वर्ष 2020 बाक़ी देशों के साथ साथ, भारत के लिए भी बेहद उथल-पुथल भरा रहा. कोविड-19 महामारी के चलते भारत को सभी घरेलू मोर्चों पर चुनौती का सामना करना पड़ा. दुनिया के सबसे ज़्यादा कोविड-19 मरीज़ों वाले देशों में भारत का नाम भी शामिल रहा. कई दशकों बाद भारत को आर्थिक सुस्ती का भी सामना करना पड़ा. बाहरी मोर्चों की बात करें, तो भारत को चीन के साथ सीमा पर भयंकर तनाव से जूझना पड़ा. वहीं, मोटे तौर पर देखें तो अंतरराष्ट्रीय माहौल भी मुश्किलों भरा रहा.
लेकिन, कोविड-19 की महामारी से पहले ही भारत के सामने आर्थिक चुनौतियां सिर उठाने लगी थीं. गैर बैंकिंग वित्तीय संस्थानों की स्थिरता को लेकर सवाल उठ रहे थे और नोटबंदी के बाद आर्थिक सुधारों की गति भी धीमी हो गई थी. हालांकि इसी दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी राजनीतिक ज़मीन मज़बूत करते रहे. उन्होंने कश्मीर पर भी शिकंजा कसा. ये सब तक हो रहा था, जब हिंद-प्रशांत क्षेत्र एक महत्वपूर्ण भौगोलिक और जियोपॉलिटिकल परिकल्पना के रूप में उभरा. दुनिया ने भारत की ओर ध्यान देने के साथ-साथ उसके आस-पास के क्षेत्रों में दिलचस्पी लेनी भी शुरू कर दी. उभरते चीन के संदर्भ में ख़ास तौर से बहुत से देशों ने भारत के आर्थिक उभार और इसके क्षेत्रीय सुरक्षा गठबंधनों का हिस्सा बनने की उम्मीदें लगा रखी हैं. इनमें अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ भारत का Quad सुरक्षा संवाद सबसे महत्वपूर्ण है.
उभरते चीन के संदर्भ में ख़ास तौर से बहुत से देशों ने भारत के आर्थिक उभार और इसके क्षेत्रीय सुरक्षा गठबंधनों का हिस्सा बनने की उम्मीदें लगा रखी हैं. इनमें अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ भारत का Quad सुरक्षा संवाद सबसे महत्वपूर्ण है.
अगर हम इन सब बातों को मिलाकर देखें, तो आज भारत बेहद महत्वपूर्ण मोड़ पर खड़ा नज़र आता है. अपने आर्थिक विकास के साथ-साथ बहुआयामी जियोपॉलिटिकल मंज़र में ख़ुद को प्रासंगिक और महत्वपूर्ण बनाए रखने के लिए भारत को जल्द से जल्द कोविड-19 की महामारी पर क़ाबू पाना होगा. इसके साथ साथ, उसे भविष्य में अपनी अर्थव्यवस्था की तेज़ प्रगति के लिए संरचनात्मक सुधारों को भी प्राथमिकता देनी होगी. ऐसा करने से भारत के नागरिकों का रहन-सहन तो बेहतर होगा ही, विदेशों में भी भारत को अधिक आर्थिक शक्ति मिलेगी. इससे भारत को नीतिगत मामलों में विकल्प चुनने के और मौक़े मिलेंगे. वो ये तय कर पाएगा कि दुनिया के तमाम देशों से उसे कैसे रिश्ते रखने हैं. घरेलू आर्थिक विकास पर ज़ोर देना इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि तभी मुंबई जैसे शहर महत्वपूर्ण क्षेत्रीय केंद्रों के रूप में काम कर सकेंगे.
फ़ौरी नहीं दूरगामी आर्थिक योजनाएं बनें
इस महामारी से होने वाले आर्थिक नुक़सान को सीमित करने के लिए कोरोना वायरस पर क़ाबू पाना फौरी प्राथमिकता होनी चाहिए, जिससे भारत की अर्थव्यवस्था तेज़ी से पटरी पर लौट सके. वर्ष 2020 की पहली और दूसरी तिमाही में भारतीय अर्थव्यवस्था बहुत तेज़ गति से सिकुड़ी थी. हालांकि, अब संकेत ऐसे हैं कि अर्थव्यवस्था का सबसे बुरा वक़्त बीत चुका है. लेकिन, आर्थिक गतिविधियों के अर्थपूर्ण तरीक़े से पटरी पर लौटने के लिए, कोविड-19 का संक्रमण रोकना होगा, ख़ास तौर से तब और जब सरकार के पास आर्थिक रिकवरी की प्रक्रिया तेज़ करने के लिए वित्तीय संसाधन बहुत कम हैं. महामारी से हुए आर्थिक नुक़सान को कम करना और अर्थव्यवस्था को दोबारा पटरी पर लाना, लोगों की रोज़ी-रोटी के लिए भी ज़रूरी है और विश्व में भारत की आर्थिक हैसियत बढ़ाने के लिए भी महत्वपूर्ण है. फिर चाहे अभी की बात हो, या भविष्य की दृष्टि से देखें तो भी.
