वर्ष 2023 की पहली तीन तिमाहियों में वैश्विक तापमान में एक उल्लेखनीय वृद्धि दर्ज़ की गई. आँकड़े बताते हैं कि इस दौरान वैश्विक स्तर पर गर्मी पूर्व-औद्योगिक वर्षों की तुलना में 1.5 डिग्री से भी अधिक रही, जो कि एक अभूतपूर्व घटना है. मौज़ूदा स्थितियों में मानव-प्रेरित जलवायु परिवर्तन के प्रभाव, मानव अस्तित्व के लिए सबसे बड़े खतरों में से एक हैं. इसका अनुभव हम एशिया, अफ़्रीका और यूरोप के विभिन्न हिस्सों में विनाशकारी बाढ़ और पूरे विश्व में भीषण गर्मी और शीत लहर की घटना को देखते हुए आसानी से कर सकते हैं. जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल (IPCC) के हालिया विश्लेषणों में पेरिस समझौते से जुड़े मुद्दों के समाधान में विफलता के प्रमाण मिले हैं, जिसका मुख्य उद्देश्य वैश्विक तापमान को नियंत्रित करना है. वर्तमान लागू नीतियाँ, राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (NDCs) के साथ वैश्विक औसत तापमान में 2.8 डिग्री वृद्धि की संभावना को व्यक्त करती है, क्योंकि कॉप-26 शिखर सम्मेलन के दौरान जिन देशों ने वर्ष 2030 तक उत्सर्जन में भारी कटौती करने का वादा किया था, उस वादे और धरातल पर होने वाले काम में काफी अंतर दिख रहा है.
दुनिया के विकसित देशों ने उत्सर्जन कटौती लक्ष्यों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को बार-बार अस्वीकार कर दिया है, जिससे पेरिस समझौते में निहित “समान परंतु विभाजित उत्तरदायित्त्वों” के सिद्धांत को लागू करने में एक बड़ी बाधा हो रही है.
अब जब वैश्विक समुदायों द्वारा दुबई में कॉप-28 जलवायु शिखर सम्मेलन (COP-28 Summit) की तैयारी की जा रही है, तो मौज़ूदा जलवायु शासन प्रणाली की क्षमता को लेकर कई गंभीर प्रश्न पूछे जा रहे हैं, ताकि उसके लक्ष्यों को मूर्त रूप दिया जा सके और कार्यों का प्रभाव बढ़े. हालाँकि, यह भी स्पष्ट है कि एक नवीकृत बहुपक्षीय सहयोग के बिना कोई भी प्रभावी जलवायु कार्रवाई असंभव है.
ऐसे में, COP-28 को सहयोग के नये रास्तों की पहचान के लिए एक मंच के रूप में काम करना होगा, जो पेरिस समझौते के लक्ष्यों को हासिल करने के लिए पूरी दुनिया को वापस पटरी पर ला सके. जैसा कि ऑब्ज़र्वर रिसर्च फ़ाउंडेशन, थिंक20 इंडिया, थिंक28 और अमीरात पॉलिसी सेंटर द्वारा हाल ही में आयोजित कार्यक्रम में COP-28 के अध्यक्ष डॉ. सुल्तान अल-ज़ाबेर ने कहा - “2030 तक कार्बन उत्सर्जन को 22 गीगाटन तक कम करने के उपायों की खोज करना (वैश्विक तापमान को 1.5 डिग्री तक सीमित करने के लिए आवश्यक) कॉप-28 शिखर सम्मेलन का मूल लक्ष्य है. हमें एक-दूसरे पर उँगली उठाना बंद करते हुए, सभी हितधारकों की मदद से कार्बन उत्सर्जन को 22 गीगाटन तक कम करने के विषय में अपना पूरा ध्यान केन्द्रित करना होगा.”
