण वृद्धि का आग्रह कर रहे हैं. वे अनुकूलन प्राथमिकताओं को निवेश योग्य उद्यमों में बदलने के लिए एक नए व्यापार मॉडल का विकास करने के पैरोकार होने के साथ ही यह भी चाहते हैं कि जलवायु जोख़िम सूचना और डेटा को और बेहतर बनाया जाएं. वित्तीय मायनों में नॉन-इकॉनॉमिट कॉस्ट्स अर्थात गैर-आर्थिक लागतों के लेखांकन में इकॉनॉमिक IAM ‘‘रिस्क लेयरिंग अर्थात जोख़िम स्तरीकरण’’ को हासिल करने में कुछ हद तक कॉस्ट-बेनिफिट एनलिसिस अर्थात लागत-लाभ विश्लेषण (CBA) और रोबस्ट डिसिजन-मेकिंग अप्रोचेस् अर्थात ठोस निर्णय लेने के दृष्टिकोण (RDMA) के उपकरणों का उपयोग करते हैं. लागत-प्रभावशीलता और बीमा व्यवस्था को बढ़ाने के लिए जोख़िम वित्त के कार्यान्वयन पर केंद्रित ढेर सारा डेटा पहले से ही उपलब्ध है. अपनी उभरती हुई जलवायु वित्त पोषण आवश्यकताओं को समायोजित करने के लिए भारत ठोस ढांचे के निर्माण की कोशिश कर रहा है. सॉवरेन बॉन्ड को वित्तीय दुनिया ने इंस्ट्रूमेंट अर्थात संसाधन के रूप में अपेक्षाकृत पहले 2015 में यस बैंक के साथ अपनाया था. लेकिन जलवायु परिवर्तन की वज़ह से होने वाली इकॉनॉमिक अर्थात आर्थिक L&D 2050 तक भारत के GDP का लगभग 1.8 प्रतिशत सालाना होने की उम्मीद है. यह एक महत्वपूर्ण आंकड़ा है, जिसका बहुपक्षीय सहयोग के बगैर सामना नहीं किया जा सकता.
दूसरी बात यह है कि वैश्विक स्तर पर होने वाली बातचीत में इस बात पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि कैसे नवोन्मेषी वित्तपोषण रणनीतियों में विभिन्न देश योगदान कर सकते हैं. मसलन वारसॉ इंटरनेशनल मैकेनिज्म फॉर लॉस एंड डैमेज (WIM) को कैसे प्रोत्साहित किया जा सकता है. InsuResilience ग्लोबल पार्टनरशिप अपनी बीमा व्यवस्था के तहत 500 मिलियन लोगों को कवर करने का लक्ष्य रखती है. गठबंधन की ओर से तय किया गया यह लक्ष्य विशाल हैं. यह लक्ष्य अनुकूलन वित्त और जलवायु लचीलेपन को लेकर चल रहे आख्यान में आ रहे व्यापक परिवर्तन से कहीं आगे बढ़ते हुए दिखाई दे रहे है. इसके बावजूद, फंडिंग पैटर्न और संबंधित डेटा इस बात की ओर इशारा करता है कि V20 देशों के एक्सटर्नल डेब्ट स्टॉक अर्थात बाहरी ऋण शेयरों में निजी ऋणदाताओं की हिस्सेदारी 36 प्रतिशत है. इसके बाद इसमें विश्व बैंक की 20 प्रतिशत हिस्सेदारी है, जबकि बहुपक्षीय विकास बैंक (विश्व बैंक को छोड़कर) की 20 प्रतिशत हिस्सेदारी है. V20 समूह और जर्मनी की अध्यक्षता में G7 प्रेसीडेंसी अर्थात अध्यक्षता कमज़ोर अर्थव्यवस्थाओं पर पड़ने वाले दबाव की ज़रूरतों को पूरा करने और ग्लोबल शिल्ड अगेन्स्ट क्लायमेट रिस्क्स (GSCR) के माध्यम से जलवायु जोख़िमों से बचाव की एक वैश्विक ढाल में निवेश करने के सामान्य लक्ष्य को साझा करते हैं. इसमें वर्तमान में एक महत्वपूर्ण आवश्यकता बन गई डी-रिस्किंग के लिए क्रेडिट और बीमा समाधानों को बढ़ाना शामिल है. एक अनुमान के अनुसार 2022 और 2028 के बीच V20 देश विभिन्न लेनदारों को बाहरी ऋण सेवा के लिए 435.8 बिलियन अमेरिकी डॉलर की राशि का भुगतान करने की ज़िम्मेदारी उठाएंगे. अत: फंडिंग और इसके ब्रेकडाउन अर्थात विवरण L&D के लिए जोख़िम वाले वित्त के लिए जलवायु फंडिंग के समान वितरण की प्रतिबद्धता में भी प्रतिबिंबित होनी चाहिए.