लंबी अवधि में अगर भारत आने वाले वर्षों में अपने विकास की गति को तेज़ बनाए रखने की उम्मीद बनाए रखना चाहता है, तो उसे अपनी अर्थव्यवस्था के गियर बदलने होंगे. अब तक पूर्वी एशिया के चमत्कारिक अर्थव्यवस्था वाले देशों की तुलना में भारत द्वारा अपने यहां शहरीकरण और औद्योगीकरण को लागू करने की गति धीमी रही है. 1991 में किए गए बड़े आर्थिक सुधारों को छोड़ दें, तो अन्य सफल विकासशील देशों ने कई दौर में आर्थिक नीतियों में जो महत्वपूर्ण बदलाव किए हैं, उनकी तुलना में भारत में बुनियादी ढांचे और संस्थाओं के क्षेत्र में व्यापक आर्थिक सुधारों की काफ़ी गुंजाइश दिखती है. ऐसी बुनियादें रखना न केवल व्यापक आर्थिक विकास के लिए ज़रूरी है, बल्कि मुंबई जैसे शहरों के मज़बूत क्षेत्रीय केंद्रों के रूप में विकसित होने के लिए भी ज़रूरी हैं. भारत के पास युवा आबादी जैसा महत्वपूर्ण संसाधन है, फिर भी उसे भविष्य में तेज़ गति से तरक़्क़ी करने के लिए संरचनात्मक सुधार करना बहुत महत्वपूर्ण है.
लंबी अवधि में अगर भारत आने वाले वर्षों में अपने विकास की गति को तेज़ बनाए रखने की उम्मीद बनाए रखना चाहता है, तो उसे अपनी अर्थव्यवस्था के गियर बदलने होंगे. अब तक पूर्वी एशिया के चमत्कारिक अर्थव्यवस्था वाले देशों की तुलना में भारत द्वारा अपने यहां शहरीकरण और औद्योगीकरण को लागू करने की गति धीमी रही है.
अभी हो या भविष्य में, अधिक मज़बूती से प्रगति करने के कई जियोइकॉनमिक लाभ हैं. वैसे तो भारत की अर्थव्यवस्था पहले ही कई देशों की तुलना में काफ़ी बड़ी है, लेकिन PPP के पैमाने पर ये अभी भी चीन की अर्थव्यवस्था की तुलना में आधी ही है. वहीं, 2019 के बाज़ार की दर के लिहाज़ से भारत की अर्थव्यवस्था, चीन के पांचवें हिस्से के ही बराबर है. ऐसे में अगर भारत तेज़ी से आर्थिक प्रगति करता है, तो वो न सिर्फ़ आकार में बल्कि परिष्करण की दृष्टि से भी चीन की अर्थव्यवस्था का मुक़ाबला कर सकेगा. इससे भारत की अपनी आर्थिक शक्ति का भी विकास होगा. अर्थव्यवस्था का आकार बढ़ने के कई और फ़ायदे भी हैं. भारत की अर्थव्यवस्था बढ़ेगी, तो आस-पास के अन्य देश भी उसकी ओर आकर्षित होंगे. इससे भारत को व्यापार जैसे माध्यमों से अपना प्रभाव बढ़ाने का मौक़ा मिलेगा. भले ही रीजनल कॉम्प्रिहेंसिव, इकॉनमिक पार्टनरशिप (RCEP) को लेकर उसका नज़रिया जो भी हो. इससे भारत को मुंबई जैसे आर्थिक केंद्र विकसित करने और उन्हें निवेश के स्रोत और मंज़िल बनाने में भी मदद मिलेगी. इससे भारत को अपनी शक्ति को तरह तरह से इस्तेमाल कर पाने के विकल्प हासिल होंगे.