नये नरेटिव की दरकार
COP-28 शिखर सम्मेलन को प्रभावी बनाने के लिए, जलवायु कार्रवाई के इर्द-गिर्द एक ऐसे नये आख्यान को बुनने की आवश्यकता है, जो वैश्विक दक्षिणी देशों (Global South) को केन्द्र में रखता हो. इसकी दो मुख्य वजहें हैं. पहला तो यह है कि वैश्विक दक्षिणी देश पहले से ही जलवायु परिवर्तन के अनुपात के स्तर पर असमान प्रभावों को झेल रहा हैं, जिससे असमानता काफी बढ़ गई है. आँकड़े बताते हैं कि दुनिया के सबसे अमीर और सबसे गरीब देशों के बीच आर्थिक असमानता दर 25 प्रतिशत से भी अधिक है और अब इन अर्थव्यवस्थाओं में सतत विकास के लक्ष्यों को हासिल करना पूरी तरह से इस बात पर निर्भर करता है कि वे जलवायु परिवर्तन के प्रति लचीले व्यवहारों को कैसे अपनाते हैं.
वहीं, दूसरी वजह यह है कि आज ऐतिहासिक ऊर्जा सम्बंधित उत्सर्जन में विकसित देशों की भूमिका सर्वाधिक है और संभावना है कि आने वाले समय में विकासशील देश उत्सर्जन के सबसे बड़े केन्द्र होंगे. उदाहरण के तौर पर, वर्ष 2040 तक 90 प्रतिशत अतिरिक्त बिजली की माँग विकासशील देशों में होगी. ऊर्जा निर्धनता को ख़त्म करने और सतत विकास के लक्ष्यों को पाने के लिए यह वृद्धि अनिवार्य है. संयोग से, इन देशों में ऊर्जा क्षेत्र के अधिकांश बुनियादी ढांचे का निर्माण होना अभी भी बाक़ी है. वास्तव में, एक सफल वैश्विक ऊर्जा संक्रमण (Global Energy Transition) इन देश में निम्न कार्बन ऊर्जा बुनियादी ढांचे के विकास के लिए उपयुक्त संसाधनों को सुनिश्चित करते हुए, ऊर्जा परिवर्तन को विकास के एजेंडे से जोड़ने पर निर्भर करेगा, जो ऊर्जा पहुँच और सामर्थ्य में भी सुधार लाता है.
एक लक्षित ग्लोबल साउथ एजेंडा, आम सहमति बनाने की दिशा में एक अच्छा प्रारंभिक बिन्दु है.
ऐतिहासिक रूप से, जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (UNFCCC) के समझौते ग्लोबल साउथ की अगुवाई में जलवायु परिवर्तन के विरुद्ध कार्रवाई के लिए अनुकूल परिस्थितियों को बनाने में निरंतर विफल रहे हैं. दुनिया के विकसित देशों ने उत्सर्जन कटौती लक्ष्यों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को बार-बार अस्वीकार कर दिया है, जिससे पेरिस समझौते में निहित “समान परंतु विभाजित उत्तरदायित्त्वों” के सिद्धांत को लागू करने में एक बड़ी बाधा हो रही है. फलस्वरूप, वैश्विक दक्षिणी देशों में एक प्रभावी ऊर्जा संक्रमण के लिए उचित वातावरण बनाने पर ध्यान देने के बजाय, उपलब्ध कार्बन स्पेस के न्यायपूर्ण वितरण के गठन को लेकर विभिन्न समूहों के बीच ही लड़ाई छिड़ गई है. इसके अलावा, वैश्विक दक्षिणी देशों में प्रौद्योगिकी हस्तांतरण और जलवायु वित्त के वादों को पूरा करने में विफल होने के कारण विकसित और विकासशील देशों के बीच विश्वास और भी कम हो गया है. इसका सबसे बड़ा उदाहरण, वर्ष 2020 तक विकासशील देशों को वार्षिक 100 बिलियन अमेरिकी डॉलर प्रदान करने की प्रतिबद्धता को पूरा न करना है.