तीसरी बात जलवायु परिणामों के अनुमानित भविष्य और उनके अपरिहार्य विषम परिणामों को संबोधित करने के लिए, विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन से निपटने को लेकर सामूहिक प्रयासों पर बल देना चाहिए. ऐसे में COP27 में इस मसले को लेकर एजेंडा-सेटिंग अर्थात भविष्य में उठाए जाने वाले कदमों के कार्यक्रम को तय कर लिया गया है, लेकिन इसे लेकर आगे की बातचीत नहीं हुई है. अत: COP27 में जो वादा किया गया था वह खोखला ही साबित हुआ है. ऐसे में यह साफ़ है कि शर्म अल-शेख में प्रतिनिधियों ने दरअसरल एक निर्णायक समझौते पर पहुंचे बगैर केवल नुक़सान और क्षति वित्त की बारीकियों पर बहस ही की थी. विश्व बैंक की 2019 की एक रिपोर्ट के अनुसार कम आय वाले देशों में बुनियादी ढांचे और सामाजिक सुरक्षा की जलवायु लचीली प्रणालियों में निवेश किया गया तो इससे 4.2 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर से अधिक का लाभ हासिल करना संभव है. हाल ही में संयुक्त राष्ट्र जलवायु एजेंसी की ओर से जारी किया गया मसौदा पाठ अपने हितधारकों, विशेष रूप से निम्न और मध्यम आय वाले देशों के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी से बचने की कोशिश ही करता दिखाई देता है. अब हम अस्पष्ट राजनीतिक प्रतिबद्धताओं का वादा करने के दौर से आगे निकल चुके हैं. जलवायु परिवर्तन को लेकर फ़ैल रहा आतंक अब दुनिया की समझ से बाहर की बात नहीं है. ऐसे में लोगों को उम्मीद है कि इससे निपटने के लिए परिवर्तनकारी तात्कालिकता के साथ प्रभावी ढंग से काम किया जाएगा.
नवीनतम जलवायु पारदर्शिता रिपोर्ट के अनुसार, बढ़ते तापमान के कारण G20 देशों में भारत की अर्थव्यवस्था सबसे अधिक प्रतिकूल रूप से प्रभावित हुई है. अत: इस मामले में बिना किसी देरी के कार्रवाई करना ज़रूरी हो गया है. LMIC देशों को अन्य बहुपक्षीय संस्थानों और साझेदारियों से उपलब्ध सहायता पर विचार करना चाहिए.
घरेलू मोर्चे पर जलवायु परिवर्तन से निपटने और जलवायु वित्तपोषण के लिए अंतरराष्ट्रीय ढांचे को अपनाने के लिए, भारत को भी अन्य LMIC देशों की तरह, निजी क्षेत्र, नागरिक समाज और भागीदार देशों से सहायता हासिल करना ज़रूरी है. ऐसा होने पर ही लचीलेपन, बीमा और जोख़िम कम करने की संयुक्त चुनौती से निपटने जैसे विशाल कार्य को आसानी से किया जा सकेगा. भारत उन कुछ देशों में से एक है जिसने COP26 के बाद से एक तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था के रूप में विकास की व्यवहार्यता के अनुरूप प्रतिबद्धताएं की हैं. इसे एक अनूठे और आशाजनक मामले के रूप में देखा जा सकता है. इसलिए, G20 और अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन के साथ-साथ आपदा प्रतिरोधी बुनियादी ढांचे के लिए बने गठबंधन में भारत की स्थिति प्रासंगिक संगठनों, निकायों और विशेषज्ञ नेटवर्क की तकनीकी सहायता को उत्प्रेरित करने वाली साबित हो सकती है. L&D के लिए जोख़िम वित्त को लेकर की गई कल्पना और कार्रवाई योग्य प्रतिबद्धता के बीच खाई को पाटने के लिए इस हस्तक्षेप की आवश्यकता है. इसके साथ ही यह हस्तक्षेप फंडिंग और कर्ज़ लेने के लिए धन के बीच जो असंतुलन है उसे भी दूर करने में सहायक साबित होगा. इसमें जहां COP27 विफ़ल साबित हुआ है, वहीं G20 यह महत्वपूर्ण निर्णय लेने की अगुवाई करने का वादा कर रहा है. जलवायु वित्त प्रदान करने के लिए विकसित देशों द्वारा की गई वर्तमान प्रतिबद्धताएं अपर्याप्त ही कही जा सकती हैं. अत: भविष्य में G20 देशों को अपनी चर्चा को 2025 से आगे वित्त पर एक नए सामूहिक लक्ष्य पर केंद्रित करना ज़रूरी हो गया है.
वाणी शर्मा, सेंटर फॉर न्यू इकोनॉमिक डिप्लोमेसी, ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन (ORF) में रिसर्च इंटर्न थीं.
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