तकनीक, उसके विकास के लिए नीतियां, तैनाती और इस्तेमाल वैश्विक शासनकला के केंद्र में हैं और आर्थिक, राजनीतिक एवं सैन्य शक्ति के प्रमुख मददकर्ता हैं. तकनीक में अग्रणी देश और संगठन जैसे चीन, यूरोपीय संघ (ईयू), भारत, जापान, दक्षिण कोरिया और अमेरिका वैश्विक तकनीकी परिदृश्य को इस तरह ढालना चाहते हैं कि अपनी आर्थिक प्रतियोगितात्मकता को मज़बूत कर सकें, राष्ट्रीय हितों को सुरक्षित कर सकें और अपने भूराजनीतिक लक्ष्यों को बढ़ावा दे सकें. इसका जवाब उत्पादन और सप्लाई चेन को फिर से अपने देश में लाने की तकनीकी-राष्ट्रवादी नीतियों की तरफ़ मुड़ना है. साथ ही तकनीक के प्रमुख क्षेत्रों, जिनमें सेमीकंडक्टर और महत्वपूर्ण खनिज शामिल हैं, के मामले में ज़्यादा आत्मनिर्भरता का अभियान चलाना भी है.
तकनीक के मामले में अग्रणी लोकतांत्रिक देशों के नेता एक-दूसरे के साथ बेहतर सहयोग की ज़रूरत को समझते हैं ताकि ये सुनिश्चित कर सकें कि उनका तकनीकी भविष्य फ़ायदेमंद और सुरक्षित हो. इस समझ के मूल में चीन की चुनौतियों को लेकर चिंताएं और दुनिया भर में तकनीक समर्थित तानाशाही के साथ जुड़े जोखिम हैं. साथ ही इस बात को लेकर व्यावहारिक समझ भी है कि तकनीक के फैलाव और उससे जुड़ी जानकारी और प्रमुख वैश्विक सप्लाई चेन की जटिलता को देखते हुए कोई अकेला देश वास्तव में अपने दम पर इन मुद्दों का समाधान नहीं कर सकता है. आख़िर में, एक सीधी राय है कि अलग-अलग रणनीति वाली भीड़ के मुक़ाबले समान सोच वाले देशों के सामूहिक दृष्टिकोण के सफल होने की ज़्यादा संभावना है.
तकनीक के मामले में अग्रणी लोकतांत्रिक देशों के नेता एक-दूसरे के साथ बेहतर सहयोग की ज़रूरत को समझते हैं ताकि ये सुनिश्चित कर सकें कि उनका तकनीकी भविष्य फ़ायदेमंद और सुरक्षित हो. इस समझ के मूल में चीन की चुनौतियों को लेकर चिंताएं और दुनिया भर में तकनीक समर्थित तानाशाही के साथ जुड़े जोखिम हैं.
तकनीक के मामले में अग्रणी लोकतंत्रों के नीति निर्माता समान विचार वाले देशों के साथ द्विपक्षीय और बहुपक्षीय मंचों जैसे क्वाड्रिलेटरल सिक्युरिटी डायलॉग, जी-7 और अमेरिका-ईयू व्यापार और तकनीकी परिषद में मज़बूत संबंधों की तरफ़ बढ़ रहे हैं. वैसे तो ये कोशिशें विस्तार और शामिल देशों के मामले में अलग-अलग हैं लेकिन ये इस मौलिक प्रस्तावना को साझा करते हैं कि एक-दूसरे से अलग तकनीकी नीति की मौजूदा राह बड़ी चुनौती पेश करती है जिससे परहेज़ किया जा सकता है. साथ ही यथास्थिति वाली कार्रवाई वैश्विक सामरिक प्रतिस्पर्धा के स्वरूप के लिए ठीक नहीं है.
वैसे तो इन कोशिशों की काफ़ी ज़रूरत है और इनका स्वागत किया जाना चाहिए लेकिन बेशुमार असंगठित गठबंधन का दिखने में अच्छा नतीजा तकनीकी मानकों, स्तरों और नियमों का टूटना है. इस टूट से परहेज़ करने के लिए बहुपक्षीय तकनीकी नीति को लेकर एक नये समन्वित तौर-तरीक़े की ज़रूरत होगी यानी तकनीक में अग्रणी लोकतंत्रों का गठबंधन जो रिसर्च और डेवलपमेंट, सप्लाई चेन में विविधता और सुरक्षा, मानक निर्धारण, बहुपक्षीय निर्यात नियंत्रण और तकनीकों के संकीर्ण इस्तेमाल के विरोध समेत अलग-अलग मुद्दों पर ज़्यादा असरदार सहयोग करेगा. इस तरह के स्वरूप पर साझेदारी समान विचार वाले देशों के बीच तकनीकी नीति में मौजूदा विविधता के समाधान और नई तरह की विविधता बनने से रोकने में मदद के लिए भी ज़रूरी है.