इस प्रकार, COP-28 शिखर सम्मेलन को एक ऐसे नये आख्यान के माध्यम से बहुपक्षीय जलवायु सहयोग को फिर से सुदृढ़ करने के उपायों को खोजना होगा, जो ग्लोबल नॉर्थ और साउथ के बीच भरोसे और विश्वास को पुनर्बहाल कर सके. संयोग से, इस वर्ष संयुक्त राष्ट्र जलवायु शिखर सम्मेलन ऐसे समय में हो रहा है, जब विभिन्न अंतरराष्ट्रीय मंचों पर वैश्विक दक्षिणी देशों की अगुवाई में जलवायु परिवर्तन से संबंधित प्रयासों की गति बढ़ रही है.
विशेष रूप से, नई दिल्ली घोषणा पत्र में हरित विकास समझौते को शामिल करना वैश्विक दक्षिणी देशों में सतत और समावेशी विकास के उत्प्रेरक के रूप में जलवायु कार्रवाई के इर्द-गिर्द एक सामंजस्यपूर्ण आख्यान बुनने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है. इस विषय में जी-20 नेताओं की सर्वसम्मति COP-28 और UNFCCC के लिए अतीत के पूर्वाग्रहों को मिटाने और न्यायसंगत व महत्त्वाकांक्षी जलवायु कार्रवाई सुनिश्चित करने के लिए विशिष्ट पद-चिन्हों की पहचान करने और उन्हें लागू करने की दिशा में एक उम्दा प्रारंभिक बिन्दु है.
इस संदर्भ में, थिंक20 इंडिया, ऑब्ज़र्वर रिसर्च फ़ाउंडेशन और थिंक28 द्वारा, अबू धाबी में 'जी20 से लेकर कॉप-28 तक: ऊर्जा, जलवायु और विकास' विषय में एक परिचर्चा का आयोजन किया गया. इस कार्यक्रम में भारत की जी-20 अध्यक्षता में वैश्विक दक्षिणी देशों पर बल देने और इसे COP-28 एजेंडा में एकीकृत करने की दिशा में सहयोगात्मक रूप से रणनीतियों पर विचार करने के लिए 63 देशों के 100 से अधिक नेताओं को आमंत्रित किया गया. आगे, इस परिचर्चा के कॉल-टू-एक्शन का उल्लेख किया गया है.
कॉल-टू-एक्शन
संयुक्त राष्ट्र जलवायु शिखर सम्मेलन से पूर्व आयोजित इस परिचर्चा का समापन एक ऐसे बिन्दु पर हुआ है, जो समावेशी जलवायु कार्रवाई की दिशा में वैश्विक प्रयासों को बनाए रख सकते हैं. इनमें ‘समान ऊर्जा समृद्धि’, ‘जलवायु कार्रवाई को सामाजिक विकास से जोड़ने के लिए प्रतिबद्धता’, ‘जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के संदर्भ में स्वास्थ्य, शिक्षा और लैंगिक समानता को बल’, ‘हमारी पर्यावरणीय आकांक्षाओं की पूर्णता के लिए जलवायु और प्रौद्योगिकी का एक साथ लाभ उठाना’, और ‘वैश्विक जलवायु वित्त की पुनर्कल्पना और पुनर्संरचना की अनिवार्यता’ जैसे विषय शामिल थे.
पहला लक्ष्य: एक न्यायसंगत ऊर्जा संक्रमण मार्ग के विषय में आम सहमति बनाएँ, जो सभी के लिए ऊर्जा समृद्धि को सुनिश्चित कर सके
Ø विकासशील देशों में अपने विकास लक्ष्यों को हासिल करने की दिशा में पर्याप्त कार्बन स्पेस बनाने के लिए, वैश्विक उत्तरी देशों को जीवाश्म ईंधन पर अपनी निर्भरता तेजी से कम करने की आवश्यकता है. विशेष रूप से, सभी UNFCCC सदस्यों को वर्ष 2030 तक अपनी नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता को तीन गुना बढ़ाने के लिए प्रतिबद्ध होना चाहिए. इस लक्ष्य का समर्थन जी-20 नेताओं ने नई दिल्ली घोषणा पत्र में भी सर्वसम्मति से किया.