अच्छी विकास दर की बुनियाद रखने के लंबी अवधि वाले जियोपॉलिटिकल लाभ भी हैं. चूंकि, आने वाले दशकों में चीन की आबादी के बुज़ुर्ग होने और तकनीकी सीमाओं के कारण, उसके विकास की दर धीमी होने का अनुमान है. ऐसे में भारत के सामने इस क्षेत्र की एक बड़ी आर्थिक और सामरिक शक्ति के रूप में उभरने का अवसर खड़ा है. लेकिन, भारत को ये दर्ज़ा अपने आप नहीं मिल जाएगा. ये इस बात पर निर्भर होगा कि आने वाले वर्षों में भारत अपनी विदेश नीति को लेकर कैसे विकल्प अपनाता है. हालांकि, विदेश नीति के ऐसे विकल्प भारत को मज़बूत आर्थिक प्रगति की बुनियाद पर ही मिलेंगे. तभी भारत शक्तिशाली देश बनने के लिए ज़रूरी अन्य तत्वों जैसे कि सैन्य और कूटनीतिक क्षेत्रों में क्षमता के विकास में निवेश कर सकेगा. ऐसे निवेश काफ़ी हद तक भारत की आर्थिक स्थिति पर निर्भर होंगे.
तेज़ विकास से जियोपॉलिटिकल फ़ायदे
अगर अधिक तेज़ विकास के ऐसे जियोपॉलिटिकल लाभ दिख रहे हैं, तो इसका नुक़सान क्या है? अगर भारत अपने तेज़ आर्थिक विकास की मज़बूत बुनियाद नहीं रखता, तो चीन की तुलना में अपने समर्थन में देशों को जुटा पाना उसके लिए मुश्किल होगा. इसका नतीजा ये होगा कि अपने आस-पास के क्षेत्र में भी भारत का प्रभाव सीमित ही रहेगा. चीन पहले ही बांग्लादेश, नेपाल और पाकिस्तान का सबसे बड़ा व्यापारिक साझीदार है. वो नेपाल और पाकिस्तान का सबसे बड़ा विदेशी निवेशक है. इसके अलावा हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन पहले ही आर्थिक दबाव और ज़ोर-ज़बरदस्ती वाली हैसियत रखता है. भारत व्यापक आर्थिक सुधार करने और अपने विकास की गति सुधारने में जितना अधिक देर लगाएगा, उससे उसके हाथ से जियोइकॉनमिक फ़ायदे उतने ही छिटकते जाएंगे. ऐसे में मुंबई जैसे शहरों के हाथ से, व्यापक हिंद-प्रशांत क्षेत्र में आर्थिक केंद्र के रूप में उभरने का मौक़ा भी निकल जाएगा.
भारत न केवल घरेलू स्तर पर बल्कि हिंद-प्रशांत क्षेत्र में भी उठा-पटक और चुनौती भरे माहौल का सामना कर रहा है. अपने यहां विकास की गति बनाए रखना और लोगों का जीवन स्तर सुधारना तो भारत के लिए ज़रूरी है ही. इस क्षेत्र में अपनी जियोपॉलिटिकल स्थिति सुधारने के लिए, भारत को अपनी घरेलू आर्थिक प्रगति और सुधारों की रफ़्तार को बनाए रखने को प्राथमिकता देना होगा. लंबी अवधि में मुंबई जैसे शहरों का एक क्षेत्रीय आर्थिक केंद्र के रूप में विकसित होना इस बात पर निर्भर करेगा कि भारत कितने गहरे संरचनात्मक आर्थिक सुधार लागू करता है.
भारत व्यापक आर्थिक सुधार करने और अपने विकास की गति सुधारने में जितना अधिक देर लगाएगा, उससे उसके हाथ से जियोइकॉनमिक फ़ायदे उतने ही छिटकते जाएंगे. ऐसे में मुंबई जैसे शहरों के हाथ से, व्यापक हिंद-प्रशांत क्षेत्र में आर्थिक केंद्र के रूप में उभरने का मौक़ा भी निकल जाएगा.
आस-पास के क्षेत्र के विकास के लिए भी भारत कुछ पूरक क़दम उठा सकता है. जैसे कि RCEP में फिर से शामिल होने के लिए वार्ता शुरू करना एक विकल्प हो सकता है. लेकिन, अगर भारत अपने घरेलू आर्थिक विकास की बुनियादें मज़बूत करता है, तो उससे भारत को अभी भी और आगे चलकर भी, अधिक आर्थिक और जियोपॉलिटिकल लाभ होगा. एक ऐसा क्षेत्र जहां आने वाले समय में हालात तेज़ी से बदलने और प्रतिद्वंदिता बढ़ने की आशंका हो, वहां पर भारत के लिए बेहतर यही होगा कि वो अपनी घरेलू स्थिति सुधारने के लिए हर मुमकिन क़दम उठाए.
लेख — कोलाबा एडिट सीरीज़ का हिस्सा है.
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