तकनीकी लोकतंत्रों में सहयोग को मज़बूती देने के लिए तीन सिद्धांत
राय बनाने वाले नेताओं ने इस तरह की कोशिशों के लिए कई विचार दिए हैं- दूसरों के अलावा डी-10, टेक-10, टी-12 इनमें शामिल हैं. संभावित संगठन के सटीक विवरण के बिना भी तीन सिद्धांत हैं जो इसके गठन को मज़बूती दे सकते हैं. सदस्यता की पहली कसौटी बड़ी अर्थव्यवस्था और तकनीक के क्षेत्रों में व्यापक क्षमता वाले देश हैं जो 21वीं सदी की अर्थव्यवस्था को आकार देंगे. ये देश उदारवादी लोकतांत्रिक मूल्यों, क़ानून आधारित शासन और मानवाधिकार के प्रति निश्चित रूप से प्रतिबद्ध होने चाहिए.
नये समूह में एक ऐसी व्यवस्था ज़रूर होनी चाहिए जिसके ज़रिए छोटी अर्थव्यवस्था या कम तकनीकी क्षमता वाले क्षेत्रों जैसे इंडो-पैसिफिक, अफ्रीका एवं लैटिन अमेरिका और दूसरे संगठनों जैसे ओईसीडी के साथ सहयोग किया जा सके और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस पर वैश्विक साझेदारी की जा सके.
दूसरा सिद्धांत ये है कि ऐसा संगठन पश्चिमी लोकतंत्रों का विशिष्ट क्लब नहीं होना चाहिए. एक तकनीकी गठबंधन को अनजाने में विकासशील देशों को नुक़सान पहुंचाना या नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहिए. नये समूह में एक ऐसी व्यवस्था ज़रूर होनी चाहिए जिसके ज़रिए छोटी अर्थव्यवस्था या कम तकनीकी क्षमता वाले क्षेत्रों जैसे इंडो-पैसिफिक, अफ्रीका एवं लैटिन अमेरिका और दूसरे संगठनों जैसे ओईसीडी के साथ सहयोग किया जा सके और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस पर वैश्विक साझेदारी की जा सके.
आख़िर में, किसी देश की अगुवाई में तकनीकी गठबंधन की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि वो कितनी कार्यकुशलता से हिस्सेदारों की भागीदारी का प्रबंधन करता है. निजी उद्योगों, ग़ैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ), वैज्ञानिक एवं तकनीकी संगठनों और अकादमिक संस्थानों के साथ भागीदारी जानकार और असरदार फ़ैसला लेने और तकनीकी नीति की पहल को लागू करने के लिए ज़रूरी है.
जहां साहसी नये विचार होते है, वहां आलोचक और शक करने वाले होते हैं. नीति निर्माताओं को तकनीकी गठबंधन की अवधारणा की दो प्रमुख आलोचनाओं की उम्मीद पहले से कर लेनी चाहिए. पहली आलोचना ये कि ऐसे गठबंधन में अमेरिका, जो कि एक तकनीकी महाशक्ति है, का दबदबा होगा और दूसरे देश अमेरिकी हितों के अधीन होंगे. यूरोप के नेताओं ने ख़ास तौर पर तकनीकी और डिजिटल संप्रभुता के लिए दलील दी है. अमेरिका और उसका तकनीकी उद्योग जहां कई क्षेत्रों में सबसे आगे है, वहीं ये तथ्य भी है कि महत्वपूर्ण सेक्टर, जिनमें सेमीकंडक्टर और दूरसंचार शामिल हैं, में वो दूसरों पर काफ़ी निर्भर है. दूसरे शब्दों में कहें तो अतिरिक्त जानकारी और आविष्कार की क्षमता के ज़रिए तकनीकी गठबंधन में हर सदस्य देश का असर है. इसके अलावा, जैसा कि रेबेका आर्केसती और इस लेखक ने ईयू के संदर्भ में दलील दी है, “लचीलेपन की खोज का नतीजा अलगाव में नहीं होना चाहिए. अपनी तकनीकी स्वतंत्रता सुनिश्चित करने में यूरोप के लिए सबसे अच्छा रास्ता सहयोगियों के साथ समझौता है.”