Ø पहले ग्लोबल स्टॉकटेक (GST) का उपयोग जलवायु कार्रवाई में प्रचलित अंतरालों को इंगित करने, देशों के ऊर्जा उत्पादन और उत्सर्जन में एक सांमजस्य स्थापित करने एक अवसर के रूप में किया जाना चाहिए. यह जलवायु परिवर्तन से संबंधित पहलों में पिछड़ रहे देशों को अपने शमन प्रयासों को बढ़ावा देने के लिए उल्लेखनीय रूप से प्रेरित करेगा. इसके अलावा, जीएसटी को वैश्विक दक्षिणी देशों में विकास संबंधी आवश्यकताओं के संदर्भ में संभावित उत्सर्जन मार्गों को समझने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करनी चाहिए.
Ø आज एक सक्षम ऊर्जा संक्रमण प्रणाली के लिए न्यायसंगत संक्रमण और अंतरराष्ट्रीय भागीदारी को पुनर्भाषित करने की आवश्यकता है. हमें एक ऐसे दृष्टिकोण को अपनाना होगा, जिसमें कोयला क्षेत्र से आगे बढ़कर एक व्यापक अर्थव्यवस्था-आधारित रणनीति शामिल हो और विकसित देशों को ऊर्जा संक्रमण के आर्थिक सह-लाभों को अधिकतम करने की अनुमति दे.
दूसरा लक्ष्य: मुख्यधारा की जलवायु शासन नीति में जलवायु-स्वास्थ्य-लैंगिक समानता के संबंधों को एकीकृत करना
Ø भविष्य में सतत विकास लक्ष्य और जलवायु कार्रवाई के बीच सामंजस्य, जलवायु परिवर्तन के बढ़ते प्रभावों के प्रति वैश्विक दक्षिणी देशों में लचीले व्यवहारों पर निर्भर होगी. इस एजेंडे के केन्द्र में जलवायु-स्वास्थ्य-लैंगिक समानता के संबंधों से एकीकृत रूप से निपटने की आवश्यकता होगी. जलवायु, स्वास्थ्य और लैंगिक समानत की भूमिका के इंटरसेक्शन को संस्थागत बनाया जाना चाहिए. UNFCCC के सभी सदस्यों को एक घोषणा पत्र का सर्वसम्मति से समर्थन करना चाहिए, जो ऐसी व्यवस्था की स्थापना करती है और जलवायु व स्वास्थ्य को एक परस्पर जुड़ी चुनौती के रूप में हल करने के लिए ठोस प्रयासों को बढ़ावा देती है.
Ø कॉप-28 के प्रयासों में, G-20 डेटा गैप्स इनिशियेटिव के माध्यम से हुई प्रगति का लाभ उठाने को प्राथमिकता दी जानी चाहिए, विशेष रूप से जलवायु, स्वास्थ्य और लैंगिक मुद्दों के संबंध में सूचना अंतराल को मिटाने के लिए. इस दृष्टिकोण का उद्देश्य नीति विकास को बढ़ावा देना, जलवायु नीति समीक्षा प्रक्रिया में प्रभाव आंकलन को सुव्यवस्थित करना और समय पर हस्तक्षेप के लिए जोख़िम मूल्यांकन करना है.
Ø नेतृत्व की भूमिकाओं और निर्णय निर्माण प्रक्रियाओं में महिलाओं की भागीदारी पर बल देते हुए, जलवायु परिवर्तन से जुड़े प्रयासों में उनके पारंपरिक ज्ञान के इस्तेमाल के लिए क्षमता-निर्माण पहल का क्रियान्वयन.
तीसरा लक्ष्य: वैश्विक उत्तरी और दक्षिणी देशों के बीच जलवायु तकनीकी विभाजन को पाटने पर बल
Ø वर्ष 2030 तक वैश्विक दक्षिणी देशों में तकनीकों को अपनाने की लक्षित दर के साथ, वैश्विक उत्तरी और दक्षिणी देशों तक वर्तमान सतत प्रौद्योगिकियों के प्रवाह को सुविधाजनक बनाने के लिए “अभिगम्यता के लिए जलवायु तकनीकी साझेदारी” (क्लाइमेट टेक पार्टनरशिप फॉर एसेसिबिलिटी) को अपनाने पर बल.
Ø वैश्विक दक्षिणी देशों में घरेलू जलवायु तकनीक पारिस्थितिकी तंत्र में विकास और नवाचार को बढ़ावा देने के लिए 'इनोवेट फॉर क्लाइमेट टेक कोलिशन' के अंतर्गत एक निष्पक्ष और उचित वित्त पोषण व्यवस्था को अंज़ाम दिया जाए.
Ø एक व्यापक प्रोत्साहन संरचना को विकसित करें, जो विभिन्न हितधारकों के बीच उनके प्रसार को सुनिश्चित करने के लिए हरित प्रौद्योगिकियों से जुड़ी सकारात्मक बाह्यताओं का ध्यान रखे.
Ø चौथा लक्ष्य: जलवायु वित्त पोषण के संवाद को अरबों डॉलर से बढ़ाकर से खरबों डॉलर करें
Ø जी20 द्वारा स्थापित मज़बूत एजेंडे को आगे बढ़ाते हुए, बहुपक्षीय विकास बैंकों में सुधारात्मक प्रयासों को बल दें. आज इस संस्थानों में जलवायु कार्रवाई स्पष्ट अधिदेश होना चाहिए. हमें उच्च क्षमता वाले हरित क्षेत्रों में निजी पूँजी प्रवाह को बढ़ाते हुए जलवायु वित्त अंतर को मिटाने पर स्पष्ट ध्यान देने के साथ, वैश्विक दक्षिणी देशों में निवेश को किसी भी जोख़िम से बचाने के लिए बहुपक्षीय विकास बैंकों के ऋण देने के पैटर्न को भी पुनर्निर्मित करने की आवश्यकता है.
Ø वर्ष 2024 तक जलवायु वित्त पर एक नए परिमाणित लक्ष्य को अपनाने का रास्ता ढूंढ़ें. यहाँ महत्वपूर्ण यह है कि अब मुद्दा शुरुआती 100 बिलियन अमेरिकी डॉलर की प्रतिबद्धता से कहीं अधिक होना चाहिए. विकासशील देशों को अपने जलवायु लक्ष्यों को हासिल करने के लिए हर वर्ष 2-3 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की आवश्यकता होगी. नये लक्ष्यों के निर्धारण में यह अवश्यक ध्यान में रखा जाना चाहिए कि अब संवाद वित्त पोषण के लिए अरबों से खरबों डॉलर के बदलाव को भली-भांति ज़ाहिर करे.
Ø वर्ष 2025 तक, जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का सामना कर रहे सबसे संवेदनशील समुदायों की मदद के लिए विकसित देशों द्वारा अनिवार्य आरंभिक योगदान के साथ, हानि और क्षति कोष के वित्त पोषण तंत्र के सुचारु संचालन पर बल
निष्कर्ष
यहाँ जिन रणनीतियों का ज़िक्र किया गया है, वे निःसंदेह बेहद महत्वाकांक्षी हैं. लेकिन, जलवायु परिवर्तन से जुड़े खतरे बड़े हैं और हमें इनका समाधान तत्काल करना होगा. भारत की जी-20 अध्यक्षता ने साबित किया है कि एक कठिन समय में भी आम सहमति बनाना संभव है. वहीं, यह आवश्यक है कि कॉप-28 शिखर सम्मेलन वैश्विक समुदायों के लिए एक एकीकृत मंच के रूप में कार्य करे और यह अतीत के बोझ तले न दबे. एक लक्षित ग्लोबल साउथ एजेंडा, आम सहमति बनाने की दिशा में एक अच्छा प्रारंभिक बिन्दु है. वैश्विक जलवायु शासन प्रणाली को फिर से सुदृढ़ करने के लिए, अब एक प्रबल कॉप-28 परिणाम बेहद आवश्यक है.
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