एक असरदार तकनीकी गठबंधन के लिए राष्ट्रीय हितों और सदस्य देशों के साझा हितों को संतुलित करने की ज़रूरत होगी. अगर आर्थिक प्रतियोगितात्मकता के लिए साझा मूल्यों और लक्ष्यों पर विचार किया जाए तो ये एक मुश्किल लेकिन पूरा करने योग्य चुनौती है. इस संदर्भ में ‘संप्रभुता’ के मतलब को लेकर सोच में बदलाव भी ज़रूरी है. अंत में, सहयोगियों और समान सोच वाले देशों के साथ परस्पर निर्भरता को साझा तकनीकी-लोकतांत्रिक संप्रभुता के रूप में सबसे आगे देखा जाना चाहिए. वहीं चीन जैसे निरंकुश देशों के साथ परस्पर निर्भरता आर्थिक और राष्ट्रीय सुरक्षा की कमज़ोरी से भरपूर है जो उदारवादी-लोकतांत्रिक मानकों और मूल्यों के लिए सीधी चुनौती पेश करते हैं.
तकनीकी नेतृत्व सुनिश्चित करने के लिए दुनिया के तकनीकी-लोकतांत्रिक देशों द्वारा एक तकनीकी गठबंधन सबसे अच्छा रास्ता है. ये नेतृत्व लोकतांत्रिक संस्थानों, मानकों और मूल्यों को सुरक्षित रखने के लिए ज़रूरी होगा. ये दुनिया भर में टिकाऊ और न्यायसंगत आर्थिक विकास के लिए प्रेरक होगा.
तकनीकी गठबंधन से छिड़ सकता है नया शीत युद्ध
दूसरी आलोचना ये होगी कि एक तकनीकी गठबंधन ‘तकनीकी शीत युद्ध’ को बढ़ाएगा. इसमें मुख्य तौर पर अमेरिका-चीन की साझेदारी में तनाव को बताया गया है. कम नाटकीय शब्दों में कहें तो ये चीन और अमेरिका के साथ-साथ दूसरे तकनीकी तौर पर अग्रणी लोकतंत्रों के तकनीकी इकोसिस्टम में विभाजन को लेकर चिंता दिखाता है. एक आंशिक असहमति पहले ही हो चुकी है क्योंकि दोनों देशों के नेता ऐसा ही चाहते हैं. अमेरिका के नेता चीन की तकनीकी कंपनियों के उत्पादों के साथ जुड़े जोखिम को लेकर उचित रूप से चिंतित हैं. चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने अपने शब्दों और व्यवहार से साफ़ किया है कि वो कई तरह के तकनीकी क्षेत्रों में आत्मनिर्भर होना चाहती है. अमेरिका और उसके सहयोगियों की तरह चीन भी अपने सप्लाई चेन में ज़्यादा लचीलापन और सुरक्षा चाहता है.
एक तकनीकी गठबंधन के द्वारा इन संतुलनों को बिगाड़ने की आशंका नहीं है, न ही इसका नतीजा पूरी तरह अलग इकोसिस्टम में निकलने वाला है. उनकी कोशिशों में सहयोग और मेल के द्वारा तकनीक में अग्रणी लोकतंत्रों के पास फ़ायदा उठाने का महत्वपूर्ण मौक़ा और असर है. इससे वो ज़्यादा अनुकूल गतिशीलता को मुमकिन बनाते हैं. चीन के लिए अलग स्तर, मानक और नियमों वाला एक स्वतंत्र तकनीकी क्षेत्र स्थापित करने का प्रोत्साहन और अवसर, जिसमें दूसरे देश भी शामिल हो सकते हैं, उस वक़्त तेज़ी से कमज़ोर हो जाता है जब दुनिया की जीडीपी, विज्ञान एवं तकनीकी इंफ्रास्ट्रक्चर, और रिसर्च एंड डेवलपमेंट पर खर्च में ज़्यादा हिस्सा वाले देश एक मज़बूत विकल्प पेश करते हैं. अगर चीन ज़िद करता है तो वो ख़ुद को और अपने रास्ते पर चलने वाले दूसरे देशों को वैश्विक अर्थव्यवस्था के बड़े हिस्से से अलग-थलग कर देगा.
तकनीकी नेतृत्व सुनिश्चित करने के लिए दुनिया के तकनीकी-लोकतांत्रिक देशों द्वारा एक तकनीकी गठबंधन सबसे अच्छा रास्ता है. ये नेतृत्व लोकतांत्रिक संस्थानों, मानकों और मूल्यों को सुरक्षित रखने के लिए ज़रूरी होगा. ये दुनिया भर में टिकाऊ और न्यायसंगत आर्थिक विकास के लिए प्रेरक होगा. इस लक्ष्य से कुछ भी कम ऐसी दुनिया के लिए बड़ा जोखिम होगा जो उदीयमान तकनीकी अधिनायकवाद से चोटिल है. साथ ही दुनिया भर के लोकतांत्रिक देशों में आर्थिक उत्साह, राष्ट्रीय सुरक्षा और मूल्यों के लिए सीधी चुनौती है. ये सुनिश्चित करना कि ऐसा भविष्य कभी नहीं आए, ये दुनिया भर के तकनीकी-लोकतंत्रों के नेताओं का आह्वान होना चाहिए.
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